1. भक्तिकाल की सामान्य प्रवृत्तियों का संक्षिप्त परिचय दें।
अथवा,
दिनकर या नागार्जुन का काव्यात्मक परिचय दें।
उत्तर – भक्तिकाल की निम्नांकित प्रवृत्तियाँ महत्त्वपूर्ण हैं- भक्तिकाल वास्तव में प्रथम भारतीय नवजागरण का काल है। इस काल में सगुण और निर्गुण काव्य की धारा प्रवाहित हुई। निर्गुण ज्ञानाश्रयी शाखा के कवि हों या सगुण रामाश्रयी- कृष्णाश्रयी शाखा के कवि; निर्गुण प्रेमाश्रयी शाखा के कवि हों या निर्गुण-सगुण के समन्वय के कवि – सबने अपने-अपने ढंग से भारतीय लोकजीवन में सांस्कृतिक तथा सामाजिक चेतना जगाने का प्रयास किया। इस क्रम में इस काल में निम्नलिखित सामान्य प्रवृत्तियाँ उभरीं-
1. नाम की महत्ता : निर्गुण तथा सगुण, दोनों प्रकार के भक्त कवियों ने नाम की महत्ता स्वीकार की है।
2. गुरु-महिमा : सगुण और निर्गुण, दोनों प्रकार के भक्त कवियों ने एक स्वर से गुरु की महत्ता प्रतिपादित की है।
3. भक्तिभावना की प्रधानता : भक्तिकाल की चारों धाराओं के भक्त कवियों में भक्तिभावना की प्रधानता मिलती है। सबने भक्ति को सर्वोपरि माना है। भक्ति इष्ट में तन्मय होने की सात्त्विक मनोदशा है। यह मनोदशा सारे भक्त कवियों की रचनाओं में अभिव्यक्त हुई है।
4. अहंकार का त्याग: अहं भक्ति मार्ग की सबसे बड़ी बाधा है। अहं केपरित्याग के बिना भक्ति हो ही नहीं सकती। इस सत्य को सारे भक्त कवियों ने स्वीकार किया है।
5. लोकभाषाओं का प्राधान्य : भक्तिकाल में लोकभाषाओं को अत्यधिक महत्ता प्रदान की गई। सूरदास तथा अन्य कृष्णभक्तों ने लोकप्रचलित ब्रजभाषा को अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। तुलसी ने लोकभाषा अवधी को काव्यभाषा बना दिया।
अथवा,
दिनकर का काव्यात्मक परिचय : राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर जितने बड़े कवि थे उतने ही समर्थ गद्यकार भी। उनके गद्य में उनकी कविता के गुण, ओज- पौरुष, प्रभावपूर्ण वाग्मिता और रूपकधर्मिता आदि उसी सहजता और प्रवाह के साथ मुखरित होते हैं । दिनकर मूलतः कवि हैं। इनकी कविता जीवन, समाज और परिचित परिवेश का साक्षात्मकार कराती है। राष्ट्रकवि दिनकर का जन्म 23 दिसम्बर, 1908 ई० को सिमरिया, जिला मुंगेर, वर्तमान बेगूसराय (बिहार) में एवं इनका देहांत 1974 में हुआ। बी०ए० की शिक्षा पटना विश्वविद्यालय से प्राप्त की। सीतामढ़ी में सब-रजिस्ट्रार के पद पर कार्य किया। 1952 से 1964 तक राज्यसभा के सांसद रहे। 1964-65 में भागलपुर विश्वविद्यालय के कुलपति नियुक्त हुए। 1965 से 1971 तक भारत सरकार के हिन्दी सलाहकार रहे।
उनके प्रथम तीन काव्य-संग्रह रेणुका (1935 ई०), हुंकार (1935 ई०) और रसवन्ती (1940 ई०) उनके आरंभिक आत्ममंथन गुण की रचनाएँ हैं। इसके अतिरिक्त नीलकुसुम इत्यादि काव्य-संग्रह हैं। दिनकर ने काव्य के साथ-साथ गद्य पर भी कलम चलीय है। इनकी गद्यकृतियों में प्रमुख हैं— संस्कृति के चार अध्याय।
नागार्जुन (1911-1998) : नागार्जुन सच्चे अर्थों में प्रगतिवादी कवि हैं। जन-जीवन की पीड़ा, असमानता की व्यथा उनके स्वरों में व्यक्त हुई है। प्रमुखतः यथार्थ का चित्रण व्यंग्य के आधार पर किया है। इनके बिंबों में जहाँ एक ओर प्रगतिवादी विचारधारा है, वहीं दूसरी ओर प्रकृति के रम्य चित्र भी हैं। प्रकृति के चित्रों में ग्रामीण तथा नागरिक दोनों ही प्रकार के चित्र मिलते हैं। किन्तु मार्मिकता वहीं आ पायी है जहाँ कवि ने देश और जनता के प्रति सहानुभूति, उसकी विकृतियों के प्रति आक्रोश व्यक्त किया है।
नागार्जुन की पहचान तात्कालिकता / प्रभावशाली अंकन में है। सामाजिक हलचलों के प्रतिक्रियास्वरूप जो भी भागवत उथल-पुथल होते हैं उनसे निर्मित उनके तात्कालिक मुहावरों को पहचान कर उनको वाणी प्रदान करने की दृष्टि से नागार्जुन अप्रतिम कवि है। नागार्जुन की शैलीगत विशेषता भी यही है कि ये लोकमुख की वाणी बोलना चाहते हैं। इनका देहावसान 5 नवम्बर, 1998 ई० को हुआ।
2. सप्रसंग व्याख्या करें –
(क) आदमी यथार्थ को जीता ही नहीं, यथार्थ को रचता भी है, कैसे ?
अथवा,
“जिस पुरुष में नारीत्व नहीं, अपूर्ण है। “
(ख) मेरा खोया हुआ खिलौना ।
अब तक मेरे पास न आया।
अथवा,
दुनिया के हिस्सों में चारों ओर
जन-जन का युद्ध एक।
उत्तर – (क) “आदमी यथार्थ को जीता ही नहीं, यथार्थ को रचता भी है। ”
अथवा,
“जिस पुरुष में नारीत्व नहीं, अपूर्ण है । “
(ख) आज सभी दिशाएँ पुलकित हैं, सर्वत्र प्रसन्नता छाई हुई है। सारे विश्व में उल्लास का वातावरण है। किन्तु मेरा (कवयित्री) खोया हुआ खिलौना अब तक मुझे प्राप्त नहीं हुआ। अर्थात् कवयित्री के पुत्र का निधन हो गया है। इस प्रकार वह उससे (कवयित्री) छिन गया है। यह उसकी व्यक्तिगत क्षति है। विश्व के अन्य लोग हर्षित हैं। सभी दिशाएँ भी उल्लसित (प्रमुदित) दीख रही हैं। किन्तु कवयित्री ने अपना बेटा खो दिया है। उसकी मृत्यु हो चुकी है। वह उद्विग्न है, शोक विह्वल है। अपनी असंयमित मनोदशा में वह बेटा के वापस आने की प्रतीक्षा करती है और नहीं लौटकर आने पर निराश हो जाती है।
अथवा,
प्रस्तुत सारगर्भित पंक्तियाँ हमारी पाठ्य पुस्तक दिगंत, भाग-2 के “जन-जन का चेहरा एक” शीर्षक कविता से उद्धृत हैं। इस काव्यांश के रचयिता सुप्रसिद्ध कवि मुक्तिबोध हैं। विद्वान कवि ने इन पंक्तियों में संसार की दारुण एवं अराजक स्थिति का चित्रण किया है। इन पंक्तियों में कवि का कथन है कि संपूर्ण विश्व में युद्ध का वातावरण है तथा हर व्यक्ति एक प्रकार से युद्ध में लिप्त है। किन्तु कवि अनुभव करता है कि दुरात्मा, पुण्यात्मा, सज्जन एवं दुर्जन, सभी की आत्मा एकसमान है, पवित्र एवं दोष-रहित है।
3. किन्हीं दो दीर्घ उत्तरीय प्रश्नों के उत्तर दें –
(क) ‘रोज’ कहानी का सारांश लिखें।
अथवा,
‘ओ सदानीरा’ पाठ में आए नौका विहार प्रसंग का वर्णन करें।
(ख) “तुमुल कोलाहल कलह” में कविता का भावार्थ लिखें।
अथवा,
नारी तो हम हूँ करी, तब ना किया विचार।
जब जानी तब परिहरि, नारी महाविकार ।
उपर्युक्त कविता (पंक्तियों) का भावार्थ अपने शब्दों में लिखें।
उत्तर – (क) रोज : ‘रोज’ कथा साहित्य में क्रान्तिकारी परिवर्तन के प्रणेता महान कथाकर सचिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय की सर्वाधिक चर्चित कहानी है। प्रस्तुत कहानी में ‘संबंधों’ की वास्तविकता को एकान्त वैयक्तिक अनुभूतियों से अलग ले जाकर सामाजिक संदर्भ में देखा गया है।
लेखक अपने दूर के रिश्ते की बहन मालती जिसे सखी कहना उचित है, से मिलने अठारह मील पैदल चलकर पहुँचता है। मालती और लेखक का जीवन इकट्ठे खेलने, पिटने, स्वेच्छा एवं स्वच्छंदता तथा भातृत्व के छोटेपन बँधनों से मुक्त बीता था। आज मालती विवाहिता है, एक बच्चे की माँ भी है। वार्तालाप के क्रम में आए उतार-चढ़ाव में लेखक अनुभव करता है कि मालती की आँखों में विचित्र सा भाव है, मानो वह भीतर कहीं कुछ चेष्टा कर रही हो, किसी बीती बात को याद करने की, किसी बिखरे हुए वायुंडल को पुनः जगाकर गतिमान करने की, किसी टूटे हुए व्यवहार तंतु को पुनर्जीवित करने की और चेष्टा में सफल न हो चिर विस्मृत हो गयी हो । मालती रोज कोल्हु के बैल की तरह व्यस्त रहती है।
वातावरण, परिस्थिति और उसके प्रभाव में ढलते हुए एक गृहिणी के चरित्र का मनोवैज्ञानिक उद्घाटन अत्यंत कलात्मक रीति से लेखक यहाँ प्रस्तुत करता है। डॉक्टर पति के काम पर चले जाने के बाद का सारा समय मालती को घर में एकाकी काटना होता है। उसका जीवन उब और उदासी के बीच यंत्रवत् चल रहा है। किसी तरह के मनोविनोद, उल्लास उसके जीवन में नहीं रह गए हैं। जैसे वह अपने जीवन का भार ढोने में ही घुल रही हो ।
इस प्रकार लेखक मध्यवर्गीय भारतीय समाज में घरेलू त्री के जीवन और मनोदशा पर सहानुभूतिपूर्ण मानवीय दृष्टि केन्द्रित करता है। कहानी के गर्भ में अनेक सामाजिक प्रश्न विचारोत्तेजक रूप में पैदा होते हैं।
अथवा,
प्रस्तुत कविता ‘तुमुल कोलाहल कलह में’ शीर्षक कविता में छायावाद के आधार कवि श्री जयशंकर प्रसाद के कोलाहलपूर्ण कलह के उच्च स्वर से व्यथित मन की अभिव्यक्ति है। कवि निराश तथा हतोत्साहित नहीं है।
कवि संसार की वर्तमान स्थिति से क्षुब्ध अवश्य हैं किन्तु उन विषमताओं एवं समस्याओं में भी उन्हें आशा की किरण दृष्टिगोचर होती है। कवि की चेतना विकल होकर नींद के पल को ढूँढ़ने लगती है उस समय वह थकी-सी प्रतीत होती है किन्तु चन्दन की सुगंध से सुवासित शीतल पवन उसे संबल के रूप में सांत्वना एवं स्फूर्ति प्रदान करता है। दुःख में डूबा हुआ अंधकारपूर्ण मन जो निरन्तर विषाद से परिवेष्टित है, प्रात:कालीन खिले हुए पुष्पों के सम्मिलन (सम्पर्क) से उल्लसित हो उठा है। व्यथा का घोर अन्धकार समाप्त हो गया है। कवि जीवन की अनेक बाधाओं एवं विसंगतियों का भुक्तभोगी एवं साक्षी है। कवि अपने कथन की सम्पुष्टि के लिए अनेक प्रतीकों एवं प्रकृति का सहारा लेता है यथा – मरु – ज्वाला, चातकी, घाटियाँ, पवन की प्राचीर, झुलसते विश्व दिन, कुसुम ऋतु, रात, नीरधर, अश्रु – सर मधुप, मरन्द – मुकुलित आदि ।
इस प्रकार कवि ने जीवन के दोनों पक्षों का सूक्ष्म विवेचन किया है। वह अशान्ति, असफलता, अनुपयुक्त तथा अराजकता से विचलित नहीं है ।
(ख) प्रस्तुत कविता ‘तुमुल कोलाहल कलह में’ शीर्षक कविता में छायावाद के आधार कवि श्री जयशंकर प्रसाद के कोलाहलपूर्ण कलह के उच्च स्वर से व्यथित मन की अभिव्यक्ति है। कवि निराश तथा हतोत्साहित नहीं है।
कवि संसार की वर्तमान स्थिति से क्षुब्ध अवश्य हैं किन्तु उन विषमताओं एवं समस्याओं में भी उन्हें आशा की किरण दृष्टिगोचर होती है। कवि की चेतना विकल होकर नींद के पल को ढूँढ़ने लगती है उस समय वह थकी-सी प्रतीत होती है किन्तु चन्दन की सुगंध से सुवासित शीतल पवन उसे संबल के रूप में सांत्वना एवं स्फूर्ति प्रदान करता है। दुःख में डूबा हुआ अंधकारपूर्ण मन जो निरन्तर विषाद से परिवेष्टित है, प्रात:कालीन खिले हुए पुष्पों के सम्मिलन (सम्पर्क) से उल्लसित हो उठा है। व्यथा का घोर अन्धकार समाप्त हो गया है। कवि जीवन की अनेक बाधाओं एवं विसंगतियों का भुक्तभोगी एवं साक्षी है। कवि अपने कथन की सम्पुष्टि के लिए अनेक प्रतीकों एवं प्रकृति का सहारा लेता है यथा – मरु – ज्वाला, चातकी, घाटियाँ, पवन की प्राचीर, झुलसते विश्व दिन, कुसुम ऋतु, रात, नीरधर, अश्रु – सर मधुप, मरन्द – मुकुलित आदि ।
इस प्रकार कवि ने जीवन के दोनों पक्षों का सूक्ष्म विवेचन किया है। वह अशान्ति, असफलता, अनुपयुक्त तथा अराजकता से विचलित नहीं है ।
अथवा,
प्रस्तुत कविता ‘तुमुल कोलाहल कलह में’ शीर्षक कविता में छायावाद के आधार कवि श्री जयशंकर प्रसाद के कोलाहलपूर्ण कलह के उच्च स्वर से व्यथित मन की अभिव्यक्ति है। कवि निराश तथा हतोत्साहित नहीं है।
कवि संसार की वर्तमान स्थिति से क्षुब्ध अवश्य हैं किन्तु उन विषमताओं एवं समस्याओं में भी उन्हें आशा की किरण दृष्टिगोचर होती है। कवि की चेतना विकल होकर नींद के पल को ढूँढ़ने लगती है उस समय वह थकी-सी प्रतीत होती है किन्तु चन्दन की सुगंध से सुवासित शीतल पवन उसे संबल के रूप में सांत्वना एवं स्फूर्ति प्रदान करता है। दुःख में डूबा हुआ अंधकारपूर्ण मन जो निरन्तर विषाद से परिवेष्टित है, प्रात:कालीन खिले हुए पुष्पों के सम्मिलन (सम्पर्क) से उल्लसित हो उठा है। व्यथा का घोर अन्धकार समाप्त हो गया है। कवि जीवन की अनेक बाधाओं एवं विसंगतियों का भुक्तभोगी एवं साक्षी है। कवि अपने कथन की सम्पुष्टि के लिए अनेक प्रतीकों एवं प्रकृति का सहारा लेता है यथा – मरु – ज्वाला, चातकी, घाटियाँ, पवन की प्राचीर, झुलसते विश्व दिन, कुसुम ऋतु, रात, नीरधर, अश्रु – सर मधुप, मरन्द – मुकुलित आदि ।
इस प्रकार कवि ने जीवन के दोनों पक्षों का सूक्ष्म विवेचन किया है। वह अशान्ति, असफलता, अनुपयुक्त तथा अराजकता से विचलित नहीं है ।
4. निम्नलिखित लघु उत्तरीय प्रश्नों के उत्तर दें –
(क) पुरुष जब नारी के गुण लेता है तब वह क्या बन जाता है ?
(ख) विद्यार्थियों को राजनीति में भाग क्यों लेना चाहिए ?
(ग) गाँधीजी के शिक्षा संबंधी आदर्श क्या थे?
(घ) डायरी का लिखा जाना क्यों मुश्किल है ?
(ङ) पुत्र को छौना कहने में क्या भाव छिपा है? उद्घाटित करें।
(च) ‘जन-जन का चेहरा एक’ से कवि का क्या तात्पर्य है ?
उत्तर – (क) पुरुष जब नारी के गुण लेता है तब वह अर्द्धनारीश्वर बन जाता है। अर्द्धनारीश्वर शंकर और पार्वती का कल्पित रूप है जिसमें आधा अंग पुरुष का तथा आधा अंग नारी का होता है। अर्द्धनारीश्वर के माध्यम से यह बताया है कि समाज में स्त्री और पुरुष दोनों का अपना-अपना स्थान और महत्व है।
(ख) विद्यार्थी का मुख्य काम पढ़ाई करना होता है। उन्हें पढ़ाये जाने वाले विषयों को लगन एवं तन्मयता के साथ अध्ययन करना भी चाहिए। यह उनकी प्राथमिकता होती है। अच्छे अंक तथा अच्छी श्रेणी; विद्यार्थी द्वारा विषय के गहन अध्ययन एवं उसकी बुद्धि की प्रखरता पर पूर्णत: निर्भर करते हैं। अतः विद्यार्थी का मुख्य कार्य पढ़ाई करना है तथा अपना ध्यान पूरे मनोयोग से उस ओर लगाना है। किन्तु देश की परिस्थितियों का ज्ञान होना तथा उनके सुधार के उपाय सोचने की योग्यता विकसित करना भी उसके लिए आवश्यक है। इसके बिना इसकी शिक्षा अधूरी रहेगी एवं वांछित लक्ष्य भी प्राप्त नहीं हो सकेंगे। ?
(ग) गाँधीजी ने उन तीनों विद्यालयों में सरकार की शिक्षानीति के आधार पर नपा – तुला पाठ्यक्रम चालू नहीं किया क्योंकि वे पुरानी लीक से हटकर पठन-पाठन की व्यवस्था करना चाहते थे। वह ब्रिटिश सरकार की शिक्षा पद्धति को अनुपयुक्त एवं खौफनाक समझते थे तथा उसे हेय मानते थे। उनके अनुसार छोटे बच्चों के चरित्र और बुद्धि का विकास करने के बजाय यह पद्धति उन्हें बौना बना देती है। उनका मुख्य उद्देश्य यह था कि बच्चे ऐसे पुरुष और महिलाओं के सम्पर्क में आएँ जो सुसंस्कृत और निष्कलुष चरित्र के हों। इसे ही गाँधीजी वस्तुतः शिक्षा मानते थे। उनकी दृष्टि में अक्षर ज्ञान इस उद्देश्य प्राप्ति का एक साधन मात्र है। गाँधीजी का विचार था कि शिक्षा प्राप्त करने के बाद ये बच्चे अपने वंशगत व्यवसायों में लग जायँ तथा स्कूल में प्राप्त शिक्षा का उपयोग खेती तथा अन्य ग्रामीण धन्धों में करें। इसके साथ ही अपने जीवन को परिष्कृत करें। इसी आशय का एक पत्र गाँधीजी ने तत्कालीन अँग्रेज कलक्टर को लिखा था। गाँधीजी का शिक्षा संबंधी आदर्श यही था।
(घ) डायरी का लिखा जाना एक कठिन कार्य है। यह वही व्यक्ति लिख सकता है, जो नियमित एवं संयमित जीवन जीता है। आलसी, लापरवाह, लक्ष्यविहीन, दिशाहीन व्यक्ति डायरी नहीं लिख सकता। इसलिए यह एक मुश्किल काम है। पूरी मानसिक तटस्थता से ही यह कार्य संपादित हो पाता है।
(ङ) ‘छौना’ का अर्थ होता है हिरण आदि पशुओं का बच्चा। ‘पुत्र वियोग’ शीर्षक कविता में कवयित्री ने ‘छौना’ शब्द का प्रयोग अपने बेटा के लिए किया है। हिरण अथवा बाघ का बच्चा बड़ा भोला तथा सुन्दर दीखता है। इसके अतिरिक्त चंचल तथा तेज भी होता है। अतः, कवयित्री द्वारा अपने बेटा को छौना कहने के पीछे यह विशेष अर्थ भी हो सकता है।
(च) “जन-जन का चेहरा एक” अपने में एक विशिष्ट एवं व्यापक अर्थ समेटे हुए है। कवि के कहने का तात्पर्य यह है कि यह जनता दुनिया के समस्त देशों में संघर्ष कर रही है अथवा इस प्रकार कहा जाए कि विश्व के समस्त देश, प्रान्त तथा नगर- सभी स्थान के “जन-जन” (प्रत्येक व्यक्ति) के चेहरे एक समान हैं। उनकी मुखाकृति में किसी प्रकार की भिन्नता नहीं है ।
5. I. सही जोड़े का मिलान करें-
(क) मोहन राकेश (i) अर्द्धनारीश्वर
(ख) जे. कृष्णमूर्ति (ii) ओ सदानीरा
(ग) मुक्तिबोध (iii) जन-जन का चेहरा एक
(घ) जगदीशचन्द्र माथुर (iv) शिक्षा
(ङ) दिनकर (v) सिपाही की माँ।
उत्तर – (क)–(v), (ख)–(iv), (ग)–(iii), (घ)–(ii), (ङ)–(i)
II. निम्नलिखित प्रश्नों के बहुवैकल्पिक उत्तरों में से सही उत्तर बताइए –
(i) ‘लहना’ किस कहानी का पात्र है ?
(क) रोज
(ग) जूठन
(ख)उसने कहा था
(घ)तिरिछ
(ii) ‘एक लेख और एक पत्र’ के लेखक हैं
(क) मोहन राकेश
(ख) नामवर सिंह
(ग) भगत सिंह
(घ) दिनकर
(iii) जयप्रकाश नारायण की रचना है
(क) जूठन
(ख) सम्पूर्ण क्रांति
(ग) बातचीत
(घ) रोज
(iv) ‘बातचीत’ साहित्य की कौन-सी विधा है ?
(क) उपन्यास
(ख) कहानी
(ग) निबंध
(घ) नाटक
(v) ‘अधिनायक’ के रचनाकार हैं
(क) रघुवीर सहाय
(ख) अशोक वाजपेयी
(ग) मलयज
(घ) भरतेन्दु
उत्तर – (i)-(ख), (ii)-(ग), (iii)-(ख), (iv)-(ग) (i)-(क)
III. रिक्त स्थानों की पूर्ति करें –
(क) हट जा, जीणे जोगिए, हट जा, करमा वालिए, हट जा ……… प्यारिए।
(ख) लहना सिंह के भतीजे का नाम ……. था।
(ग) वह तिरिछ है, काले नाग से …….. गुना ज्यादा इसमें जहर होता है।
(घ) जिस पुरुष में नारीत्व नहीं, …… है।
(ङ) फूल मरै पर …… ना बासू ।
उत्तर – (क) पुत्तां, (ख) बजीरा सिंह, (ग) सौ, (घ) अपूर्ण, (ङ) मरै
6. संक्षेपण करें –
अंग्रेजी पढ़ना खराब नहीं हैं, पर अंग्रेजी पढ़कर अंग्रेज हो जाना खराब है। अंग्रेजी पढ़कर अपने देश को, अपनी भाषा को, अपनी संस्कृति को भूल जाना खराब है। इस बात में इसलिए कर रहा हूँ कि आज के अधिकतर अंग्रेजी पढ़े लिखे सज्जन अपने देश के प्रत्येक व्यक्ति को हीन दृष्टि से देखते हैं। उसकी आलोचना करते हैं और उसे अपनाने में अपनी मानहानि समझते हैं। पर्व को ही लीजिए। पढ़े-लिखे लोग कहते हैं कि यह स्त्रियों का ढोंग है। यह पंडितों का पोंगा है। वे कहते हैं, पर्व बेकार हैं। ये फिजूलखर्ची के साधन हैं।
उत्तर – अँगरेजी और भारतीय संस्कृति
अँगरेजी पढ़ना खराब नहीं है, अँगरेजी पढ़कर अपनी भाषा और संस्कृति को भूल जाना खराब है। अँगरेजी पढ़े-लिखे लोग अपने देश की प्रत्येक वस्तु को हेय समझते हैं। यह ठीक नहीं है।
7. निम्नलिखित विषयों में से किसी एक पर निबंध लिखिए –
(क) छात्र और राजनीति
(ख) मेरे प्रिय कवि
(ग) महँगाई
(घ) वसंत ऋतु
(ङ) विज्ञान वरदान या अभिशाप
उत्तर – (क) छात्र और राजनीति
छात्र की जीवन-वृत्ति इस पर निर्भर करती है कि वह विद्यालय में क्या पढ़ता है। छात्र अपनी रुचि के अनुसार विषयों का चयन करते हैं। जो राजनीतिज्ञ बनना चाहते हैं, वे शुरू से ही राजनीति में रुचि लेते हैं। वे विद्यालय एवं महाविद्यालय के चुनावों में हिस्सा लेते हैं। छात्र और राजनीति का संबंध बहुत पुराना रहा है।
विद्या और राजनीति सहोदर हैं। दोनों का पृथक रहना कठिन है। दोनों के स्वभाव भिन हैं, किन्तु लक्ष्य एक है – व्यक्ति और समाज को अधिकाधिक सुख पहुँचाना।
संसार का इतिहास इस बात का साक्षी है कि जब भी किसी राष्ट्र में क्रांति का बिगुल बजा, तो वहाँ के छात्र द्रष्टा मात्र नहीं रहे, अपितु उन्होंने क्रांति के बागडोर संभाली। परतंत्रता काल में स्वातंत्र्य के लिए और वर्तमान काल में भ्रष्टाचारी सरकारों के उन्मूलन के लिए भारत में छात्र शक्ति ने अग्रसर होकर क्रांति का आहवान किया। इंडोनेशिया और ईरान में छात्रों ने सरकार का तख्ता ही उलट दिया था। यूनान की शासन नीति में परिवर्तन का श्रेय छात्र वर्ग को ही है। बंगलादेश को अस्तित्व में लाने में ढाका विश्वविद्यालय के छात्रों का योगदान भुलाया नहीं जा सकता। असम के मुख्यमंत्री तो विद्यार्थी रहते ही मुख्यमंत्री बने थे।
मेधावी छात्र राजनीति को किसी उपयोग का नहीं समझते। जो पढ़ाई में अच्छे नहीं होते, वे राजनीति से जुड़ जाते हैं। ऐसे छात्र बहुत सी समस्याएँ उत्पन्न कर देते हैं। वे अपनी पढ़ाई से भागते हैं और अन्य छात्रों एवं शिक्षकों को परेशान करते हैं। वे हड़ताल पर चले जाते हैं। वे सार्वजनिक संपत्तियों को नुकसान पहुंचाते हैं। उन्हें स्वार्थी नेताओं द्वारा समर्थन किया जाता है। ये नेता युवाओं और छात्रों की शक्ति का दुरुपयोग करते हैं। ऐसे नेताओं से प्रभावित होकर वे गलतियाँ कर बैठते हैं।
छात्र को पढाई खत्म करने के बाद भी जीवन के चौराहे पर किंकर्तव्य-विमूढ़ (परेशान) खड़ा होना पड़ता है। नौकरी उसे मिलती नहीं, हाथ की कारीगरी से वह अनभिज्ञ है। भूखा पेट रोटी माँगता है। वह देखता है, राजनीतिज्ञ बनकर समाज में आदर, सम्मान, प्रतिष्ठा और धन प्राप्त करना सरल है, किन्तु नौकरी पाना कठिन है। ईमानदारी से रोजी कमाना पर्वत के उच्च शिखर पर चढ़ना है तो वह राजनीति में कूद पड़ता है। हमारे देश को युवा और ईमानदार नेताओं की जरूरत है। हमलोग भ्रष्टाचार, धोखाधड़ी, घोटाले, हड़ताल आदि-जैसी समस्याओं का सामना कर रहे हैं। इन सबसे निपटने के लिए हमलोगों को योग्य शासकों की आवश्यकता है। अन्य विषयों की तरह विद्यालयों और महाविद्यालयों में राजनीति भी पढ़ाई जानी चाहिए। लेकिन, ऐसी राजनीति निश्चय ही राष्ट्र हित में होनी चाहिए। इसीलिए समाज को भ्रष्टाचार और अंधविश्वास से मुक्त करने के लिए राजनीति का अध्ययन करना आवश्यक हैं।
(ख) मेरे प्रिय कवि
बहुमुखी प्रतिभा के साहित्यकार सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ छायावाद के अग्रणी कवि हैं। यही मेरे प्रिय कवि एवं साहित्यकार हैं। ओज, पौरुष और विद्रोह के महाकवि हैं ‘निराला’ ।
इनका जन्म बंगाल के महिषादल राज्य के मेदिनीपुर गाँव में 1897 में हुआ था। इनके पिता का नाम पंडित रामसहाय त्रिपाठी था। वह जिला उन्नाव (उत्तर प्रदेश) के निवासी थे। आजीविका के लिए वह बंगाल चले गए थे। ‘निराला’ की प्रारंभिक शिक्षा महिषादल में हुई। इन्होंने घर पर ही संस्कृत, बँगला और अँगरेजी का अध्ययन किया। भाषा और साहित्य के अतिरिक्त इनकी रुचि संगीत और दर्शनशास्त्र में भी थी। ‘गीतिका’ में इनकी संगीत – रुचि का अच्छा प्रमाण मिलता है। ‘तुम और मैं’ कविता में इनकी दार्शनिक विचारधारा अभिव्यक्त हुई है। ‘निराला’ स्वामी रामकृष्ण परमहंस तथा विवेकानंद की दार्शनिक विचारधारा से काफी प्रभावित हुए।
‘निराला’ बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे । कविता के अतिरिक्त इन्होंने उपन्यास, कहानियाँ, निबंध, आलोचना और संस्मरण भी लिखे। इनकी महत्त्वपूर्ण काव्य-रचनाएँ हैं – ‘परिमल’, ‘गीतिका’, ‘तुलसीदास’, ‘अनामिका’, ‘कुकुरमुत्ता’, ‘बेला’, ‘अणिमा’, ‘नए पत्ते’, ‘अर्चना’, ‘अपरा’, ‘आराधना’, ‘गीतकुंज’ तथा ‘सांध्यकाकली’। ‘तुलसीदास’ खण्डकाव्य है। इनके प्रसिद्ध उपन्यास हैं — ‘अप्सरा’, ‘अलका’, ‘प्रभावती’, ‘निरूपमा’, ‘चोटी की पकड़’, ‘काले कारनामे’ और ‘चमेली’। ‘कुल्ली भाट’ और ‘बिल्लेसुर बकरिहा’ इनके प्रसिद्ध रेखाचित्र हैं। इन रेखाचित्रों में जीवन का यथार्थ खुलकर सामने आया है। ‘चतुरी चमार’ और ‘सुकुल की बीबी’ इनकी प्रसिद्ध कहानियाँ हैं। ‘प्रबंध-पद्म’, ‘प्रबंध – प्रतिमा’ एवं ‘कविताकानन’ इनके आलोचनात्मक निबंधों के संग्रह हैं। .
शृंगार, प्रेम, रहस्यवाद, राष्ट्रप्रेम और प्रकृति-वर्णन के अतिरिक्त शोषण के विरुद्ध विद्रोह और . मानव के प्रति सहानुभूति का स्वर भी इनके काव्य में पाया जाता है।
(ग) वसंत ऋतु
ऋतुएँ तो अनेक हैं लेकिन वसंत की संज-धज निराली है। इसीलिए वह ऋतुओं का राजा, शायरों- कवियों का लाड़ला, धरती का धन है। वस्तुत: इस ऋतु में प्रकृति पूरे निखार पर होती है।
वसन्त ऋतु का प्रारंभ वंसत पंचमी से ही मान लिया गया है, लेकिन चैत और बैशाख ही वसन्त ऋतु के महीने हैं। वसन्त ऋतु का समय समशीतोष्ण जलवायु का होता है। चिल्ला जाड़ा और शरीर को झुलसाने वाली गर्मी के बीच वसन्त का समय होता है। वसन्त के आगमन के साथ ही प्रकृति अपना शृंगार करने लगती है। लताएँ मचलने लगती हैं और वृक्ष फूलों-फलों से लद जाते हैं। दक्षिण दिशा से आती मदमाती बयार बहने लगती है। आम की मँजरियों की सुगन्ध वायुमंडल को सुगन्धित कर देती है। मस्त कोयल बागों में कूकने लगती है। सरसों के पीले फूल खिल उठते हैं और उनकी भीनी-भीनी तैलाक्त गन्ध सर्वत्र छा जाती हैं। तन-मन में मस्ती भर जाती है। हिन्दी, संस्कृत तथा अंग्रेज कवियों ने वसंत का मनोरम वर्णन किया है। कालिदास, वर्ड्सवर्थ, पंत, दिनकर का वसंत-वर्णन पढ़कर किसका मन आनादित नहीं होता?
स्वास्थ्य की दृष्टि से भी वसन्त ऋतु का महत्त्व बहुत अधिक है। न अधिक जाड़ा पड़ता है, न गर्मी । गुलाबी जाड़ा, गुलाबी धूप। जो मनुष्य आहार-विहार को संयमित रखता है, उसे वर्षभर किसी प्रकार का रोग नहीं होता है। इस ऋतु में शरीर में नये खून का संचार होता है। वात और पित्त का प्रकोप भी शांत हो जाता है। इस प्रकार, इस ऋतु में स्वास्थ्य और शारीरिक सौंदर्य की भी वृद्धि होती है।
सबसे बड़ी बात तो यह होती है कि इस समय फसल खेतों से कटकर खलिहानों में आ जाती है। लोग निश्चित हो जाते हैं और यह निश्चितता उन्हें खुशी से भर देती है। लोग ढोल-झाल लेकर बैठ जाते हैं होली के गीत उनके गले से निकलकर हवा में तैरने लगते हैं- होली खेलत नन्दलाल, बिरज में… होली खेलत नन्दलाल ।
वसंत उमंग, आनन्द, काव्य, संगीत और सौंदर्य की ऋतु है। यह स्नेह और सौंदर्य का पाठ पढ़ाता है। यही कारण है कि सारी दुनिया में वसन्त की व्याकुलता से प्रतीक्षा होती है।
(घ) महँगाई
कमरतोड़ महँगाई का सवाल आज के मानव की अनेकानेक समस्याओं में अहम् बन गया है। पिछले कई सालों से उपभोक्ता वस्तुओं की कीमतें आसमान छू रही हैं।
हमारा भारत एक विकासशील देश है और इस प्रकार की अर्थव्यवस्था वाले देशों में औद्योगीकरण या विभिन्न योजनाओं आदि के चलते मुद्रास्फीति तो होती ही है, किन्तु आज वस्तुओं की मूल्य सीमा में निरन्तर वृद्धि और जन-जीवन अस्त- व्यस्त होता दीख रहा है। अब तो सरकार भी जनता का विश्वास खोती जा रही है। लोग यह कहते पाए जाते हैं कि सरकार का शासन – तंत्र भ्रष्ट हो चुका है, जिसके कारण जनता बेईमानी, नौकरशाही तथा मुनाफाखोरी की चक्कियों तले पिस रही है। स्थिति विस्फोटक बन गई है।
यह महँगाई स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद लगातार बढ़ी है। यह भी सत्य है कि हमारी राष्ट्रीय आय बढ़ी है और लोगों की आवश्यकताएँ भी बढ़ी हैं। हम आरामतलब और नाना प्रकार के दुर्व्यसनों के आदी भी हुए हैं। जनसंख्या में भी उत्तरोत्तर वृद्धि हुई है।
हमारी सरकार द्वारा निर्धारित कोटा-परमिट की पद्धति ने दलालों के नये वर्ग को जन्म दिया है और इसी परिपाटी ने विक्रेता तथा उपभोक्ता में संचय की प्रवृत्ति उत्पन्न कर दी है। प्रशासन के अधिकारी दुकानदारों को कालाबाजारी करने देने के बदले घूस तथा उद्योगपतियों को अनियमितता की छूट देने हेतु राजनीतिक पार्टियाँ घूस तथा चन्दा वसूलती हैं।
महँगाई ने विभिन्न वर्गों के कर्मचारियों को हड़ताल – आन्दोलन करने के लिए भी बढ़ावा दिया है जिससे काम नहीं करने पर भी कर्मचारियों को वेतन देना पड़ता है, जिससे उत्पादन में गिरावट और तैयार माल की लागत में बढ़ोत्तरी होती है।
महँगाई की समस्या का अन्त सम्भव हो तो कैसे, यह विचारणीय विषय है। सरकार वस्तुओं की कीमतों पर अंकुश लगाए, भ्रष्ट व्यक्तियों हेतु दण्ड-व्यवस्था को कठोर बनाए एवं व्यापारी-वर्ग को कीमतें नहीं बढ़ाने को बाध्य करे। साथ ही, देशवासी भी मनोयोगपूर्वक राष्ट्र का उत्पादन बढ़ाने में योगदान करें और पदाधिकारी उपभोक्ता-वस्तुओं की वितरण व्यवस्था पर नियंत्रण रखें। तात्पर्य यह है कि इस कमरतोड़ महँगाई के पिशाच को जनता, पूँजीपति और सरकार के सम्मिलित प्रयास से ही नियंत्रण में किया जा सकता है l
8. संक्षिप्त पत्र लिखिए –
निर्धन छात्रकोष से सहायता हेतु अपने प्रधानाचार्य/प्राचार्य के पास आवेदन पत्र लिखिए।
अथवा,
स्थानीय समाचार पत्र के माध्यम से अपने शिक्षा मंत्री का ध्यान परीक्षा में होने वाली अनियमिताओं की ओर आकृष्ट करें।
उत्तर –
सेवा में,
प्रधानाध्यापक,
पाटलीपुत्रा उच्चत्तर स्कूल, पटना !
द्वारा : वर्गाध्यापक महोदय
महाशय,
सविनय निवेदन है कि मैं आपके स्कूल में बारहवें वर्ग का एक गरीब विद्यार्थी हूँ। मेरे पिताजी एक प्राइवेट दुकान के कर्मचारी हैं, उनकी मासिक आमदनी बहुत कम है। मेरी शिक्षा का व्यय नहीं जुटा सकते। इसी कारण यहाँ मेरी पूरी फीस माफ कर दें ।
मैं पुस्तकें भी नहीं खरीद सकता हूँ। अतः आपसे अनुरोध करता हूँ कि दीन छात्र कोष से मुझे पाँच सौ रुपये का अनुदान पुस्तक खरीदने के लिए दिया जाए।
इस दयापूर्ण कार्य के लिए मैं हमेशा आपका कृतज्ञ रहूँगा।
आपका आज्ञाकारी शिष्य
विवेक कुमार
अथवा,
सेवा में,
माननीय सम्पादक महोदय,
‘दैनिक जागरण’ पटना।
विषय : परीक्षा में होने वाली अनियमितताओं की ओर शिक्षा मंत्री का ध्यान आकृष्ट सुव्यवस्था के लिए एक विनम्र सुझाव |
महाशय,
इस पत्र में वर्णित तथ्यों की ओर मैं आपके लोकप्रिय दैनिक के माध्यम से शिक्षा मंत्री का ध्यान आकृष्ट करना चाहता हूँ कि इस साल बिहार विद्यालय परीक्षा सीमिति के द्वारा मैट्रिक की परीक्षा होनेवाली है। ऐसा संभव है कि बहुत बड़ी संख्या में विद्यार्थियों के परीक्षा में शामिल होने के कारण परीक्षा में अनेक तरह की अस्त-व्यवस्तता हो जाय जिस कारण परीक्षा सुचारू रूप से संपन्न नहीं हो सके। अत: परीक्षा में किसी भी प्रकार की अनियमितता या अव्यवस्था नहीं हो, इसके लिए पूर्व से ही सुनियोजित तरीके से परीक्षा केन्द्रों पर शांति बहाली की व्यवस्था की जाय।
इस प्रकार, पुलिस दल एवं शिक्षकों के साथ-साथ छात्र-छात्राओं की मानसिक स्थिति का भी ध्यान रखते हुए परीक्षा केन्द्रों पर उचित सुव्यवस्था की जाय ताकि किसी प्रकार की अराजक स्थिति पैदा नहीं हो सके।
आपका प्रार्थी
गोविन्द
9. (क) किन्हीं पाँच के विग्रह कर समास बताइए-
पावक, भावुक, नदीश, व्यर्थ, संतोष, दुर्जय, संस्कृत, हिमालय
(ख) किन्हीं पाँच के संधि-विच्छेद करें –
युधिष्ठिर, चौराहा, पुरुषोत्तम, गौरीशंकर, रात-दिन, राजकन्या, लम्बोदर, आजन्म
(ग) वाक्य प्रयोग द्वारा किन्हीं पाँच के लिंग – निर्णय करें –
चाय, परीक्षा, भेंट, पीतल, याचना, रात, बादल, बर्फ
(घ) किन्हीं पाँच के दो-दो पर्यायवाची शब्द लिखें –
चन्द्रमा, हाथी, कमल, नारी, समुद्र, पत्नी, रात, नर
(ङ) संधि और समास में अंतर स्पष्ट करें।
(च) किन्हीं पाँच मुहावरों के वाक्य-प्रयोग द्वारा अर्थ स्पष्ट करें
(i) अंधे की लकड़ी होना
(ii) घड़ों पानी पड़ना
(iii) दाल न गलना
(iv) पट्टी पढ़ाना
(v) मुट्ठी गर्म करना
(vi) नाक का बाल होना
(vii) खाक छानना
(viii) कलेजा फटना
उत्तर –
(ङ) संधि और समास में अन्तर -संधि में दो वर्णों का योग होता है और समास में दो पदों का योग होता है। संधि में दोनों वर्ण भिन्न होते हैं। अतः संधि होने पर दो वर्णों के संयोग से दोनों पद भी मिल जाते हैं। इस प्रकार समास वाले पदों में संधि और संधि वाले पदों में समास हो सकता है। जैसे – “पीताम्बर” में दो पद हैं— ‘पीत’ और ‘अम्बर’ । संधि करने पर ‘पीत + अम्बर’ = पीताम्बर और समास करने पर पीत है जो अम्बर = पीताम्बर होगा ।
विशेष : संधि केवल तत्सम शब्दों में होती है। परन्तु समास हिन्दी शब्दों में भी होता है। अतः हिन्दी शब्दों में समास करते समय संधि की आवश्यकता नहीं पड़ती है। संधि में वर्णों के तोड़ने की क्रिया को विच्छेद कहते हैं और समास में पदों के तोड़ने की क्रिया को विग्रह कहते हैं।
(च) (i) अंधे की लकड़ी होना (एकमात्र सहारा होना ) – एकलौते पुत्र की मृत्यु ने उस अंधे की – लकड़ी ही छीन ली।
(ii) घड़ों पानी पड़ना (लज्जित होना) – भरी सभा पर घड़ों पानी पड़ गया। भरी सभा में बेटे की शिकायत सुनकर पिता के माथे
(iii) दाल न गलना (सफल न होना) – चोर ने अनेक चालें चलीं, परन्तु पुलिस के सामने उसकी एक दाल न गली ।
(iv) पट्टी पढ़ाना (किसी के मन को वश में कर लेना) – तुमने उस लड़के को कैसी पट्टी पढ़ा दी गई कि वह किसी की कुछ सुनता ही नहीं ।
(v) मुट्ठी गरम करना (रिश्वत देना) – बिना मुट्ठी गर्म किए आजकल कोई सरकारी काम नहीं होती।
(vi) नाक का बाल होना (प्रिय होना) • सुमन अपने बाप का नाक का बाल है।
(vii) खाक छानना (भटकना) – नौकरी की खोज में वह दर-दर की खाक छान रहा
(viii) कलेजा फटना (बहुत दुःख होना) – पति की मृत्यु का समाचार सुनकर पत्नी का कलेजा फट गया।
1. किन्हीं दो दीर्घ उत्तरीय प्रश्नों के उत्तर दें –
(क) ‘उसने कहा था’ कहानी का सारांश लिखें।
अथवा,
(ख) ‘पुत्र वियोग’ कविता का भावार्थ लिखें।
नामवर रचित ‘प्रगीत और समाज’ निबंध की विवेचना करें।
अथवा,
‘उषा’ शीर्षक कविता के भावार्थ को स्पष्ट करें।
उत्तर – (क) प्रस्तुत कहानी ‘उसने कहा था ‘ ब्रिटिश सेना में कार्यरत एक फौजी की कहानी है। ब्रिटिश फौज की सिक्ख रेजीमेंट के एक जमादार लहना सिंह के अपूर्व शौर्य, एक सैनिक की महत्त्वाकांक्षा एवं मनोदशा की सफल अभिव्यक्ति है यह कहानी। अदम्य साहस का इस कहानी में पं० चन्द्रधर शर्मा गुलेरी ने सजीव चित्रण किया है। बारह वर्ष की आयु में (किशोरावस्था) लहना सिंह अपने मामा के यहाँ आया था। उसकी भेंट एक आठ वर्ष की बालिका से एक दुकान पर होती है। वह भी अपने मामा के घर आई हुई थी। इस बीच उसकी मुलाकात उस लड़की से प्राय: बाजार में हो जाया करती थी। वह उससे पूछ बैठता था कि उसकी शादी पक्की हो गई। उत्तर में लड़की शरमाकर धत् कहकर चली जाती थी । एक दिन उसके पूछने पर उस लड़की ने कहा कि कल ( एक दिन पहले) उसकी सगाई हो गई है। यह सुनकर वह काफी उद्विग्न हो उठा। कालान्तर में लहना सिंह ब्रिटिश फौज के सिक्ख रेजीमेन्ट में भरती हो गया। बीच में वह छुट्टी लेकर घर आया हुआ था। लड़ाई पर जाते समय वह सूबेदार हजारा सिंह के घर पर रुका। सूबेदार की पत्नी पर दृष्टि जाते ही वह स्तम्भित रह गया। सूबेदार की पत्नी वही . बालिका थी जिसपर वह अपने ननिहाल में आसक्त हो गया था। सूबेदार की पत्नी ने उससे आग्रह किया कि उसके पति एवं एकमात्र पुत्र जो सिक्ख रेजिमेंट में कार्यरत हैं, उनकी सुरक्षा का विशेष ध्यान रखेगा। युद्ध क्षेत्र में ‘लहना सिंह’ ने अद्वितीय शौर्य का परिचय दिया। शत्रुओं की जर्मन सेना के आक्रमण को निष्फल कर दिया एवं अपने साथियों के सहयोग से बड़ी संख्या में उन्हें मार गिराया। हताहत किया। किन्तु स्वयं भी गंभीर रूप से घायल हो गया। सूबेदार को भी गोली लगी थी। डॉक्टरों की राहत टीम के आने पर जमादार ने स्वयं न जाकर सूबेदार एवं अन्य लोगों को गाड़ी पर भिजवा दिया। वह आत्म-संतोष से गर्वित था। उसने सूबेदार की पत्नी द्वारा किए गए आग्रह एवं दिए गए वचन का पूरी तरह पालन किया । अन्ततः उसका प्राणांत हो गया। किन्तु उसके मुखारबिन्द पर गौरव, स्वाभिमान तथा आत्मोत्सर्ग का भाव स्पष्ट दीख रहा था । गुलेरी ने कहानी का शीर्षक सर्वथा उपयुक्त एवं सार्थक दिया है, क्योंकि सूबेदार की पत्नी ने अपने पति एवं पुत्र की सुरक्षा करने के लिए उससे कहा था l
अथवा,
समाज कविता को प्रभावित करता है, कविता पर समाज का दबाव तीव्रता से दिखाई पड़ रहा है। कविताओं की सामाजिक सार्थकता ढूँढ़ने में आलोचना भी व्यस्त है। लेखक विशेष रूप से उन कविताओं की ओर ध्यान आकृष्ट कराने को उत्सुक है, जो स्पष्टतः सामाजिक न होते हुए भी अपनी वैयक्तिकता और आत्मपरकता के कारण ‘लिरिक’ अथवा ‘प्रगीत’ काव्य की कोटि में आती है। प्रगीतधर्मी कविताएँ न तो सामाजिक यथार्थ की अभिव्यक्ति के लिए पर्याप्त समझी जाती हैं न उनसे इसकी अपेक्षा की जाती है। इसका कारण सामान्यतः उसका नितांत वैयक्तिक और आत्मपरक अनुभूतियों की मात्र अभिव्यक्ति होना है।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के काव्य सिद्धान्त के आदर्श भी प्रबंध काव्य ही थे । आधुनिक कविता से उन्हें शिकायत थी। इसका कारण काव्य में जीवन की अनेक परिस्थितियों की ओर से ले जानेवाले प्रसंगों या आख्यानों की उद्भावन बन्द सी हो गई। लेखक की मान्यता है कि ‘मुक्तिबोध’ की प्रगीत काव्य-शैली द्वारा एक ऐतिहासिक परिवर्तन काव्य-रचना में परिलक्षित होता है। लेखक मुक्तिबोध के काव्य से परिचित हुआ । उनकी कविताएँ अपने रचना- विन्यास में प्रगतिधर्मी हैं।
बीसवीं सदी में प्रगीतात्मकता का दूसरा उन्मेष रोमांटिक उत्थान के साथ हुआ जिसका संबंध भारत के मुक्ति-संघर्ष से है। भक्तिकाव्य से भिन्न इस रोमांटिक प्रगीतात्मकता के मूल में एक नया व्यक्तिवाद है, जहाँ समाज के बहिष्कार के द्वारा ही व्यक्ति अपनी सामाजिकता प्रमाणित करता है ।
आलोचक कवि शमशेर की एक कविता की चर्चा करते हुए कहता है कि वे कभी अन्दर से एकदम बाहर निकल कर जनता के पास चले जाते थे अर्थात् तब उनकी कविता नितान्त सामाजिक बन जाती थी तथा जिस हद तक हो जाती थी, उस हद तक प्रगीतात्मकता से ही नहीं बल्कि कवित्व से वंचित हो जाती थी। आलोचक पिछले कुछ वर्षों से हिन्दी कविता के वातावरण में कुछ परिवर्तन परिलक्षित कर रहे हैं। यह कविता की पुनः प्रतिष्ठा, प्रत्यभिज्ञान अथवा प्रत्याश्वस्ति जैसा कुछ है, नई प्रगीतात्मकता का उभार है। नई कविताओं में लम्बी कविताओं के साथ-साथ छोटी कविताओं का प्रचलन भी बड़ा है। आलोचक का कहना है कि “मित्त कथन में अतिकथन से अधिक शक्ति होती है” यह उक्ति इन छोटी कविताओं की रचनाओं से सत्य प्रमाणित हो रही है।
(ख) अपने पुत्र के असामयिक निधन के बाद माँ द्वारा व्यक्त की हुई उसके अन्तर की व्यथा का इस कविता ” पुत्र वियोग” में सफल निरूपण हुआ है। कवयित्री माँ अपने पुत्र वियोग में अत्यन्त भावुक हो उठती है। उसकी अन्तर्चेतना को पुत्र का अचानक बिछोह झकझोर देता है। प्रस्तुत कवित में पुत्र के अप्रत्याशित रूप से असमय निधन से माँ के हृदय में व्यापक संताप का हृदय विदारक चित्रण है ।
कवयित्री अपने पुत्र के असामयिक निधन से अत्यन्त विकल है। उसे लगता है कि उसका प्रिय खिलौना खो गया है। उसने अपने बेटे के लिए सब प्रकार के कष्ट उठाए, पीड़ाएँ झेलीं। उसे कुछ हो न जाय, इसलिए हमेशा उसे गोद में लिए रहती थी। उसे सुलाने के लिए लोरियाँ गाकर तथा थपकी देकर सुलाया करती थी। मंदिर में पूजा-अर्चना किया, मिन्नतें माँगी, फिर भी वह अपने बेटे को काल के गाल से नहीं बचा सकी। वह विवश है। नियति के आगे किसी का वश नहीं चलता। कवयित्री की एकमात्र इच्छा यही है कि पलभर के लिए भी उसका बेटा उसके पास आ जाए अथवा कोई व्यक्ति उसे लाकर उससे मिला दे।
उपरोक्त कविता सुभद्राजी के प्रतिनिधि काव्य संकलन ‘मुकुल’ से ली गई। प्रस्तुत कविता ‘पुत्र वियोग’ कवयित्री माँ के द्वारा लिखी गई है तथा निराला की ‘सरोज स्मृति’ के बाद हिन्दी में एक दूसरा “शोकगीत” है।
पुत्र के असमय निधन के बाद सड़पते रह गए माँ के हृदय के दारूण शोक की ऐसी सादगी भरी अभिव्यक्ति है जो निवैयक्तिक और सार्वभौम होकर अमिट रूप में काव्यत्व अर्जित कर लेती है। उसमें एक माँ के विषादमय शोक का एक साथ धीरे-धीरे गहराता और ऊपर-ऊपर आरोहण करता हुआ भाव उत्कटता अर्जित करता जाता है तथा कविता के अंतिम छंद में पारिवारिक रिश्तों के बीच माँ-बेटे के संबंध की एक विलक्षण आत्म-प्रतीति में स्थायी परिणति पाता है।
अथवा,
‘उषा’ शीर्षक कविता में शमशेर बहादुर सिंह ने बिंबों द्वारा उषा का गतिशील चित्रण प्रस्तुत किया है। कवि ने एक प्रभाववादी चित्रकार की तरह उषाकालीन सौंदर्य का चित्रण किया है। कवि ने जिस ‘उषा’ के सौंदर्य का वर्णन किया है उसमें ‘प्रात’ और ‘भोर’ के सौंदर्य का समन्वय है। कवि के अनुसार (कविता में वर्णन के अनुसार) सूर्योदय होने के पूर्व ‘प्रात’ और ‘भोर’ के समन्वित सौंदर्य में अपूर्व जादू और मोहकता होती है। सूर्योदय होने के पूर्व उजास के फैलने के अनेक स्तर होते हैं जो परिवर्तित रंगों के वैविध्य में गतिशील होते हैं ।
शमशेर बहादुर सिंह कहते हैं कि प्रातः कालीन आकाश नीले शंख के समान शोभायमान था। कुछ क्षण बाद नभ (आकाश) का नीला रंग राख के रंग में परिणत हो गया। आकाश राख से लीपे गए गीले चौके की तरह प्रतिभासित होने लगा। कुछ देर तक आकाश में राख का रंग छाया रहा और फिर वह पीलापन लिए हुए लाल रंग में (केसरिया रंग में) परिणत हो गया। वह रंग ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो काली सिल को लाल केसर से धो दिया गया हो। उसमें लालिमा और पीलापन का संयोग था और अभी वह केवल लालिमा से पुत गया। लगता था जैसे बाल अरुण (बाल रवि) अब रात्रि के अंधकार को हटाकर उदित होनेवाले हों। आकाश में घटित इस रंग परिवर्तन के संबंध में कवि कहता है मानो किसी ने स्लेट पर लाल खड़िया चरक मल दी हो। लाल रंग धीरे-धीरे गहरे पीले रंग में बदलने लगा। इस रंग परिवर्तन को देखकर कवि कल्पना करता है कि जैसे नीले जल में किसी की गौर (गोरी) झिलमिलाती देह हिल रही हो ।
2. निम्नलिखित लघु उत्तरीय प्रश्नों के उत्तर दें –
(क) लहना सिंह के प्रेम के बारे में लिखिए।
(ख) ‘तिरिछ’ किसका प्रतीक है?
(ग) तुलसी की भूख किस वस्तु की है ?
(घ) ‘पुंडलीक’ जी कौन थे?
(ङ) ‘हरिचरण’ को हरचरना क्यों कहा गया है?
(च) ‘अधिनायक’ का क्या अर्थ है ?
उत्तर – (क) कहानी अमृतसर के भीड़-भरे बाजार से शुरू होती है, जहाँ बारह बरस का लड़का (लहना सिंह) आठ वर्ष की एक लड़की को ताँगे के नीचे आने से बचाता है। लड़का लड़की को यह पूछते हुए छेड़ता हैगतेरी कुड़माई (मंगनी) हो गई है, लड़की धत् कहकर भाग जाती है किन्तु एक दिन धत् कहने के बजाय कहती है— “हाँ कल ही हो गई। देखते नहीं यह रेशम के फूलों वाला शालू।” लहना सिंह हतप्रभ रह जाता है। कहानी आगे बढ़ती है। लहना फौज में भर्ती है। लड़की का विवाह सेना के सूबेदार से हो जाता है तथा लहना सिंह को इसकी जानकारी होती है। सूबेदारिन सेना में भरती अपने एकमात्र पुत्र बोधा सिंह एवं पति सूबेदार हजारा सिंह की युद्ध में रक्षा का वचन लहना सिंह से लेती है। लहना सिंह ने युद्ध में अपने प्राणों की बलि देकर उनलोगों की रक्षा की। यही उसका वास्तविक प्रेम था।
(ख) ‘तिरिछ’ एक विषैला और भयानक जन्तु है। इसके काटने पर मनुष्य इसके विष के प्रभाव से बच नहीं पाता है। ठीक उस जंतु ‘तिरिछ’ के समान ही हमारे समाज में भी विषैले ‘तिरिछ’ रूपी मनुष्य हैं जिनके दुर्व्यवहार से कोई बच नहीं सकता। वे भी भयानक एवं खतरनाक होते हैं। उनके विष-बाण से बचना मुश्किल होता है।
(ग) तुलसीजी गरीबों के त्राता भगवान श्रीराम से कहते हैं कि हे प्रभो, मैं आपकी भक्ति का भूखा जनम-जनम से हूँ। मुझे भक्तिरूपी अमृत का पान कराकर क्षुधा की तृप्ति कराइए ।
(घ) पुंडलीक जी को महात्मा गाँधी ने भितिहरवा में रहकर बच्चों को पढ़ाने के लिए भेजा था। उन्हें दूसरा कार्य यह सौंपा गया था कि ग्रामवासियों के दिल से भय दूर करें। उन्हें ग्रामवासियों के हृदय में नई आशा तथा सुरक्षा का भाव जागृत करना था। अंगरेज सरकार ने उन्हें जिले से निलंबित कर दिया लेकिन फिर भी वह हर दो तीन साल में अपने पुराने स्थान को देखने आ जाते थे । लेखक की मुलाकात संयोग से पुंडलीक जी से भितहरवा आश्रम में हुई। वह उनके व्यक्तित्व से काफी प्रभावित हुए।
(ङ) ‘हरचरना’ हरिचरण का तद्भव रूप है। कवि रघुवीर सहाय ने अपनी कविता ‘अधिनायक’ में ‘हरचरना’ शब्द का प्रयोग किया है, ‘हरिचरण’ नहीं । यहाँ कवि ने लोक संस्कृति की पूर्ण अभिव्यक्ति के लिए ठेठ तद्भव शब्द का प्रयोग किया है। इससे कविता की लोकप्रियता बढ़ती है। कविता में लोच एवं उसे सरल बनाने हेतु ठेठ तद्भव शब्दों का प्रयोग किया जाता है।
(च) कवि के अनुसार ‘अधिनायक- आज बदले हुए तानाशाह हैं। वे राजसी ठाट-बाट में रहते हैं। उनका रोब-दाब एवं तामझाम भड़कीला है। वे ही अपना गुणगान आम जनता से करवाते हैं। आज उनकी पहचान जनप्रतिनिधि की जगह ‘अधिनायक- अर्थात् तानाशाह की पहचान बन गई है।
3. संक्षिप्त पत्र लिखिए –
महाविद्यालय छोड़ने का प्रामाणपत्र हेतु प्रधानाचार्य के पास आवेदन पत्र लिखें।
अथवा,
बाढ़ की समस्या से निजात के लिए मुख्यमंत्री के नाम एक पत्र लिखें।
उत्तर –
सेवा में.
प्रधानाध्यापक
बी. एन. कॉलेजियट उच्च विद्यालय, पटना
विषय : विद्यालय परित्याग प्रमाण-पत्र के लिए प्रार्थना पत्र ।
महाशय,
सविनय निवेदन यह है कि मेरे पिताजी की बदली मुजफ्फरपुर हो गई है। इसलिए यहाँ पर अपनी पढ़ाई जारी रखना मेरे लिए असंभव है। .
अतः मैं अनुरोध करता हूँ कि मुझे स्थानांतर के लिए प्रमाण-पत्र दे दिया जाए ताकि मैं मुजफ्फरपुर जिला स्कूल में भरती हो सकूँ।
आपका आज्ञाकारी छात्र
मनोज प्रसाद
अथवा,
सेवा में,
श्रीयुत मुख्यमंत्री महोदय
बिहार राज्य, पटना
विषय : बाढ़ की समस्या से निजात हेतु प्रार्थना पत्र ।
महोदय,
निवेदन है कि मैं बिहार राज्य के कोसी प्रमंडल के पूर्णिया जिला का निवासी हूँ, मेरे जिले में प्रत्येक साल बाढ़ आ जाती है, जिससे लाखों की जानमाल का नुकसान हो जाता है। हर साल बाढ़ में रेल लाइन एवं सड़क टूट जाती है, मनुष्य एवं सभी जीव-जन्तु बेघर हो जाते हैं। लाखों के खड़ी फसल बर्बाद हो जाती है।
अतः श्रीमान् से निवेदन है कि इस समस्या पर विशेष ध्यान देकर निजात दिलाने की कृपा करें इसके लिए हम सभी प्रमंडलवासी आपका आभारी रहेंगे।
भवदीय
रवि प्रियदर्शी
4. (क) किन्हीं पाँच के विग्रह कर समास बताइए –
गजानन, गंगा-यमुना, त्रिभुज, यथाशक्ति, चक्रपाणि, आजन्म, पाप-पुण्य, पीताम्बर
(ख) किन्हीं पाँच के संधि विच्छेद करें
संसार, संयोग, पवित्र, दिग्गज, पवन, यशोदा, महर्षि, उच्चारण
(ग) वाक्य प्रयोग द्वारा किन्हीं पाँच के लिंग निर्णय करें
आय, प्रार्थना, चुनाव, लू, जी, छत, दंगा, दही
(घ) किन्हीं पाँच के दो-दो पर्यायवाची शब्द लिखें
अग्नि, सरस्वती, गणेश, अमृत, आँख, किताब, हवा, जल
(ङ) उपसर्ग और प्रत्यय में अंतर स्पष्ट करें।
(च) किन्हीं पाँच मुहावरों के वाक्य-प्रयोग द्वारा अर्थ स्पष्ट करें
(i) नौ दो ग्यारह होना
(ii) मुँह काला करना
(iii) किताब का कीड़ा होना
(iv) खून-पसीना एक करना
(v) हाथ मलना
(vi) सिर चढ़ाना
(vii) नाक कट जाना
(viii) श्री गणेश करना
उत्तर –
(क) शब्द विग्रह समास
गजानन – गज के समान जिसका आनन (गणेश) – बहुव्रीहि
गंगा-यमुना – गंगा और यमुना – द्वन्द्व
त्रिभुज – तीन भुजाओं का समाहार – द्विगु
यथाशक्ति – शक्ति के अनुसार – अव्ययीभाव
चक्रपाणि – चक्र है जिसके हाथ में (विष्णु) – बहुव्रीहि
आजन्म – जन्म भर – अव्ययीभाव
पाप-पुण्य – पाप और पुण्य – द्वंद्व
पीताम्बर – पीत है अंबर जिसका (विष्णु) – बहुव्रीहि
(ख) संसार = सम् + सार संयोग = सम् + योग
पवित्र = पौ + इत्र दिग्गज = दिक् + गज
पवन = पौ + अन यशोदा = यश: + दा
महर्षि = महा + ऋषि उच्चारण = उत् + चारण
(ग) आय (स्त्री०) – आपकी आय अच्छी है।
प्रार्थना (स्त्री०) – भगवान की प्रार्थना बेकार नहीं जाती।
चुनाव (पु.) – आम चुनाव समाप्त हो गया।
लू (स्त्री०) – दोपहर में तीखी लू चल रही थी।
जी (पु.) – उसका जी ऐंठ रहा था।
छत (पु.) – मकान की छत गिर गई।
दंगा (पु.) – राँची में दंगा हो रहा है।
दही (पु.) – दही खट्टा है।
(घ) अग्नि – आग, अनल
सरस्वती – शारदा, वीणापाणी
गणेश – लम्बोदर, गजानन
अमृत – सुधा, पीयूस
आँख – नयन, नेत्र
किताब – पुस्तक, ग्रंथ
हवा – वायु, समीर
जल – पानी, नीर
(ङ) उपसर्ग और प्रत्यय में अंतर : ‘उपसर्ग’ उस शब्दांश या अव्यय को कहा जाता है, जो किसी शब्द के पहले आकर उसका विशेष अर्थ प्रकट करता है। यह दो शब्दों (उपे + सर्ग) के योग से बना है। ‘उ’ का अर्थ ‘समीप’, ‘निकट’ या ‘पास में’ है। ‘सर्ग’ का अर्थ है सृष्टि करना । ‘उपसर्ग’ का अर्थ है पास में बैठकर दूसरा नया अर्थवाला शब्द बनाना । ‘हार’ के पहले ‘प्र’ उपसर्ग लगा दिया गया तो एक नया शब्द ‘प्रहार’ बन गया, जिसका नया अर्थ हुआ ‘मारना’ ।
प्रत्यय – शब्दों के बाद जो अक्षर या अक्षरसमूह लगाया जाता है, उसे ‘प्रत्यय’ कहते हैं। ‘प्रत्यय दो शब्दों से बना है— प्रति + अय। ‘प्रति’ का अर्थ ‘साथ में’, ‘पर’, ‘बाद में’ है और ‘अय’ का अर्थ ‘चलनेवाला’ है। अतएव, ‘प्रत्यय’ का अर्थ है ‘शब्दों के साथ, पर, बाद में चलनेवाला या लगनेवाला’ है। अतएव, ‘प्रत्यय’ का अर्थ है ‘शब्दों के साथ, पर, बाद में चलनेवाला या लगनेवाला’।
(च)
(i) नौ दो ग्यारह होना (भाग जाना) – चोर पुलिस को देखते ही नौ दो ग्यारह हो गया।
(ii) मुँह काला करना (अपमानित करना) – रमेश ने अपने चाचा को भरी सभा में मुँह काला कर दिया।
(iii) किताब का कीड़ा होना (हमेशा पढ़ते रहना) – सिंधु आई० ए० एस० की तैयारी क्या कर रही है वह तो किताब का कीड़ा ही हो गयी है।
(iv) खून पसीना एक करना ( खूब मेहनत करना) – इस बार वह परीक्षा की तैयारी में खून पसीना एक किए हुए है।
(v) हाथ मलना (पछताना) – होशियार को कभी हाथ मलना नहीं पड़ता है।
(vi) सिर चढ़ाना (सोख बनाना) – सोनिया गाँधी ने राहुल को सिर चढ़ा लिया है। – उनके बेटे ने ऐसा काम किया कि खानदान की
(vii) नाक कट जाना (इज्जत चला जाना) – नाक ही कट गई।
(viii) श्री गणेश करना ( शुभारंभ करना) – आज ही इस काम का श्रीगणेश किया गया है।
5. संक्षेपण करें –
हिन्दुस्तान में वर्ण-व्यवस्था हजारों साल पुरानी है। इस व्यवस्था को आज के राजनीतिज्ञ चाहे जिस नजरिये से देखें, किन्तु पुराने जमाने में जितना प्यार, स्नेह तथा भाईचारा उच्च, मध्यम और निम्न जातियों के बीच था, उतना स्वाधीनता के बाद नहीं हो पाया। गाँधीजी यद्यपि जात-पात, छुआछूत के उन्मूलन के सचेष्ट थे, किन्तु उनके उत्तराधिकारियों ने, खास तौर से विगत दो दशकों में, जातिगत वैमनस्य को बढ़ावा दिया और जातीय समीकरण के आधार पर सत्ता की दौड़ लगाई। अतः श्रम के विभाजन द्वारा एक-दूसरे के श्रम पर आश्रित रहने की प्रक्रिया और पारस्परिक प्रेम का जो वातावरण स्वतंत्रता से पूर्ण और मुसलमानी जमाने में हिन्दुओं में था, वह अब चाहकर भी नहीं हो पा रहा है।
उत्तर – शीर्षक: वर्ण-व्यवस्था / जाति व्यवस्था
पुराने युग में वर्ण-व्यवस्था के बावजूद लोगों ने आपसी भाईचारा और प्रेमभाव था। स्वतंत्रता के बाद राजनीतिक दाँव-पेंच के कारण जातिगत वैमनस्य एवं छुआछूत में अपेक्षित विकास हुआ। आज समाज में स्वतंत्रतापूर्व का आपसी प्रेम उपलब्ध नहीं है ।
6. निम्नलिखित विषयों में से किसी एक पर निबंध लिखिए –
(क) राजनीति और छात्र
(ख) नक्सलवाद की समस्या
(ग) आपके प्रिय लेखक या कवि
(घ) दुर्गापूजा या ईद
(ङ) प्राकृतिक आपदा की त्रासदी
उत्तर – (क) छात्र और राजनीति
छात्र की जीवन-वृत्ति इस पर निर्भर करती है कि वह विद्यालय में क्या पढ़ता है। छात्र अपनी रुचि के अनुसार विषयों का चयन करते हैं। जो राजनीतिज्ञ बनना चाहते हैं, वे शुरू से ही राजनीति में रुचि लेते हैं। वे विद्यालय एवं महाविद्यालय के चुनावों में हिस्सा लेते हैं। छात्र और राजनीति का संबंध बहुत पुराना रहा है।
विद्या और राजनीति सहोदर हैं। दोनों का पृथक रहना कठिन है। दोनों के स्वभाव भिन हैं, किन्तु लक्ष्य एक है – व्यक्ति और समाज को अधिकाधिक सुख पहुँचाना।
संसार का इतिहास इस बात का साक्षी है कि जब भी किसी राष्ट्र में क्रांति का बिगुल बजा, तो वहाँ के छात्र द्रष्टा मात्र नहीं रहे, अपितु उन्होंने क्रांति के बागडोर संभाली। परतंत्रता काल में स्वातंत्र्य के लिए और वर्तमान काल में भ्रष्टाचारी सरकारों के उन्मूलन के लिए भारत में छात्र शक्ति ने अग्रसर होकर क्रांति का आहवान किया। इंडोनेशिया और ईरान में छात्रों ने सरकार का तख्ता ही उलट दिया था। यूनान की शासन नीति में परिवर्तन का श्रेय छात्र वर्ग को ही है। बंगलादेश को अस्तित्व में लाने में ढाका विश्वविद्यालय के छात्रों का योगदान भुलाया नहीं जा सकता। असम के मुख्यमंत्री तो विद्यार्थी रहते ही मुख्यमंत्री बने थे।
मेधावी छात्र राजनीति को किसी उपयोग का नहीं समझते। जो पढ़ाई में अच्छे नहीं होते, वे राजनीति से जुड़ जाते हैं। ऐसे छात्र बहुत सी समस्याएँ उत्पन्न कर देते हैं। वे अपनी पढ़ाई से भागते हैं और अन्य छात्रों एवं शिक्षकों को परेशान करते हैं। वे हड़ताल पर चले जाते हैं। वे सार्वजनिक संपत्तियों को नुकसान पहुंचाते हैं। उन्हें स्वार्थी नेताओं द्वारा समर्थन किया जाता है। ये नेता युवाओं और छात्रों की शक्ति का दुरुपयोग करते हैं। ऐसे नेताओं से प्रभावित होकर वे गलतियाँ कर बैठते हैं।
छात्र को पढाई खत्म करने के बाद भी जीवन के चौराहे पर किंकर्तव्य-विमूढ़ (परेशान) खड़ा होना पड़ता है। नौकरी उसे मिलती नहीं, हाथ की कारीगरी से वह अनभिज्ञ है। भूखा पेट रोटी माँगता है। वह देखता है, राजनीतिज्ञ बनकर समाज में आदर, सम्मान, प्रतिष्ठा और धन प्राप्त करना सरल है, किन्तु नौकरी पाना कठिन है। ईमानदारी से रोजी कमाना पर्वत के उच्च शिखर पर चढ़ना है तो वह राजनीति में कूद पड़ता है। हमारे देश को युवा और ईमानदार नेताओं की जरूरत है। हमलोग भ्रष्टाचार, धोखाधड़ी, घोटाले, हड़ताल आदि-जैसी समस्याओं का सामना कर रहे हैं। इन सबसे निपटने के लिए हमलोगों को योग्य शासकों की आवश्यकता है। अन्य विषयों की तरह विद्यालयों और महाविद्यालयों में राजनीति भी पढ़ाई जानी चाहिए। लेकिन, ऐसी राजनीति निश्चय ही राष्ट्र हित में होनी चाहिए। इसीलिए समाज को भ्रष्टाचार और अंधविश्वास से मुक्त करने के लिए राजनीति का अध्ययन करना आवश्यक हैं।
(ख) नक्सलवाद की समस्या
लेनिन ने कहा था ” प्रत्येक क्रांति का मुख्य प्रश्न राजसत्ता का प्रश्न होता है। सभी राजनीतिक विचारधाराएँ जनसमर्थन जुटाती हैं, सत्ता चाहती हैं। नक्सलपंथी हिंसा का लक्ष्य भी सत्ता है। वे हिंसा, हत्या और हमलों के जरिए सत्ता पर कब्जे की तैयारी में हैं।” नक्सलपंथी (नक्सली) स्वयं को गरीब वर्ग से जोड़ते हैं तथा पूँजीपति एवं सत्ता अधिष्ठान को शोषक वर्ग (शत्रु वर्ग) के अंतर्गत परिगणित करते हैं। उनका एक ही उद्देश्य है शोषक वर्ग को समाप्त करना ।
माओवादी कहें या नक्सली, ये संसदीय लोकतंत्र में विश्वास नहीं रखते। पश्चिम बंगाल, बिहार, आंध्र प्रदेश, झारखण्ड, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश सहित बाईस राज्य नक्सली हिंसा से त्रस्त हैं। इन राज्यों की धरती निर्दोष लोगों के खून से सनी हुई है।
बिहार के चालीस जिलों (दो पुलिस जिला समेत) में लगभग 33 जिले नक्सली गतिविधियों से प्रभावित हैं। 2009 में 123 नक्सली बारदातें हुईं जिनमें पुलिसकर्मी समेत 54 लोग मारे गए। 2006 की में 2009 में नक्सली बारदातें दुगुनी हुईं। यह चिंताजनक स्थिति है।
सिर्फ झारखण्ड में ही 329 से ज्यादा पुलिसकर्मी मारे जा चुके हैं। नक्सली आधुनिकतम हथियारों से लैस हैं। पुलिस कानून से बँधी है। उसपर मानवाधिकार के बंधन हैं। वे हमलावर हैं। सेना के हेलीकॉप्टरों पर हमले हो रहे हैं। बावजूद इसके केन्द्र ने अब तक कोई ठोस कार्ययोजना भी नहीं बनाई है। । नक्सल प्रभावित क्षेत्रों के निवासी दोहरी- तिहरी मार खा रहे हैं । ‘ दो तरफा अत्याचारों से पीड़ित नवयुवक माओवादियों के साथ हो लेते हैं।
नक्सली नेताओं का तर्क है कि जब तक सरकार लोगों की आवाज दबाने के लिए हथियारों का प्रयोग करती रहेगी, तब तक पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के हाथों में हथियार रहेगा। निरीह आदिवासियों को अपनी ढाल बनाकर सशस्त्र क्रांति के बल पर सत्ता पलटने का सपना संजोए नक्सली अपने कम्युनिस्ट भाइयों की तरह आम आदमी के हितैषी होने का दावा करते हैं, किन्तु हकीकत बिल्कुल विपरीत है।
रक्तबीज नक्सली असुरों से निपटने के लिए राज्य सरकारों तथा केन्द्रीय सरकार को अपनी-अपनी संकल्प-शक्ति का परिचय देना होगा तथा एक बेहतर तालमेल के साथ ऐसी कार्ययोजना की रूपरेखा तैयार करनी होगी, जिसके कार्यान्वयन से असुर नक्सलियों का सफाया हो सके। नक्सलियों का उद्देश्य केवल हिंसा और आतंक है। इनके सफाए के लिए सैन्य कार्रवाई से भी सरकार को गुरेज नहीं करना चाहिए। वरिष्ठ पत्रकार संजय गुप्त ने स्पष्ट शब्दों में लिखा है ” भले ही नक्सलवादी देश के पिछड़े क्षेत्रों में विकास कार्य न होने की बातें कर रहे हों, लेकिन सच यह है कि अब वे खुद विकास विरोधी बन गए हैं। इन स्थितियों में यह आवश्यक है कि केन्द्र और राज्य वास्तव में मिलकर नक्सलियों से लड़े। कोशिश यह होनी चाहिए कि यह लड़ाई लंबी न खींचे और इसमें आमलोगों का कोई नुकसान न पहुँचे, अन्यथा इस लड़ाई को जीतना और मुश्किल हो जाएगा।”
(ग) आपके प्रिय लेखक या कवि
बहुमुखी प्रतिभा के साहित्यकार सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ छायावाद के अग्रणी कवि हैं। यही मेरे प्रिय कवि एवं साहित्यकार हैं। ओज, पौरुष और विद्रोह के महाकवि हैं ‘निराला’ ।
इनका जन्म बंगाल के महिषादल राज्य के मेदिनीपुर गाँव में 1897 में हुआ था। इनके पिता का नाम पंडित रामसहाय त्रिपाठी था। वह जिला उन्नाव (उत्तर प्रदेश) के निवासी थे। आजीविका के लिए वह बंगाल चले गए थे। ‘निराला’ की प्रारंभिक शिक्षा महिषादल में हुई। इन्होंने घर पर ही संस्कृत, बँगला और अँगरेजी का अध्ययन किया। भाषा और साहित्य के अतिरिक्त इनकी रुचि संगीत और दर्शनशास्त्र में भी थी। ‘गीतिका’ में इनकी संगीत – रुचि का अच्छा प्रमाण मिलता है। ‘तुम और मैं’ कविता में इनकी दार्शनिक विचारधारा अभिव्यक्त हुई है। ‘निराला’ स्वामी रामकृष्ण परमहंस तथा विवेकानंद की दार्शनिक विचारधारा से काफी प्रभावित हुए।
‘निराला’ बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे । कविता के अतिरिक्त इन्होंने उपन्यास, कहानियाँ, निबंध, आलोचना और संस्मरण भी लिखे। इनकी महत्त्वपूर्ण काव्य-रचनाएँ हैं – ‘परिमल’, ‘गीतिका’, ‘तुलसीदास’, ‘अनामिका’, ‘कुकुरमुत्ता’, ‘बेला’, ‘अणिमा’, ‘नए पत्ते’, ‘अर्चना’, ‘अपरा’, ‘आराधना’, ‘गीतकुंज’ तथा ‘सांध्यकाकली’। ‘तुलसीदास’ खण्डकाव्य है। इनके प्रसिद्ध उपन्यास हैं — ‘अप्सरा’, ‘अलका’, ‘प्रभावती’, ‘निरूपमा’, ‘चोटी की पकड़’, ‘काले कारनामे’ और ‘चमेली’। ‘कुल्ली भाट’ और ‘बिल्लेसुर बकरिहा’ इनके प्रसिद्ध रेखाचित्र हैं। इन रेखाचित्रों में जीवन का यथार्थ खुलकर सामने आया है। ‘चतुरी चमार’ और ‘सुकुल की बीबी’ इनकी प्रसिद्ध कहानियाँ हैं। ‘प्रबंध-पद्म’, ‘प्रबंध – प्रतिमा’ एवं ‘कविताकानन’ इनके आलोचनात्मक निबंधों के संग्रह हैं। .
शृंगार, प्रेम, रहस्यवाद, राष्ट्रप्रेम और प्रकृति-वर्णन के अतिरिक्त शोषण के विरुद्ध विद्रोह और . मानव के प्रति सहानुभूति का स्वर भी इनके काव्य में पाया जाता है।
(घ) दुर्गापूजा या ईद
दुर्गापूजा : भारत को ‘पर्वों का देश’ कहा कोई-न-कोई पर्व नहीं मनाया जाता हो । भारत के विभिन्न पर्वों में दुर्गापूजा का विशिष्ट स्थान है। दुर्गापूजा का पर्व आसुरी प्रवृत्तियों पर दैवी प्रवृत्तियों की विजय का पर्व है। प्रत्येक व्यक्ति के भीतर राम और रावण (सत और असत) की अलग-अलग प्रवृत्तियाँ हैं। इन दो अलग प्रवृत्तियों में निरंतर संघर्ष चलता रहता है। हम दुर्गापूजा इसीलिए मनाते हैं कि हम हमेशा अपनी सद्प्रवृत्तियों से असद्प्रवृत्तियों को मारते रहें। दुर्गापूजा को ‘दशहरा’ भी कहा जाता है; क्योंकि राम ने दस सिरवाले रावण (दसशीश) को मारा था।
दुर्गापूजा का महान् पर्व लगातार दस दिनों तक मनाया जाता है। आश्विन शुक्ल प्रतिपदा (प्रथमा . तिथि) को कलश स्थापना होती है और उसी दिन से पूजा प्रारंभ हो जाती है। दुर्गा की प्रतिमा में सप्तमी को प्राण प्रतिष्ठा की जाती है। उस दिन से नवमी तक माँ दुर्गा की पूजा-अर्चना विधिपूर्वक की जाती है। श्रद्धालु प्रतिपदा से नवमी तक ‘दुर्गासप्तशती’ या ‘रामचरितमानस’ का पाठ करते हैं। कुछ लोग ‘गीता’ का भी पाठ करते हैं। कुछ श्रद्धालु हिंदू भक्त नौ दिनों तक ‘निर्जल उपवास’ करते हैं और अपने साधनात्मक चमत्कार से लोगों को अभिभूत कर देते हैं। सप्तमी से नवमी तक खूब चहल-पहल रहती है। देहातों की अपेक्षा शहरों में विशेष चहल-पहल होती है। लोग झुंड बाँध बाँधकर मेला देखने जाते हैं। शहरों में बिजली की रोशनी में प्रतिमाओं की शोभा और निखर जाती है। विभिन्न पूजा समितियों की ओर से इन तीन रातों में गीत, संगीत और नाटकों के विभिन्न रंगारंग कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। शहरों की कुछ समितियाँ इस अवसर पर ‘व्यंग्य और क्रीड़ामूर्त्तियों की स्थापना करती हैं। इस दिन लोग अच्छा- अच्छा भोजन करते हैं और नए वस्त्र धारण करते हैं। इस दिन नीलकंठ (चिड़िया) का दर्शन शुभ माना जाता है।
दुर्गापूजा सांस्कृतिक पर्व है। हमें वैसा कुछ आचरण नहीं करना चाहिए, जिससे सांस्कृतिक प्रदूषण हो और पूजा की पवित्रता पर आँच आए।
ईद : मुसलमानों का मुख्य त्योहार है। कहा जाता है कि इस्लाम धर्म के पैगम्बर हजरत मुहम्मद साहब एक महीने तक मक्का की एक गुफा में निराहार और निर्जल रहे थे। उस महीने को बाद में रमजान का महीना कहा गया। इसी महीने में अल्लाह ने उनपर कुरान शरीफ उतारा और उन्हें आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त हुआ।
मुसलमानों के लिए रमजान का महीना बहुत पवित्र माना जाता है। कुरान मुसलमानों का धर्म-ग्रंथ है। रमजान के महीने में सभी मुसलमान रोजा रखते हैं। वे दिनभर उपवास रखते हैं। सुबह में वे सहरी खाते हैं। सूर्यास्त के बाद नमाज पढ़कर वे कुछ खा-पीकर रोजा तोड़ते हैं।
रमजान के बाद नये चाँद को देखकर वे रोजा समाप्त कर देते हैं। अगले दिन अत्यंत हर्षोल्लास के साथ वे लोग ईद मनाते हैं। ईद के दिन वे लोग नये कपड़े पहनते हैं। इस अवसर पर सेवई और तरह-तरह के व्यंजन बनाये जाते हैं। साथियों और रिश्तेदारों के साथ मिल-बैठकर वे लोग खाना खाते हैं। ईद-मिलन के अवसर पर सभी मस्जिदों और ईदगाहों पर अपार जनसमूह उमड़ पड़ता है। नमाज अदा करने के बाद वे एक-दूसरे से गले मिलते हैं और एक-दूसरे को मुबारकबाद देते हैं। ईद साम्प्रदायिक सौहार्द का प्रतीक है।
(ङ) प्राकृतिक आपदा की त्रासदी
हमारे जीवन में अक्सर असामान्य परिस्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं जो जीवन को कष्टमय बना देती हैं। इस प्रकार की अप्रत्याशित घटनाओं से हम विचलित हो जाते हैं। हमारे सामान्य जीवन में इसके फलस्वरूप अनेक समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं। इसे आपदा कहा जाता है। यह बिना बुलाए मेहमान अनेक प्रकार की तबाही लेकर आते हैं। रौद्र रूप धारण करने पर विनाश का तांडव प्रस्तुत करते हैं।
आपदाएँ मुख्यतः दो प्रकार की होती हैं—(i) मानवजनिंत आपदा एवं (ii) प्राकृतिक आपदा | मानवजनित आपदाएँ मनुष्य के कुकृत्यों का परिणाम होती हैं। ये विभिन्न रूपों में प्रकट होती हैं। सभी प्रकार के दंगे, अपहरण, लूट, डकैती, हत्या आदि मानव निर्मित आपदाएँ हैं। प्रकृति का कोप प्राकृतिक आपदा है। जब प्रकृति की सामान्य प्रक्रिया में व्यवधान उत्पन्न होता है अथवा बदलाव आता है, तो यह प्राकृतिक आपदा का रूप धारण कर लेती है।
प्राकृतिक आपदा से तात्पर्य उन आपदाओं से है जो प्रकृति-प्रदत्त होती हैं। भूकंप, बाढ़, सुनामी, आँधी-तूफान, ज्वालामुखी का विस्फोट आदि इस श्रेणी में आते हैं। इन आपदाओं पर हमारा कोई वश नहीं चलता है। उपरोक्त आपदाओं के आने का कोई निश्चित समय नहीं होता—” अप्रत्याशित, अनिश्चित। ” धरती के भू-पर्पटी के टकराने, कम्पन होने तथा ज्वालामुखी विस्फोट से निकटवर्ती क्षेत्र में व्यापक कम्पन होता है तथा जमीन फट जाती है, मकान धराशायी हो जाते हैं। धन-जन की व्यापक क्षति होती है। बाढ़ आने के कारण भारी वर्षा तथा पहाड़ों से अधिक मात्रा में जल के बहाव तथा बाँधों से छोड़े जाने वाले जल से नदियों का जल स्तर असामान्य रूप बढ़ जाता है जिसके कारण एक विस्तृत क्षेत्र जलप्लावित हो जाता है तथा विनाश का तांडव मच जाता है। सुनामी, महासागरों के गर्भ में विस्फोट के फलस्वरूप असामान्य जलप्लावन की स्थिति पैदा कर देती है। महासागर में उठती उच्छृंखल धाराएँ तबाही का मंजर प्रस्तुत करती हैं। प्रकृति के साथ हमलोगों द्वारा छेड़छाड़ भी प्राकृतिक आपदाओं का एक महत्वपूर्ण कारण है।
वस्तुतः उपरोक्त प्राकृतिक आपदाओं को रोक पाना हमारे सामर्थ्य से संभव नहीं है। लेकिन हम उसकी विकरालता का मुकाबला काफी हद तक कर सकते हैं। भूकंपरोधी भवन निर्माण, पर्यावरण सुरक्षा, वृक्षारोपण, सागरतट की सुरक्षा आदि अनेक उपाय व्यापक तबाही पर अंकुश लगा सकते हैं।
7. आदिकाल या भक्तिकाल की सामान्य प्रवृत्तियों का संक्षिप्त परिचय दें।
अथवा,
तुलसीदास अथवा, सूरदास का काव्यात्मक परिचय दें।
उत्तर – हिन्दी साहित्य में आदिकाल की मुख्य प्रवृत्ति : हिन्दी साहित्य के इतिहास पर जब विचार किया जाता है तो आदिकाल की प्रवृत्तियों को निम्नलिखित रूपों में देखा जा सकता है
(i) आश्रयदाताओं की प्रशंसा एवं राष्ट्रीय भावना का अभाव : आदिकाल की विभिन्न परिस्थितियों के अध्ययन से यह भली-भाँति ज्ञात है कि इस युग में केन्द्रीय शक्ति का पूर्णतः अभाव था, जिसके फलस्वरूप सभी राज्य अपने को स्वतंत्र समझकर एक-दूसरे को नीचा दिखाने की बराबर चेष्टा करते रहे।
(ii) संदिग्ध रचनाओं का प्राचुर्य : इस काल की रचनाओं को संदिग्ध दृष्टि से देखा जाता है, क्योंकि प्रामाणिकता की कसौटी पर कसने पर ये खरी नहीं उतरतीं।
(iii) ऐतिहासिकता का अभाव : इन वीरगाथा काव्यों में चरित्रनायकों का चरित्र अंकित हैं। इतिहास की दृष्टि से इनका वर्णन खरा नहीं उतरता। इन काव्यों में इतिहास की अपेक्षा कल्पना की प्रधानता है।
(iv) युद्धों का यथार्थ वर्णन : वीर-काव्यों का प्रमुख विषय युद्धों का यथार्थ चित्रण है। इसका कारण यह था कि इस काल का कवि केवल मसि-कागज को ही अपनी जीविका का साधन नहीं समझता था, अपितु आवश्यकता पड़ने पर वह तलवार भी धारण करता था ।
(v) भावोन्मेष का अभाव : वीरगाथाओं में इतिवृत्त रूप में वर्णनात्मकता को ही प्रधानता दी गई है। वस्तुओं की सूची तथा सेना की साज का वर्णन आवश्यकता से अधिक है।
हिन्दी साहित्य में भक्तिकाल की मुख्य प्रवृत्ति :
भक्तिकाल की निम्नांकित प्रवृत्तियाँ महत्त्वपूर्ण हैं- भक्तिकाल वास्तव में प्रथम भारतीय नवजागरण का काल है। इस काल में सगुण और निर्गुण काव्य की धारा प्रवाहित हुई। निर्गुण ज्ञानाश्रयी शाखा के कवि हों या सगुण रामाश्रयी- कृष्णाश्रयी शाखा के कवि; निर्गुण प्रेमाश्रयी शाखा के कवि हों या निर्गुण-सगुण के समन्वय के कवि – सबने अपने-अपने ढंग से भारतीय लोकजीवन में सांस्कृतिक तथा सामाजिक चेतना जगाने का प्रयास किया। इस क्रम में इस काल में निम्नलिखित सामान्य प्रवृत्तियाँ उभरीं-
1. नाम की महत्ता : निर्गुण तथा सगुण, दोनों प्रकार के भक्त कवियों ने नाम की महत्ता स्वीकार की है।
2. गुरु-महिमा : सगुण और निर्गुण, दोनों प्रकार के भक्त कवियों ने एक स्वर से गुरु की महत्ता प्रतिपादित की है।
3. भक्तिभावना की प्रधानता : भक्तिकाल की चारों धाराओं के भक्त कवियों में भक्तिभावना की प्रधानता मिलती है। सबने भक्ति को सर्वोपरि माना है। भक्ति इष्ट में तन्मय होने की सात्त्विक मनोदशा है। यह मनोदशा सारे भक्त कवियों की रचनाओं में अभिव्यक्त हुई है।
4. अहंकार का त्याग: अहं भक्ति मार्ग की सबसे बड़ी बाधा है। अहं केपरित्याग के बिना भक्ति हो ही नहीं सकती। इस सत्य को सारे भक्त कवियों ने स्वीकार किया है।
5. लोकभाषाओं का प्राधान्य : भक्तिकाल में लोकभाषाओं को अत्यधिक महत्ता प्रदान की गई। सूरदास तथा अन्य कृष्णभक्तों ने लोकप्रचलित ब्रजभाषा को अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। तुलसी ने लोकभाषा अवधी को काव्यभाषा बना दिया।
अथवा,
तुलसीदास : तुलसीदास (1543-1623) हिंदी के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं। ‘रामचरितमानस’ उनका सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ है। वे वाल्मीकि के अवतार हैं- ‘कलि कुटिल जीव निस्तार हित वाल्मीकि तुलसी भयो । उनकी कविता की भाषा अवधी और ब्रज दोनों रही है।
तुलसी का काव्य मध्यकालीन उत्तर भारत का सबसे प्रामाणिक संदर्भकोश है। उसमें तुलसी द्वारा देखा और समझा हुआ भारत मौजूद है। इसमें उसकी विषमताएँ, अच्छाइयाँ- बुराइयाँ, सुख-दुख भी हैं और उसकी आशा-आकांक्षा भी मौजूद हैं।
तुलसीदास की कृतियाँ हैं— ‘रामलला नहछू’, ‘वैराग्य संदीपिनी’, ‘बरठौ रामायण’, ‘पार्वती मंगल’, ‘जानकी मंगल’, ‘रामाज्ञाप्रश्न’, ‘दोहावली’, ‘कवितावली’, ‘गीतावली’, ‘श्रीकृष्ण गीतावली’, ‘रामचरितमानस’ और ‘विनय पत्रिका’ ।
सूरदास : सूरदास (1478-1583) मध्यकालीन सगुण भक्तिधारा की कृष्णभक्ति शाखा के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं। श्रीकृष्ण के जन्म, शैशव और किशोरवय की विविध लीलाओं को विषय बनाकर कवि ने भावों और रसों की बाढ़ ला दी है। सूर की कवित के विषय हैं – वात्सल्य, विनय-भक्ति और प्रेम-शृंगार। वात्सल्य रस को जो गहराई उन्होंने दी है, वह अन्य कवियों में दुर्लभ है।
सूर जब अपने प्रिय विषय का वर्णन शुरू करते हैं तो मानो अलंकार शास्त्र हाथ जोड़कर उनके पीछे-पीछे दौड़ा करता है। संगीत के प्रवाह में कवि स्वयं बह जाता है।
उनकी कविता का नमूना है –
(i) ‘कछुक खात कछुक धरनि गिरावत छवि निरखत नंद-रनियाँ’।
(ii) ‘भोजन करि नंद अचमन लीन्है, माँगत सूर लुठनियाँ |
सूरदास की कृतियाँ हैं— ‘सूरसागर’, ‘साहित्यलहरी’, ‘राधा रसकेलि’ और ‘सूरसारावली’।
8. सप्रसंग व्याख्या करें –
(क) बड़ा कठिन है बेटा खोकर, माँ को अपना मन समझाना।
अथवा,
प्रत्येक पत्नी अपने पति को बहुत कुछ उसी दृष्टि से देखती है जिस दृष्टि से लता अपने वृक्ष को देखती है।
(ख) आदमी यथार्थ को जीता ही नहीं, यथार्थ को रचता भी है।
अथवा,
जादू टूटता है उषा का अब सूर्योदय हो रहा है।
उत्तर – (क) माँ के लिए अपने मन को समझाना तब कठिन हो जाता है, जब वह अपना बेटा खो देती है। बेटा माँ का अमूल्य धरोहर होता है। माँ की आँखों का तारा होता है। माँ का सर्वस्व यदि क्रूर नियति द्वारा उससे छीन लिया जाता है, उसके बेटे की मृत्यु हो जाती है तो माँ के लिए अपने मन को समझाना कठिन होता है।
अथवा,
प्रस्तुत वाक्य राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ द्वारा रचित ‘अर्द्धनारीश्वर’ निबंध से उद्धृत है। प्रस्तुत वाक्य में लेखक ने नारी की पराधीनता पर चिंता जताई है।
आदि मानव और आदि मानवी एक-दूसरे पर निर्भर नहीं थे। प्रकृति का पूरा उपभोग वे एक साथ मिलकर करते थे। वे आहार संचय के लिए साथ-साथ निकलते थे और अगर कोई जानवर उनपर टूट पड़ता तो वे एक साथ उसका सामना भी करते थे। नर-नारी दोनों सबल थे। दोनों अपना आहार स्वयं प्राप्त करते थे।
लेकिन कृषि के आविष्कार ने नारी को दुर्बल बना दिया। नारी पुरुष पर निर्भर होने लगी। जिस प्रकार लता अपने अस्तित्व के लिए वृक्ष पर निर्भ रहती है, उसी प्रकार पत्नी अपने पति पर निर्भर होने लगी। कृषि का विकास सभ्यता का पहला सोपान था। लेकिन नारी को इसकी कीमत चुकानी पड़ी। आज प्रत्येक पुरुष अपनी पत्नी को फूलों-सा आनन्दमय भार समझता है । लेखक का यह व्यंग्य उचित है। अतः आज नारी पराधीनता के कारण अपना अस्तित्व खोती जा रही है। उसके सुख और दुःख प्रतिष्ठा और अप्रतिष्ठा, यहाँ तक कि जीवन और मरण पुरुष की मर्जी पर टिकने लगा।
(ख) आदमी यथार्थ को जीता रहता है। अनेक घटनाएँ उसके सामने से गुजरती रहती हैं। नहीं चाहने पर भी जीना ही पड़ता है। ‘दुनिया में अगर आए हैं तो जीना ही पड़ेगा। जीवन है अगर जहर तो पीना ही पड़ेगा।’ जितने भी रचनाकार हैं वह यथार्थ को रचते भी रहते हैं। साधारण आदमी भी रचता-बनाता बिगाड़ता रहता है और रचनाकार भी।
अथवा,
प्रस्तुत काव्य पंक्तियाँ श्री शमशेर बहादुर सिंह की काव्यकृति के ‘उषा’ शीर्षक से उद्धृत की गयी हैं। शमशेर बहादुर सिंह प्रभाववादी कवि हैं।
कवि ने अपनी सूक्ष्म कल्पना शक्ति द्वारा प्रकृति के रूपों का मानवीकरण करते हुए उषा की तुलना गौर वर्ण वाले झिल-मिल जल में हिलते हुए अवतरित होने वाली नारी से किया है। शमशेर की कविता में बिंब प्रयोग सटीक और सही हुआ है। कवि ने प्रकृति के सूक्ष्म रूपों का मनोहारी और कल्पना युक्त मूर्त्तन कर दक्षता प्राप्त की है। प्राकृतिक बिंबों द्वारा अपनी भावाभिव्यक्ति को मानवीकरण करके लोक जगत को काव्य रस से आप्लावित किया है। इनकी कविताओं में लय है, संक्षिप्तता भी है।
9. I. सही जोड़े का मिलान करें –
(क) अधिनायक (i) अज्ञेय
(ख) कवित्त (ii) ‘एक लेख एवं पत्र’
(ग) रोज (iii) भूषण
(घ) शिक्षा (iv) रघुवीर सहाय
(ङ) भगत सिंह (v) जे. कृष्णमूर्ति ।
उत्तर – (क) –(iii), (ख) –(v), (ग) –(ii), (घ) (i), (ङ) (iv)
II. रिक्त स्थानों की पूर्ति करें –
(क) प्रबंध काव्य मानव जीवन का एक पूर्ण …… होता है।
(ख) कविता पर समाज का दबाव ….. से महसूस किया गया।
(ग) मेरा खाया हुआ …….।
अंब तक मेरे पास न आया ।।
(घ) सूर …….प्रात उठौ, अम्बुज-कर-धारी ।
(ङ) जहाँ भय है, वहाँ ……. नहीं हो सकती।
उत्तर – (क) दृश्य, (ख) तीव्रता, (ग) खिलौना, (घ) स्याम, (ङ) जिन्दगी
III. निम्नलिखित प्रश्नों के बहुवैकल्पिक उत्तरों में से सही उत्तर बताइए –
(i) रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की रचना है
(क) अर्द्धनारीश्वर
(ख) रोज
(ग) जूठन
(घ) ओ सदानीरा
(ii) जायसी किस शाखा के कवि हैं?
(क) प्रेममार्गी
(ख) कृष्णमार्गी
(ग) राममार्गी
(घ) ज्ञानमार्गी
(iii) प्रेमचंद किस काल के रचनाकार हैं?
(क) आदिकाल
(ख) भक्ति काल
(ग) रीतिकाल
(घ) आधुनिक काल
(iv) नामवर सिंह द्वारा लिखित ‘प्रगति और समाज’ क्या है ?
(क) आलोचना
(ख) निबंध
(ग) एकांकी
(घ) आत्मकथा
(v) ‘पुत्र वियोग’ किसकी कविता है ?
(क) सुमित्रानंदन पंत
(ख) ज्ञानेन्द्र पति त्रिपाठी
(ग) जयशंकर प्रसाद
(घ) सुभद्रा कुमारी चौहान
उत्तर – (i) (क), (ii) (क), (ii) (घ), (iv) (क), (v) (घ)
1. नाभादास का काव्यात्मक परिचय दें।
अथवा,
आदिकाल के कवियों के नाम लिखें।
उत्तर – नाभादास एक सगुण उपासक कवि थे। उनका जन्म 1570 (अनुमानित) में और निधन 1600 के बाद कभी हुआ था। इन्होंने स्वाध्याय और सत्संग से विद्या सीखी। उनकी रुचित लोकभ्रमण, भगवद्भक्ति, काव्य-रचना और वैष्णव दर्शन-चिन्तन में थी। इनके गुरु स्वामी अग्रदात थे।
इनकी कृतियाँ हैं— भक्तमाल (1585-1596) अष्टयाम (ब्रजभाषा), अष्टयाम (दोहा चौपाई शैली में) और रामचरित संबंधी प्रकीर्ण पदों का संग्रह |
नाभादास रामभक्त कवि थे। उनकी भक्ति मार्यादा भक्ति नहीं वरन् माधुर्यभाव संवलित भक्ति थी। प्रसिद्ध कृति ‘भक्तमाल’ भक्तकवि नाभादास के शील, सोच और मानस का दर्पण है। नाभादास विरक्त जीवन जीनेवाले संत कवि थे।
‘भक्तमाल’ भक्त चरित्रों की माला है। उनका संदेश है- ‘जात-पाँति पूछ नहीं कोई’ ‘हरि का भजै सो हरि का होई’ । ‘भक्तमाल मध्ययुग के वैष्णव आंदोलन की रूपरेखा समझने के लिए सबसे अधिक और महत्वपूर्ण सामग्री प्रस्तुत करता है ।
अथवा,
सं 1050 से 1375 तक का काल आदिकाल के नाम से जाना जाता है। इसे वीरगाथा काल भी कहते हैं। इस काल के प्रमुख कविता हैं –
(i) चन्दवरदायी ( पृथ्वी राज रासो) (ii) विद्यापति (iii) अमीर खुसरो (iv) नरपति नाल्ह (v) मत्स्येन्द्रनाथ (vi) महेश (vii) भाण (viii) जोधराज (ix) ग्वाल (x) सरहपाद (xi) पुष्य/पुण्ड (xii) शालिभद्र सूरि (xiii) पुष्पदन्त (xiv) धनपाल (xv) अब्दुल रहमान
2. किन्हीं दो दीर्घ उत्तरीय प्रश्नों के उत्तर दें-
(क) ‘पेशगी’ कहानी का सारांश लिखें।
अथवा,
‘हार-जीत’ कहानी का सारांश लिखें।
(ख) ‘कड़बक’ कविता का भावार्थ लिखें।
अथवा,
‘गाँव का घर’ शीर्षक कविता का सारांश लिखें।
उत्तर – (क) ‘पेशगी’ शीर्षक कहानी के रचयिता हेनरी लोपेज (1937 ) हैं। “अफ्रीकी देश कांगो में जन्मे हेनरी लोपेज हमारे समय के अत्यन्त समर्थ लेखक हैं। उन्होंने अपने लेखनकीय कर्म को गंभीरता से निभाया है। उनका लेखन विकसित या विकासशील दुनिया तथा अविकसित अफ्रीका के बीच की दूरी को दिखाता है। इस तरह उनका लेखन न केवल अफ्रीका बल्कि दुनिया की वृहत्तर आबादी, उसके जीवन और उसकी पीड़ा का रचनात्मक साक्ष्य बनकर प्रस्तुत होता है। ”
‘पेशगी’ समाज द्वारा शोषण का अत्यंत संवेदनशील चित्र प्रस्तुत करता है। संपन्नता और विपन्नता में आसमान जमीन का अंतर है। मालकिन सम्पन्न वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है और उसकी नौकरानी विपन्न वर्ग की।
‘पेशगी’ अफ्रीकी देश कांगो के सामाजिक जीवन की विसंगति प्रस्तुत करती है।
घर की मालकिन अपने पति के साथ बैठक में थी । वह ब्रिज खेलने के लिए आमंत्रित मित्रों का मनोरंजन कर रही थी। वह पहले ही कई बार कारमेन को मनाकर चुकी थी कि जब वह ‘अपनी कंपनी’ में होती हैं, तो उसे तंग नहीं करे। ऐसे में कारमेन भला यह साहस जुटा पाती कि उन लोगों की मौज-मस्ती में खलल डाले। उसे फटकार सुनने का डर नहीं था। वह मानती थी कि लोग ऊँची आवाज में बोलकर खुद का तनाव दूर करते हैं।
चौकीदार फर्डिनांड के अनुसार, चूँकि मैडम का पति उसे पीटता था। वह अपना गुस्सा नौकरों पर उतारती थी। मैडम को एक बुरी आदत थी । वह बच्ची के साथ इस तरह बात करती मानो वह वयस्क हो । . बच्ची को लोरी सुनाकर सुलाती थी। कारमेन का बेटा गुजर गया। उसे दवा पैसे के अभाव में नहीं दिया जा सका।
समासतः अंतोन ने सामाजिक विषमता का अत्यंत मार्मिक चित्रण इस ‘पेशंगी’ कहानी में प्रस्तुत किया है।
अथवा,
हिन्दी साहित्य के प्रखर प्रतिभा संपन्न कवि अशोक वाजपेयी की ‘हार-जीत’ कविता अत्यंत ही प्रासंगिक है। इसमें कवि ने युग-बोध और इतिहास बोध का सम्यक ज्ञान जनता को कराने का प्रयास किया है। कवि का कहना है कि सारे शहर को प्रकाशमय किया जा रहा है और वे यानी जनता जिसे हम प्रजा भी कह सकते हैं, उत्सव में सहभागी हो रही हैं। ऐसा इसलिए वे कर रहे हैं कि ऐसा ही राज्यादेश है। तटस्थ प्रजा अंधानुकरण से प्रभावित है। गैर जवाबदेही भी है। तटस्थ जनता को यह बताया गया है कि उनकी सेना और रथ विजय प्राप्त कर लौट रहे हैं लेकिन उनमें (नागरिकों में से) से अधिकांश को सत्यता की जानकारी नहीं है। उन्हें सही-सही बातों की जानकारी नहीं है कि किस युद्ध में उनकी सेना और शासक शरीक हुए थे। उन्हें यह भी ज्ञात नहीं था कि शत्रु कौन थे ? बिडंबना की बात यह है कि इसके बावजूद भी वे विजय पर्व मनाने की तैयारी में जी-जान से लगे हुए हैं। उन्हें सिर्फ यह बताया गया है कि उनकी विजय
प्रस्तुत कविता अत्यंत ही यथार्थपरक रचना है। कवि सच्चाई से वाकिफ कराना चाहता है। वर्त्तमान में राष्ट्र और जन की क्या स्थिति है, इस ओर हमारा ध्यान आकृष्ट किया है। उक्त गद्य कविता में कवि द्वारा प्रयुक्त शासक, सेना, नागरिक और मशकवाला शब्द प्रतीक प्रयोग है। शासक वर्ग अपनी दुनिया में रमा हुआ है। उसमें उसके अन्य प्रशासकीय वर्ग भी सम्मिलित हैं ।
उक्त कविता में कवि ने पूरे देश की वस्तुस्थिति से अवगत कराने का काम किया हैग राज्यादेश के कारण तटस्थ प्रजा जश्न मनाने में मशगूल है। प्रजा चेतना के अभाव में गैर-जिम्मेवार भी है। उसे यह भी ज्ञान नहीं है कि उसकी जिम्मेवारी, कर्त्तव्य और अधिकार क्या है? नागरिकों को पेट की चिन्ता है। वे स्वार्थ में अंधे हैं, वे अपनी स्वार्थपरता में इतना अंधे हैं कि राष्ट्र की चिन्ता ही नहीं याद आती।
इस कविता में देश के नेताओं के चरित्र को भी उद्घाटित किया गया है। नेताओं के चारित्रिक गुणों का पर्दाफाश किया गया है। लड़ाई के मैदान से वे लौटे हैं लेकिन सेना के साथ | इसका तात्पर्य है कि सेना सच बोलकर भेद नहीं खोल दे कि वे हारकर लौट रहे हैं और झूठी प्रशंसा में जीत का प्रचार कर रहे हैं।
(ख) गुणवान मुहम्मद कवि के एक ही नेत्र था। किन्तु फिर भी उनकी कवि-वाणी में यह प्रभाव था कि जिसने भी सुनी वही विमुग्ध हो गया। जिस प्रकार विधाता ने संसार में सदोष, किन्तु प्रभायुक्त चन्द्रमा को बनाया है, उसी प्रकार जायसी जी की कृति उज्ज्लव थी किन्तु उनमें अंग-भंग दोष था। जायसी जी समदर्शी थे क्योंकि उन्होंने संसार को सदैव एक ही आँख से देखा। उनका वह नेत्र अन्य मुनष्यों के नेत्रों से उसी प्रकार अपेक्षाकृत तेजयुक्त था जिस प्रकार कि तारागण के बीच में उदित हुआ शुक्रतारा। जब आप आम्र फल में डाभ काला धब्बा नहीं होता तबतक वह मधुर सौरभ से सुवासित नहीं होता। समुद्र का पानी खारायुक्त होने के कारण ही वह अगाध और अपार है। सारे सुमेरु पर्वत के स्वर्णमय होने का एकमात्र यही कारण है कि वह शिव- त्रिशुल द्वारा नष्ट किया गया, जिसके स्पर्श से वह सोने का हो गया। जब तक घरिया अर्थात् सोना गलाने के पात्र में कच्चा सोना गलाया नहीं जाता तबतक वह स्वर्ण कला से युक्त अर्थात् चमकदार नहीं होता। जायसी अपने संबंध में गर्व से लिखते हुए कहते हैं कि वे एक नेत्र के रहते हुए भी दर्पण से समान निर्मल और उज्ज्वल भाव वाले हैं। समस्त रूपवान व्यक्ति उनका पैर पकड़कर अधिक उत्साह से उनके मुख की ओर देखा करते हैं। यानी उन्हें नमन करते हैं ।
‘मुहम्मद जायसी’ कहते हैं कि मैंने इस कथा को जोड़कर सुनाया है और जिसने भी इसे सुना उसे प्रेम की पीड़ा प्राप्त हो गयी। इस कवित को मैंने रक्त की लेई लगाकर जोड़ा है और गाढ़ी प्रीती को आँसुओं से भिंगो-भिंगोकर गीली किया है। मैंने यह विचार करके निर्माण किया है कि यह शायद मेरे मरने के बाद संसार में मेरी यादगार के रूप में रहे। वह राजा रत्नसेन अब कहाँ ? कहाँ है वह सुआ जिसने राजा रत्नसेन के मन में ऐसी बुद्धि उत्पन्न की ? कहाँ है सुलतान अलाउद्दीन और कहाँ है वह राघव चेतन जिसने अलाउद्दीन के सामने पद्मावती के रूप का वर्णन किया। कहाँ है वह लावण्यवती ललना रानी पद्मावती। कोई भी इस संसार में नहीं रहा, केवल उनकी कहानी बाकी बची है। धन्य वही है जिसकी कीर्ति और प्रतिष्ठा स्थिर है। पुष्प के रूप में उसका शरीर भले नष्ट हो जाए परंतु, उसकी कीर्ति रूपी सुगंध नष्ठ नहीं होती। संसार में ऐसे कितने हैं जिन्होंने अपनी कीर्ति बेची न हो और ऐसे कितने हैं जिन्होंने कीर्ति मोल न ली हो ? जो इस कहानी को पढ़ेगा दो शब्दों में हमें याद करेगा।
अथवा,
“गाँव का घर” शीर्षक कविता में कवि ग्रामीण संस्कृति का विवरण देते हुए गाँव के घर की विशिष्टता का चित्रण कर रहा है। गाँव के अन्तःपुर के बाहर की ड्योढ़ी पर एक चौखट रहा करता है। यह चौखट वह सीमा रेखा है जिसके भीतर आने से पहले परिवार के वरिष्ठ नागरिकों (बुजुर्गों) को रुकना पड़ता है; अपनी खड़ाऊँ की खटपट आवाज से घर के अंदर की महिलाओं को अपने आने का संकेत देना पड़ता है। अन्य संकेत भी अपनाए जाते हैं। खाँसना अथवा किसी का नाम लिए बगैर पुकारना आदि।
किन्तु अब परिस्थितियाँ बदल चुकी हैं, गाँव का वह घर अपना वह स्वरूप खो चुका है। वह सादगी, वह नैसर्गिक स्वरूप अब स्वप्न की बातें हो गई हैं, अतीत की स्मृति बनकर रह गई हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि गाँव का वह घर अपना गाँव खो चुका है, क्योंकि गाँव की वह प्राचीन परंपरा तिरोहित हो गई है। पंचायती राज के आते ही “ पंच परमेश्वर” लुप्त हो गए, कहीं खो गए। न्यायोचित निर्णय देनेवाले कर्णधार अराजकता तथा अन्याय की बलि चढ़ गए। दीपक तथा लालटेनों का स्थान बिजली के प्रकाश ने ले लिया। लालटेन दीबार पर बने आलों के ऊपर टँगे कैलेंडरों से ढँक गई। बिजली है किन्तु वह स्वयं अधिकांशतः अंधकार में डूबी रहती है। वह बनी रहने की बजाय, “गई रहने वाली” ही हो गई। इसके कारण रात प्रकाश से अधिक अंधकार फैला रही है। यह अंधकार एक प्रकार से साथ छोड़ दिए जाने की अनुभूति कराता है अर्थात् कोई स्व-जन साथ छोड़कर चला गया हो।
इस आधुनिकता के दौर में चैती, विरहा- आल्हा, होली गीत कवि को सुनाई नहीं देते। लोकगीतों की इस पावन जन्मभूमि में एक अनगाया, अनसुना-सा शोकगीत शेष है। दस कोस दूर स्थित शहर से आने वाला “सर्कस का प्रकास- बुलौआ ” अब अपना दम तोड़ चुका है, लुप्त हो गया है। यह देखकर ऐसा अनुभव होता है, मानो अपने दाँतों को गँवाकर हाथी गिरा पड़ा हो ।
शहर की अदालतों और अस्पतालों में फैले हुए भ्रष्टाचार के वीभत्स मुख चबा जाने और लील (निगल) जाने को तत्पर है तथा बुला रहे हैं। इससे गाँव की जिन्दगी चरमरा रही है ।
3. निम्नलिखित लघु उत्तरीय प्रश्नों के उत्तर दें –
(क) ‘उत्सव’ का क्या तात्पर्य है ?
(ख) सड़कों को क्यों सींचा जा रहा है ?
(ग) ‘कड़बक’ के कवि की सोच क्या है?
(घ) ‘गाँव का घर’ कविता में कवि किस घर की बात कर रहे हैं ?
(ङ) मुक्तिबोध किस परीक्षा में असफल हुए थे?
(च) कहाँ-कहाँ की धूप एक जैसी होती है ?
उत्तर – (क) ‘उत्सव’ का तात्पर्य है किसी विशेष अवसर पर आनन्द मनाना । ‘हार-जीत’ कविता में शासक वर्ग के साथ सारा शहर उत्सव मना रहा है। राजा की ओर से उत्सव मनवाया जा रहा है। उत्सव का आधार
है सेना की विजय | यह निश्चित नहीं है कि विजय किस पक्ष की हुई है।
(ख) विजयोत्सव मनाने के लिए सड़कों को सींचकर साफ किया जा रहा है। विजय जुलूस निकलेगा। किसी पर धूल उड़कर न पड़े। राजा पर धूल न पड़े। वैसे यह पूरा उत्सव जनता को बेवकूफ बनाने के लिए मनाया जा रहा है।
(ग) ‘कड़बक’ के कवि मलिक मुहम्मद जायसी हैं। कवि के अनुसार कविता कवि के व्यक्तित्व के के अनुरूप ही होती है। जायसी के अनुसार कविता को उन्होंने रक्त की लेई लगाकर जोड़ा है। इसमें गाढ़ी प्रीति का नयनजल है। फूल झड़कर नष्ट हो जाता है पर उसकी खुशबू रह जाती है। कवि एक दिन मर जाएगा लेकिन उनकी लिखी कविता अमर रहेगी। यही कवि जायसी की सोच है।
(घ) ‘गाँव का घर’ शीर्ष कविता के रचनाकार ज्ञानेन्द्रपति हैं। ‘गाँव का घर’ में कवि पूर्व में निवास किए अपने गाँव के घर का वर्णन करता है। लेकिन अब तो वह शहर में रहता है। उसे शहरी संस्कृति नकली एवं कृत्रिम लगती है। गाँव अपना गाँवपन छोड़ चुका है। उनपर शहरों की छाया पड़ रही है। गाँव अब दूषित हो चुके हैं।
(ङ) हिन्दी के प्रगतिशील कवि गजानन माधव मुक्तिबोध 1937 ई० में इंदौर के होल्कर कॉलेज से बी०ए० में असफल हुए थे।
(च) हिन्दी के प्रगतिशील कवि गजानन माधव मुक्तिबोध’ के अनुसार एशिया, यूरोप एवं अमरीका की गलियों की धूप एक जैसी होती है।
4. (क) किन्हीं पाँच के संधि-विच्छेद करें-
उच्छृंखल उद्धत उद्घाटन, उन्नति, उद्योग, उल्लेख ।
(ख) वाक्य प्रयोग द्वारा किन्हीं पाँच के लिंग-निर्णय करें –
मलमल, मशाल, मशीन, मस्जिद, माया, माला ।
(ग) किन्हीं पाँच के विग्रह कर समास बताएँ –
आपादमस्तक, कठखोदवा, कामचोर, गौशाला, चिड़ीमार, देवालय।
(घ) किन्हीं पाँच के पर्यायवाची शब्द लिखें –
किरण, कुबेर, कृपा, केला, कृष्ण, आग।
(ङ) किन्हीं पाँच मुहावरों के वाक्य-प्रयोग द्वारा अर्थ स्पष्ट करें
शिकार होना, शिकार करना, सिर धुनना, कंधा लगाना, गला छूटना, चाँदी काटना, चाँदी के जूते मारना ।
उत्तर –
5. सप्रसंग व्याख्या करें –
(क) पवन की प्राचीर में रुक
जला जीवन जा रहा मुक।
अथवा,
चेतना थक-सी रही, तब,
मैं मलय की बात रे मन ।
(ख) आदमी यथार्थ को जीता ही नहीं, यथार्थ को रचता भी है।
अथवा,
आदमी भागता है तो जमीन पर वह सिर्फ अपने पैरों के निशान नहीं छोड़ता, बल्कि हर निशान के साथ वहाँ की धूल में अपनी गंध भी छोड़ जाता है।
उत्तर – (क) प्रस्तुत पंक्तियाँ हिन्दी के छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद रचित कविता ‘तुमुल कोलाहल कलह में’ से उद्धृत है। ये पंक्तियाँ ‘कामायनी’ महाकाव्य से ली गयी है। ‘कामायनी’ महाकाव्य की नायिका श्रद्ध जो वस्तुतः स्वयं कामायनी है, आत्मगान प्रस्तुत करती है। इस गान में श्रद्धा (जो वस्तुतः विश्वासपूर्ण आस्तिक बुद्धि है जिसके द्वारा विकासगामी ज्ञान एवं आत्मबोध प्राप्त हो पाता है) विनम्र स्वाभिमान से भरे स्वर में अपना परिचय देती है, अपने सत्ता-सार का व्याख्यान करती है। प्रकारांतर से यह नारी मात्र का परिचय और महिमागान हो जाता है। ”
मानव जीवन झुलसा जाता है। सांसारिक आग से पलायन करने का कोई उपाय नहीं है। श्रद्धा जो नायिका है वह कहती है कि वह सुख की आँचल है। वह झुलसे आदमी को फूल की तरह खिला देती है।
अथवा,
प्रस्तुत पंक्तियाँ हिन्दी के छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद रचित कविता ‘तुमुल कोलाहल कलह में से उद्धृत हैं। यह पंक्तियाँ ‘कामायनी’ महाकाव्य से ली गयी है।
“कामायनी” से लिए गए प्रस्तुत अंश में महाकाव्य की नायिका श्रद्धा, जो वस्तुतः स्वयं कामायनी है, आत्मज्ञान प्रस्तुत करती है। इस गान में श्रद्धा (जो वस्तुतः विश्वासपूर्ण आस्तिक बुद्धि है जिसके द्वारा विकासगामी ज्ञान एवं आत्मबोध प्राप्त हो पाता है) विनम्र स्वाभिमान से भरे स्वर में अपना परिचय देती है, जो अपने सत्ता-सार का व्याख्यान करती है। प्रकारांतर से यह नारीमात्र का परिचय और महिमागान हो जाता है । “
श्रद्धा तूफानी कोलाहलपूर्ण वातावरण में हृदय की बात है। वह हृदय की सच्ची पथप्रदर्शिका है। व्याकुल मन थककर चंचल हो जाता है। मन चेतनाशून्य हो जाता है। मन नींद में आ जाता है। ऐसे दुःखपूर्ण समय में वह चन्दन के सुगंध से सुवसित हवा बनकर आनन्द प्रदान करती है। वह मन को सांत्वना-सुख देती है।
(ख) आदमी यथार्थ को जीता रहता है। अनेक घटनाएँ उसके सामने से गुजरती रहती हैं। नहीं चाहने पर भी जीना ही पड़ता है। ‘दुनिया में अगर आए हैं तो जीना ही पड़ेगा। जीवन है अगर जहर तो पीना ही पड़ेगा।’ जितने भी रचनाकार हैं वह यथार्थ को रचते भी रहते हैं।
साधारण आदमी भी रचता-बनाता बिगाड़ता रहता है और रचनाकार भी।
अथवा,
प्रस्तुत पंक्तियाँ आधुनिक कहानीकार उदय प्रकाश रचित जादुई कहानी ‘तिरिछ’ से उद्धृत हैं। ‘तिरिछ’ आधुनिक त्रासदी की दर्द भरी दास्तान है।
जंगलों में पाये जानवाले तिरिछ में 100 नाग का जहर होता है। गोल-मोल दौड़कर भागनेवाले को वह नहीं काट पाता। आदमी भागता है तो जमीन पर अपने पैरों के निशान छोड़ता हैं। हर निशान के साथ वहाँ की धूल में अपनी गंध भी आदमी छोड़ता है। तिरिछ उसे सूँघता हुआ मनुष्य को रगेदता है और उसे काट लेता है।
6. निम्नलिखित विषयों में से किसी एक पर निबंध लिखिए –
(क) होली ।
(ख) चुनाव
(ग) नारी सशक्तिकरण
(घ) भूकम्प
उत्तर – (क) होली
होली हास-उल्लास एवं रंग और मस्ती का त्योहार है। होली का त्योहार एक पौराणिक कथा से जुड़ा है। कहते हैं, प्राचीन काल में हिरण्यकशिपु नामक एक दुष्ट राजा था । ईश्वर पर उसका विश्वास नहीं था लेकिन संयोग ऐसा था कि उसका पुत्र प्रह्लाद ईश्वर- भक्त निकला। हिरण्यकशिपु के लिए यह असह्य था कि उसका पुत्र प्रह्लाद ईश्वर का नाम ले और पिता को न भजे। लेकिन प्रह्लाद को यह स्वीकार नहीं था। ज्यों-ज्यों उसपर दबाव पड़ता, ईश्वर में उसकी आस्था दृढ़ होती जाती । अन्त में हिरण्यकशिपु ने उसे मरवाने की बात सोची। इस षड्यंत्र में सहायक बनी उसकी छोटी बहन होलिका। उसके पास एक ऐसी चादर थी जिसपर अग्नि का असर नहीं पड़ता था। बस, हिरण्यकशिपु ने कहा कि प्रह्लाद! यदि तेरा ईश्वर है तो तू होलिका की गोद में बैठ | उसके इर्द-गिर्द लकड़ी इकट्टी करके आग जलायी जाएगी। अगर तू जीवित निकल आया तो तेरी जीत हो जाएगी। ऐसा ही किया गया। लेकिन संयोग ऐसा कि आग लगते ही हवा का एक झोंका आया और चादर होलिका के शरीर से अलग होकर प्रह्लाद के शरीर से लिपट गयी। होलिका जलकर राख हो गयी और प्रह्लाद हँसते हुए अग्नि के मुख से बाहर निकल आया। इसी घटना की याद में होलिका दहन होता है। दूसरे दिन रंगभरी होली खेली जाती है।
होली का आरम्भ वसन्त पंचमी से ही शुरू हो जाता है। पेड़-पौधे हँसने लगते हैं। मलयानिल पर्वत से आती वसंती हवा तन में नयी ऊर्जा और मन में उमंग भरने लगती है। गीत के बोल उमड़ने लगते हैं। घरों में, खलिहानों में, चौपालों में, ढोल बजने लगते हैं। झाल झनझनाने लगते हैं। बाहर गए लोग घर आने लगते हैं। फाल्गुन की पूर्णिमा को होलिका दहन होता है। लोग महीनों पहले से ही लकड़ी लाकर इकट्ठा करते हैं और नियत समय पर लकड़ियों के ढेर की पूजा कर उसमें आग लगा दी जाती है। किसान अपने खेतों के नये अन्न लाकर इसमें गर्म कर आपस में बाँटकर खाते हैं। दूसरे दिन होली होती है। रंग और गुलाल का यह विशेष दिन होता है। सवेरे रंगों से होली खेली जाती है, दोपहर के बाद गुलाल की बारी आती है। हँसी-मजाक का दौर चलता है, ठिठोली होती है। रंग और गुलाल डालकर लोग परस्पर गले मिलते हैं, खूब खाते और खूब खिलाते हैं। नये-नये वस्त्र पहनकर लोग घूमते और गाते हैं—’खेलो रंग हमारे संग’ और ‘आज विरज में होली रे रसिया’।
इस प्रकार होली बड़ा ही रंगीन त्योहार है जो न सिर्फ दानवता पर मानवता की विजय के प्रतीक के रूप में है, अपितु आपसी वैर-भाव भुलाकर मिलने-मिलाने का त्योहार है।
(ख) चुनाव
लोकतंत्र में जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों द्वारा देश का शासन संचालन होता है। देश की जनता मतदान द्वारा उन व्यक्तियों का चयन करती है जिन्हें वह ईमानदार, सक्षम, उपयुक्त एवं कुशल प्रतिनिधि समझती है। लोकतांत्रिक देशों का अपना एक संविधान होता है जो शासन संचालन के लिए दिशा-निर्देश निर्धारित करता है। उसके आधार पर जन प्रतिनिधियों का चुनाव देश के नागरिकों के मतदान द्वारा होता है तथा एक सक्षम लोकतांत्रिक सरकार का गठन होता है। लोकतंत्र “जनता का, जनता के लिए एवं जनता के द्वारा निर्मित शासन व्यवस्था है। विश्व के विभिन्न राष्ट्रों में चुनाव प्रक्रिया एक-दूसरे से भिन्न है।
हमारा भारत विश्व का विशालतम् लोकतंत्र है। यहाँ सरकार गठन की चुनाव-प्रक्रिया आदर्श एवं सर्वोत्तम है। यहाँ केन्द्र एवं राज्यों की सरकारों का गठन पृथक निर्वाचन द्वारा होता है। राज्यों में विधानसभाएँ तथा विधान परिषदों का गठन चुनाव द्वारा होता है।
शासन व्यवस्था के संचालन में विधायिका को सहयोग प्रदान करने के लिए कार्यपालिका की सहायता ली जाती है तथा शासन-व्यवस्था की निरंकुशता अथवा अन्य अनियमित कार्यों पर नियंत्रण हेतु न्यायपालिका का गठन होता है। सभी राज्य सरकारें केन्द्र सरकार के प्रति उत्तरदायी होती हैं।
केन्द्र एवं राज्यों में लोकतांत्रिक सरकार के गठन के लिए एक जटिल चुनावी प्रक्रिया से गुजरना होता है। चुनाव कराने के लिए चुनाव आयोग होता है जो निष्पक्ष एवं स्वतंत्र चुनाव कराने का महत्वपूर्ण दायित्व निभाता है तथा इसका प्रमुख ‘मुख्य चुनाव आयुक्त’ होता है। विभिन्न राजनीतिक दल अपने घोषणा-पत्र के साथ चुनाव प्रक्रिया में सम्मिलित होते हैं तथा शासन संचालन में अपनी नीतियों एवं कार्यक्रमों को जनता के समक्ष प्रस्तुत करते हैं। चुनाव की तिथि घोषित होने के बाद सभी दल अपने उम्मीदवारों का नामांकन- पत्र आयोग को देते हैं। 18 वर्ष से ऊपर की आयु का प्रत्येक मतदाता अपना मत (वोट) किसी एक राजनीतिक दल के पक्ष में देता है। चुनकर आए प्रतिनिधियों से राज्यों में विधान सभा तथा केन्द्र में लोकसभा का गठन होता है। बहुमत दल का नेता राज्य में मुख्यमंत्री तथा केन्द्र में प्रधानमंत्री के पद पर आसीन होता है।
निर्विवाद रूप से, स्वच्छ एवं स्वस्थ चुनावी प्रक्रिया ही राष्ट्र को लोक-कल्याणकारी एवं समतामूलक शासन प्रदान करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, क्योंकि राष्ट्र का सर्वतोमुखी विकास योग्य, सक्षम एवं निष्पक्ष शासन में ही संभव है।
(ग) नारी सशक्तिकरण
इस सृष्टि को निरन्तर चलते रहने हेतु स्रष्टा ने सभी जीवधारियों में नर और मादा बनाए और तदनुरूप शरीर गठन किया। दोनों के परस्पर सहयोग से ही जीवन की गाड़ी सरलता और सुगमता से चलनी रहती है। दोनों ही गाड़ी के दो समान ऊंचाई के पहिए हैं— कोई कम ज्यादा नहीं। दोनों के ही क, अधिकार, कार्यक्षेत्र सुनिश्चित हैं और वैसे ही स्वभाव प्रदान किए हैं स्रष्टा ने। नारी कोमल, दयालु, संकोची, सेवाभावी है तो पुरुष कठोर एवं अधिक परिश्रमी है।
प्राचीन काल में नारी शिक्षित, विदुषी, कर्तव्यपरायण होती थी। ज्ञान-विज्ञान, अध्यात्म, लोकाचार किसी भी क्षेत्र में पुरुष से कम नहीं थी ।
मध्य काल आते-आते नारी का स्थान पुरुषों की स्वार्थपरता, काम- लोलुपता, आदि के कारण न केवल गिर गया, बल्कि उसके अधिकारों पर कुठाराघात होने लगा, कार्यक्षेत्र सीमित हो गया, नारी को गन्दे कपड़े की तरह बरता जाने लगा। साहित्यकार भी नारी को दोषों की खान के रूप में देखने लगे।
आधुनिक काल आते-आते जहाँ नारी को पैरों की जूती समझा जाता था, अनेक अत्याचार उनपर होते थे वहाँ अब नारी जागरण, नारी स्वातन्त्र्य का बिगुल बज उठा। स्वामी दयानन्द के आर्य समाज ने नारी शिक्षा का मन्त्र फूंका, राजा राममोहन राय ने सती प्रथा रुकवाई, महात्मा गांधी ने नारी उत्थान का नारा दिया, अनेक समाजसेवी व्यक्तियों ने पतित अबलाओं, अपहृताओं और वेश्याओं का उद्धार किया। सरकार ने भी संविधान द्वारा नारी को शिक्षा प्राप्त करने, नौकरी करने, आदि के समान अधिकार और अवसर प्रदान किए हैं। महिला सुधार हेतु नारी निकेतन खोल दिए गए हैं। आज की नारी डॉक्टरी, इन्जीनियरिंग, अध्यापन, लिपिकीय कार्य आदि क्षेत्रों में तो काम कर ही रही है, पुलिस, रक्षा के क्षेत्र में भी उच्च पदस्थ हैं।
यद्यपि सरकारी एवं गैर-सरकारी संस्थाओं एवं समाजसेवी व्यक्तियों द्वारा महिला उत्थान के लिए अनेक प्रयास किए जा रहे हैं और किए जाते रहेंगे तथापि जब तक समाज जागरूक नहीं होगा और नारियों के प्रति असहिष्णुता का दृष्टिकोण नहीं त्यागा जाएगा तबतक पर्याप्त सफलता नहीं मिलेगी। आज आवश्यकता है कि पुरुष समाज अपने दृष्टिकोण को बदले, नारी को सच्चे हृदय से ऊपर उठाकर समकक्ष लाने का प्रयास करे और उसकी प्रगति में अड़ंगे डालने से बाज आए। तभी वह अपने उच्च महत्वपूर्ण स्थान को पुनः प्राप्त कर सकेंगी।
(घ) भूकम्प
प्राकृतिक आपदाओं में भूकम्प एक महाविनाशकारी आपदा है। इससे जन-जीवन तथा जानमाल की सर्वाधिक क्षति होती है। वैज्ञानिकों का मानना है कि भूकम्प प्रायः टेक्टानिक प्लेट नामक चट्टानों के आपस में टकराने के कारण आता है।
घने आबादी वाले क्षेत्रों में भूकम्पीय झटकों के कारण भवनों के गिरने से भारी तादाद में लोगों की मृत्यु हो जाती है। भूकम्पीय झटकों से मानवंकृत संरचनाओं, यथा- – भवन, रेल, सड़क, पुल, बाँध, कारखाना आदि को भारी क्षति होती है। इस तरह भूकम्पों द्वारा मानव सम्पत्ति का भारी नुकसान होता है। भूकम्प का सर्वाधिक विनाशकारी प्रभाव नगरों एवं कस्बों पर पड़ता है क्योंकि वहाँ पर भवनों का घनत्व बहुत अधिक होता है। वहाँ पर मानव जनसंख्या का जमघट होता है। अधिक परिमाण वाले भूकम्पीय झटकों के कारण बड़े-बड़े भवन गिरकर ध्वस्त हो जाते हैं। नर-नारी ध्वस्त भवनों के मलवे के ढेर में दबकर दम तोड़ देते हैं। जल आपूर्ति की पाइपें मुड़ जाती हैं, टूट जाती हैं तथा जल की आपूर्ति बाधित हो जाती है। बिजली तथा दूरभाष के खम्भे उखड़ जाते हैं जिसके कारण बिजली तथा जल की आपूर्ति एवं दूरसंचार की व्यवस्था अस्त-व्यस्त एवं भंग हो जाती है।
भूकम्प के दौरान सभी को घर से निकलकर खुले मैदान में एकत्र हो जाना चाहिए। यदि आप घर के अन्दर हों तथा शीघ्र बाहर खुले स्थान पर जाने में असमर्थ हों, तो झुककर मेज, पलंग या चौकी आदि के नीचे औंधे मुँह पड़े रहना चाहिए। घर के खिड़कियों, आलमारियों में यदि काँच लगे हों, शीशे की वस्तुओं और ऐसी ही अन्य वस्तुओं से दूर रहना चाहिए। यदि आप किसी बहुमंजिली भवन में हों, तो भवन की किसी भीतरी दीवार की ओर मुँह करके उससे सटकर खड़े हो जाना चाहिए और अपने हाथों से सिर को ढँक लेना चाहिए। यदि आपके पास हेलमेट हो तो उसे पहन लेना चाहिए। भूकम्प के दौरान लिफ्ट का प्रयोग नहीं करना चाहिए। यदि आप स्टेडियम, थियेटर या आडिटोरियम में हैं, तो भीतर ही रहना चाहिए। अपनी कुर्सी पर भुजाओं से सिर ढँककर शांत बैठे रहना चाहिए। भूकम्प के दौरान यदि आप घर से बाहर हैं, तो खुले स्थान पर चला जाना चाहिए जहाँ पेड़, इमारतें और बिजली के खम्भे नहीं हों। भूकम्प के दौरान यदि आप कार या अन्य वाहन चला रहे हैं, तो सड़क के किनारे वाहन रोक देना चाहिए और वाहन से उतरकर या बाहर निकलकर उसकी आड़ में झुककर बैठ जाना चाहिए। घर के अन्दर बिजली का मुख्य स्विच तुरंत बन्द कर देना चाहिए ताकि घर के अन्दर विद्युत संचार बन्द हो जाए। टूटे हुए बिजली के तार को स्पर्श नहीं करना चाहिए। ऊँचे भवन या वृक्ष के निकट एकत्र नहीं होना चाहिए।
7. संक्षिप्त पत्र लिखिए –
एक पुस्तक विक्रेता को कुछ किताबें भेजने के लिए एक पत्र लिखें।
अथवा,
एक सप्ताह की छुट्टी के लिए अपने प्राचार्य के पास एक आवेदन-पत्र लिखें।
उत्तर –
सेवा में,
व्यवस्थापक
आलोक भारती प्रकाशन,
जी० एम० रोड, पटना-4
महाशय,
कृपया वी॰पी॰पी॰ द्वारा निम्नलिखित पुस्तकें यथाशीघ्र मेरे पास भेजने की कृपा करें। इसके लिए मैं आपका बड़ा आभारी रहूँगा।
1. भौतिकी : कक्षा-XII : 5 प्रतियाँ
2. केमेस्ट्री : कक्षा-XII : 5 प्रतियाँ
3. गणित : कक्षा-XII : 5 प्रतियाँ
धन्यवाद।
भवदीय
सतीश सिंह
सेवा में,
श्रीयुत प्रधानाचार्य महोदय
डी०ए०भी० उच्चतर माध्यमिक विद्यालय
पटेल नगर, पटना
द्वारा: वर्ग शिक्षक, वर्ग-XII, खंड- ‘अ’
महाशय,
निवेदन है कि कल अचानक मेरी तबीयत खराब हो गयी। विद्यालय के लौटने के बाद मुझे बुखार आ गया तथा शरीर के सारे अंग में तेज दर्द होने लगे जिसके कारण मैं बेहोश हो गया। चार दिन के बाद बुखार में कमी आयी है पर मैं काफी कमजोरी अनुभव कर रहा हूँ। मैं विद्यालय आने की स्थिति में नहीं हूँ। डॉक्टर ने भी मुझे पूर्ण विश्राम का सुझाव दिया है।
अतः आपसे निवेदन है कि एक सप्ताह की अवकाश प्रदान कर अनुगृहीत करें।
भवनिष्ठ
अंकित कुमार
वर्ग-XII, खंड-‘अ’, क्रमांक-11
8. संक्षेपण करें –
शिष्टाचार अनुशासन का ही अधिक व्यावहारिक रूप है। शिष्टाचार का अर्थ शिष्ट आचरण होता है। यहाँ ‘शिष्ट’ का अर्थ ‘अनुशासन’ है। अतः जो अनुशासित होगा वह शिष्ट आचरण वाला भी होगा। अनुशासन किसी व्यवस्था के नियमों या मर्यादाओं में बँधकर चलने की माँग करते हैं और शिष्टाचार दूसरों से यथायोग्य भद्र व्यवहार की।
उत्तर – शीर्षक : शिष्टाचार
शिष्टाचार अनुशासन का ही रूप है। इसमें बंधकर चलने से ही मनुष्य अपना एवं समाज के प्रति उचित व्यवहार करता है
9. I. सही जोड़े का मिलान करें –
(क) प्रगति और समाज (i) जयप्रकाश नारायण
(ख) उसने कहा था (ii) हेनरी लोपेज
(ग) रस्सी का टुकड़ा (iii) चन्द्रधर शर्मा गुलेरी
(घ) पेशगी (iv) नामवर सिंह
(ङ) सम्पूर्ण क्रांति (v) गाइ-डि मोपासा।
उत्तर – (क़)–(iv), (ख)–(iii), (ग)–(v), (घ) –(ii), (ङ)–(i)
II. निम्नलिखित प्रश्नों के बहुवैकल्पिक उत्तरों में से सही उत्तर बताइए –
(i) पृथ्वी
(क) ज्ञानेन्द्रपति
(ख) त्रिलोचन
(ग) मलयज
(घ) नरेश सक्शेना
(ii) क्लर्क की मौत
(क) हेनरी लोपेज
(ख) गाइ-डि मोपासों
(ग) अंतोन चेखव
(घ) लू शून
(iii) हार-जीत
(क) अशोक वाजपेयी
(ख) रघुवीर सहाय
(घ) शमशेर बहादुर सिंह
(ग) ज्ञानेन्द्रपति
(iv) पेशगी
(क) प्रतिपूर्ति
(ख) निबंध
(ग) कहानी
(घ) आलोचना
(v) जूठन
(क) कविता
(ख) रेखाचित्र
(ग) कहानी
(घ) आत्मकथा
उत्तर – (i) –(घ), (ii) –(ग), (iii) –(क), (iv) –(क), (v)–(ग)
III. रिक्त स्थानों की पूर्ति करें –
(क) कामिनी के साथ यामिनी …….. लाती है।
(ख) जिस पुरुष में नारीत्व नहीं ……… है।
(ग) भोगी मानवता और धर्मांध मानव एक ही ……… के दो पहलू हैं।
(घ) उनकी …….. सुन कर थर-थर काँपने लगता है।
(ङ) उसके कड़ों में मोती तारों की तरह ……… हैं।
उत्तर – (क) भ्रांति, (ख) अपूर्ण, (ग) सिक्के, (घ) फटकार, (ङ) चमकते
2016 (A)
हिन्दी (Hindi)
1. संक्षिप्त पत्र लिखें –
फीस माफ करने के लिए प्रधानाचार्य को पत्र लिखें ।
अथवा,
गाँव की समस्या को दूर करने के लिए मुख्यमंत्री के नाम एक पत्र लिखें।
उत्तर –
सेवा में,
प्रधानाध्यापक,
पाटलीपुत्रा उच्चत्तर स्कूल, पटना !
द्वारा : वर्गाध्यापक महोदय
महाशय,
सविनय निवेदन है कि मैं आपके स्कूल में बारहवें वर्ग का एक गरीब विद्यार्थी हूँ। मेरे पिताजी एक प्राइवेट दुकान के कर्मचारी हैं, उनकी मासिक आमदनी बहुत कम है। मेरी शिक्षा का व्यय नहीं जुटा सकते। इसी कारण यहाँ मेरी पूरी फीस माफ कर दें ।
मैं पुस्तकें भी नहीं खरीद सकता हूँ। अतः आपसे अनुरोध करता हूँ कि दीन छात्र कोष से मुझे पाँच सौ रुपये का अनुदान पुस्तक खरीदने के लिए दिया जाए।
इस दयापूर्ण कार्य के लिए मैं हमेशा आपका कृतज्ञ रहूँगा।
आपका आज्ञाकारी शिष्य
विवेक कुमार
अथवा,
सेवा में,
श्रीयुत मुख्यमंत्री महोदय
बिहार राज्य, पटना
विषय : गाँव की समस्या दूर करने के संबंध में प्रार्थना पत्र
महाशय,
निवेदन है कि मैं बिहार राज्य के नालन्दा जिले का निवासी हूँ। मेरा गाँव पेशौर नालन्दा जिले के उन पिछड़े गाँवों में से एक है जहाँ बच्चों को पढ़ने-लिखने का कोई स्कूल नहीं है। गाँव आने-जाने के लिए पगडंडियों का सहारा आज भी है। गाँव में न तो पीने का स्वच्छ पानी है और न किसी के घर में शौचालय। गर्मियों में तो जाने-जाने का रास्ता मिल जाता है लेकिन बरसात में चारों ओर संपर्क भंग हो जाता है। नाव ही एकमात्र सहारा रहता है।
अतः श्रीमान् से निवेदन है कि इस गाँव की समस्या पर विशेष ध्यान देकर निजात दिलाने की कृपा करें इसके लिए हम सभी ग्रामवासी आपका आभारी रहेंगे।
भवनिष्ठ
आलोक कुमार
पेशौर, जिला – नालन्दा
2. संक्षेपण करें –
सामाजिक हिंसा सिर्फ राजनीति में ही नहीं, बल्कि सामाजिक संबंधों में भी फैल रही है। इस सामाजिक हिंसा का महिलाएँ सीधे शिकार बनती हैं। साथ में हमरे समाज के तमाम कामगार, आदिवासी, छोटे किसान और मजदूर जगह-जगह पर हिंसा को सह रहे हैं। आज यह राजनीति के साथ-साथ राजनीति की मुख्यधारा में भी शामिल हो गयी है, जो भविष्य के लिए अच्छा नहीं है।
उत्तर – शीर्षक: सामाजिक हिंसा
हिंसा हमारे समाज के साथ-साथ राजनीति में भी प्रवेश कर गयी है जिसमें मजदूर, किसान और घरेलू स्त्रियाँ शिकार हो रही हैं। यह हमारे देश के लिए ठीक नहीं है।
3. I. सही जोड़े का मिलान करें –
(क) बातचीत (i) जय प्रकाश नारायण
(ख) ओ-सदानीरा (ii) जगदीश चन्द्र माथुर
(ग) जूठन (iii) ओम प्रकाश वाल्मीकि
(घ) संपूर्ण क्रांति (iv) बाल कृष्ण भट्ट
(ङ) तुमुल कोलाहल कलह में (v) जयशंकर प्रसाद
उत्तर – (क) –(iv), (ख) –(ii), (ग) –(iii), (घ) –(i), (ङ) –(v)
II. निम्नलिखित प्रश्नों के बहुवैकल्पिक उत्तरों में से सही उत्तर बताइए –
(i) गाँव का घर
(क) ज्ञानेन्द्र पति
(ख) मलयज
(ग) नरेश सक्सेना
(घ) त्रिलोचन
(ii) गालिब
(क) त्रिलोचन
(ख) अरुण कमल
(ग) भूषण
(घ) नागार्जुन
(iii) प्यारे नन्हें बच्चे
(क) विनोद कुमार शुक्ल
(ख) हेनरी लोपेज
(ग) अंतोन चेखव
(घ) सआदत क्वांग थान
(iv) सफेद कबूतर
(क) गाइ-डि मापासाँ
(ख) न्यूयेन क्वांग थान
(ग) लू शुन
(घ) अंतोन चेखव
(v) छप्पय
(क) शमशेर बहादुर सिंह
(ख) विनोद कुमार शुक्ल
(ग) अशोक वाजपेयी
(घ) नाभादास
उत्तर – (i) – (क), (ii) –(क), (iii) ––(क), (iv)–(ख), (v)–(घ)
III. रिक्त स्थानों की पूर्ति करें –
(क) आत्महत्या करना बड़ा पाप है, दुःख में ………. धारण करके गंभीरता पूर्वक सोचना चाहिए।
(ख) एक कलाकार के लिए निहायत जरूरी है कि उसमें ……. हो।
(ग) भगत सिंह के अनुसार ……… भी देश की सेवा की जा सकती है।
(घ) ………. हमारे व्यक्तित्व के विकास में बाधक है।
(ङ) हर आदमी उस संसार को ……. जिसमें वह जीता है और भोगता है।
उत्तर – (क) धैर्य, (ख) आग, (ग) कष्ट सहकर, (घ) क्रोध, (ङ) रचता।
4. निम्नलिखित विषयों में से किसी एक पर निबंध लिखिए –
(क) चुनाव प्रक्रिया
(ख) मोबाइल
(ग) आतंकवाद
(घ) प्रदूषण
उत्तर – (क) चुनाव प्रक्रिया
लोकतंत्र में जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों द्वारा देश का शासन संचालन होता है। देश की जनता मतदान द्वारा उन व्यक्तियों का चयन करती है जिन्हें वह ईमानदार, सक्षम, उपयुक्त एवं कुशल प्रतिनिधि समझती है। लोकतांत्रिक देशों का अपना एक संविधान होता है जो शासन संचालन के लिए दिशा-निर्देश निर्धारित करता है। उसके आधार पर जन प्रतिनिधियों का चुनाव देश के नागरिकों के मतदान द्वारा होता है तथा एक सक्षम लोकतांत्रिक सरकार का गठन होता है। लोकतंत्र “जनता का, जनता के लिए एवं जनता के द्वारा निर्मित शासन व्यवस्था है। विश्व के विभिन्न राष्ट्रों में चुनाव प्रक्रिया एक-दूसरे से भिन्न है।
हमारा भारत विश्व का विशालतम् लोकतंत्र है। यहाँ सरकार गठन की चुनाव-प्रक्रिया आदर्श एवं सर्वोत्तम है। यहाँ केन्द्र एवं राज्यों की सरकारों का गठन पृथक निर्वाचन द्वारा होता है। राज्यों में विधानसभाएँ तथा विधान परिषदों का गठन चुनाव द्वारा होता है।
शासन व्यवस्था के संचालन में विधायिका को सहयोग प्रदान करने के लिए कार्यपालिका की सहायता ली जाती है तथा शासन-व्यवस्था की निरंकुशता अथवा अन्य अनियमित कार्यों पर नियंत्रण हेतु न्यायपालिका का गठन होता है। सभी राज्य सरकारें केन्द्र सरकार के प्रति उत्तरदायी होती हैं।
केन्द्र एवं राज्यों में लोकतांत्रिक सरकार के गठन के लिए एक जटिल चुनावी प्रक्रिया से गुजरना होता है। चुनाव कराने के लिए चुनाव आयोग होता है जो निष्पक्ष एवं स्वतंत्र चुनाव कराने का महत्वपूर्ण दायित्व निभाता है तथा इसका प्रमुख ‘मुख्य चुनाव आयुक्त’ होता है। विभिन्न राजनीतिक दल अपने घोषणा-पत्र के साथ चुनाव प्रक्रिया में सम्मिलित होते हैं तथा शासन संचालन में अपनी नीतियों एवं कार्यक्रमों को जनता के समक्ष प्रस्तुत करते हैं। चुनाव की तिथि घोषित होने के बाद सभी दल अपने उम्मीदवारों का नामांकन- पत्र आयोग को देते हैं। 18 वर्ष से ऊपर की आयु का प्रत्येक मतदाता अपना मत (वोट) किसी एक राजनीतिक दल के पक्ष में देता है। चुनकर आए प्रतिनिधियों से राज्यों में विधान सभा तथा केन्द्र में लोकसभा का गठन होता है। बहुमत दल का नेता राज्य में मुख्यमंत्री तथा केन्द्र में प्रधानमंत्री के पद पर आसीन होता है।
निर्विवाद रूप से, स्वच्छ एवं स्वस्थ चुनावी प्रक्रिया ही राष्ट्र को लोक-कल्याणकारी एवं समतामूलक शासन प्रदान करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, क्योंकि राष्ट्र का सर्वतोमुखी विकास योग्य, सक्षम एवं निष्पक्ष शासन में ही संभव है।
(ख) मोबाइल
आजकल, मोबाइल फोन हमारे जीवन में प्रमुख भूमिका निभाता है। आम तौर पर, मोबाइल फोन दैनिक जीवन में संचार का सबसे तेज साधन माना जाता है, हम अपने दोस्तों के साथ आसानी से संपर्क कर सकते हैं। हमारे रिश्तेदार जहाँ भी हो उनसे हम तुरंत संपर्क कर सकते हैं। मोबाइल फोन लोगों के लिए मनोरंजन का एक साधन है। हम संगीत सुनने के लिए और गेम खेलने के लिए भी इसका प्रयोग कर सकते हैं। इसके अलावा स्मार्टफोन के लिए नवीनतम एपस का उपयोग करके हम इंटरनेट का उपयोग कर सकते हैं। फिल्म देखने के लिए और सामाजिक नेटवर्क में हमारे प्रोफाइल की जाँच करने और हमारी स्थिति का अद्यतन हम कहीं भी कर सकते हैं। आज हमारे हाथ में एक स्मार्टफोन है, तो हमारे शब्दकोश का अध्ययन भी हो सकता है, जो इंटरनेट के अध्ययन के लिए उपयोगी है। मोबाइल फोन से कई नुकसान भी है। इससे आँखों एवं कानों में कई प्रकार के रोग उत्पन्न हो जाते हैं। बहुत सारे लोग मोबाइल फोन से झूठ बोलने का उपयोग करते हैं। गाड़ी चलाते समय मोबाइल फोन से बात करने पर दुर्घटना के शिकार हो जाते हैं ।
अंत में, मोबाइल फोन आज हमारे आधुनिक जीवन के लिए आवश्यक है। हालांकि यह उपयोगी है या नहीं, जो इसे इस्तेमाल करने तरीके पर निर्भर करता है। यदि हम इसे सही उद्देश्य के लिए और एक उचित समय में उपयोग करते हैं तो यह बेहतर है लेकिन अनुचित समय में उपयोग हानिकारक होगा।
(ग) आतंकवाद
आतंकवाद शब्द की व्युत्पत्ति ‘आतंक’ तथा ‘वाद’ दो शब्दों से हुई है जिसका अर्थ है आतंक (भय) को प्रोत्साहन देने वाला तंत्र । देश पर शासन करने वाली सर्वोच्च सत्ता से अपनी बात मनवाने के लिए तोड़फोड़, आतंक, हिंसा एवं विध्वंस का सहारा लेना ही ‘आतंकवाद’ है।
आतंकवाद एक भयावह रूप लेकर प्रकट होता है तथा विनाश का मार्ग अपनाता है। अपने संकीर्ण स्वार्थों की प्राप्ति के लिए सामूहिक हत्या, रेल की पटरी, पुलों, सरकारी भवनों आदि को क्षतिग्रस्त करना, विस्फोट द्वारा उड़ा देना, हवाई जहाज, बसों आदि के यात्रियों को बंधक बना लेना आदि आतंकवादी हिंसक प्रवृत्ति का स्वरूप है। यह भयानक रूप से सम्पूर्ण विश्व के लिए एक खतरा बनकर मानव समाज को अपने क्रूर शिकंजा में ले रहा है।
आतंकवाद ने विश्व समुदाय के समक्ष एक भयावह स्थिति पैदा कर दी है। उसकी चुनौती का सामना करने में विश्व समुदाय अपने को अक्षम तथा असहाय अनुभव करता है। अनेक निर्दोष व्यक्तियों की बम, डायनामाइट, लैंडमाइन्स (भूमिगत बारूदी सुंगों) अथवा अन्य विस्फोटकों द्वारा हत्या कर दी जाती है। देश में अस्थिरता की स्थिति उत्पन्न कर दी जाती है। भारत में नक्सलवादी, माओवादी, धार्मिक उन्माद से ग्रस्त उग्रवादी, आदि अपनी हिंसात्मक एवं नृशंस गतिविधियों से राष्ट्र के जनजीवन में आतंक एवं हिंसा का तांडव कर रहे हैं। शान्तिप्रिय एवं निर्दोष जन समुदाय के प्रति ये आतंकवादी संवेदनहीन हो गए हैं। देश के विकास के प्रति उनके हृदय में संवेदना का नितान्त अभाव है। पिछले कुछ वर्षों में मुम्बई, दिल्ली, गुजरात, कश्मीर आदि के अनेक स्थानों पर इन आतंकवादियों ने व्यापक नरसंहार किया है। कश्मीर का सम्पूर्ण भूभाग इसकी हिंसात्मक गतिविधियों से दहक रहा है तथा व्यापक नरसंहार का साक्षी है। अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेन्टर को ओसामा बिन लादेन के अंतर्राष्ट्रीय आतंकवादी संगठन “अलकायदा” ने पूर्णतया नष्ट कर दिया, जो विश्व की सबसे ऊँची इमारत थी।
आतंकवाद की उत्पत्ति में सामाजिक, आर्थिक तथा अन्य प्रकार की विषमताओं को मुख्य कारण माना जाता है। अनावश्यक दमन, शोषण तथा असमानता आतंकवाद की जननी है ऐसी मान्यता है। अतः हमें इनका निराकरण करना होगा तथा आतंकवादी गतिविधि में संलग्न उग्रवादी तत्वों की समस्याओं का समुचित निराकरण कर उन्हें राष्ट्र की मुख्य धारा में लाना होगा। आतंकवाद सम्पूर्ण विश्व के लिए एक भयानक खतरा है। समय रहते हमें इस समस्या का समाधान करना है।
(घ) प्रदूषण
मनुष्य प्रकृति की सर्वोत्तम सृष्टि है। जब तक यह प्रकृति के कामों में बाधा नहीं डालता, तब तक इसका जीवन स्वाभाविक गति से चलता है। किन्तु, इधर औद्योगिक विकास के लिए इसने प्रकृति से अपना ताल-मेल समाप्त कर लिया है। नतीजा यह है कि जितनी ही तेजी से उद्योग बढ़ रहे हैं, प्रकृति में धुआँ, गंदगी और शोर से प्रदूषण उतनी ही तेजी से बढ़ता जा रहा है। यह खतरे की घंटी है।
आज के युग में यंत्रों, मोटरगाड़ियों, रेलों तथा कल-कारखानों पर ज्यादा ध्यान दिया जाने लगा है। परिणामस्वरूप धुएँ के कारण कार्बन मोनोऑक्साइड की मात्रा बढ़ गई है और ऑक्सीजन की मात्रा कम होती जा रही है। गौरतलब है कि 860 किलोमीटर चलने पर एक मोटर जितनी ऑक्सीजन का प्रयोग करता है, उतनी ऑक्सीजन मनुष्य को एक वर्ष के लिए चाहिए। हवाई जहाज, तेलशोधक, चीनी मिट्टी, चमड़ा आदि कारखानों में ईंधन जलने से जो धुआँ होता है, उससे अधिक प्रदूषण होता है। घनी आबादी वाले शहर इससे ज्यादा प्रभावित होते हैं। टोकियो में तो कार्य पर तैनात सिपाही के लिए जगह-जगह पर ऑक्सीजन के सिलिंडर लगे होते हैं ताकि जरूरत पड़ने पर वह ऑक्सीजन ले सके। इंग्लैंड में चार घंटे में यातायात पुलिस की हालत खराब हो जाती है।
जनसंख्या में बेतहाशा वृद्धि भी प्रदूषण का एक कारण है। ग्राम और नगर फैलते जा रहे हैं, जंगलों तथा पेड़-पौधों का नाश होता जा रहा है। वर्षा नहीं होती, सूखा पड़ता है। साथ ही, कल-कारखानों के शोर के कारण लोगों का मानसिक असंतुलन भी बढ़ता जा रहा है।
प्रदूषण अनेक प्रकार के होते हैं, वायु में ऑक्सीजन की मात्रा कम हो जाने से वायु प्रदूषित होती है। इसी प्रकार जल में गन्दगी, कचरा डाल देने, शव बहा देने से जल प्रदूषित होते हैं। मिट्टी में जब कृत्रिम खाद की मात्रा बढ़ जाती है, जो मिट्टी भी प्रदूषित होती है। इतना ही नहीं, वातावरण में अधिक शोर-शराबा होने से ध्वनि भी प्रदूषित होती है।
वायु प्रदूषण का नतीजा है कि मनुष्य बीमारियाँ के चंगुल में फंस जाता है, हृदय और श्वास सम्बन्धी बीमारियों घर कर जाती है। यों वायु प्रदूषण प्रायः सब रोगों का प्रमुख कारण है। जल की गन्दगी से मवेशी और मनुष्य दोनों प्रभावित होते हैं। दूषित जल से मवेशी तो मरते ही हैं, जलीय कीड़े मनुष्य को भी जानलेवा बीमारियों के चक्कर में डालते हैं। मिट्टी प्रदूषित होने से फसल प्रदूषित होती है, जिनके सेवन से मनुष्य बीमार होता है। ध्वनि प्रदूषण से कानों पर बुरा असर होता है।
सच्ची बात तो यह है कि जब तक मनुष्य प्रकृति के साथ तालमेल स्थापित नहीं करता, उसकी प्रगति संभव नहीं है। वास्तविक प्रगति के लिए जरूरी है कि हम मशीनों पर शासन करें, न कि मशीनें हम पर। वनों, जलाशयों और पर्वतों का नाश रोके जाने के साथ ही, यह भी जरूरी है कि विषैली गैस, रसायन तथा जल-मल उत्पन्न करने वाले कारखानों को आबादी से दूर रखा जाए ताकि मनुष्य को जितनी ऑक्सीजन की जरूरत है, उसमें कमी न आये। वन महोत्सवों का आयोजन हो । बगीचे और वन लगाए जाएँ ताकि ऑक्सीजन की मात्रा कम न हो। धुआँ वाली गाड़ियों का प्रचलन कम हो और सी. एन. जी. वाली गाड़ियाँ चलें। लाउडस्पीकरों, तेज हॉर्न और कर्कश आवाज वाले यंत्रों पर रोक जरूरी है।
मनुष्य सर्वोपरि है। यदि इसका स्वास्थ्य ही ठीक न रहे तो प्रगति का क्या अर्थ? बीमार मनुष्य जीवन का क्या आनन्द उठाएगा? इसलिए जरूरी है कि प्रदूषण रोका जाए ताकि मनुष्य फले-फूले ।
5. सप्रसंग व्याख्या करें-
(क) आप उस समय महत्वाकांक्षी रहते हैं जब आप सहज प्रेम से कोई कार्य सिर्फ कार्य के लिए करते हैं।
अथवा,
हम नूतन विश्व के निर्माण करने की आवश्यकता महसूस करते हैं प्रत्येक व्यक्ति पूर्णतया मानसिक और आध्यात्मिक क्रांति में होता है।
(ख) पंचायती राज में जैसे खो गए पंच परमेश्वर बिजली बत्ती आ गयी कब की। हम में से
अथवा,
आशाओं से भरे हृदय भी छिन्न हुए हैं, अपने प्रिय परिवार देश से भिन्न हुए हैं।
उत्तर – (क) प्रस्तुत गद्यावतरण हमारी पाठ्य पुस्तक के ‘शिक्षा’ शीर्षक पाठ से लिया गया है। यह महान चिंतक और दार्शनिक जे. कृष्णमूर्ति के संभाषणों में से लिया गया एक संभाषण है। इस गद्यावतरण में महत्वाकांक्षा के चलते पैदा होनेवाली सामाजिक, राजनैतिक एवं धार्मिक विकृतियों का उल्लेख हुआ है।
प्रस्तुत पंक्तियों के द्वारा लेखक कहना चाहते हैं कि महत्वाकांक्षी केवल अपने विषय में ही सोचता है, अतः वह क्रुर हो जाता है और दूसरों को धकेलकर अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा करना चाहता है । क्षुद्र संघर्ष करने में जीवन सृजनशील नहीं बनता। प्रेम के अनुभव के साथ तल्लीन होकर कोई कार्य करने से हमारी क्षुद्र म वाकांक्षा है, इस स्थिति में हमारे हास संभावना समाप्त हो जाती है। शिक्षा हमें वहीं कार्य कर सिखाती है जिसमें हमारी रुचि और दिलचस्पी हो । रुचि के बगैर किया गया कोई काम ऊब, ह्रास और मृत्पदान करता है। प्रेम से किये गये कार्यों से ही नूतन समाज का निर्माण संभव है।
अथवा,
प्रस्तुत पंक्ति हमारे पाठ्य पुस्तक दिंगत भाग-2 में संकलित ‘शिक्षा’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है। इसके रचयिता आधुनिक युग के महान भारतीय चिंतक एवं दार्शनिक जे. कृष्णमूर्ति हैं।
उपर्युक्त गद्यांश में लेखक कहते हैं कि वैचारिक परतंत्रता और जड़ पारंपरिक मान्यताओं के वातावरण में रहकर हमने अपने जीवन में भय, घुटन और विवशता के प्रश्रय दिया है। परिणामस्वरूप, हमारे जीवन में अनेक विकृतियाँ आ गयी हैं। हमारा उल्लासित जीवन विद्रूप और घिनौना हो गया है। भय, असुरक्षा तथा महत्वाकांक्षा के भाव ने सर्वत्र अशांति, संघर्ष, प्रतिस्पर्धा और हिंसा का वातावरण निर्मित कर दिया है। हमारा जीवन जो स्वाभाविक रूप से ऐश्वर्य, रहस्य और अद्भुत सौंदर्य का वरदान था, महत्वाकांक्षा के चलते अब वह अत्यंत घिनौना हो गया है। यदि हम अपने जीवन की स्वाभाविक समृद्धि, उसके रहस्यों से भरे आकर्षक संकेतों और उसके अदभुत सौंदर्य को पुनः लौटाने की बात सोचते, तो हमें संगठित धर्म, जड़, परंपरा और सड़े हुए समाज के खिलाफ विद्रोह करना होगा। हमें सत्य और वास्तविकता की खोज करके जीवन की विकृतियों के कारणों का समूल विनाश करना होगा। विकृतियों के नष्ट होते ही हमारा जीवन नूतन सौंदर्य से हमें अनुगृहित कर देगा |
(ख) प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक दिंगत के “गाँव का घर” शीर्षक कविता से उद्धृत है। इस
कविता के रचयिता कवि ज्ञानेन्द्रपति हैं। इन पंक्तियों में गाँवों की पुरानी व्यवस्था तथा नैतिक मूल्यों का वर्तमान व्यवस्था द्वारा ह्रास उनकी चिंता का विषय है।
इन पंक्तियों में कवि ने एक ओर पुरानी ग्रामीण व्यवस्था में गाँवों के विवाद को निपटाने में पंच-परमेश्वर तथा पंचायत की भूमिका का वर्णन किया है वहीं वर्तमान पंचायती राज व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार, अनैतिकता तथा अराजकता की ओर संकत किया है। कवि की ऐसी प्रतीति है कि पंच-परमेश्वर का सौम्य रूप पंचायती राज की अव्यवस्था तथा अन्याय के अंधकार में लुप्त हो गया है। लालटेनों की जगह बिजली ने ले लिया है। अब गाँव में बिजली आ गयी है। परंतु विडंबना यह है कि बनी रहने की बजाय यह अधिकतर “गई रहने वाली” हो गयी है। तात्पर्य यह है कि बिजली थोड़ी देर के लिए आती है तथा अधिकांश समय गायब रहती है। इसके बावजूद बेटा के दहेज़ में टी०वी० लेने की लालसा गाँव के लोगों में है। “
अथवा,
प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्य पुस्तक में संकलित ‘पुत्र वियोग’ शीर्षक कविता के प्रश्न कविता के आस-पास के ‘जालियाँवाला बाग में बसंत’ से उद्धृत है, इस पंक्ति के रचयिता महान कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान है।
इन पंक्तियों में कवयित्री कहना चाहती है कि पुत्र वियोग में माँ का आकुल दशा मन को मथने लगती है। यह सोचने लगी कि कैसा होगा वह क्षण जब माँ निःसहाय की बैठी होगी और मृत्यु दबे पाँच आकर उसके जीवन के आधार को लेकर चली गयी। निर्माण काल के प्रति मेरे मन में एक विद्रोही का भाव उठने लगा। जालियाँवाला मैदान में सभा कर रहे निहत्थे भारतीय पर जनरल डायर गोलियाँ वर्षा कर कितने को अकाल मृत्यु के गाल में समा दिया। कवयित्री कहना चाहती है कि उन अमर शहीदों को फूलों के साथ अश्रु जल की श्रद्धांजली देनी चाहिए।
6. (क) किन्हीं पाँच शब्दों के विपरीतार्थक शब्द लिखें –
आदर, आर्य, आर्द्र, अमृत, आय, आधार
(ख) अनेक शब्दों के लिए एक शब्द लिखें
यशवाला, लोक का, ग्राम का पुत्र का पुत्र, याचना करने वाला,
(ग) किन्हीं पाँच के संधि-विच्छेद करेंखेलने वाला।
दुर्ग, पयोद, तृष्णा, यथेष्ठ, निश्चल,नाविक ।
(घ) किन्हीं पाँच के विशेषण बनाएँ
अंकुर, कुटुम्ब, देशी, नियम, कृपा, चरित्र ।
(ङ) समास क्या है? उनके भेदों को स्पष्ट करें।
उत्तर –
(ङ) समास – समास शब्द का अर्थ है संक्षेप या सम्मेल। अतः दो शब्दों के बीच विभक्ति का लोप करके दोनों शब्दों के मिलान को समास कहते हैं। जैसे— राजा का पुत्र = राजपुत्र। इस राजपुत्र शब्द में ‘का’ चिह्न का लोप कर दिया गया है।
समास के भेद – समास के सात भेद हैं—(i) अव्ययीभाव, (ii) तत्पुरुष, (iii) कर्मधारय, (iv) द्वन्द्व, (v) द्विगु, (vi) बहुव्रीहि, (vii) नञ् समास।
7. निम्नलिखित लघु उत्तरीय प्रश्नों के उत्तर दें –
(क) बोधा सिंह कौन है?
(ख) गंगा पर पुल बनाने में अंग्रेजों ने क्यों दिलचस्पी नहीं ली ?
(ग) मानक और सिपाही एक-दूसरे को क्यों मारना चाहते हैं?
(घ) जीवन में विद्रोह का क्या स्थान है ?
(ङ) प्रगीतात्मकता का अर्थ आलोचकों की दृष्टि में क्या है?
(च) डायरी का लिखा जाना क्यों मुश्किल है ?
उत्तर – (क) बोधा सिंह ‘उसने कहा था’ शीर्षक कहानी के सूबेदारहजारा सिंह का पुत्र
(ख) गंगा पर पुल बनाने में अंग्रेजों ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। वे जानते थे कि गंगा पर पुल बन जाता है तो दक्षिण बिहार में उदित हो रहे विद्रोही विचारों का असर पड़ना तुरंत शुरू हो जाएगा और उन्हें तब बड़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है। दक्षिण बिहार में अंग्रेजों के अत्याचारों के विरोध में मुंडा जाति सक्रिय हो गयी थी और अंग्रेजों को उनसे डर होने लगा था। देशभक्त बिरसा मुंडा ने सैन्यदल का संगठन किया था और अपने छापामार युद्ध से अंग्रेजों को परेशान कर रखा था।
(ग) ‘सिपाही की माँ’ शीर्षक एकांकी में मानक और सिपाही दो पात्रों की भूमिका एकांकी के अन्तिम प्रसंग में आती है। दोनों दो देश के फौजी हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय वे एक-दूसरे के खिलाफ बर्मा में युद्ध कर रहे हैं। मानक हिन्दुस्तानी फौजी है और अन्य सिपाही जापानी फौजी है। युद्ध के क्रम में मानक ने कई घातक प्रहार सिपाही पर किये हैं। सिपाही भी मार खाकर घायल शेर की तरह मानक का पीछा करता है। वह मानक को भी घायल करता है। एक-दूसरे को जान से मारना चाहते हैं। ऐसा युद्ध नीति के अनुकूल है। युद्ध में दुश्मन को छोड़ना युद्ध नीति के विरुद्ध है। इसीलिए मानक और सिपाही एक-दूसरे को मारना चाहते हैं।
(घ) जीवन में विद्रोह का महत्वपूर्ण स्थान है। विद्रोह सत्य की खोज का आधार है। विद्रोह की बदौलत ही जड़ परंपराओं, रूढ़ियों और सड़े हुए सामाजिक बंधनों से मुक्ति मिलती है। प्रत्येक वस्तु के खिलाफ विद्रोह करके ही हम जीवन के ऐश्वर्य, समृद्धि, गरिमा, गांभर्य और इसकी (जीवन की) अद्भुत सुंदरता से परिचित हो सकते हैं। विद्रोह नहीं करने का मतलब होता है एक जड़ स्वीकार । जिस जड़ स्वीकार में हम जीते हैं, वहाँ जीवन नहीं होता, जीवन का स्वाँग होता है। संगठित धर्म, परंपरा और सड़े हुए समाज की सड़ी हुई व्यवस्था से मुक्ति तभी संभव होती है, जब हम उनके खिलाफ विद्रोह करते हैं। जिंदगी का अर्थ है अपने लिए सत्य की खोज और यह खोज उस हालत में संभव होती है जब हमारे भीतर क्रांति और विद्रोह की ज्वाला प्रकाशमान हो ।
(ङ) मुक्तिबोध की कविताओं पर तत्कालीन पंरपरावादी आलोचकों का ध्यान नहीं गया। यदि गया. भी, तो उन लोगों ने बने-बनाये काव्य सिद्धांत के आधार पर आलोचना लिखकर अपने कर्तव्य का जैसे-जैसे निर्वाह कर लिया। डॉ० नामवर सिंह ने ‘कविता के लिए प्रतिमान’ प्रस्तावित करने के लिए मुक्तिबोध की लंबी वस्तुपरक नाट्यधर्मी कविताओं को लिया जिनमें डॉ. सिंह ने गंभीर गवेषणा के बाद देखा कि मुक्तिबोध की प्रगीतात्मक रचनाओं में भी सामाजिक अर्थवत्ता वर्तमान थी। मुक्तिबोध की कविताओं में आत्मपरकता और भावमयता अवश्य थी, पर ये दोनों उस कवि की शक्ति थीं, इनसे वह अपनी प्रत्येक कविता को गति और ऊर्जा प्रदान करता था। उपर्युक्त दृष्टियों से ही मुक्तिबोध की कविताओं पर पुनर्विचार की आवश्यकता है।
आलोचक डॉ॰ नामवर सिंह का इस विषय में यही निष्कर्ष है कि मुक्तिबोध की कविताओं का सही मूल्यांकन परंपरावादी काव्य सिद्धांत पर नहीं किया जा सकता, क्योंकि मुक्तिबोध ने परंपरा से हटकर नया विषय लिया है और नई अभिव्यक्ति प्रणाली विकसित की है। वह लंबी कविता लिखता है, पर उसमें आत्मपरकता और वैयक्तिकता अझुण्ण है, वह प्रगीतात्मक छोटी-छोटी कविताएँ लिखता है, पर उसमें आत्मपरकता के भीतर से सामाजिक यथार्थ की लालिमा झाँकती रहती है। अतः ऐसे अंतर्बाह्य विरोधों को खतरा मोल लेनेवाले कवि पर पुनर्विचार करना अत्यंत आवश्यक है।
(च) डायरी का लिखा जाना एक कठिन कार्य है। यह वही व्यक्ति लिख सकता है जो नियमित एवं संयमित जीवन जीता है। आलसी, लापरवाह, लक्ष्यविहीन, दिशाहीन व्यक्ति डायरी नहीं लिख सकता। इसलिए यह एक मुश्किल काम है। पूरी मानसिक तटस्थता से ही यह कार्य संपादित हो पाता है।
8. निम्नलिखित दो दीर्घ उत्तरीय प्रश्नों के उत्तर दें –
(क) ‘छप्पय’ कविता का सारांश लिखें।
अथवा,
‘कवित्त’ शीर्षक कविता का सारांश लिखें।
(ख) ‘तिरिछ’ कहानी का सारांश लिखें।
अथवा,
‘शिक्षा’ का सारांश लिखें।
उत्तर – (क) ‘छप्पय’ : ‘छप्पय’ शीर्षक पद कबीरदास एवं सूरदास पर लिखे गये छप्पय ‘भक्तमाल’ से संकलित है। छप्पय एक छंद है जो छः पंक्तियों का गेय पद होता है ।
प्रस्तुत छप्पय में वैष्णव भक्ति की नितांत भिन्न दो शाखाओं के इन महान भक्त कवियों पर लिखे गये छंद हैं। इसमें इन कवियों से सम्बंधित अबतक के संपूर्ण अध्ययन – विवेचन के सार-सूत्र स्पष्ट अंकित हैं। पाठ के प्रथम छप्पय में नाभादास ने आलोचनात्मक शैली में कबीर के प्रति अपने भाव व्यक्त किये हैं।
कवि के अनुसार कबीर ने भक्ति विमुख तथाकथित धर्मों की धज्जी उड़ा दी है। उन्होंने वास्तविक धर्म को स्पष्ट करते हुए योग, यज्ञ, व्रत, दान और भजन के महत्त्व का बार-बार प्रतिपादन किया है। उन्होंने अपनी सबदी साखियों और रमैनी में क्या हिन्दू और क्या तुर्क सबके प्रति आदर भाव व्यक्त किया है। कबीर के वचनों में पक्षपात नहीं है। उनमें लोकमंगल की भावना है। उन्होंने वर्णाश्रम के पोषक षट-दर्शनों की दुर्बलताओं को तार-तार करके दिखा दिया है।
दूसरे छप्पय में कवि नाभादास ने सूरदासजी का कृष्ण के प्रति भक्तिभाव प्रकट किया है। कवि का कहना है कि सूर की कविता सुनकर कौन ऐसा कवि है जो उनके साथ हामी नहीं भरेगा। सूर की कविता में श्रीकृष्ण की लीला का वर्णन है। उनके जन्म से लेकर स्वर्गधाम तक की लीलाओं का मुक्त गुणगान किया गया है। उनकी कविता में क्या नहीं है? गुण- माधुरी और रूप- माधुरी सब कुछ भरी हुई है। सूर की दृष्टि दिव्य थी। वही दिव्यता उनकी कविताओं में भी प्रतिबिंबित है। गोप-गोपियों के संवाद में अद्भुत प्रीति का निर्वाह दिखायी पड़ता है। शिल्प की दृष्टि से उक्ति- वैचित्र्य, वर्ण्य – वैचित्र्य और अनुप्रासों की अनुपम छटा सर्वत्र दिखायी पड़ती है।
अथवा,
‘कवित्त’ : रीतिकालीन कवि होते हुए भी पाठकों में वीर रस की भावना का संचार करने में भूषण एक श्रेष्ठ कवि हैं। वे स्वाभिमान, आत्मगौरव, शौर्य और पराक्रम की भावना जगाने में सफल हैं।
प्रस्तुत प्रथम कवित्त ‘इन्द्र जिमि’ में कवि ने छत्रपति शिवाजी की प्रशंसा की है।
जिस प्रकार इन्द्र का यम पर अधिकार है, बड़वाग्नि जैसे- समुद्र के जल को शांत करती है, उसी प्रकार पवन बादलों को तितर-बितर कर देता है। भगवान शंकर का कामदेव पर अधिकार है। सहस्त्रार्जुन पर परशुराम विजयी हुए थे। जंगल की अग्नि पेड़ की शाखाओं पर विजय प्राप्त करती है। भगवान श्रीकृष्ण ने दुष्ट कंस पर विजय प्राप्त की है। चीता मृग के भीड़ पर आक्रमण कर देता है। भूषण कवि कहते हैं – उसी प्रकर हाथी पर सवार छत्रपति शिवाजी मृगराज की तरह शोभित हो रहे हैं। वे शेर बनकर गर्जना कर रहे हैं। वे हिंदुओं का मान रक्षण और मान-वर्द्धन कर रहे हैं।
दूसरे कवित्त ‘निकसत म्यान’ में कवि भूषण राजा छत्रसाल की वीरता का वर्णन करते हैं। म्यान से निकलती उनकी तलवार सूर्य की तरह प्रखर है। वह तलवार विशाल हाथियों के झुंड को छिन्न-भिन्न कर देती है। दुश्मनों के गले में यह तलवार नागिन साँप-सी लिपटती-काटती है। कटे हुए मुँह की माला तैयार हो जाती है, जैसे छत्रसाल राजा रुद्र भगवान को रिझा- मना रहे हों। राजा छत्रसाल महाबली हैं। उनकी कहाँ तक प्रशंश की जाए? छत्रसाल की तलवार शत्रुओं के जाल को काटकर रणचण्डी की भाँति किलकारी भरती हुई काल को ग्रास बनाती है। छत्रसाल अत्यंत धीर-वीर योद्धा की तरह हैं। यह कविता भयानक रस संचार करने में सफल है। भूषण एक श्रेष्ठ वीर रस के कवि हैं।
(ख) ‘तिरिछ : ‘तिरिछ’ कहानी का कथानक लेखक के पिताजी से सम्बन्धित है। इसका संबंध लेखक के सपने से भी है। इसके अतिरिक्त, शहर के प्रति जो जन्मजात भय होता है उसकी विवेचना भी इस कहानी में की गई है। गाँव एवं शहर की जीवन-शैली का इसमें तुलनात्मक अध्ययन अत्यन्त सफलतापूर्वक किया गया है। गाँव की सादगी तथा शहर का कृत्रिम आचरण इसमें प्रतिबिंबित होता है।
एक दिन शाम को जब वे टहलने निकले तो एक विषैले जन्तु तिरिछ ने उन्हें काट लिया। उसका विष साँप की तरह जहरीला तथा प्राणघातक होता है। रात में झाड़-फूँक तथा इलाज चला दूसरे दिन सुबह उन्हें शहर की कचहरी में मुकदमे की तारीख के क्रम में जाना था। घर से वे गाँव के ही ट्रैक्टर पर सवार होकर शहर को रवाना हुए। वे तिरिछ द्वारा काटे जाने की घटना का वर्णन ट्रैक्टर पर सवार अन्य लोगों से करते हैं। ट्रैक्टर पर सवार उनके सहयात्री पं० रामऔतार ज्योतिषी के अलावा वैद्य भी थे। उन्होंने रास्ते में ट्रैक्टर रोककर उनका उपचार किया। धंतूरे की बीज को पीसकर उबालकर काढ़ा कर उन्हें पिलाया गया। ट्रैक्टर आगे बढ़ा तथा शहर पहुँचकर लेखक के पिताजी ट्रैक्टर से उतरकर कचहरी के लिए रवाना हुए। यह समाचार पं० रामऔतारजी ने गाँव आकर बताया, क्योंकि वे (लेखक के बाबूजी) शाम को घर नहीं लौटे थे, विभिन्न स्रोतों से उनके विषय में निम्नांकित जानकारी प्राप्त हुई। ट्रैक्टर से उतरते समय उनके सिर में चक्कर आ रहा था तथा कंठ सूख रहा था। गाँव के मास्टर नंदलाल, जो उनके साथ थे, उन्होंने बताया। इस बीच वे स्टेट बैंक की देशबंधु मार्ग स्थित शाखा, सर्किट हाउस के निकट वाले थाने में गए। उक्त स्थान पर उन्हें अपराधी प्रवृति तथा असामाजिक तत्व समझकर काफी पिटाई की गई और वे लहु-लुहान हो गए। अंत में वे इतवारी कॉलोनी गए। वहाँ उनको कहते सुना गया, “मैं राम स्वारथ प्रसाद, एक्स स्कूल हेडमास्टर एंड विलेज हेड ऑफ … ग्राम बकेली …।” किन्तु वहाँ उन्हें पागल समझकर कॉलोनी के छोटे-बड़े लड़कों ने उनपर पत्थर बरसाकर रही-सही कसर निकाल दी। उनका सारा शरीर लहु-लुहान हो गया। घिसते-पिटते लगभग शाम छः बजे सिविल लाइंस की सड़क की पटरियों पर बनी मोचियों की दुकान में से गणेसवा मोची की दुकान के अन्दर चले गए। गणेसवा मोची उनके बगल के गाँव का रहनेवाला था। उसने उन्हें पहचाना। कुछ ही देर में उनकी मृत्यु हो गई।
इस प्रकार इस कहानी के द्वारा लेखक ने सांकेतिक भाषा-शैली में आधुनिक शहरों में पसर रही विकृतियों एवं विसंगतियों पर कटाक्ष किया है। दूषित मानसिकता से ग्रसित शहरी जीवन-शैली ‘‘तिरिछ’’ की तरह भयानक तथा विषैली हो गई है। वास्तविकता की तह में गए बगैर हम दरिन्दगी तथा अमानवीय कृत्यों पर उतर आते हैं।
अथवा,
‘शिक्षा’ : ‘शिक्षा’ शीर्षक संभाषण में जे० कृष्णमूर्ति ने शिक्षा विषयक अपने विचारों का वर्णन किया। उनके अनुसार शिक्षा का उद्देश्य डिग्री प्राप्त करना एवं उसके माध्यम से कोई रोजगार प्राप्त करना या कोई व्यापार करना मात्र नहीं है, बल्कि जीवन को पूर्णरूपेण समझना शिक्षा है। शिक्षा का कार्य है कि वह हमें बचपन से ही जीवन की सम्पूर्ण प्रक्रिया समझने में सहायता करे। में
जे० कृष्णमूर्ति के अनुसार, हमारी शिक्षा व्यर्थ साबित होगी, यदि वह हमको, हमारे जीवन को, हमारे दुखों को, हमारे हर्षों को समझने में सहायता न करे। अतः शिक्षा का महत्वपूर्ण कार्य है कि वह हममें उस मेधा का उद्घाटन करें जिससे हम जीवन की समस्त समस्याओं का हल खोज सकें।
लेखक के अनुसार, निर्भयतापूर्ण वातावरण का निर्माण करना बड़ा ही कठिन कार्य है। सम्पूर्ण विश्व अंतहीन युद्धों में जकड़ा हुआ है। यह दुनिया वकीलों, सिपाहियों और सैनिकों की दुनिया है। दूसरी ओर संन्यासी और धर्मगुरु भी शक्ति और प्रतिष्ठा की चाह में सम्पूर्ण विश्व में भटक रहे हैं। लेखक के अनुसार यह विश्व ही पूरा पागल है। यहाँ एक ओर साम्यवादी पूँजीपति से लड़ रहा है तो दूसरी ओर समाजवादी दोनों का प्रतिरोध कर रहा है। यहाँ प्रत्येक व्यक्ति किसी-न-किसी के विरोध में खड़ा है। ऐसी स्थिति में लेखक एक ऐसे समाज की कल्पना कर रहा है जो हमें पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान करे कि हम एक नूतन समाज का निर्माण कर सकें। लेखक के अनुसार यह स्वतंत्रता हमें इसी क्षण चाहिए अन्यथा हम सभी नष्ट हो जाएँगे।
लेखक मनुष्य के अंदर की महत्वाकांक्षा को जीवन के विकास में अवरोध मानता है। लेखक के अनुसार महत्वाकांक्षी व्यक्ति केवल अपने संबंध में सोचता है, अन्य लोगों की सोच को अपने सोच के समक्ष फीका समझने के कारण वह क्रूर बन जाता है। महत्वाकांक्षी व्यक्ति कोई कार्य प्रेम से नहीं कर सकता है बल्कि कार्य का निष्पादन आदतन कर पाता है। महत्वाकांक्षा विकास में ह्रास उत्पन्न करने वाली होती है।
9. रीतिकाल की सामान्य प्रवृत्तियों का संक्षिप्त परिचय दें।
अथवा,
जायसी के काव्य-कला पर प्रकाश डालें।
उत्तर – रीतिकाल का साहित्य सामंतीय वातावरण और संस्कृति का उद्भावक है। राजदरबारों का आश्रय पानेवालों की इस शृंगारी कविताओं में धनोपार्जन की प्रवृत्ति वर्तमान है। कविता में रीति एवं अलंकार का प्रयोग खुलकर किया गया है। भाव-सौंदर्य के स्थान पर नारी के रूप-सौंदर्य को चित्रित करने में सारी शक्ति लगा दी गई। कविता ‘प्रेम की पुकार’ तथा ‘रसिकता और अभिव्यक्ति’ से आगे न बढ़ सकी। फलतः रीतिकाल अथवा शृंगारकाल की सामान्य प्रवृत्तियाँ निम्नलिखित हैं
(i) शृंगारिकता : रीतिकाल में यह प्रवृत्ति सर्वत्र देखी जा सकती है। परम्परा रूप में भक्ति-काव्य से रीति या प्रेमभाव की सामग्री प्राप्त कर इस युग ने शृंगार को रसराज के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया। इस युग का परिवेश भी बहुत कुछ शृंगारी मनोवृत्ति के अनुकूल या शृंगार-वर्णन ही रीतिकाव्य का मुख्य उद्देश्य था।
(ii) अलंकरण की प्रधानता : रीतिकालीन कविता की दूसरी प्रवृत्ति आलंकारिता है। इस युग में प्रदर्शन, चमत्कार और रसिकता को प्रधानता दी गई है।
(iii) भक्ति और नीति: शृंगारकाल में जहाँ शृंगारपरक भावनाओं का वर्णन मिलता है, वहीं यत्र तत्र भक्ति और नीति से संबद्ध सूक्तियाँ भी बिखरी हुई मिलती हैं।
(iv) आश्रयदाता की प्रशंसा : शृंगारकाल/ रीतिकाल के कवियों का मूलं उद्देश्य अपने आश्रयदाताओं को संतुष्ट करना था। ऐसी स्थिति में मुक्तक शैली ही अधिक उपयुक्त थी।
(v) ब्रजभाषा की प्रधानता : इस काल की प्रमुख साहित्यिक भाषा ब्रजभाषा थी। इस काल तक ब्रजभाषा का शब्दकोष काफी भर गया था और उसने पर्याप्त उन्नति भी कर ली थी।
अथवा,
मलिक मुहम्मद जायसी (1592-1548) ‘प्रेम की पीर के कवि हैं। मार्मिक अंतर्व्यथा से भरा हुआ यह प्रेम अत्यंत व्यापक, गूढ़ आशयोवाला और महिमामय है। ‘पद्मावत’ के आख्यान में सजीव कहानी का मर्मस्पर्शी वेदनामय रस है और चरित्रों, उनके सुलगत- दहकते, मनोभावों के दुर्निवार प्रभाव हैं।’ जायसी की कृतियाँ हैं— ‘पद्मावत’, ‘अखरावट’, ‘आखिरी कलाम’, ‘चित्ररेखा’, ‘कहरानामा’ और ‘मसला या मसलानामा।’ जायसी के माध्यम से हिंदी साहित्य ने न सिर्फ अपने युग की, बल्कि युगों के भीतर कड़कती हुई मानवीय विषाद की तस्वीर देखती जिसमें निष्कलंक आदर्श भी हैं और बहुत कड़वे यथार्थ भी हैं।
1. निम्नलिखित विषयों में से किसी एक पर निबंध लिखिए –
(क) प्रदूषण
(ख) मेरी प्रिय पुस्तक
(ग) महँगाई की समस्या
(घ) भ्रष्टाचार
(ङ) छात्र और अनुशासन
उत्तर – (क) प्रदूषण
मनुष्य प्रकृति की सर्वोत्तम सृष्टि है। जब तक यह प्रकृति के कामों में बाधा नहीं डालता, तब तक इसका जीवन स्वाभाविक गति से चलता है। किन्तु, इधर औद्योगिक विकास के लिए इसने प्रकृति से अपना ताल-मेल समाप्त कर लिया है। नतीजा यह है कि जितनी ही तेजी से उद्योग बढ़ रहे हैं, प्रकृति में धुआँ, गंदगी और शोर से प्रदूषण उतनी ही तेजी से बढ़ता जा रहा है। यह खतरे की घंटी है।
आज के युग में यंत्रों, मोटरगाड़ियों, रेलों तथा कल-कारखानों पर ज्यादा ध्यान दिया जाने लगा है। परिणामस्वरूप धुएँ के कारण कार्बन मोनोऑक्साइड की मात्रा बढ़ गई है और ऑक्सीजन की मात्रा कम होती जा रही है। गौरतलब है कि 860 किलोमीटर चलने पर एक मोटर जितनी ऑक्सीजन का प्रयोग करता है, उतनी ऑक्सीजन मनुष्य को एक वर्ष के लिए चाहिए। हवाई जहाज, तेलशोधक, चीनी मिट्टी, चमड़ा आदि कारखानों में ईंधन जलने से जो धुआँ होता है, उससे अधिक प्रदूषण होता है। घनी आबादी वाले शहर इससे ज्यादा प्रभावित होते हैं। टोकियो में तो कार्य पर तैनात सिपाही के लिए जगह-जगह पर ऑक्सीजन के सिलिंडर लगे होते हैं ताकि जरूरत पड़ने पर वह ऑक्सीजन ले सके। इंग्लैंड में चार घंटे में यातायात पुलिस की हालत खराब हो जाती है।
जनसंख्या में बेतहाशा वृद्धि भी प्रदूषण का एक कारण है। ग्राम और नगर फैलते जा रहे हैं, जंगलों तथा पेड़-पौधों का नाश होता जा रहा है। वर्षा नहीं होती, सूखा पड़ता है। साथ ही, कल-कारखानों के शोर के कारण लोगों का मानसिक असंतुलन भी बढ़ता जा रहा है।
प्रदूषण अनेक प्रकार के होते हैं, वायु में ऑक्सीजन की मात्रा कम हो जाने से वायु प्रदूषित होती है। इसी प्रकार जल में गन्दगी, कचरा डाल देने, शव बहा देने से जल प्रदूषित होते हैं। मिट्टी में जब कृत्रिम खाद की मात्रा बढ़ जाती है, जो मिट्टी भी प्रदूषित होती है। इतना ही नहीं, वातावरण में अधिक शोर-शराबा होने से ध्वनि भी प्रदूषित होती है।
वायु प्रदूषण का नतीजा है कि मनुष्य बीमारियाँ के चंगुल में फंस जाता है, हृदय और श्वास सम्बन्धी बीमारियों घर कर जाती है। यों वायु प्रदूषण प्रायः सब रोगों का प्रमुख कारण है। जल की गन्दगी से मवेशी और मनुष्य दोनों प्रभावित होते हैं। दूषित जल से मवेशी तो मरते ही हैं, जलीय कीड़े मनुष्य को भी जानलेवा बीमारियों के चक्कर में डालते हैं। मिट्टी प्रदूषित होने से फसल प्रदूषित होती है, जिनके सेवन से मनुष्य बीमार होता है। ध्वनि प्रदूषण से कानों पर बुरा असर होता है।
सच्ची बात तो यह है कि जब तक मनुष्य प्रकृति के साथ तालमेल स्थापित नहीं करता, उसकी प्रगति संभव नहीं है। वास्तविक प्रगति के लिए जरूरी है कि हम मशीनों पर शासन करें, न कि मशीनें हम पर। वनों, जलाशयों और पर्वतों का नाश रोके जाने के साथ ही, यह भी जरूरी है कि विषैली गैस, रसायन तथा जल-मल उत्पन्न करने वाले कारखानों को आबादी से दूर रखा जाए ताकि मनुष्य को जितनी ऑक्सीजन की जरूरत है, उसमें कमी न आये। वन महोत्सवों का आयोजन हो । बगीचे और वन लगाए जाएँ ताकि ऑक्सीजन की मात्रा कम न हो। धुआँ वाली गाड़ियों का प्रचलन कम हो और सी. एन. जी. वाली गाड़ियाँ चलें। लाउडस्पीकरों, तेज हॉर्न और कर्कश आवाज वाले यंत्रों पर रोक जरूरी है।
मनुष्य सर्वोपरि है। यदि इसका स्वास्थ्य ही ठीक न रहे तो प्रगति का क्या अर्थ? बीमार मनुष्य जीवन का क्या आनन्द उठाएगा? इसलिए जरूरी है कि प्रदूषण रोका जाए ताकि मनुष्य फले-फूले ।
(ख) मेरी प्रिय पुस्तक
मुझे श्रेष्ठ पुस्तकों से अत्यधिक प्रेम है। यों मुझे अनेक पुस्तकें पसंद हैं, लेकिन जिसने मुझे सबसे अधिक प्रभावित किया, वह है तुलसीदास की ‘रामचरितमानस’।
‘रामचरितमानस’ में दशरथ – पुत्र राम की जीवन-कथा का वर्णन है। श्रीराम के जीवन की प्रत्येक लीला मन को भाने वाली है। उन्होंने किशोर अवस्था में ही राक्षसों का वध और यज्ञ – रक्षा का कार्य जिस कुशलता से किया है, वह मेरे लिए अत्यंत प्रेरणादायक है।
रामचरितमानस में मार्मिक स्थलों का वर्णन तल्लीनता से हुआ है। राम वनवास, दशरथ-मरण, सीता-हरण, लक्ष्मण – मूर्छा, भरत-मिलन आदि के प्रसंग दिल को छूने वाले हैं। इन अवसरों पर मेरे नयनों में आँसुओं की धारा उमड़ आती है। विशेष रूप से राम और भरत का मिलन हृदय को छूने वाला है।
इस पुस्तक में तुलसीदास ने मानव के आदर्श व्यवहार को अपने पात्रों के जीवन में साकार होते दिखाया है। राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। वे आदर्श राजा, आदर्श पुत्र, आदर्श पति और आदर्श भाई हैं। भरत और लक्ष्मण आदर्श भाई हैं। उनमें एक-दूसरे के लिए सर्वस्व त्याग की भावना प्रबल है। सीता आदर्श पत्नी है। हनुमान आदर्श सेवक है। पारिवारिक जीवन की मधुरता का जैसा सरस वर्णन इस पुस्तक में है, वैसा अन्यंत्र कही नहीं मिलता।
यह पुस्तक केवल धार्मिक महत्त्व की नहीं है। इसमें मानव को प्रेरणा देने की असीम शक्ति है। इसमें राजा, प्रजा, स्वामी, दास, मित्र, पति, नारी, स्त्री पुरुष सभी को अपना जीवन उज्जवल बनाने की शिक्षा दी गई है।
रामचरितमानस की भाषा अवधी है। इसे दोहा-चौपाई शैली में लिखा गया है। इसका एक-एक छंद रस और संगीत से परिपूर्ण है। इसकी रचना को लगभग 500 वर्ष हो चुके हैं। फिर भी आज इसके अंश मधुर कंठ में गाए जाते हैं ।
(ग) महँगाई की समस्या
कमरतोड़ महँगाई का सवाल आज के मानव की अनेकानेक समस्याओं में अहम् बन गया है। पिछले कई सालों से उपभोक्ता वस्तुओं की कीमतें आसमान छू रही हैं।
हमारा भारत एक विकासशील देश है और इस प्रकार की अर्थव्यवस्था वाले देशों में औद्योगीकरण या विभिन्न योजनाओं आदि के चलते मुद्रास्फीति तो होती ही है, किन्तु आज वस्तुओं की मूल्य सीमा में निरन्तर वृद्धि और जन-जीवन अस्त- व्यस्त होता दीख रहा है। अब तो सरकार भी जनता का विश्वास खोती जा रही है। लोग यह कहते पाए जाते हैं कि सरकार का शासन – तंत्र भ्रष्ट हो चुका है, जिसके कारण जनता बेईमानी, नौकरशाही तथा मुनाफाखोरी की चक्कियों तले पिस रही है। स्थिति विस्फोटक बन गई है।
यह महँगाई स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद लगातार बढ़ी है। यह भी सत्य है कि हमारी राष्ट्रीय आय बढ़ी है और लोगों की आवश्यकताएँ भी बढ़ी हैं। हम आरामतलब और नाना प्रकार के दुर्व्यसनों के आदी भी हुए हैं। जनसंख्या में भी उत्तरोत्तर वृद्धि हुई है।
हमारी सरकार द्वारा निर्धारित कोटा-परमिट की पद्धति ने दलालों के नये वर्ग को जन्म दिया है और इसी परिपाटी ने विक्रेता तथा उपभोक्ता में संचय की प्रवृत्ति उत्पन्न कर दी है। प्रशासन के अधिकारी दुकानदारों को कालाबाजारी करने देने के बदले घूस तथा उद्योगपतियों को अनियमितता की छूट देने हेतु राजनीतिक पार्टियाँ घूस तथा चन्दा वसूलती हैं।
महँगाई ने विभिन्न वर्गों के कर्मचारियों को हड़ताल – आन्दोलन करने के लिए भी बढ़ावा दिया है जिससे काम नहीं करने पर भी कर्मचारियों को वेतन देना पड़ता है, जिससे उत्पादन में गिरावट और तैयार माल की लागत में बढ़ोत्तरी होती है।
महँगाई की समस्या का अन्त सम्भव हो तो कैसे, यह विचारणीय विषय है। सरकार वस्तुओं की कीमतों पर अंकुश लगाए, भ्रष्ट व्यक्तियों हेतु दण्ड-व्यवस्था को कठोर बनाए एवं व्यापारी-वर्ग को कीमतें नहीं बढ़ाने को बाध्य करे। साथ ही, देशवासी भी मनोयोगपूर्वक राष्ट्र का उत्पादन बढ़ाने में योगदान करें और पदाधिकारी उपभोक्ता-वस्तुओं की वितरण व्यवस्था पर नियंत्रण रखें। तात्पर्य यह है कि इस कमरतोड़ महँगाई के पिशाच को जनता, पूँजीपति और सरकार के सम्मिलित प्रयास से ही नियंत्रण में किया जा सकता है l
(घ) भ्रष्टाचार
‘हमारा भारत देश महान’ यह नारा भला किसे नहीं रोमांचित करता! इसी नारा के समान एक और नारा हो सकता है— ‘हम महान, हमारा देश महान’। उपर्युक्त नारों की उद्घोषणा से हमें गर्व की अनुभूति होती है। गर्व की अनुभूति कोई बुरी चीज नहीं होती। गर्व की अनुभूति हमारे ‘नैतिक उत्कर्ष’ की भावना को विकसित करती है। गर्व की अनुभूति हमारे विकास के लिए मनोवैज्ञानिक आधार प्रदान करती है। पर, इस संदर्भ में हमें यह बात कदापि नहीं भूलनी चाहिए कि अनुभूति सच्चाई के साथ होती है। हमारी अनुभूति कभी कृत्रिम नहीं हो सकती।
मैं कहना यही चाह रहा हूँ कि हम इस बात पर गौर करें कि क्या हम सचमुच महान हैं? क्या सचमुच हमारा देश महान है? यथार्थ से मुँह मोड़ना सत्य को नकारना है। हमारी समीक्षा यदि यह निष्कर्ष देती है कि “हम महान नहीं हैं, अतः हमारा देश महान नहीं है”– तो इससे हमें शर्मिंदगी होगी। पर, सवाल यह है कि क्या शर्मिंदा होना हमारे विकास की राह की बाधा है? मेरे मत में इसका उत्तर नकारात्मक ही होगा। शर्मिंदा होने से हमारा विकास बाधित नहीं होता। हममें हया बची हैं, तभी तो शर्मिंदगी है! हमारे देश का सामाजिक और राजनीतिक यथार्थ तो यही प्रमाणित करता है कि राष्ट्रीय चरित्र के नाम पर तो हमारे पास कुछ बचा ही नहीं। छल-कपट, धोखा, रिश्वतखोरी, जमाखोरी, स्वार्थ, पक्षपात, भाई-भतीजावाद, क्षेत्रवाद, जातीयता, धनलोलुपता — इन सबका नंगा नृत्य हो रहा है हमारे देश में ।
“ट्रांसपरेंसी इंटरनेशनल की भ्रष्टाचार सूची में 180 देशों में भारत का 74वें पायदान पर नजर आना कुल मिलाकर शर्मिंदगी का विषय है, लेकिन इससे हमारे नीति-नियंताओं के कान पर जूँ भी नहीं रेंगनेवाली ।” उपर्युक्त एजेंसी ने (भ्रष्ट देशों की सूची में) डेनमार्क, फिनलैंड, न्यूजीलैंड, सिंगापुर और स्वेडन को शीर्ष पाँच भ्रष्ट देशों में परिगणित किया है। पर, इन देशों में शासन-प्रशासन के स्तर पर पक्षपात एवं रिश्वतखोरी का बोलबाला नहीं है। वहीं भारत का समस्त सरकारी तंत्र भ्रष्टाचार की गिरफ्ट में आ गया है। ‘‘इसके पीछे कुछ ठोस कारण हैं। आखिर काले धन के बल पर चुनाव लड़ने और अपने चुनावी चंदे का हिसाब न देनेवाले राजनीतिक दल भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई क्यों छेड़ेंगे? नौकरशाही अवश्य ऐसा कर सकती थी, लेकिन वह तो सत्तारूढ़ नेताओं की दासी बनकर रह गई है। वह भ्रष्टाचार को दूर करने के लिए बजाय उसे संरक्षण प्रदान कर रही है। भ्रष्टाचार का मुद्दा राजनीतिक लाभ के लिए कभी उछाला जाता है, तो जनता को लगता है कि अब देश से भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा। पर, देश में भ्रष्टाचार की जड़ें इतनी गहराई तक पैठ गई हैं कि तना काटने से अब कोई फायदा नहीं है। भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए जड़ें खोदनी होंगी। अब तो यह साफ स्पष्ट हो गया है कि देश के सारे राजनीतिक दल भ्रष्टाचार को भले मुद्दा बना लें, पर इसे दूर करने में इनकी कोई दिलचस्पी नहीं है। हमारे राजनीतिक दल भ्रष्टाचार से लड़ने के मामले में कितने निरुत्साही हैं, इसका सबसे बड़ा सबूत यह है कि पिछले करीब चालीस वर्षों से लोकपाल विधेयक कानून में तब्दील होने का इंतजार कर रहा है। अब तो उसकी चर्चा तक नहीं होती। बड़े-बड़े राजनेता भ्रष्टाचार में फँसते हैं, तो मीडियावाले खुलकर स्टोरी बनाते हैं, पर उनका (भ्रष्ट नेताओं का) क्या होता है? दो-चार दिन समाचार की सुर्खियों में रहने के बाद वे दृश्य से बाहर हो जाते हैं। जनता उन्हें भूल जाती है।
जब तक भ्रष्टाचार की कालिख हमारे देश के चेहरे से नहीं हटती तब तक हमारे देश का सम्यक विकास नहीं हो सकता। केवल नेता और नौकरशाह ही भ्रष्ट नहीं हैं, जनता भी भ्रष्ट है। घूस लेना और देना, दोनों भ्रष्ट आचरण हैं, पर आज घूस इतनी सहज हो गई है कि अब इसे भ्रष्ट आचरण के अंतर्गत गिनना भी जैसे बेमानी है। दहेज सामाजिक भ्रष्टाचार है। इस कालिक को मिटाने के लिए कानून छोटा पड़ गया है। अब धर्माचार्यों को आगे आना होगा और दहेज प्रथा को दूर करने में उन्हें अपनी-अपनी भूमिका निभानी पड़ेगी। हमारे चेहरे पर भ्रष्टाचार के अनेक धब्बे हैं। इन धब्बों ने हमारे चेहरे को विकृत बना दिया है। चेहरे की कालिख मिटाने के लिए हमारे भीतर दृढ़ इच्छा शक्ति होनी चाहिए ।
(ङ) छात्र और अनुशासन
अनुशासन एक व्यापक तत्त्व है, जो जीवन के सभी क्षेत्रों को अपने में समा लेता है। इसके अभाव में जीवन व्यवस्थित रीति से नहीं चल सकता।
अनुशासन के दो रूप हैं- बाह्य और आंतरिक। गुरुजनों के उपदेश और आदेश को मानना बाह्य अनुशासन है। मन की समस्त वृत्तियों पर और इंद्रियों पर नियंत्रण आंतरिक अनुशासन है। यह अनुशासन का श्रेष्ठ रूप है। ठीक उसी प्रकार जब मनुष्य नियंत्रित जीवन व्यतीत करता है तो दूसरों के लिए आदर्श व अनुकरणीय बन जाता है। अनुशासन में रहने वाला बालक ही सभ्य नागरिक बन सकता है।
आज समय में जब चारों ओर से घोर नैतिक पतन हो रहा है, उसमें भ्रष्टाचार का बोलबाला है। ऐसी दशा में आंतरिक अनुशासन और व्यवस्था की कल्पना तभी साकार हो सकेगी, जब हमारे हृदय में परिवर्तन में हो और हृदय परिवर्तन का श्रेष्ठ समय विद्यार्थी जीवन है।
आज छात्रों की अनुशासनहीनता देश के लिए एक ज्वलंत समस्या है। विद्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय में उदंडता दिखाना, शिक्षकों का अपमान करना और परीक्षा में नकल करना और कराना, रोकने पर निरीक्षकों को पीटना या उनकी जान ले लेना, बसों, रेलों में बिना टिकट यात्रा करना, छात्राओं के साथ छेड़खानी करना उनकी अनुशासनहीनता के नमूने हैं। अनुशासन जीवन को इतना आदर्श बना देता है कि अनुशासित व्यक्ति दूसरों की अपेक्षा कुछ विशिष्ट दिखाई पड़ता है। अनुशासनहीन मनुष्य संसार में लेशमात्र भी सफल नहीं होता।
यदि आज के छात्र, जो देश के भावी कर्णधार हैं, अपने को अनुशासित रखने में सफल हो सके तो इसमें उनका अपना भी कल्याण होगा तथा वे अपने समाज व राष्ट्र का भी कल्याण कर सकेंगे। अनुशासित होकर ही जीवन में सुख शांति और ऐश्वर्य की उपलब्धि प्राप्त की जा सकती है।
2. संक्षिप्त पत्र लिखें –
एक पत्र अपने मित्र को लिखिए, जिसमें किसी रमणीय स्थल का संक्षिप्त वर्णन करें।
अथवा,
बिजली की कमी दूर करने हेतु राज्य के बिजली मंत्री को एक पत्र लिखें।
उत्तर –
गोविन्द मित्रा रोड
पटना – 800020
04.04.2017
प्रिय आकाश,
नमस्कार। मैं यहाँ सकुशल हूँ। आशा करता हूँ, तुम भी सकुशल होगे। मैं पिछले सप्ताह राजगीर (बिहार) गया था। यह बड़ा ही रमणीय पर्यटन स्थल है। यहाँ गर्म कुण्ड में सल्फरयुक्त पानी गिरता है। जाड़े में स्नान करने में बड़ा मजा आता है। इसमें स्नान करने से चर्म रोग भी नहीं होता है। अगर चर्म रोग हुआ है तो वह दूर हो जाता है।
रज्जु मार्ग से कुर्सियों पर बैठकर आसमान की सैर करने में बड़ा आनन्द आता है। उन कुर्सियों से नीचे की ओर देखने पर स्वर्ग सा नजर आता है। पहाड़ के ऊपर बुद्ध भगवान की सोना (स्वर्ण) की मूर्तियाँ हैं। वहाँ पूजा-पाठ भी चलता रहता है। बुद्ध ने जीवन में मध्यम मार्ग पर चलने की अद्भुत प्रेरणा दो थी ।
मित्रों के साथ वहाँ सैर करने से आनन्द में भी वृद्धि हो जाती है। राजगीर में सरकारी पर्यटन विभाग के विश्राम भवन में भोजन का बड़ा बढ़िया इन्तजाम था। यात्रा रोमांचक रही। तुम भी राजगीर जरूर घूम लेना।
तुम्हारा अभिन्न
अमरेश
अथवा,
सेवा में,
माननीय विद्युत एवं ऊर्जा मंत्री
बिहार सरकार, पटना
विषय : बिजली की कमी दूर करने हेतु निवेदन
मान्यवर महोदय,
मैं बिहार के पूर्णिया क्षेत्र का निवासी हूँ। खेद का विषय है कि इस क्षेत्र में मात्र दो-तीन घंटे के लिए बिजली आती है। परिणामतः न तो खेती का काम हो पाता है और न उद्योग-धंधे ही चल पाते हैं। वैसे तो सम्पूर्ण राज्य में बिजली की किल्लत है।
मेरा सुझाव निवेदित है कि पूर्णिया जिले के पिछड़ेपन को दूर करने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में कम-से-कम 8 घण्टे और नगरीय क्षेत्रों में 12 घंटे नियमित बिजली देने की व्यवस्था कर दी जाए।
विश्वास है कि आप मेरे अनुरोध को स्वीकार कर पूर्णिया क्षेत्र में विद्युत आपूर्ति की समुचित व्यवस्था करने का आदेश अपने अधीनस्थ अधिकारियों को प्रदान करेंगे।
धन्यवाद सहित ।
भवदीय
अमर सिंह
3. संक्षेपण करें –
जीवन का वास्तविक आनन्द मनुष्य को अपने श्रम से प्राप्त होता है। जो सुबह से शाम तक अपना खून-पसीना एक करते हुए कर्म के क्षेत्र में डटा रहता है, चिंताएँ उससे दूर भागती हैं। ऐसे व्यक्ति को व्यर्थ की बातें सोचने का अवसर ही नहीं मिलता। परिश्रमी व्यक्ति को किसी बात की कमी नहीं। उसे अपनी आशाओं पर विश्वास होता है। फिर वह किसी के सामने हाथ फैलाये क्यों वह जानता है कि उसके पास दो हाथ हैं जिनसे अपने भाग्य का निर्माण किया जा सकता है।
उत्तर – शीर्षक : जीवन का आनंद
जीवन में कर्म को प्रधान रखने से कोई कमी नहीं होती है। कर्म से ही भाग्य का निर्माण होता कर्म ही जीवन का सुख है।
4. हिन्दी साहित्य के कालविभाजन का संक्षिप्त परिचय दें।
अथवा, रीतिकाल की सामान्य प्रवृत्तियों का उल्लेख करें।
अथवा, सूर या विद्यापति का काव्यात्मक परिचय दें।
उत्तर – आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने साहित्य के इतिहास के संबंध में लिखा है: “जबकि प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्तियों का संचित प्रतिबिंब होता है, तब यह निश्चित है कि जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है। आदि से अंत तक इन्हीं चित्तवृत्तियों की परंपरा को परखते हुए साहित्य परंपरा के साथ उनका सामंजस्य दिखाना ही साहित्य का इतिहास कहलाता है। ”
आचार्य शुक्ल ने हिंदी साहित्य के इतिहास को चार भागों में विभक्त किया है :
1. आदिकाल (वीरगाथा काल – 1050-1375 वि०) –
2. पूर्वमध्यकाल (भक्तिकाल 1375-1700 वि०)
3. उत्तरमध्यकाल (रीतिकाल – 1700-1900 वि०)
4. आधुनिक काल (गद्यकाल- 1900 वि० से अब तक)
लगभग उपर्युक्त काल विभाजन के आधार पर ही आज के सारे इतिहासकारों ने हिंदी साहित्य का इतिहास लिखा है।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने हिंदी साहित्य का काल विभाजन इस प्रकार किया है
1. हिंदी साहित्य का आदिकाल (10वीं से 14वीं शताब्दी)
2. भक्तिकाल (14वीं से 16वीं शताब्दी)
3. रीतिकाल ( 16वीं से 19वीं शताब्दी)
4. आधुनिक काल (19वीं शताब्दी मध्यकाल से अब तक)
अथवा,
रीतिकाल का साहित्य सामंतीय वातावरण और संस्कृति का उद्भावक है। राजदरबारों का आश्रय पानेवालों की इस शृंगारी कविताओं में धनोपार्जन की प्रवृत्ति वर्तमान है। कविता में रीति एवं अलंकार का प्रयोग खुलकर किया गया है। भाव-सौंदर्य के स्थान पर नारी के रूप-सौंदर्य को चित्रित करने में सारी शक्ति लगा दी गई। कविता ‘प्रेम की पुकार’ तथा ‘रसिकता और अभिव्यक्ति’ से आगे न बढ़ सकी। फलतः रीतिकाल अथवा शृंगारकाल की सामान्य प्रवृत्तियाँ निम्नलिखित हैं
(i) शृंगारिकता : रीतिकाल में यह प्रवृत्ति सर्वत्र देखी जा सकती है। परम्परा रूप में भक्ति-काव्य से रीति या प्रेमभाव की सामग्री प्राप्त कर इस युग ने शृंगार को रसराज के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया। इस युग का परिवेश भी बहुत कुछ शृंगारी मनोवृत्ति के अनुकूल या शृंगार-वर्णन ही रीतिकाव्य का मुख्य उद्देश्य था।
(ii) अलंकरण की प्रधानता : रीतिकालीन कविता की दूसरी प्रवृत्ति आलंकारिता है। इस युग में प्रदर्शन, चमत्कार और रसिकता को प्रधानता दी गई है।
(iii) भक्ति और नीति: शृंगारकाल में जहाँ शृंगारपरक भावनाओं का वर्णन मिलता है, वहीं यत्र तत्र भक्ति और नीति से संबद्ध सूक्तियाँ भी बिखरी हुई मिलती हैं।
(iv) आश्रयदाता की प्रशंसा : शृंगारकाल/ रीतिकाल के कवियों का मूलं उद्देश्य अपने आश्रयदाताओं को संतुष्ट करना था। ऐसी स्थिति में मुक्तक शैली ही अधिक उपयुक्त थी।
(v) ब्रजभाषा की प्रधानता : इस काल की प्रमुख साहित्यिक भाषा ब्रजभाषा थी। इस काल तक ब्रजभाषा का शब्दकोष काफी भर गया था और उसने पर्याप्त उन्नति भी कर ली थी।
अथवा,
सूरदास : सूरदास (1478-1583) मध्यकालीन सगुण भक्तिधारा की कृष्णभक्ति शाखा के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं। श्रीकृष्ण के जन्म, शैशव और किशोरवय की विविध लीलाओं को विषय बनाकर कवि ने भावों और रसों की बाढ़ ला दी है। सूर की कवित के विषय हैं – वात्सल्य, विनय-भक्ति और प्रेम-शृंगार। वात्सल्य रस को जो गहराई उन्होंने दी है, वह अन्य कवियों में दुर्लभ है।
सूर जब अपने प्रिय विषय का वर्णन शुरू करते हैं तो मानो अलंकार शास्त्र हाथ जोड़कर उनके पीछे-पीछे दौड़ा करता है। संगीत के प्रवाह में कवि स्वयं बह जाता है।
उनकी कविता का नमूना है-
(i) ‘कछुक खात कछुक धरनि गिरावत छवि निरखत नंद-रनियाँ’।
(ii) ‘भोजन करि नंद अचमन लीन्है, माँगत सूर लुठनियाँ |
सूरदास की कृतियाँ हैं— ‘सूरसागर’, ‘साहित्यलहरी’, ‘राधा रसकेलि’ और ‘सूरसारावली’।
विद्यापति : विद्यापति के जन्म के संबंध में प्राचीन कवियों की तरह विद्वानों का कोई निश्चित मत नहीं है। विद्यापति आदिकाल के प्रमुख कवि माने जाते हैं इन्हें शृंगारी और भक्त दोनों प्रकार का विद् माना जाता है। शृंगारिक रचनाओं में इनके आराध्य देव राधाकृष्ण है। किन्तु उन्होंने शिव की उपासना की है। इन देवताओं के अतिरिक्त विद्यापति ने काली, गंगा, गणेश आदि के संबंध में भी रचनाएँ की हैं।
5. सप्रसंग व्याख्या करें –
(क) मृत्यु के कुछ समय पहले स्मृति बहुत साफ हो जाती है। जन्मभर की घटनाएँ एक-एक करके सामने आती हैं।
अथवा,
“जिस पुरुष में नारीत्व नहीं, अपूर्ण है।”
(ख) जादू टूटता है इस उषा का अब सूर्योदय हो रहा है।
अथवा,
फटा सुथन्ना पहने जिसका, गुन हरचरना गाता है।
उत्तर – (क) प्रस्तुत पंक्तियों में मानव जीवन की प्रवृत्तियों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण अत्यन्त सफलतापूर्वक किया गया है। विद्वान लेखक ने यह बताने का प्रयास किया है कि मृत्यु के कुछ समय पूर्व मानव की स्मरण शक्ति अत्यन्त स्पष्ट हो जाती है। उसे अपने विगत जीवन की समस्त घटनाओं की स्मृति सहज हो जाती है। अतीत के चित्र उसके नेत्र के सामने चलचित्र की भाँति नाचने लगते हैं। उसपर जमी हुई समय की धुन्ध हट जाती है तथा वह उन्हें सहज ढंग से देख एवं अनुभव कर सकता है। विद्वान लेखक श्री गुलेरी ने उक्त बातें इसी संदर्भ में वर्णित की है। इस प्रकार प्रस्तुत पंक्तियों में मृत्यु के समय में मानव-मन की स्वाभाविक प्रक्रिया का वर्णन है। कथन के अनुसार जमादार लहना सिंह मृत्यु – शैय्या पर अपने जीवन की अंतिम घड़ियाँ गिन रहा है, उस समय उसे विगत की सम्पूर्ण बातें याद आने लगती हैं जो इतनी स्पष्ट हैं कि इससे पहले उसे कभी ऐसी अनुभूति नहीं हुई थी ।
अथवा,
प्रस्तुत वाक्य राष्ट्रकवि दिनकर रचित ‘अर्द्धनारीश्वर’ शीर्षक निबन्ध से उद्धृत है। इस पंक्ति में लेखक ने नारीत्व के महत्व पर प्रकाश डाला है। दिनकरजी का कहना है कि जिस पुरुष में नारीत्व नहीं, वह अपूर्ण है। अतः प्रत्येक नर को एक हद तक नारी बनना आवश्यक है। गाँधीजी ने अपने जीवन के अंतिम दिनों में नारीत्व की भी साधना की थी। उनकी पोती ने उनपर जो पुस्तक लिखी है, उसका नाम ही ‘बापू, मेरी माँ’ है। दया, माया, सहिष्णुता और भीरूता ये त्रियोचित गुण कहे जाते हैं। किन्तु, क्या उन्हें अंगीकार करने से पुरुष के पौरुष में कोई अंतर आनेवाला है ?
(ख) प्रस्तुत काव्य पंक्तियाँ श्री शमशेर बहादुर सिंह की काव्यकृति के ‘उषा’ शीर्षक से उद्धृत की गयी हैं। शमशेर बहादुर सिंह प्रभाववादी कवि हैं।
कवि ने अपनी सूक्ष्म कल्पना शक्ति द्वारा प्रकृति के रूपों का मानवीकरण करते हुए उषा की तुलना गौर वर्ण वाले झिल-मिल जल में हिलते हुए अवतरित होने वाली नारी से किया है। शमशेर की कविता में बिंब प्रयोग सटीक और सही हुआ है। कवि ने प्रकृति के सूक्ष्म रूपों का मनोहारी और कल्पना युक्त मूर्त्तन कर दक्षता प्राप्त की है। प्राकृतिक बिंबों द्वारा अपनी भावाभिव्यक्ति को मानवीकरण करके लोक जगत को काव्य रस से आप्लावित किया है। इनकी कविताओं में लय है, संक्षिप्तता भी है।
अथवा,
प्रस्तुत पंक्ति रघुवीर सहाय द्वारा रचित ‘अधिनायक’ शीर्षक कविता से संकलित है। इसमें कवि की भावना यह है कि एक बदहाल गरीब लड़का है। कवि प्रश्न करता है कि राष्ट्रगीत में वह कौन भारत भाग्य विधाता है जिसका गुणगान पुराने ढंग की ढीली-ढाली हाफ पैन्ट पहने हुए गरीब हरचरना गाता है। कवि का कहना है कि राष्ट्रीय त्योहार के दिन झंडा फहराने जाने के जलसे में वह ‘फटा-सुथन्ना’ पहने वही राष्ट्रगान दोहराता है, जिसमें इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में भी न जाने किस ‘अधिनायक’ का गुणगान किया गया है।
6. निम्नलिखित प्रश्नों के वहुवैकल्पिक उत्तरों में से सही उत्तर वताइए-
(i) ‘उसने कहा था ‘ कहानी के कहानीकार कौन हैं ?
(क) प्रेमचंद
(ख) अज्ञेय
(ग) जैनेन्द्र
(घ) चन्द्रधर शर्मा गुलेरी
(ii) सूरसागर के कवि हैं—
(क) कबीरदास
(ख) तुलसीदास
(ग) जायसी
(घ) सूरदास
(iii) ‘संपूर्ण क्रांति’ के रचनाकार कौन हैं ?
(क) हजारी प्रसाद द्विवेदी
(ख) जयप्रकाश नारायण
(ग) प्रेमचन्द
(घ) शिवपूजन सहाय
(iv) ‘उषा’ शीर्षक कविता के कवि कौन हैं?
(क) अज्ञेय
(ख) मुक्तिबोध
(ग) शमशेर बहादुर सिंह
(घ) धर्मवीर भारती
(v) ‘जूठन’ शीर्षक रचना हिन्दी साहित्य की कौन-सी विधा है?
(क) कहानी
(ख) निबंध
(ग) आत्मकथा
(घ) उपन्यास
उत्तर – (i) – (घ), (ii) – (घ), (iii) – (ख), (iv) – (ग), (v) – (ग)
7. सही जोड़े का मिलान करें –
(i) पद्मावत (क) ओम प्रकाश वाल्मीकि
(ii) शिक्षा (ख) अशोक वाजपेयी
(iii) उषा (ग) शमशेर बहादुर सिंह
(iv) हारजीत (घ) जे० कृष्णमूर्ति
(v) जूठन (ङ) जायसी
उत्तर – (i) – (ङ), (ii) – (घ), (iii) – (ग), (iv) – (ख), (v) – (क)
8. रिक्त स्थानों की पूर्ति करें –
(i) पुरुष जब नारी का गुण ले लेता है तब वह …….. बन जाता है।
(ii) तुलसीदास ……. कवि हैं।
(iii) तेरी …… हो गई ?
(iv) दावा दृम-दंड पर चीता मृग …… पर।
(v) मैं असहाय विवश बैठी ही, रही उठ गया……मेरा।
उत्तर – (i) देवता, (ii) समन्वयवादी, (iii) कुड़माई, (iv) झुंड, (v) खिलौना l
9. निम्नलिखित दो दीर्घ उत्तरीय प्रश्नों के उत्तर दें –
(क) ‘अधिनायक’ शीर्षक कविता के भावार्थ को स्पष्ट करें।
अथवा,
‘हार-जीत’ कविता का भावार्थ लिखें।
(ख) ‘रोज’ शीर्षक कहानी का उद्देश्य लिखें।
अथवा,
लहना सिंह का चरित्र चित्रण करें।
उत्तर – (क) ‘अधिनायक’ शीर्षक कविता रघुवीर सहाय द्वारा लिखित एक व्यंग्य कविता है। इसमें आजादी के बाद के सत्ताधारी वर्ग के प्रति रोषपूर्ण कटाक्ष है।
हरचरना स्कूल जाने वाला एक बदहाल गरीब लड़का है। कवि प्रश्न करता है कि राष्ट्रगीत में कौन भारत भाग्य विधाता है जिसका गुणगान पुराने ढंग की ढीली-ढाली हाफ पैंट पहने हुए गरीब हरचरना गाता है। कवि का कहना है कि राष्ट्रीय त्योहार के दिन झंडा फहराए जाने के जलसे में वह ‘फटा-सुथन्ना’ पहने वही राष्ट्रगान दुहराता है जिसमें इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में भी न जाने किस ‘अधिनायक’ का गुणगान किया गया है।
कवि प्रश्न करता है कि वह कौन है जो मखमल, टमटम, वल्लभ, तुरही के साथ माथे पर पगड़ी एवं चँवर के साथ तोपों की सलामी लेकर ढोल बजाकर अपना जय-जयकार करवाता है।
कवि प्रश्न करता है कि कौन है वह जो सिंहासन (मंच) पर बैठा है और दूर-दूर से नंगे पैर एवं नरकंकाल की भाँति दुबले-पतले लोग आकर उसे (अधिनायक) तमगा एवं माला पहनाते हैं। कौन है वह जन-गण-मन अधिनायक महावली जिससे डरे हुए लोग रोज जिसका गुणगान बाजा बजाकर करते हैं ।
इस प्रकार इस कविता में रघुवीर सहाय ने वर्तमान जनप्रतिनिधियों पर व्यंग्य किया है। कविता का निहितार्थ प्रतीत होता है कि इस सत्ताधारी वर्ग की प्रच्छन्न लालसा ही सचमुच अधिनायक अर्थात् तानाशाह बनने की है।
अथवा,
हिन्दी साहित्य के प्रखर प्रतिभा संपन्न कवि अशोक वाजपेयी की ‘हार-जीत’ कविता अत्यंत ही प्रासंगिक है। इसमें कवि ने युग-बोध और इतिहास बोध का सम्यक ज्ञान जनता को कराने का प्रयास किया है। कवि का कहना है कि सारे शहर को प्रकाशमय किया जा रहा है और वे यानी जनता जिसे हम प्रजा भी कह सकते हैं, उत्सव में सहभागी हो रही हैं। ऐसा इसलिए वे कर रहे हैं कि ऐसा ही राज्यादेश है। तटस्थ प्रजा अंधानुकरण से प्रभावित है। गैर जवाबदेही भी है। तटस्थ जनता को यह बताया गया है कि उनकी सेना और रथ विजय प्राप्त कर लौट रहे हैं लेकिन उनमें (नागरिकों में से) से अधिकांश को सत्यता की जानकारी नहीं है। उन्हें सही-सही बातों की जानकारी नहीं है कि किस युद्ध में उनकी सेना और शासक शरीक हुए थे। उन्हें यह भी ज्ञात नहीं था कि शत्रु कौन थे ? बिडंबना की बात यह है कि इसके बावजूद भी वे विजय पर्व मनाने की तैयारी में जी-जान से लगे हुए हैं। उन्हें सिर्फ यह बताया गया है कि उनकी विजय
प्रस्तुत कविता अत्यंत ही यथार्थपरक रचना है। कवि सच्चाई से वाकिफ कराना चाहता है। वर्त्तमान में राष्ट्र और जन की क्या स्थिति है, इस ओर हमारा ध्यान आकृष्ट किया है। उक्त गद्य कविता में कवि द्वारा प्रयुक्त शासक, सेना, नागरिक और मशकवाला शब्द प्रतीक प्रयोग है। शासक वर्ग अपनी दुनिया में रमा हुआ है। उसमें उसके अन्य प्रशासकीय वर्ग भी सम्मिलित हैं ।
उक्त कविता में कवि ने पूरे देश की वस्तुस्थिति से अवगत कराने का काम किया हैग राज्यादेश के कारण तटस्थ प्रजा जश्न मनाने में मशगूल है। प्रजा चेतना के अभाव में गैर-जिम्मेवार भी है। उसे यह भी ज्ञान नहीं है कि उसकी जिम्मेवारी, कर्त्तव्य और अधिकार क्या है? नागरिकों को पेट की चिन्ता है। वे स्वार्थ में अंधे हैं, वे अपनी स्वार्थपरता में इतना अंधे हैं कि राष्ट्र की चिन्ता ही नहीं याद आती।
इस कविता में देश के नेताओं के चरित्र को भी उद्घाटित किया गया है। नेताओं के चारित्रिक गुणों का पर्दाफाश किया गया है। लड़ाई के मैदान से वे लौटे हैं लेकिन सेना के साथ | इसका तात्पर्य है कि सेना सच बोलकर भेद नहीं खोल दे कि वे हारकर लौट रहे हैं और झूठी प्रशंसा में जीत का प्रचार कर रहे हैं।
(ख) ‘रोज’ कथा साहित्य में क्रान्तिकारी परिवर्तन के प्रणेता महान कथाकर सचिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय की सर्वाधिक चर्चित कहानी है। प्रस्तुत कहानी में ‘संबंधों’ की वास्तविकता को एकान्त वैयक्तिक अनुभूतियों से अलग ले जाकर सामाजिक संदर्भ में देखा गया है।
लेखक अपने दूर के रिश्ते की बहन मालती जिसे सखी कहना उचित है, से मिलने अठारह मील पैदल चलकर पहुँचता है। मालती और लेखक का जीवन इकट्ठे खेलने, पिटने, स्वेच्छा एवं स्वच्छंदता तथा भ्रातृत्व के छोटेपन बँधनों से मुक्त बीता था। आज मालती विवाहिता है, एक बच्चे की माँ भी है । वार्तालाप के क्रम में आए उतार-चढ़ाव में लेखक अनुभव करता है कि मालती की आँखों में विचित्र – सा भाव है, मानो वह भीतर कहीं कुछ चेष्टा कर रही हो, किसी बीती बात को याद करने की, किसी बिखरे हुए वायुमंडल को पुनः जगाकर गतिमान करने की, किसी टूटे हुए व्यवहार तंतु को पुनर्जीवित करने की और चेष्टा में सफल न हो चिर विस्मृत हो गयी हो। मालती रोज कोल्हु के बैल की तरह व्यस्त रहती है।
वातावरण, परिस्थिति और उसके प्रभाव में ढलते हुए एक गृहिणी के चरित्र का मनोवैज्ञानिक उद्घाटन अत्यंत कलात्मक रीति से लेखक यहाँ प्रस्तुत करता है। डॉक्टर पति के काम पर चले जाने के बाद का सारा समय मालती को घर में एकाकी काटना होता है। उसका जीवन ऊब और उदासी के बीच यंत्रवत् चल रहा है। किसी तरह के मनोविनोद, उल्लास उसके जीवन में नहीं रह गए हैं। जैसे वह अपने जीवन का भार ढोने में ही घुल रही हो। इस प्रकार लेखक मध्यवर्गीय भारतीय समाज में घरेलू स्त्री के जीवन और मनोदशा पर सहानुभूतिपूर्ण मानवीय दृष्टि केन्द्रित करता है। कहानी के गर्भ में सामाजिक प्रश्न विचारोत्तेजक रूप में पैदा होते हैं।
अथवा,
लहना सिंह ब्रिटिश सेना का एक सिक्ख जमादार है। वह भारत से दूर विदेश (फ्रांस) में जर्मन सना के विरुद्ध युद्ध करने के लिए भेजा गया है। वह एक कर्त्तव्यनिष्ठ सैनिक है। अदम्य साहस, शौर्य एवं निष्ठा से युक्त वह युद्ध के मोर्चे पर डटा हुआ है। विषम परिस्थितियों में भी कभी वह हतोत्साहित नहीं होता। अपने प्राणों की परवाह किए बिना वह युद्धभूमि में खंदकों में रात-दिन पूर्ण तन्मयता के साथ कार्यरत रहता है। कई दिनों तक खंदक में बैठकर निगरानी करते हुए जब वह ऊब जाता है तो एक दिन वह अपने सूबेदार से कहता है कि यहाँ के इस कार्य (ड्यूटी) से उसका मन भर गया है, ऐसी निष्क्रियता से वह अपनी क्षमता का प्रदर्शन नहीं कर पा रहा है। वह कहता है— “मुझे तो संगीन चढ़ाकर मार्च का हुक्म मिल जाए, फिर सात जर्मन को अकेला मारकर न लौटूं तो मुझे दरबार साहब की देहली पर मत्था टेकना नसीब न हो।” उसके इन शब्दों में दृढ़ निश्चय एवं आत्मोत्सर्ग की भावना निहित है। वह शत्रु से लोहा लेने के लिए इतना ही उत्कंठित है कि उसका कथन जो इन शब्दों में प्रकट होता है— “बिना फेरे घोड़ा बिगड़ता है और बिना लड़े सिपाही । ” शत्रु की हर चाल को विफल करने की अपूर्व क्षमता एवं दूरदर्शिता उसमें थी। “
10. निम्नलिखित लघु उत्तरीय प्रश्नों के उत्तर दें –
(क) प्रगीत क्या है ?
(ख) डायरी क्या है ?
(ग) प्रातः काल का नभ कैसा था ?
(घ) उषा का जादू कैसा है।
(ङ) संधि और समास में अंतर स्पष्ट करें।
(च) विशेषण की परिभाषा सोदाहरण लिखें।
उत्तर – (क) अपनी वैयक्तिकता और आत्मपरकता के कारण ‘लिरिक’ अथवा ‘प्रगीत’ काव्य की कोटि में
आती है। प्रगीतधर्मी कविताएँ न तो सामाजिक यथार्थ की अभिव्यक्ति के लिए पर्याप्त समझी जाती हैं, न उनसे इसकी अपेक्षा की जाती है। आधुनिक हिन्दी कविता में गीति और मुक्तक के मिश्रण से नूतन भाव भूमि पर जो गीत लिखे जाते हैं उन्हें ही ‘प्रगीत’ की संज्ञा दी जाती है। सामान्य समझ के अनुसार प्रगीतधर्मी कविताएँ नितांत वैयक्तिक और आत्मपरक अनुभूतियों की अभिव्यक्ति मात्र हैं, यह सामान्य धारणा है। इसके विपरीत अब कुछ लोगों द्वारा यह भी कहा जाने लगा है कि अब ऐसी लम्बी कविताएँ जिसमें कुछ इतिवृत्त भी मिला रहता है, इन्हें पढ़ने या सुनने की किसी को फुरसत कहाँ है अर्थात् नहीं है।
(ख) डायरी दैनिक वृत्त की पुस्तक है, इसे दैनदिनी भी कहा जाता है। इसमें जीवन के प्रतिदिन की घटनाओं व अनुभवों का वर्णन होता है। किसी व्यक्ति की डायरी से उसके मन के भाव उसके जीवन के लक्ष्य, जीवन की स्थितियाँ परिलक्षित होती हैं। डायरी किसी के जीवन का दर्पण है।
(ग) प्रातः काल का दृश्य बड़ा मोहक होता है। उस समय श्यामलता, श्वेतिमा तथा लालिमा का सुन्दर मिश्रण दिखाई देता है। रात्रि की नीरवता समाप्त होने लगती है। प्रकृति में नया निखार आ जाता है। आकाश में स्वच्छता, निर्मलता तथा पवित्रता व्याप्त दिखाई देती है। सरोवरों तथा नदियों के स्वच्छ जल में पड़नेवाले प्रतिबिम्ब बड़े आकर्षक तथा मोहक दिखाई देते हैं। आकाश लीपे हुए चौके के समान पवित्र, हल्की लाल केसर से युक्त सिल के समान तथा जल में झलकनेवाली गोरी देह के समान दिखाई देता है।
(घ) ‘उषा’ कविता में कवि ने प्रमुखता से उपमा अलंकार का प्रयोग किया है। उदाहरण के तौर पर सूर्योदय से पूर्व के आकाश की शोभा के चित्रण के लिए उत्प्रेक्षा और अनुप्रास अलंकार का प्रयोग किया है। मानवीकरण का प्रयोग भी सटीक किया है। बिंब प्रयोग में कवि सिद्धहस्त है।
(ङ) (i) वर्णों के मेल से उत्पन्न विकार को सन्धि और पदों के मेल की क्रिया को समास कहा जाता है। अर्थात् सन्धि में वर्णों का और समास में पदों का मेल होता है। (ii) सन्धि में योग का चिह्न (+) प्रमुख होता है, जबकि समास में ऐसा नहीं होता है। (iii) सन्धि के अलग करने की क्रिया ‘विच्छेद’ कहलाती है और समास में इस क्रिया को ‘विग्रह’ कहते हैं ।
(च) विशेषण : जो शब्द संज्ञा या सर्वनाम की विशेषता बतलाता है, उसे विशेषण कहते हैं।
उदाहरण – गोरा, आदमी, काली गाय इत्यादि ।
11. (क) किन्हीं पाँच के दो-दो पर्यायवाची शब्द लिखें –
अश्व, समुद्र, कमल, गंगा, दूध, अंधेरा, गणेश।
(ख) किन्हीं पाँच के संधि-विच्छेद करें
परमेश्वर, मनोरथ, स्वागत, संसार, संस्कृत, शैलेन्द्र, दिगम्बर, पवित्र ।
(ग) किन्हीं पाँच का विग्रह कर समास बताइए –
कामचोर, गंगापुत्र, परमेश्वर नररत्न, भात- दाल, आजकल, प्रतिदिन, चौराहा।
(घ) संज्ञा के भेदों को सोदाहरण लिखें।
उत्तर –
(घ) सज्ञा : किसी वस्तु, व्यक्ति या स्थान के नाम को संज्ञा कहते हैं। जैसे— राम, दूध इत्यादि । संज्ञा के पाँच भेद होते हैं –
(i) व्यक्तिवाचक संज्ञा – किसी व्यक्ति विशेष का बोध, जो शब्द करता है, वह व्यक्तिवाचक संज्ञा कहलाता है। जैसे – महात्मा गाँधी।
(ii) जातिवाचक संज्ञा – जिस शब्द से किसी जाति या समूह का बोध होता है, उसे – जातिवाचक कहते हैं। जैसे- पक्षी ।
(iii) समूहवाचक संज्ञा – जिस शब्द से किसी समूह अथवा भीड़ का पता चलता है, उसे समूहवाचक संज्ञा कहते हैं। जैसे – मेला, गुच्छा ।
(iv) भाववाचक संज्ञा – जिस शब्द से किसी के भाव का पता चलता है उसे भाववाचक संज्ञा कहते हैं। जैसे— चतुराई, गरीबी, अमीरी ।
(v) द्रववाचक संज्ञा – जिससे किसी वस्तु के नाप, तोल का बोध होता है। द्रववाचक संज्ञा कहलाता है। जैसे – दूध ।
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