“हानि-लाभ, जीवन-मरण, यश-अपयश, विधि हाथ” अथवा “विधि का लिखा को मेटनहारा “

“हानि-लाभ, जीवन-मरण, यश-अपयश, विधि हाथ” अथवा “विधि का लिखा को मेटनहारा “

ईश्वर अंश जीव अविनासी । 
चेतन अमल सहज सुखरासी ॥
          जीवात्मा उस अनन्त शक्ति सम्पन्न परब्रह्म परमात्मा का अंश है, इसलिये जो गुण और जो शक्ति परमेश्वर में है, वह मानव में भी अवश्य है । उस अनन्त की शक्ति प्रत्येक मनुष्य के प्राणों में समाई हुई है। ब्रह्मज्ञानी तो जीवात्मा और परमात्मा में कोई अन्तर नहीं मानता। उसके “तत्वमसि” और ‘सोऽहम्’ वाक्य स्वयं अपने में पूर्ण हैं। भगवान् शंकराचार्य ने भी “जीवो ब्रह्मैव नापरः” लिखकर यही सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि जीव ब्रह्म ही है, कोई उससे भिन्न वस्तु नहीं है । अद्वैतवादी ब्रह्मज्ञानी यदि इस बात को कहे तो मान भी लिया जाए परन्तु तुलसी जैसे द्वैतवादी और साकार उपासक भक्त के मुख से ये पंक्तियाँ कि ‘जीव ब्रह्म का अंश है, इसलिये वह चेतन अमल सकल सुखरासी’ है, कुछ समझ में नहीं आती और यदि वह ठीक है तो उन्होंने “हानि-लाभ, * जीवन-मरण, यश-अपयश विधि हाथ” क्यों कहा? गोस्वामी जी ने दोनों बातें कहकर पाठकों को भ्रम में डाल दिया। परन्तु नहीं, उन्होंने ‘ईश्वर अंश जीव अविनासी’ से आगे इस विषय को स्पष्ट कर दिया है और लिखा है –
“परबस जीव, स्ववस भगवन्ता । जीव अनेक, एक श्रीकन्ता ।”
           इस पंक्ति में जो बात ध्रुव सत्य है, गोस्वामी जी ने वही कही है। जीव अर्थात् मानव किसी अनन्त शक्ति के संकेत पर नर्तन करता है, वह परवश है और स्वतन्त्र परमेश्वर ही केवल स्ववश है। इससे स्पष्ट है कि हानि-लाभ, जीवन-मरण, यश-अपयश ये वस्तुयें मानव की अधिकार सीमा से परे की हैं और ये पंक्तियाँ स्वयं में सार्थक हैं। आज का बुद्धिजीवी वैज्ञानिक मानव जो एक क्षण में संसार के संहार की शक्ति रखता है, बड़े-बड़े पर्वतों के गगनचुम्बी शिखरों को अपने चरण-चिन्हों से अंकित कर सकता है, जो निर्भय होकर चन्द्रलोक की यात्रा करने की अद्भुत शक्ति रखता है, जिसने जल और पवन पर भी एकाधिकार स्थापित कर लिया है, कहने का तात्पर्य यह कि जिसने पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश इन पाँचों तत्वों को अपने वश में कर रक्खा है, उस मानव के जीवन में कभी-कभी ऐसे भी क्षण आ जाते हैं, जब वह किंकर्त्तव्य विमूढ़ होकर किसी अज्ञात शक्ति की ओर मुँह उठाकर ताकने लगता है। वह निरुपाय और निष्प्रभ होकर उस अदृश्य शक्ति से सहायता की याचना करता है ।
          यदि हम सूक्ष्म दृष्टि से विचार करके देखें तो हमें यह स्पष्ट दृष्टिगोचर होने लगता है कि मानव के सभी शुभ कार्यों पर नियन्त्रण करने वाली कोई और शक्ति है जिसके आगे बड़े से बड़े विज्ञान को नतमस्तक होना पड़ता है । मानव की प्रिय वस्तुएँ जीवन, यश और लाभ ही हैं। परन्तु हम देखते हैं कि वह इन्हें न बना सकता है और न मिटा सकता है, छिपी हुई कोई और शक्ति है जो इनके उत्पादन  स्थिति और विनाश का कारण है। अन्यथा बड़े-बड़े ।  राजे-महाराजे, जिनके चरण लक्ष्मी सदैव चूमती थी,  ” इस धरा-धाम को छोड़कर मृत्यु के मुख में क्यों। जाते ? आज का वैज्ञानिक यदि कहीं अपनी पराजय स्वीकार करता है, तो यहीं करता है। बड़े-बड़े शल्य चिकित्सक बैठे के बैठे रह जाते हैं और प्राण पखेरू उड़ जाते हैं। जिनका कोई नहीं होता है, जिनके लिये संसार में सब चाहते हैं कि वह कब मरे, वे आराम से वर्षों बैठे रहते हैं। हम स्वयं नहीं जानते कि हमें संसार से कब विदा मिल जाये और हमारे अन्य सहयोगी साथियों को कब उठा लिया जाये। इसीलिये अन्त में मानव इसी निष्कर्ष पर पहुँचता है कि–
“अरक्षितं तिष्ठति दैव रक्षितम् सुरक्षितं दैवहतं विनश्यति ।”
          अर्थात् विधाता के द्वारा रक्षा किया हुआ और संसार द्वारा रक्षा न किया हुआ मनुष्य भी संसार में सुख से जीवन व्यतीत कर लेता है और यदि विधाता से वह मनुष्य अरक्षित है, तो चाहे संसार की सारी शक्तियाँ एक ओर हो जायें उसे तब भी नहीं बचा सकतीं ।
          यही दशा यश-अपयश की है। यदि आपके भाग्य में यश अर्जन अपयश नहीं दे सकता। आपको हृदय से प्रेरणा ही ऐसे कामों की मिलेगी, जिससे आपको यश मिले। कैकेयी के भाग्य में अपयश लिखा था, वही उसे मिला, अन्यथा वह जानती थी कि देश में अत्याचारी और दुराचारी राक्षसों का संहार बिना राम के ज़ाये नहीं हो सकता। राक्षसों से समस्त देश आतंकित था। ऋषि-मुनि और तपस्वी साधकों की बुरी दशा थी । परन्तु कैकेयी के मस्तक पर ऐसा कंलक का टीका लगा कि वह आज तक नहीं धुल सका । कहने का तात्पर्य यह है कि यदि विधाता मनुष्य को यश दिखाना चाहता है, तो उसे शुभ कार्यों की ओर प्रेरित करता है और यदि अपयश दिलाना चाहता है, तो अशुभ कर्मों की ओर । मनुष्य स्वयं न कुछ करता है न कर सकता । एक विद्वान ने लिखा है –
“जानामि धर्म न च मे प्रवृत्तिः जानाम्यधर्मं न च मे निवृत्तिः । 
त्वया हृषीकेष हृदि स्थितेन, यथा नियुक्तोस्मि तथा करोमि ॥” 
          अर्थात् हे हृषीकेश! मैं धर्म को जानता हूँ पर मेरी उसमें प्रवृत्ति नहीं होती और अधर्म को उसमें मेरी निवृत्ति होती। इसीलिए मैं नहीं में स्थित हो और जैसी मुझे प्रेरणा देते हो, मैं वही करता हूँ। यह बात है भी यथार्थ में सही। किसी भी जानता हूँ पर तो यही कहता हूँ कि तुम मेरे हृदय कवि ने ठीक ही लिखा है–
“तेरी सत्ता के बिना हे प्रभु  मंगलमूल ।
पत्ता तक हिलता नहीं खिलता कहीं न फूल ।।”
          हानि-लाभ भी विधाता के ही हाथ की चीजें हैं। मनुष्य कोई काम करता है लाभ के लिये, पर मिलती है उसे हानि । वह एकदम किंकर्त्तव्य-विमूढ़ होकर बैठ जाता है। बड़े-बड़े व्यापार, व्यवस्था और सुचारुपूर्वक चलाये गये महान् उद्योग एक क्षण में असफल हो जाते हैं और मनुष्य अपनी बुद्धि के क्रिया-कलापों को देखता का देखता ही रह जाता है और छोटे से छोटे गृह उद्योग थोड़े ही दिनों में इतने बढ़ जाते हैं कि जिनकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। विचार करने पर मनुष्य अनुभव करता है कि इन सबके पीछे कोई अज्ञात शक्ति है, जो मनुष्य को आगे बढ़ाती है और सहसा पीछे खींच लेती है, क्योंकि –
“अनुकूलतामुपगते हि विधौ सफलत्वमेति लघुसाधनता ।
प्रतिकूलतामुपगते हि विधौ विफलत्वमेति बहुसाधनता ।।”
          यदि विधाता अनुकूल है, तो थोड़े से साधनों से ही महान् सफलता मिल जाती है और यदि विधाता प्रतिकूल है, तो आपके पास कितने ही साधन क्यों न हों आपको सफलता प्राप्त नहीं हो सकती। कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो थोड़े ही प्रयत्नों से अनन्त लक्ष्मी प्राप्त कर लेते हैं और कुछ बेचारे जीवन भर प्रयत्न करते-करते मर जाते हैं, परन्तु उन्हें रोटी और कपड़ा भी बड़ी कठिनाई से प्राप्त होता है। क्या कारण है इन सब विशेषताओं के पीछे ? केवल विधि का विधान या भाग्य की पंक्तियाँ जिन्हें मनुष्य चाहे वह वैज्ञानिक या कोई अन्य ही क्यों न हो, नहीं मिटा सकता।
” युद्राता निजमालपट्टलिखितं, स्तोकं महद्वा धनं,
तन्माजिततुं कंक्षमः ॥”
          कुछ लोगों का विचार है कि मनुष्य काम करने में स्वतन्त्र है, पर वास्तव में वह स्वतन्त्र कहाँ है? वह जो कुछ भी करता है दैव की ही प्रेरणा से करता है, अन्यथा वह कोई भी गलत काम करता ही नहीं। त्रिकाल-दर्शी राम यह जानते थे कि न तो स्वर्ण-मृग कभी हुआ है और न होगा, परन्तु फिर भी उसका पीछा करना और उसके फलस्वरूप अनन्त आपत्तियों को अपने सिर पर लेना, यह सब समय और होनी की ही बात थी । दशरथ जैसे पिता, कौशल्या जैसी माता और कुलगुरु वशिष्ठ के द्वारा बताया हुआ राज्याभिषेक मुहूर्त, ये सब एक तरफ और विधि का विधान एक तरफ । हुआ वही जो विधाता को स्वीकार था। इसीलिये महात्मा कबीर जैसे बीतरागी ब्रह्मज्ञानी कह उठे –
“करमगति टरी, नाही टही,
गुरु वसिष्ठ से पण्डित ज्ञानी सोध के लगन धरी ।”
          राजा नल जैसे सम्राट और दमयन्ती जैसी पत्नी, उन्हें भी विधाता के हाथों की कठपुतली बनना पड़ा। सत्यवादी हरिश्चन्द्र को भी समय के चक्र में फँसना पड़ा । विधि के विधानानुसार देवराज इन्द्र को भी कितनी ही बार इन्द्रासन का परित्याग करना पड़ा। शंकर जी को भस्मासुर द्वारा कष्ट और विष्णु के वक्षस्थल पर पादप्रहार, इन्द्र का परस्त्रीगमन तथा वृन्दा के शाप के कारण पत्थर का रूप लेकर तुलसी जैसे छोटे से वृक्ष के चरणों में जा बैठना, शंकरजी के पूर्ण प्रयास करने पर भी कामदेव का अनंग बनकर आज तक सुरक्षित रहना, प्रहलाद के वध के अनन्त प्रयास करने पर भी उसका पूर्ण सुरक्षित रहना, सब इसी बात की ओर संकेत है कि जो बात होनी है वही होती है या जो विधाता की इच्छा होती है वह अवश्य होता है, इसलिये कहा गया है कि –
“यद् भावी न तद् भावी – भावी चेन्न तदन्यथा,
इति चिन्ताविषध्योऽयमगदः किन्न पीयते ।”
          अर्थात् जो बात नहीं होने वाली है वह कभी नहीं होगी और जो बात होने वाली है, उसे कोई रोक नहीं सकता। इसलिये चिन्ता के विष को मारने वाली इस विचाररूपी औषधि को क्यों नहीं पीते ।
          परन्तु अब प्रश्न यह उठता है कि मनुष्य यदि इस विचारधारा को सत्य मानकर ग्रहण करले तो वह अकर्मण्य और आलसी हो जाएगा। वह सोचेगा कि यदि रोटी मेरे भाग्य में होगी तो अपने आप मिल जायेगी, इस प्रकार वह संसार के कर्मक्षेत्र से विमुख हो जायेगा । हमें यह ध्यान रखना चाहिये कि इस संसार में हमारा जीवन कर्म करने के लिए हुआ है। यही योग है, यही भक्ति और साधना है। इसलिये गीता में कहा है –
“योगः कर्मसु कौशलम् ” 
          अर्थात् कर्मों में कुशलता का ही नाम योग है। परन्तु इसके साथ एक शर्त यह भी है कि मनुष्य को आसक्तिरहित होकर ही कर्म करना चाहिये । मनुष्य तो केवल कर्म करने वाला है, कर्म का फल चाहे वह लाभ हो या हानि, यश हो या अपयश, जीवन हो या मरण देने वाला विधाता है, ईश्वर है, मुनष्य नहीं। इसीलिए गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा है कि –
“कर्मेण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन “
           अर्थात् हे अर्जुन तेरा अधिकार केवल कर्म करने में ही है, उसके फल में नहीं, फल तो मेरे हाथ में है।
          अतः यह निष्कर्ष निकलता है कि मानव विधाता के हाथों का एक खिलौना मात्र है। उसे फल-प्राप्ति की भावना से रहित होकर कर्म करना चाहिये । अकर्मण्य बनकर बैठने से कर्म करना ही कल्याणकारी है । इसका फल क्या होगा यह सोचना ही मूर्खता है, क्योंकि फल देने का अधिकार किसी और का है हमारा नहीं । हानि-लाभ, यश-अपयश और जीवन-मरण निःसन्देह विधाता के ही संकेतों पर चलते हैं ऐसा भारतीय भाग्यवादी विचारकों का मत है। इसीलिए भगवान् राम ने कहा है –
“हंसि बोलेउ रघुवंश कुमारा विधि कर लिखा को मेटन हारा ।” 
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“लिखितमपि ललाटे प्रोज्झितुम् कः समर्थ: “
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