हम बीमार क्यों होते हैं ? Why Do We Fall lll ?

हम बीमार क्यों होते हैं ?  Why Do We Fall lll ?

 

‘स्वास्थ्य’ का महत्त्व (सार्थकता)
♦ ‘स्वास्थ्य’ वह अवस्था है जिसके अन्तर्गत शारीरिक, मानसिक तथा सामाजिक कार्य समुचित क्षमता द्वारा उचित प्रकार से किया जा सके।
♦ हमारे दैनिक क्रिया-कलाप ही नहीं सामाजिक कार्य भी हमारे स्वास्थ्य पर ही निर्भर करता है, यदि हमारा स्वास्थ्य ठीक नहीं है, तो या तो हम कोई कार्य करने में सक्षम नहीं होंगे अथवा हम उन्हें ठीक से कर नहीं पाएँगे।
व्यक्तिगत तथा सामुदायिक समस्याएँः दोनों ही स्वास्थ्य को प्रभावित करती हैं
♦ स्वास्थ्य किसी व्यक्ति की शारीरिक, मानसिक तथा सामाजिक जीवन क्षमता की पूर्णरूपेण-समन्वयित स्थिति है तो कोई भी व्यक्ति इसे स्वयं ही पूर्णरूपेण प्राप्त नहीं कर सकता है। सभी जीवों का स्वास्थ्य उसके पास-पड़ोस अथवा उसके आस-पास के पर्यावरण पर आधारित होता है। यदि हमारा पर्यावरण स्वच्छ नहीं होगा तो इसका प्रतिकूल प्रभाव आवश्यक रूप से हमारे स्वास्थ्य पर भी पड़ेगा।
♦ स्वास्थ्य के लिए हमें भोजन की आवश्यकता होती है। इस भोजन को प्राप्त करने के लिए हमें काम करना पड़ता है। इसके लिए, हमें काम करने के अवसर खोजने पड़ते हैं। अच्छी आर्थिक परिस्थितियाँ तथा कार्य भी व्यक्तिगत स्वास्थ्य के लिए आवश्यक हैं।
♦ स्वस्थ रहने के लिए हमें प्रसन्न रहना आवश्यक है। यदि किसी से हमारा व्यवहार ठीक नहीं है और एक-दूसरे से डर हो तो हम प्रसन्न तथा स्वस्थ नहीं रह सकते।
♦ ‘स्वस्थ रहने’ तथा ‘रोगमुक्त’ में अन्तर रोग अथवा व्याधि को अंग्रेजी में डीजीज कहा जाता है, जिसका शाब्दिक अर्थ होता है आराम में बाधा अथवा असुविधा की स्थिति। रोग की स्थिति में भी व्यक्ति को असुविधा होती है, किन्तु असुविधा की सभी स्थितियों को रोग नहीं कहा जा सकता। रोग का तात्पर्य यह है कि हमारे शरीर का कोई अंग ठीक से कार्य नहीं कर रहा है। किन्तु शरीर में कोई रोग नहीं होने का तात्पर्य यह नहीं हो सकता है कि हम पूर्णतया स्वस्थ हैं। दरअसल स्वास्थ्य शारीरिक ही नहीं हमारी मानसिक स्थितियों का भी सूचक होता है। यदि कोई व्यक्ति शारीरिक रूप से तन्दुरुस्त है, किन्तु उसकी मानसिक स्थिति ठीक नहीं है तो उसे स्वस्थ नहीं कहा जा सकता।
रोग तथा इसके कारण
♦ रोग किस तरह के दिखाई देते हैं? जब कोई रोग होता है तब शरीर के एक अथवा अनेक अंगों एवं तन्त्रों में क्रिया अथवा संरचना में ‘खराबी’ परिलक्षित होने लगती है। ये बदलाव (परिवर्तन) रोग के लक्षण दर्शाते हैं। रोग के लक्षण हमें ‘खराबी’ का संकेत देते हैं। इस प्रकार सिरदर्द, खाँसी, दस्त, किसी घाव में पस (मवाद) आना, ये सभी लक्षण हैं। इन लक्षणों से किसी-न-किसी रोग का पता लगता है। लेकिन इनसे यह नहीं पता चलता कि कौन-सा रोग है? उदाहरण के लिए, सिरदर्द का कारण परीक्षा का भय अथवा इसका अर्थ मस्तिष्कावरणशोध (meningitis) होना अथवा दर्जनों विभिन्न बीमारियों में से एक हो सकता है।
♦ रोग के चिन्ह वे हैं जिन्हें चिकित्सक लक्षणों के आधार पर देखते हैं। लक्षण किसी विशेष रोग के बारे में सुनिश्चित संकेत देते हैं। चिकित्सक रोग के सही कारण को जानने के लिए प्रयोगशाला में कुछ परीक्षण भी करवा सकता है। p
♦ प्रचण्ड तथा दीर्घकालिक रोग (बीमारी) रोगों की अभिव्यक्ति भिन्न-भिन्न हो सकती है और कई कारकों पर निर्भर करती है। इनमें सबसे स्पष्ट कारक जिससे रोग का पता चलता है, वह है अवधि। कुछ रोगों की अवधि कम होता है, जिन्हें तीव्र रोग कहते हैं। खाँसी-जुकाम आदि तीव्र रोग के उदाहरण हैं। ऐसे रोग जो लम्बी अवधि तक अथवा जीवनपर्यन्त रहते हैं, ऐसे रोगों को दीर्घकालिक रोग कहते हैं। जैसे-एलिफेन्टाइसिस ।
♦ दीर्घकालिक रोग तथा अस्वस्थता दीर्घकालिक रोग तीव्र रोग की अपेक्षा लोगों के स्वास्थ्य पर लम्बे समय तक विपरीत प्रभाव बनाए रखता है।
♦ रोग के कारक किसी रोग के कारण आनुवंशिकता, विषाणु, जीवाणु, प्रदूषण आदि हो सकते हैं।
♦ संक्रामक तथा असंक्रामक कारक रोग के कारण का एक वर्ग है, संक्रामक कारक, जो अधिकांशतया सूक्ष्म जीव होते हैं। वह रोग जिनके तात्कालिक कारक सूक्ष्मजीव होते हैं उन्हें संक्रामक रोग कहते हैं। इसका कारण यह है कि सूक्ष्म जीव समुदाय में फैल सकते हैं और इनके कारण होने वाले रोग भी इनके साथ फैल जाते हैं।
♦ कुछ रोग ऐसे होते हैं, जो संक्रामक कारकों द्वारा नहीं होते। उनके कारक भिन्न होते हैं। लेकिन वे बाहरी कारक, जो सूक्ष्म जीव नहीं होते वे समुदाय में फैल सकते हैं। यद्यपि ये बहुधा आन्तरिक एवं असंक्रामक हैं। उदाहरणतया, कुछ प्रकार के कैन्सर आनुवंशिक असामान्यता के कारण होते हैं। उच्च रुधिर चाप का कारण अधिक वजन होना तथा व्यायाम न करना है।
संक्रामक रोग
♦ संक्रामक कारक रोग उत्पन्न करने वाले जीव कई प्रकार के होते हैं। इनमें से कुछ विषाणु, कुछ बैक्टीरिया, कुछ कवक (कवक), कुछ एककोशिकीय जन्तु अथवा प्रोटोजोआ हैं। कुछ रोग बहुकोशिकीय जीवों, जैसे अनेक प्रकार के कृमि से भी होते हैं।
♦ विषाणुओं से होने वाले सामान्य रोग हैं खाँसी-जुकाम, इन्फ्लूएन्जा, डेंगू बुखार तथा एड्स। कुछ रोग जैसे कि टायफॉइड बुखार, हैजा, क्षयरोग तथा एन्थ्रेक्स बैक्टीरिया द्वारा होते हैं। बहुत से सामान्य त्वचा रोग विभिन्न प्रकार की कवक द्वारा होते हैं। प्रोटोजोआ से मलेरिया तथा कालाजार नामक रोग हो जाते हैं। आँत्र संक्रमण एवं फीलपाँव नामक रोग भी कृमि की विभिन्न प्रजाति द्वारा होते हैं।
♦ रोगों का उपचार उसके कारकों को ध्यान में रखकर किया जाता है।
♦ औषधियों का निर्माण भी रोग के कारकों को ध्यान में रखकर किया जाता है।
♦ रोग फैलने के साधन संक्रामक रोग बहुत से सूक्ष्मजीवीय कारक के रोगी से अन्य स्वस्थ मनुष्य तक विभिन्न तरीकों से फैलकर संचारित होने के कारण हो सकते हैं। ऐसे रोगों को संचारी रोग कहा जाता है। ऐसे रोगों के सूक्ष्मजीव हवा द्वारा फैलते हैं। वायु द्वारा फैलने वाले रोगों के उदाहरण हैं खाँसी-जुकाम, निमोनिया तथा क्षय रोग ।
♦ जल द्वारा भी रोग फैल सकते हैं। जब संक्रमणीय रोग तथा हैजा से ग्रसित रोगी के अपशिष्ट पेयजल में मिल जाते हैं। और यदि कोई स्वस्थ व्यक्ति जाने-अनजाने में इस जल को पीता है, तो रोगाणुओं को एक नया पोषी मिल जाता है जिससे वह भी इस रोग से ग्रसित हो जाता है। ऐसे रोग अधिकतर साफ पेय जल न मिलने के कारण फैलते हैं।
♦ लैंगिक क्रियाओं द्वारा दो व्यक्ति शारीरिक रूप से एक-दूसरे के सम्पर्क में आते हैं अतः यह आश्चर्यजनक नहीं है कि कुछ सूक्ष्मजीवीय रोग जैसे सिफलिस अथवा एड्स (AIDS) लैंगिक सम्पर्क के समय एक साथी से दूसरे साथी में स्थानान्तरित हो जाए। यद्यपि ऐसे लैंगिक संचारी रोग सामान्य सम्पर्क जैसे हाथ मिलाना अथवा गले मिलना अथवा खेलकूद जैसे कुश्ती, अथवा और कोई अन्य विधि जिसमें हम सामाजिक रूप से एक-दूसरे के सम्पर्क में आते हैं, से नहीं फैलते ।
♦ AIDS, लैंगिक सम्पर्क के अतिरिक्त रुधिर स्थानान्तरण द्वारा भी संक्रमित होता है, जैसे AIDS से ग्रसित व्यक्ति का रुधिर स्वस्थ व्यक्ति को स्थानान्तरित किया जाए अथवा गर्भावस्था में रोगी माता से अथवा शिशु को स्तनपान द्वारा।
♦ हम ऐसे पर्यावरण में रहते हैं जिसमें हमारे अतिरिक्त अन्य जीव भी रहते हैं। इसलिए कुछ रोग अन्य जन्तुओं द्वारा भी संचारित होते हैं। ये जन्तु रोगाणुओं (संक्रमण करने वाले कारक) को रोगी से लेकर अन्य नए पोषी तक पहुँचा देते हैं। अतः ये मध्यस्थ का काम करते हैं, जिन्हें रोगवाहक (वेक्टर) कहते हैं। सामान्य रोगवाहक का मच्छर एक उदाहरण है। मच्छर की बहुत सी ऐसी प्रजाति हैं, जिन्हें अत्यधिक पोषण की आवश्यकता होती है जिससे कि वे परिपक्व अण्डे उत्पन्न कर सकें। मच्छर अनेक समतापी प्राणियों (जिसमें मनुष्य भी शामिल हैं) पर निर्वाह करता है। इस प्रकार वे एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य में रोग को फैलाते हैं।
♦ अंग-विशिष्ट तथा ऊतक-विशिष्ट अभिव्यक्ति जिस ऊतक अथवा अंग पर सूक्ष्म जीव आक्रमण करता है, रोग के लक्षण तथा चिन्ह उसी पर निर्भर करते हैं। यदि फेफड़े पर आक्रमण होता है तब लक्षण खाँसी तथा कम साँस आना होंगे। यदि यकृत पर आक्रमण होता है तब पीलिया होगा। यदि मस्तिष्क पर आक्रमण होता है तब सिरदर्द, उल्टी आना, चक्कर अथवा बेहोशी आना होगा। यदि हम यह जानते हों कि कौन-से ऊतक अथवा अंग पर आक्रमण हुआ है और उनके क्या कार्य हैं, तो हम संक्रमण के चिन्ह तथा लक्षण का अनुमान लगा सकते हैं।
♦ संक्रामक रोगों के ऊतक-विशिष्ट प्रभाव के अतिरिक्त उनके अन्य सामान्य प्रभाव भी होते हैं। अधिकांश सामान्य प्रभाव इस पर निर्भर करते हैं कि संक्रमण से शरीर का प्रतिरक्षा तन्त्र क्रियाशील हो जाए।
♦ एक सक्रिय प्रतिरक्षा तन्त्र प्रभावित ऊतक के चारों ओर रोग उत्पन्न करने वाले सूक्ष्मजीवों को मारने के लिए अनेक  कोशिकाएँ बना देता है।
♦ नई कोशिकाओं के बनने के प्रक्रम को शोथ कहते हैं। इस प्रक्रम के अन्तर्गत स्थानीय प्रभाव जैसे फूलना तथा दर्द होना और सामान्य प्रभाव जैसे बुखार होते हैं।
♦ कुछ मामलों में संक्रमण के विशिष्ट ऊतक अति सामान्य प्रभाव को लक्षित करते हैं। उदाहरणतया HIV संक्रमण में वायरस प्रतिरक्षा तन्त्र में जाते हैं और इसके कार्य को नष्ट कर देते हैं। इस प्रकार HIV AIDS से बहुत से प्रभाव इसलिए होते हैं क्योंकि हमारा शरीर प्रतिदिन होने वाले छोटे संक्रमणों का मुकाबला नहीं कर पाता है। इस स्थिति में हल्के खाँसी-जुकाम से भी निमोनिया हो सकता है। इसी प्रकार आहारनाल के संक्रमण से रुधिरयुक्त प्रवाहिका हो सकता है। अन्ततः ये अन्य संक्रमण ही HIV-AIDS के रोगी की मृत्यु के कारण बनते हैं।
♦ रोग की तीव्रता की अभिव्यक्ति शरीर में स्थित सूक्ष्मजीवों की संख्या पर निर्भर करती है। यदि सूक्ष्मजीव की संख्या बहुत कम है तो रोग की अभिव्यक्ति भी कम होगी। यदि उसी सूक्ष्मजीव की संख्या अधिक होगी तो रोग की अभिव्यक्ति इतनी तीव्र होगी की जीवन को भी खतरा हो सकता है।
♦ प्रतिरक्षा तन्त्र एक प्रमुख कारक है, जो शरीर में जीवित सूक्ष्मजीवों की संख्या को निर्धारित करता है।
♦ संक्रामक रोगों के उपचार के नियम
♦ रोग के कारक सूक्ष्मजीवों को मारने की एक विधि है औषधियों का उपयोग करना ।
♦ यदि बैक्टीरिया को मारना हो तो हमें ऐसी औषधि का प्रयोग करना चाहिए, जो हमारे शरीर को प्रभावित किए बिना ही बैक्टीरिया के संश्लेषी मार्ग को रोक सके। ऐसा एन्टीबायोटिक से सम्भव है।
♦ एण्टीवायरल औषधि को बनाना एण्टीबैक्टीरियल औषधि के बनाने की अपेक्षा कठिन है। इसका कारण है बैक्टीरिया में अपनी जैव रासायनिक प्रणाली होती है जबकि विषाणु में अपनी जैव रासायनिक प्रणाली बहुत कम होती है। विषाणु
हमारे शरीर में प्रवेश कर अपनी जीवन प्रक्रिया के लिए हमारी मशीनरी का उपयोग करते हैं।
♦ संक्रामक रोगों के उपचार के लिए इसके निवारण के सिद्धान्तों के का ध्यान रखना अनिवार्य है।
♦ निवारण के सिद्धान्त संक्रामक रोगों के निवारण की दो विधियाँ हैं। एक सामान्य तथा दूसरी रोग विशिष्ट ।
♦ संक्रमण से बचने की सामान्य विधि है रोगी से दूर रहा जाए। इससे हम संक्रामक सूक्ष्मजीवों से बचाव कर सकते हैं।
♦ सूक्ष्मजीवों के फैलने की विधियों की जानकारी भी इससे निवारण में सहायक हो सकती है। वायु द्वारा फैलने वाले सूक्ष्मजीवों से बचाव के लिए हमें खुले स्थानों में रहना चाहिए तथा भीड़ भरे स्थानों पर जाने से बचना चाहिए। जल द्वारा फैलने वाले सूक्ष्मजीवों से बचने के लिए हमें साफ जल पीना चाहिए तथा पानी में स्थित सूक्ष्मजीवों को मारने के लिए भी उपाय करना चाहिए। रोग वाहक सूक्ष्मजीवों से बचने के लिए हमें साफ पर्यावरण में रहना चाहिए। ऐसे वातावरण में मच्छर उत्पन्न नहीं होते अर्थात् संक्रामक रोगों से बचने के लिए स्वच्छता आवश्यक है।
♦ ऐसे बहुत से टीके आजकल उपलब्ध हैं, जो संक्रामक रोगों निवारण करते हैं और रोग निवारण का विशिष्ट साधन प्रदान करते हैं। टिटनस, डिप्थीरिया, कुकर खाँसी, चेचक, पोलियो आदि के टीके उपलब्ध हैं। यह बच्चों की संक्रामक रोगों से रक्षा करने के लिए सरकारी स्वास्थ्य कार्यक्रम भी हैं।
♦ संक्रामक रोगों के निवारण को प्रभावशाली बनाने के लिए आवश्यक है कि सार्वजनिक स्वच्छता तथा टीकाकरण की सुविधा सभी को उपलब्ध हो ।
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