स्वामी दयानन्द सरस्वती
स्वामी दयानन्द सरस्वती
सन्त महात्माओं में स्वामी दयानन्द सरस्वती का नाम अपने अनोखे व्यक्तित्व और बेमिसाल प्रभाव के कारण जन-जन के मन में आदरपूर्वक बसा हुआ है। स्वामी दयानन्द एक साथ ही आडम्बरों, अन्धविश्वासों और अमानवीय तत्त्वों का जमकर विरोध करते हुए मानवीय सहानुभूति का दिव्य सन्देश दिया। आपने राष्ट्रभाषा हिन्दी की मान्यता देने के लिए स्वभाषा और जाति के स्वाभिमान को जगाया।
स्वामी दयानन्द का उदय हमारे देश में तब हुआ था जब चारों ओर से हमें विभिन्न प्रकार के संकटों और आपदाओं का सामना करना पड़ रहा था। उस समय हम विदेशी शासन की बागडोर से कस दिए गए और सब प्रकार के मूलाधिकारों से वंचित करके अमानवता के वातावरण में जीने के लिए बाध्य कर दिए गए थे। स्वामी दयानन्द जी ने अपने वातावरण, समाज और राष्ट्र सहित विश्व की इस प्रकार की मानवता विरोधी गतिविधियों का गम्भीरतापूर्वक अध्ययन किया और इन्हें जड़ से उखाड़ देने का दृढ़ संकल्प भी किया ।
स्वामी दयानन्द जी का जन्म गुजरात राज्य के मौरवी क्षेत्र में स्थित टंकारा नामक स्थान में सन् 1824 को हुआ था।
आपके पिताश्री सनातन धर्म के कट्टर अनुयायी और प्रतिपालक थे। स्वामी दयानन्द जी का बचपन का नाम मूलशंकर था। स्वामी जी की आरम्भिक शिक्षा संस्कृत विषय के साथ हुई । इससे स्वामी जी के संस्कार, दिव्य और अद्भुत रूप में दिखाई पड़ने लगे और लगभग 12 वर्ष के होते-होते आपके संस्कार इसमें पूर्णतः बदल गए। हम यही भली-भाँति जानते हैं कि महान् पुरुषों के जीवन में कोई-न-कोई कभी ऐसी घटना घट जाती है कि उनके जीवन को बदल डालती है। स्वामी जी के भी जीवन में एक दिन एक ऐसी घटना घट ही गयी। स्वामी जी ने एक दिन शिवरात्रि के सुअवसर पर शिवलिंग पर नैवेद्य खाते हुए चूहे को देखा । इसे देखकर स्वामी जी के मन में भगवान् शिव को प्राप्त करने की लालसा या अभिलाषा अत्यन्त तीव्र हो उठी। लगभग 21 वर्ष की आयु में वे अपने सम्पन्न परिवार को छोड़कर संन्यास-पथ पर निकल पड़े। वे योग-साधना कर के शिव की प्राप्ति के लिए कठोर साधना-सिद्धि की खोज में निकल पड़े थे। इस साधना-सिद्धि के पथ में अनेक प्रकार के योगियों, सिद्धों और महात्माओं से मिलते रहे । वे विभिन्न तीर्थ स्थलों, धार्मिक स्थानों और पूज्य क्षेत्रों में भी भ्रमण करते रहे । बदरीनाथ, हरिद्वार, केदारनाथ, मथुरा आदि आध्यात्मिक क्षेत्रों का परिभ्रमण स्वामी जी ने किया। मथुरा में स्वामी जी को तत्कालीन महान् योगी और सन्त स्वामी विरजानन्द जी का सम्पर्क प्राप्त हुआ था। इनके निदेशन में स्वामी जी ने लगभग 35 वर्षों तक वेदों का अध्ययन किया था। स्वामी विरजानन्द जी ने जब यह भलीभाँति सन्तोष प्राप्त कर लिया कि दयानन्द का अध्ययन, शिक्षा-दीक्षा पूर्ण हो चुकी है, तो उन्होंने अपने इस अद्भुत शिष्य को यह दिव्य आदेश दिया कि “अब जाओ, और देश में फैले हुए समस्त प्रकार के अज्ञानान्धकार को दूर करो।” गुरु आदेश को शिरोधार्य करके दयानन्द जी इस महान् उत्तरदायित्व का निर्वाह करने के लिए सम्पूर्ण देश का परिभ्रमण करने लगे। देश के विभिन्न भागों में परिभ्रमण करते हुए स्वामी जी ने आर्य समाज की स्थापनाएँ कीं । अन्धविश्वासों और रूढ़ियों का खण्डन करते हुए मूर्ति पूजा का खुल्लमखुल्ला विरोध किया। इसी सन्दर्भ में आपने एक महान् और सर्वप्रधान धर्मग्रन्थ ‘सत्यार्थ ‘वेदांग प्रकाश’ को लिखा । इसके अतिरिक्त ‘ऋग्वेद की भूमिका’, ‘व्यवहार-भानु’, प्रकाश’ आपके श्रेष्ठ ग्रन्थ हैं ।
समस्त राष्ट्र में फैले अज्ञानान्धकार को स्वामी जी ने मनसा, वाचा, कर्मया और अन्य प्रभावी शक्तियों के द्वारा दूर करने का भगीरथ प्रयास किया। आपने प्राणपण से सभी भारतीयों की मानसिक गुलामी को झकझोर देने के लिए प्रचण्ड झंझा के समान तीव्र विचारों को धीरे-धीरे भरना शुरू कर दिया। इससे सबके मन में जागृति और संचेतना की लहर लहरा उठी। उत्साहित मन की तरंगें बन्धन के तट को बार-बार गिरा देने के लिए शक्तिशाली हो उठी । एक अद्भुत जन-जागरण का सन्देश हमारे तन-मन को स्पर्श करने लगा ।
स्वामी जी का जीवनाधार ब्रह्मचर्य – बल था | स्वामी जी ने सुशील, बुद्धि-बल और पराक्रम युक्त दीर्घायु श्रीमान् संतान की उत्पत्ति इसी के द्वारा सम्भव कही थी। इसीलिए स्वामी जी ने पच्चीस वर्ष से पूर्व पुत्र का और सोलहवें वर्ष से पूर्व कन्या का विवाह न करने का सुझाव दिया था । स्वामी जी ने अपने भारत देश के प्रति अपार प्रेम-भक्ति को प्रकट करते हुए कहा था- “मैं देशवासियों के विकास के लिए और संसार में सम्मानपूर्ण स्थान प्राप्त करने के लिए प्रतिदिन प्रातःकाल और सायं भगवान् से प्रार्थना करता हूँ कि वह दयालु भगवान् मेरे देश को विदेशी शासन से शीघ्र मुक्त करे।”
स्वामी जी ने बाल विवाह का कड़ा विरोध करते हुए इसे निर्बलता और तेजस्वहीनता का मुख्य कारण ही नहीं माना अपितु इसके द्वारा सामाजिक पतन के अन्तर्गत विधवापन का मूल कारण भी बताया, क्योंकि बाल-विवाह अल्पायु में होने के कारण शक्तिहीनता को जन्म देता है जिससे कम उम्र में मृत्यु हो जाना स्वाभाविक हो जाता है। इस बाल विवाह की प्रथा पर रोक लगाने के सुझाव के साथ ही स्वामी जी ने विधवा-विवाह या पुनर्विवाह की जोरदार प्रथा चलाई थी ।
स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने हिन्दी भाषा को राष्ट्रभाषा के रूप में मान्यता दिलाने के लिए भरपूर कोशिश की। उनकी हिन्दी के प्रति अपार अनुराग और श्रद्धा थी । यद्यपि वे अहिन्दी भाषी थे, लेकिन उन्होंने संस्कृत भाषा और वैदिक धर्म को ऊँचा स्थान दिलाने के साथ हिन्दी को भी प्रतिष्ठित किया है। यही कारण है कि आर्य समाज की संस्थापना संस्थलों पर दयानन्द विद्यालय-महाविद्यालय भी भारतीय शिक्षा के प्रचार-प्रसार कार्य में लगे हुए हैं। वास्तव में स्वामी दयानन्द सरस्वती एक युग पुरुष थे, जो काल पटल पर निरन्तर श्रद्धा के साथ स्मरण किए जाते रहेंगे। हमारा यह दुर्भाग्य ही था कि स्वामी जी को धर्म प्रचारार्थ जोधपुर नरेश के यहाँ एक वेश्या ने प्रतिशोध की दुर्भावना से विषाक्त दूध पिला दिया जिससे उनकी लगभग 62 वर्ष की अल्पायु में सन् 1883 में मृत्यु हो गई।
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