स्वदेश – प्रेम

स्वदेश – प्रेम

महान् राष्ट्रकवि मैथिलीकरण गुप्त ने स्वदेश-प्रेम के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए लिखा है –

जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमें रस धार नहीं ।
वह हृदय नहीं है, पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं II
          वास्तव में स्वदेश-प्रेम एक स्वच्छ और श्रेष्ठ भाव है । इसके बिना मनुष्यता का विकास संभव नहीं है। स्वदेश-प्रेम हृदय की एक ऐसी सच्ची भावना है। जिससे केवल सच्चाई और महानता हो स्पष्ट होती है। इससे ही हमारे अंदर उज्जवल और उच्चकोटि की भावनाओं का उदय होता है। इससे हम मनुष्य से देवता होने की दिशा में आगे बढ़ते हैं ।
          सभी को अपने देश के प्रति किसी-न-किसी प्रकार से प्रेम होता ही है। कोई समाज और राष्ट्र के आवश्यक कार्यों को करते हुए देश प्रेम को प्रकट करता है, तो कोई देश-प्रेम को उत्पन्न करने वाले ग्रन्थों की रचना करता है। इसी तरह से कोई देश की गुलामी की बेड़ी को तोड़ने के लिए आत्मबलिदान करते हुए कभी भी पीछे नहीं हटता है। देश प्रेमी अपनी कर्त्तव्य-निष्ठा का पालन करते हुए देश को विकास के पथ पर ले जाने के लिए प्रयत्न में लगा रहता है ।
          देश-प्रेम का स्वरूप क्या है ? देश-प्रेम क्या होता है या देश-प्रेम किसे कहते हैं। इस पर विचारने पर हम यही पाते हैं कि देश-प्रेम हृदय या मन की एक पवित्र धारा है, जिसमें गोता लगाकर के हम अपने जीवन-कर्म को शुद्ध और सफल बनाते हैं। जिस देश में हम रहते हैं, उसके पशु, पक्षी, नदी, नाले, वन, पर्वत, वायु, मैदान, निवासी, बाग-बगीचे आदि के साथ रहते-रहते हम उससे परिचित हो जाते हैं। उसकी हर दशा से हम प्रभावित होते हैं और उसके साथ अपने जीवन व्यापार को जोड़ लेते हैं। हमारा मन-तन कार्य-व्यापार आदि सभी कुछ जब देश के प्रत्येक स्वरूप से प्रभावित होने लगता है, तभी हम सच्चे देश प्रेमी कहलाते हैं, अन्यथा हम जो कुछ देश-प्रेम के नाम पर अपना परिचय देते हैं, वह सब कुछ नकली और दिखावटी ही तो होता है।
          देश-प्रेम के महत्त्व को समझते हुए अनेकानेक कवियों, लेखकों और महान् पुरुषों ने अपना-अपना महत्त्वपूर्ण योगदान किया है। देश-प्रेम की भावना से ही प्रभावित होकर श्रीराम ने सोने की लंकापुरी को भी धूल- समान समझते हुए अपनी जन्मभूमि अयोध्यापुरी को ही महत्त्व दिया था और विभीषण को सोने की लंका सौंप देने में तनिक भी संकोच न ही किया था। इसी तरह से हमारे देश में और भी महान् पुरुषों ने अपनी जन्मभूमि भारत के प्रति अपना अपार प्रेम-प्रदर्शन करते हुए अपने-अपने जीवन की तनिक भी परवार नहीं की थी। महारानी लक्ष्मीबाई, वीरवर शिवाजी, लाला लाजपतराय, बालगंगाधर तिलक, महात्मा गाँधी, सुभाषचन्द्र बोस, वीर सावरकर, सरवल्लभभाई पटेल, पंडित जवाहरलाल नेहरू, भगतसिंह, चन्द्रशेखर आजाद आदि देश-प्रेम की भावना से ही प्रेरित और उत्साहित हुए महान् देश-प्रेमी थे। उनके देश-प्रेम का आदर्श आज भी हमारे लिए प्रेरणा के रूप में है। कविवर जयशंकर प्रसाद ने इसी देश-प्रेम की भावना से प्रेरित निम्नलिखित देश-प्रेम के महत्त्व को अंकित करने वाली कविताएँ लिखी हैं-
अरुण यह मधुमय देश हमारा ।।
जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा ।
सरस तामरस गर्भ विभा पर नाच रही तरुशिखा मनोहर । 
छिटका जीवन हरियाली पर मंगल कुंकुम सारा । 
लघु सुरधनु से पंख पसारे-शीतल मलय समीर सहारे ।
उड़ते खग जिस ओर मुँह किए- समझ नीड़ निज प्यारा । 
बरसाती आँखों के बादल बनते जहाँ भरे करुणा जल ।
लहरें टकरातीं अनन्त की पाकर जहाँ किनारा ।
हेम कुम्भ ले उषा सवेरे-भरती ढुलकाती सुख मेरे ।
मंदिर ऊँघते रहते जब-जगकर रजनी भर तारा ।।
          स्वदेश-प्रेम का यह अर्थ नहीं कि हम भारतमाता की मूर्ति बनाकर उसकी पूजा करते रहें या ‘भारतमाता की जय’ पुकारते रहें। देश के प्रति हमें अपना कर्त्तव्य भी पूरा करना चाहिए, तभी हमारा स्वदेश-प्रेम सच्चा कहलाएगा ।
          यदि हमें स्वदेश से सच्चा प्रेम है, तो हमें एकता की रक्षा करनी चाहिए । यह तभी हो सकता है, जब हम मन से सम्प्रदाय-भेद, भाषा-भेद, जाति-भेद, स्पृश्यता – अस्पृश्यता आदि भेद-भावों को भुला दें। हम आपस में लड़ाई-झगड़े और दंगे-फसाद करते रहें, तो हमें ‘स्वदेश-प्रेम’ का गुणगान करने का कोई अधिकार नहीं। यदि हम राष्ट्रीय एकता तथा प्रेम की भावना का प्रसार करते हैं, तभी हम सच्चे अर्थ में स्वदेश-प्रेमी हैं। जो व्यक्ति देश से, देश की सरकार से बेईमानी नहीं करता, वह व्यक्ति वास्तव में देश-प्रेमी है। देश पर जब कोई संकट आ पड़े, उस समय जो देश पर प्राण निछाबर करने के लिए आगे बढ़े, वही देश प्रेम का दावा कर सकता है।
          महान् राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की ये काव्य-पंक्तियाँ स्वदेश-प्रेम की ही सप्रेरणा देती हैं –
जिनको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है।
वह नर नहीं, नर पशु निरा है, और मृतक समान है ।।
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