“साहित्य समाज का दर्पण है” अथवा “साहित्य अपने व्यापक अर्थ में समाज के गूँगे इतिहास का मुखर सहोदर है” अथवा “साहित्य अपने समय का प्रतिबिम्ब होता है”
“साहित्य समाज का दर्पण है” अथवा “साहित्य अपने व्यापक अर्थ में समाज के गूँगे इतिहास का मुखर सहोदर है” अथवा “साहित्य अपने समय का प्रतिबिम्ब होता है”
“हितने सहितम्, सहितम्, साहितस्य भावः साहित्यम्” इस विग्रह के अनुसार साहित्य का शाब्दिक अर्थ है ‘जिसमें हित की भावना सन्निहित हो ।’ अपने हित-अहित का ज्ञान तो पशु-पक्षियों को भी होता है, जैसा कि ‘गोस्वामी तुलसीदास स्वीकार करते हैं, ‘हित अनहित पशु पक्षिहुं जाना ।’ फिर इससे तो मानव एक बुद्धिजीवी प्राणी ठहरा । उसे तो यह ज्ञान अवश्य होना चाहिए । मनुष्य की भाँति साहित्य भी हित-चिन्तन करता है, परन्तु मनुष्य और साहित्य के हित-चिन्तन में अवनि और अम्बर का अन्तर है । साधारणतया मनुष्य का हित-चिन्तन संकुचित ‘स्व’ पर आधारित रहता है। उसकी सीमित दृष्टि केवल अपना ही चक्कर लगाकर लौट आती है, परन्तु साहित्य का, हितचिन्तन विश्वात्मैक्य और विश्व – कल्याण की भावना पर आधारित होता है । एक व्यक्तिगत हित-चिन्तन है, दूसरा समष्टिगत । अतः जिस ग्रन्थ में समष्टिगत हित-चिन्तन प्राप्त होता है, वही साहित्य है। इसीलिये विद्वानों ने ‘ज्ञान – राशि’ के संचित कोष का नाम ‘साहित्य’ कहा है। प्रत्येक युग का श्रेष्ठ साहित्य अपने युग के प्रगतिशील विचारों द्वारा किसी न किसी रूप में अवश्य प्रभावित होता है
साहित्य हमारी कौतूहल और जिज्ञासा वृत्तियों को शान्त करता है, ज्ञान की पिपासा को तृप्त करता है और मस्तिष्क की क्षुधा पूर्ति करता है । जठरानल से उद्विग्न मानव जैसे अन्न के एक-एक कण के लिये लालायित रहता है, उसी प्रकार मस्तिष्क भी क्षुधाग्रस्त होता है, उसका भोजन हम साहित्य से प्राप्त करते हैं । केवल साहित्य के ही द्वारा हम अपने राष्ट्रीय इतिहास, देश की गौरव गरिमा, संस्कृति और सभ्यता, पूर्वजों के अनुभूत विचारों एवं अनुसंधानों, प्राचीन रीति-रिवाजों, रहन-सहन और परम्पराओं से परिचय प्राप्त करते हैं। आज से एक शताब्दी या दो शताब्दी देश के किस भाग में कौन-सी भाषा बोली जाती थी, उस समय की वेश-भूषा क्या थी, उनके सामाजिक और धार्मिक विचार कैसे थे, धार्मिक दशा कैसी थी, यह सब कुछ तत्कालीन साहित्य के अध्ययन से ज्ञात हो जाता है। सहस्रों वर्ष पूर्व भारतवर्ष शिक्षा और आध्यात्मिक क्षेत्र में उन्नति की चरम सीमा पर था, यह बात हमें साहित्य ही बताता है। हमारे पूर्वजों के श्लाध्य कृत्य आज भी साहित्य द्वारा हमारे जीवन को अनुप्राणित करते हैं । कवि बाल्मीकि की पवित्र वाणी आज भी हमारे हृदय मरुस्थल में मंजु मंदाकिनी प्रवाहित कर देती है । गोस्वामी तुलसीदास जी का अमर काव्य आज अज्ञानान्धकार में भटकते हुए असंख्य भारतीयों का आकाशदीप की भाँति पथ-प्रदर्शन कर रहा है। कालिदास का अमर काव्य भी आज के शासकों के समक्ष रघुवंशियों के लोकप्रिय शासन का आदर्श उपस्थित कर रहा है । जिस देश और जाति के पास जितना उन्नत और समृद्धिशाली साहित्य होगा वह देश और वह जाति उतनी ही अधिक उन्नत और समृद्धशाली समझी जायेगी । कितनी ही जातियाँ और कितने ही नवीन धर्म उत्पन्न हुए परन्तु ठोस एवम् स्थायी साहित्य के अभाव में उन्हें काल-कवलित होना पड़ा। आज भारतवर्ष युगों-युगों से अचल हिमालय की भाँति अडिग खड़ा है, जबकि प्रभंजन और झँझावात आये, और चले गये। यदि आज हमारे पास चिर समृद्ध साहित्य न होता तो न जाने हम कहाँ होते और होते भी या नहीं, कुछ कहा नहीं जा सकता ।
साहित्य और समाज का अविच्छिन्न सम्बन्ध है । ये परस्पर अन्योन्याश्रित हैं। समाज यदि शरीर है, तो साहित्य उसकी आत्मा साहित्य, मानव मस्तिष्क की देन है। मानव सामाजिक प्राणी है, उसका संचालन-पोषण, शिक्षा-दीक्षा सब कुछ समाज में ही होता है । वह परावलम्बी और स्वावलम्बी ज्ञान के आधार पर अपना ज्ञानार्जन करता है फिर उसके हृदय में एक नैसर्गिक लालसा उत्पन्न होती है कि वह भी अपनी भावना और विचारों को संसार के आगे अभिव्यक्त करे । साहित्यकार समाज का प्राण होता है । वह तत्कालीन समाज की रीति-नीति, धर्म-कर्म और व्यवहार-वातावरण से ही अपनी सृष्टि के लिये प्रेरणा ग्रहण करता है और लोक भावना का प्रतिनिधित्व करता है। अतः समाज की जैसी भावनायें और विचार होंगे, तत्कालीन साहित्य भी वैसा ही होगा। यदि समाज में धार्मिक भावना अधिक होगी तो साहित्य भी उस भावना से अछूता नहीं रह सकता और यदि समाज में विलासिता का साम्राज्य है, तो साहित्य भी शृंगारिक होगा, क्योंकि साहित्यकार लोक भावनाओं का प्रतिनिधित्व करता है। साहित्य सृष्टा भी प्रतिभा सम्पन्न होने के कारण अपने साहित्य की छाप समाज पर छोड़े बिना नहीं रह सकता। साहित्य में वह शक्ति है जो तोप तथा तलवारों में भी नहीं होती । भिन्न-भिन्न देशों में जितनी भी क्रान्तियाँ हुईं, वे सब वहाँ के सफल साहित्यकारों की ही देन हैं। प्लेटो और अरस्तू के नवीन सिद्धान्तों ने राज्य और अधिकारों के स्वरूपों को ही बदल दिया। जयपुर के राजा जयसिंह जिन्हें मंत्रियों और सभासदों की शुभ सम्मति न बदल सकी, महाकवि बिहारी के एक दोहे ने उसका मार्ग सदैव के लिये प्रशस्त कर दिया। सारांश यह है कि समाज, साहित्य को और साहित्य, समाज को प्रभावित किये बिना नहीं रह सकता । साहित्य और समाज एक-दूसरे पर आश्रित हैं, अवलम्बित हैं ।
समाज के वातावरण की नींव पर ही साहित्य का प्रासाद खड़ा होता है । जिस समाज की जैसी परिस्थितियाँ होंगी वैसा ही उसका साहित्य होगा । साहित्य समाज की प्रतिध्वनि, प्रतिच्छाया और प्रतिबिम्ब है। आचार्य महावीर प्रसाद जी का यह कथन कि “साहित्य समाज का दर्पण है” नितान्त सत्य है। किसी देश के किसी समय का ठीक-ठीक चित्र यदि हम कहीं देख सकते हैं, तो वह देश के तत्कालीन साहित्य में सम्भव है । हिन्दी साहित्य के इतिहास पर सिंहावलोकन करने से हमें स्पष्ट हो जायेगा कि समय और समाज के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य में भी परिवर्तन अवंश्यम्भावी हो जाता है । हिन्दी साहित्य का आदिकाल एक प्रकार से युद्ध युग था, मुसलमानों के आक्रमण आरम्भ हो गये थे, हिन्दू राजपूत अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए “हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं, जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्” इस गीता के सिद्धान्त पर विश्वास करते आक्रमणकारियों से लोहा लेते और हँसते-हँसते युद्ध-भूमि में अपने प्राणोत्सर्ग कर देते थे । राज्य वृद्धि तथा स्वाभिमान की तृप्ति के लिए भी परस्पर युद्ध हो जाते थे। कभी-कभी स्त्रियों की सुन्दरता भी युद्ध का आह्वान कर लेती थी। उस समय के साहित्यकार चारण थे, जो लेखनी के चमत्कार के साथ-साथ तलवार के कौशल में भी कुशल होते थे। अपने-अपने आश्रयदाताओं की अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशंसा करके उन्हें युद्ध के लिए प्रोत्साहित करने तथा युद्धों का सजीव चित्रण करने में ही उनके कर्तव्य की सार्थकता थी । अतः तत्कालीन साहित्य में वीर रस प्रधान रचनायें हुईं और साहित्य, समाज के युद्धमय वातावरण से अछूता न रह सका ।
विदेशियों का भारतवर्ष में आधिपत्य हो चुका था, राजपूतों में जब तक शक्ति थी, साहस था, तब तक वीर काव्य अग्नि में घृत का कार्य करते रहे, परन्तु जब धन-जन की शक्ति नष्ट हो गई तब केवल प्रोत्साहनमात्र से क्या लाभ होता क्योंकि “निर्वाणदीपे किं तैल्यदानम्” अर्थात् जब दीपक बुझ गया तब उसमें तेल देने से क्या लाभ । निरीह और निराश्रित जनता को पग-पग पर आपत्तियों का सामना करना पड़ता था। उनके जीवन में निराशा अपना घर किये जा रही थी । विपद्ग्रस्त व्यक्ति ही ईश्वरीय सहायता की याचना करता है, संसार में निराश व्यक्ति ही भगवदाश्रय ग्रहण करता है। इसीलिए भक्ति-काल आया और कवियों ने भक्ति-काव्य की रचना की ।
तात्पर्य यह है कि समाज के विचारों, भावनाओं और परिस्थितियों का प्रभाव साहित्यकार और उसके साहित्य पर निश्चित रूप से पड़ता है। अतः साहित्य समाज का दर्पण होना स्वाभाविक ही है। साहित्य अपने समय का प्रतिबिम्ब है, वह समाज के गूँगे इतिहास का मुखर सहोदर है ।
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