“सत्य भाषण” अथवा “साँच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप”
“सत्य भाषण” अथवा “साँच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप”
“बड़े भाग मानुष तन पावा ।
सुर दुर्लभ सद्ग्रन्थन गावा || “
गोस्वामी तुलसीदास जी की यह धारणा अपने में नितान्त सत्य है कि मनुष्य को मानव जीवन बड़े सौभाग्य से प्राप्त होता है। यह जीवन देवताओं के लिये भी दुर्लभ है । इस चराचर जगत् की समस्त योनियों में मानव-योनि श्रेष्ठतम योनि है क्योंकि मानव के पास बुद्धि का असीम भण्डार है जिससे वह ज्ञानार्जन करता है, विद्या प्राप्त करता है, धर्म-कर्म करता है, अपने बुद्धि-बल से वह पराश्रित नहीं रहता । मानव अपने कर्मों के अनुसार अनेक दुःखद योनियों में भ्रमण करता हुआ, जीव न जाने परब्रह्म की किस असीम कृपा के फलस्वरूप मानव-योनि प्राप्त करता है। आहार, निद्रा, भय, मैथुन आदि प्रवृत्तियाँ जगत् के सभी पामर कीटों तक में होती हैं और मनुष्यों में भी होती हैं परन्तु कूकर, शूकर, कीट, पतंग आदि की श्रेणी में से मनुष्य को अलग निकालकर खड़ा कर देने वाला केवल उसका ज्ञान है, बुद्धि है और उसके जीवन के वे अनन्त गुण हैं जिन्हें वह अपने पूर्वजों से ग्रहण करता है । मुक्ति जैसा अनमोल रत्न मनुष्य जीवन में ही प्राप्त होता है। गुप्त जी ने लिखा है –
“जहाँ ज्ञान है, कर्म है, भक्ति है, भरी कर्म में ईश्वरी शक्ति है।
जहाँ भक्ति में मुक्ति का धाम है, जहाँ मृत्यु के बाद भी नाम है।
जहाँ साधना क्षेत्र संसार है, मनुष्यत्व ही मुक्ति का द्वार है ॥”
इतना अमूल्य जीवन प्राप्त करके भी यदि उसे अवगुणों की खान बना लिया जाये, तो फिर मनुष्य से अधिक मूर्ख और कौन होगा, क्योंकि वह जानता है कि यह जन्म फिर सरलता से प्राप्त नहीं हो सकता । मानव जीवन में जीवन की सुचारुता और समृद्धि के लिये आदर्श गुणों की आवश्यकता होती है। गुणहीन व्यक्ति का जीवन तो पशुओं जैसा जीवन होता है, वह न आत्म-संस्कार के कार्य में उन्नति कर पाता है और न भौतिक समृद्धि ही प्राप्त कर पाता है । वह समाज में निन्दा और अपयश का पात्र बन जाता है। बिना गुणों के न मनुष्य की विद्या शोभा पाती है और न उसकी सुन्दरता, न उसका ऐश्वर्य और न वैभव । वह तो गन्धहीन टेसू के पुष्प । की तरह समाज में निरादृत होता है। संस्कृत के विद्वानों ने कहा है –
“गुणो भूषयते रूपं, गुणो भूषयते कुलम् ।
गुणो भूषयते विद्या, गुणो भूषयते धनम् ।।”
आदर्श गुणों से ही मनुष्य के रूप की शोभा होती है, गुणों से ही कुल की शोभा होती है, गुणों से ही विद्या सुशोभित होती है और गुणों से ही मानव के धन की शोभा होती है। जीवन के लिये जहाँ शिष्टता, शीलता, नम्रता, उदारता आदि गुणं आवश्यक बताये गये हैं उनमें सत्यता का सर्वप्रथम स्थान है। अन्य गुणों से केवल मनुष्य को लौकिक मान मर्यादा ही प्राप्त होती है, परन्तु सत्य भाषण करने वाला ही सत्य स्वरूप परमात्मा को जान सकता है । सत्य भाषण मानव-जीवन के सभी आदर्श गुणों में शिरोमणि है। सत्य भाषण सबसे बड़ी तपस्या है —
“सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप ।
जाके हिरदे सांच है, ताके हिरदे आप ||”
सत्य बोलने से मनुष्य को अनेक लाभ होते हैं। ऐसी कौन-सी सफलता है, ऐसी कौन-सी सिद्धि है, जो इस सत्य साधन से प्राप्त न होती हो । संसार संघर्ष की भूमि है, यहाँ मनुष्य को उन्नति के लिये, अपने स्थायित्व के लिये पग-पग पर संघर्ष करना पड़ता है । परन्तु जीत उसकी होती है, जो सत्य के पथ पर होता है, सत्य भाषण करता है। झूठ बोलने वाले की कभी विजय नहीं होती, यदि थोड़ी देर के लिये हो भी जाये, तो यह चिरस्थायी नहीं होती। इसलिये संसार में उन्नति, उत्कर्ष और उत्थान प्राप्त करने के लिये सत्यवादी होना परम आवश्यक । कहा भी गया है—
“सत्यमेव जयते, नानृतम् ।”
अथवा
“सत्येव रक्ष्यते धर्मः”
सत्य की ही विजय होती है, असत्य की नहीं और सत्य से ही धर्म की रक्षा की जा सकती है । अत: यदि हम जीवन-पथ में आगे बढ़ना चाहते हैं तो हमारा यह कर्त्तव्य है कि हम अपने माता-पिता से, मित्रों से, गुरुजनों से, सम्बन्धियों से, सहपाठियों से, कहने का तात्पर्य यह है कि हम जिसके भी सम्पर्क में आते हैं, उससे कभी झूठ न बोलें, “सत्यं वदेत् धर्मं चरेत्” का सिद्धान्त हमारे सामने होना चाहिये। सच्चरित्र व्यक्ति ही समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त करता है । जिस मनुष्य के चरित्र का पतन हो जाता है, वह जीवित भी मृत के समान गिना जाता है । इसलिए कहा गया है कि
“अक्षीणो वित्ततः क्षीणा: वृत्ततस्तु हतो हतः ।”
अर्थात् जिसका धन नष्ट हो गया उसका कुछ भी नष्ट नहीं हुआ परन्तु जिसका चरित्र नष्ट हो गया, उसका सब कुछ नष्ट हो गया । अतः अपने चरित्र की रक्षा के लिये सत्य भाषण परम आवश्यक है। सत्य भाषण से मनुष्य की आत्मा को सुख और शान्ति प्राप्त होती है, फिर उसे इस • बात का भय नहीं होता कि यदि अमुक बात खुल गई तो क्या होगा, उसे मानसिक शान्ति रहती है। इसके विपरीत जो बात-बात में झूठ बोलते हैं उन्हें पग-पग पर ठोकरें खानी पड़ती है। समाज में निन्दा होती है, जीवन भर अपयश के पात्र बने रहते हैं और अपनी ही आत्मग्लानि उन्हें खाये जाती है। सत्य बोलने वाले को न कोई भय है और न कोई चिन्ता । क्योकि वह जानता है कि
“साँच को आँच कहीं नहीं होती ।”
सत्यवादी की समाज में प्रतिष्ठा होती है। जनता उसका हृदय से अभिनन्दन करती है उसकी मृत्यु का सौरभ चारों ओर फैलता है । मृत्यु के बाद भी सत्यवादी अपने यश रूपी शरीर. से. जीवित रहता है।
असत्यवादी कभी जीवन में उन्नति नहीं कर सकता, उसे सदैव अवनति का मुँह देखना पड़ता है, पग-पग पर ठोकरें खानी पड़ती हैं। झूठ बोलना सबसे बड़ा पाप है, झूठ बोलने वाला अपने कुकृत्यों से इस लोक और परलोक दोनों को नष्ट कर देता है । असत्यवादी का चरित्र भ्रष्ट हो जाता है। झूठ बोलना ही एक ऐसा भयंकर अवगुण है, जो मनुष्यों के अन्य असाधारण गुणों को भी अपनी काली छाया में ढक लेता है। इससे मनुष्य के चरित्र का पतन होता है, क्योंकि उसके हृदय में सदैव अशान्ति बनी रहती है और जो अशान्त होता है उसको सुख कहाँ ?
“अशान्तस्य कुतः सुखम् ?”
अनेक चिन्ताएँ उसे घेरे रहती हैं, इस प्रकार असत्यवादी का जीवन एक भार बन जाता है। समाज में सर्वत्र उसकी निन्दा होती है। कोई उसकी बात का विश्वास नहीं करता । लोग उसे “झूठा” कहकर सम्बोधित करते हैं, स्थान-स्थान पर उसे अपमान सहना पड़ता है। संसार से विश्वास उठ जाने का मतलब यह है कि उसका जीवित रहते हुए ही मृत्यु हो जाना । आपने वह उदाहरण पढ़ा होगा कि एक लड़का नित्य “भेड़िया आया, भेड़िया आया” कहकर गाँव वालों को डरा देता था। बेचारे गाँव वाले उस लड़के की रक्षा करने के लिये डण्डा ले-लेकर जंगल की ओर दौड़ते, परन्तु वहाँ पहुँचकर कुछ भी न मिलता । गाँव वालों ने समझ लिया कि यह लड़का झूठ बोलकर हमें बुलाता है। अत: उन्होंने दूसरे दिन से जाना बन्द कर दिया। एक दिन सचमुच ही भेड़िया आ गया, लड़का चिल्लाता रहा, परन्तु कोई गाँव वाला उसे बचाने न पहुँचा, भेड़िया उसे खा गया। इस प्रकार झूठ बोलने से मनुष्य का विश्वास सदैव के लिये समाप्त हो जाता है। असत्यवादी का समाज में कोई सम्मान नहीं होता, वह सर्वत्र निरादृत होता है
सत्यवादी आदर्श महापुरुषों से भारतवर्ष का इतिहास भरा पड़ा है, महाराजा हरिश्चन्द्र सत्यवादियों में अग्रगण्य हैं, जिन्होंने सत्य की रक्षा के लिये अनन्त यातनायें सहीं, स्वयं को बेचा, अपनी पत्नी पुत्र को बेचा, परन्तु अपने सत्य से विचलित न हुए। आज भी इस दोहे को पढ़कर हम अपने पूर्वजों पर गर्व का अनुभव करते हैं –
“चन्द्र टरै सूरज टरै टरै जगत् व्यवहार ।
पै दृढ़ व्रत हरिश्चन्द्र को, टरै न सत्य विचार ॥”
सत्य की रक्षा के लिये ही महाराजा दशरथ ने अपने प्राणों से भी प्रिय पुत्र राम को वन जाने का आदेश दिया था, भले ही इस दुख में उन्हें अपने प्राणों से हाथ धोने पड़े, अपनी इस गर्वोक्ति की रक्षा की –
“रघुकुल रीति सदा चलि आई। प्राण जायें पर वचन न जाई ।।”
हमारा पुनीत कर्त्तव्य है कि हम अपने जीवन में सत्य को ग्रहण करें, सत्य भाषण करें, और सत्य पथ पर चलें। सत्य भाषण से हमें जीवन की सभी समृद्धियाँ सुलभ हो सकती हैं। हम इस समाज का कल्याण करने वाले बन सकते हैं । शेक्सपीयर ने लिखा है कि “While you live, tell the truth and shame the devil” अर्थात् जब तक जीवित रहो, सत्य बोलो और शैतान को लज्जित करो। सत्य भाषण से मनुष्य सन्मार्ग पर रहता है, वह पथ भ्रष्ट और चरित्र-भ्रष्ट नहीं होता, उसके जीवन में अशान्ति और असन्तोष नहीं होता ।
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