सत्ता की साझेदारी Power Sharing

सत्ता की साझेदारी   Power Sharing

 

♦ लोकतान्त्रिक व्यवस्था में सारी ताकत किसी एक अंग तक सीमित नहीं होती। विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच पूरी समझ के साथ सत्ता को विकेन्द्रित कर देना लोकतन्त्र के कामकाज के लिए बहुत जरूरी है।
♦ सत्ता के विकेन्द्रीकरण अर्थात् इसका बँटवारा ही सत्ता की साझेदारी है।
सत्ता की साझेदारी क्यों जरूरी है?
♦ सत्ता का बँटवारा इसलिए जरूरी है क्योंकि इससे विभिन्न सामाजिक समूहों के बीच टकराव का अंदेशा क्रम हो जाता है। चूँकि, सामाजिक टकराव आगे बढ़कर अक्सर हिंसा और राजनीतिक अस्थिरता का रूप ले लेता है इसलिए सत्ता में हिस्सा दे देना राजनीतिक व्यवस्था के स्थायित्व के लिए अच्छा है।
♦ बहुसंख्यक समुदाय की इच्छा को बाकी सभी पर थोपना तात्कालिक तौर पर लाभकारी लग सकता है पर आगे चलकर यह देश की अखण्डता के लिए घातक हो सकता है। बहुसंख्यकों का आतंक सिर्फ अल्पसंख्यकों के लिए ही परेशानी पैदा नहीं करता अक्सर यह बहुसंख्यकों के लिए भी बर्बादी का कारण बन जाता है। इससे बचने के लिए भी सत्ता की साझेदारी आवश्यक है।
♦ सत्ता की साझेदारी दरअसल लोकतन्त्र की आत्मा है। लोकतन्त्र का मतलब ही होता है कि जो लोग इस शासन-व्यवस्था के अन्तर्गत हैं उनके बीच सत्ता को बाँटा जाए और ये लोग इसी ढर्रे से रहें। इसलिए, वैध सरकार वही है जिसमें अपनी भागीदारी के माध्यम से सभी समूह शासन व्यवस्था से जुड़ते हैं।
♦ लम्बे समय से यही मान्यता चली आ रही थी कि सरकार की सारी शक्तियाँ एक व्यक्ति या किसी खास स्थान पर रहने वाले व्यक्ति समूह के हाथ में रहनी चाहिए। अगर फैसले लेने की शक्ति बिखर गई तो तुरन्त फैसले लेना और उन्हें लागू करना सम्भव नहीं होगा लेकिन, लोकतन्त्र का एक बुनियादी सिद्धान्त है कि जनता ही सारी राजनीतिक शक्ति का स्रोत है। इसमें लोग स्व-शासन की संस्थाओं के माध्यम से अपना शासन चलाते हैं। एक अच्छे लोकतान्त्रिक शासन में समाज के विभिन्न समूहों और उनके विचारों को उचित सम्मान दिया जाता है और सार्वजनिक नीतियाँ तय करने में सबकी बातें शामिल होती हैं इसलिए उसी लोकतान्त्रिक शासन को अच्छा माना जाता है जिसमें ज्यादा से ज्यादा नागरिकों को राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदार बनाया जाए।
सत्ता की साझेदारी के रूप
♦ आधुनिक लोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं में शासन की साझेदारी के अनेक रूप हो सकते हैं।
♦ शासन के विभिन्न अंग जैसे विधायिका कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच सत्ता का बँटवारा रहता है। इसे हम सत्ता का क्षैतिज वितरण कहेंगे क्योंकि इसमें सरकार के विभिन्न अंग एक ही स्तर पर रहकर अपनी-अपनी शक्ति का उपयोग करते हैं। ऐसे बँटवारे से यह सुनिश्चित हो जाता है कि कोई भी एक अंग सत्ता का असीमित उपयोग नहीं कर सकता। हर अंग दूसरे पर अंकुश रखता है। इससे विभिन्न संस्थाओं के बीच सत्ता का सन्तुलन बनता है। इस व्यवस्था को ‘नियन्त्रण और सन्तुलन की व्यवस्था’ भी कहते हैं।
♦ सरकार के बीच भी विभिन्न स्तरों पर सत्ता का बँटवारा हो सकता हैं। जैसे, पूरे देश के लिए एक सामान्य सरकार हो और फिर प्रान्त या क्षेत्रीय स्तर पर अलग-अलग सरकार रहे। पूरे देश के लिए बनने वाली ऐसी सामान्य सरकार को अक्सर संघ या केन्द्र सरकार कहते हैं, प्रान्तीय या क्षेत्रीय स्तर की सरकारों को हर जगह अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है। भारत में हम इन्हें राज्य सरकार कहते हैं। हर देश में बँटवारा ऐसा ही नहीं है। कई देशों में प्रान्तीय या क्षेत्रीय सरकारें नहीं हैं। लेकिन हमारी तरह, जिन देशों में ऐसी व्यवस्था है वहाँ के संविधान में इस बात का स्पष्ट उल्लेख है कि केन्द्र और राज्य सरकारों के बीच सत्ता का बँटवारा किस तरह होगा। नगरपालिका और पंचायतें ऐसी ही इकाइयाँ हैं। उच्चतर और निम्नतर स्तर की सरकारों के बीच सत्ता के ऐसे बँटवारे को उर्ध्वाधर वितरण कहा जाता है।
♦ सत्ता का बँटवारा विभिन्न सामाजिक समूहों, अर्थात्, भाषायी और धार्मिक समूहों के बीच भी हो सकता है। बेल्जियम में सामुदायिक सरकार इस व्यवस्था का एक अच्छा उदाहरण है। कुछ देशों के संविधान और कानून में इस बात का प्रावधान है कि सामाजिक रूप से कमजोर समुदाय और महिलाओं को विधायिका और प्रशासन में हिस्सेदारी जाए।
♦ सत्ता के बँटवारे का एक रूप हम विभिन्न प्रकार के दबाव समूह और आन्दोलनों द्वारा शासन को प्रभावित और नियन्त्रित करने के तरीके में भी लक्ष्य कर सकते हैं। लोकतन्त्र में लोगों के सामने सत्ता के दावेदारों के बीच चुनाव का विकल्प जरूर रहना चाहिए। समकालीन लोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं में यह विकल्प विभिन्न पार्टियों के रूप में उपलब्ध होता है। पार्टियाँ सत्ता के लिए आपस में प्रतिस्पर्धा करती हैं। पार्टियों की यह आपसी प्रतिद्वन्द्विता ही इस बात को सुनिश्चित कर देती है कि सत्ता एक व्यक्ति या समूह के हाथ में न रहे। एक बड़ी समयावधि पर गौर करें तो पाएँगे कि सत्ता बारी-बारी से अलग-अलग विचारधारा और सामाजिक समूहों वाली पार्टियों के हाथ आती-जाती रहती है।
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