संघवाद Federalism

संघवाद    Federalism

 

संघवाद क्या है ?
♦ संघीय शासन व्यवस्था में सर्वोच्च सत्ता केन्द्रीय प्राधिकार और उसकी विभिन्न आनुषंगिक इकाइयों के बीच बँट जाती है।
♦ आमतौर पर संघीय व्यवस्था में दो स्तर पर सरकारें होती हैं। इसमें एक सरकार पूरे देश के लिए होती है जिसके जिम्मे राष्ट्रीय महत्त्व के विषय होते हैं। फिर राज्य या प्रान्तों के स्तर की सरकारें होती हैं जो शासन के दैनिक कामकाज को देखती हैं। सत्ता के इन दोनों स्तर की सरकारें अपने अपने स्तर पर स्वतन्त्र होकर अपना काम करती हैं। इस अर्थ में संघीय शासन व्यवस्था एकात्मक शासन व्यवस्था से ठीक उलट है।
♦ एकात्मक व्यवस्था में शासन का एक ही स्तर होता है और बाकी इकाइयाँ उसके अधीन होकर काम करती हैं। इसमें केन्द्रीय सरकार, प्रान्तीय या स्थानीय सरकारों को आदेश दे सकती है। पर, संघीय व्यवस्था में केन्द्रीय सरकार राज्य सरकार को कुछ खास करने का आदेश नहीं दे सकती। राज्य सरकारों के पास अपनी शक्तियाँ होती हैं और इसके लिए वह केन्द्रीय सरकार को जवाबदेह नहीं होती हैं। ये दोनों ही सरकारें अपने-अपने स्तर पर लोगों को जवाबदेह होती हैं।
संघीय व्यवस्था की विशेषताएँ
संघीय व्यवस्था की कुछ महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ इस प्रकार हैं
♦ यहाँ सरकार दो या अधिक स्तरों वाली होती है।
♦ अलग-अलग स्तर की सरकारें एक ही नागरिक समूह पर शासन करती हैं पर कानून बनाने, कर वसूलने और शासन का उनका अपना-अपना अधिकार क्षेत्र होता है। अधिकार क्षेत्र ऐसे दायरे को कहते हैं जिस पर किसी का वैधानिक अधिकार हो। यह दायरा भौगोलिक सीमा के अन्तर्गत परिभाषित होता है अथवा इसके अन्तर्गत कुछ विषयों को भी रखा जा सकता है।
♦ विभिन्न स्तरों की सरकारों के अधिकार क्षेत्र संविधान में स्पष्ट रूप से वर्णित होते हैं इसलिए संविधान सरकार के हर स्तर के अस्तित्व और प्राधिकार की गारण्टी और सुरक्षा देता है।
♦ संविधान के मौलिक प्रावधानों को किसी एक स्तर की सरकार अकेले नहीं बदल सकती। ऐसे बदलाव दोनों स्तर की सरकारों की सहमति से ही हो सकते हैं।
♦ अदालतों को संविधान और विभिन्न स्तर की सरकारों के अधिकारों की व्याख्या करने का अधिकार है। विभिन्न स्तर की सरकारों के बीच अधिकारों के विवाद की स्थिति में सर्वोच्च न्यायालय निर्णायक की भूमिका निभाता है।
♦ वित्तीय स्वायता निश्चित करने के लिए विभिन्न स्तर की सरकारों के लिए राजस्व के अलग-अलग स्रोत निर्धारित हैं।
♦ इस प्रकार संघीय शासन व्यवस्था के दोहरे उद्देश्य हैं: देश की एकता की सुरक्षा करना और उसे बढ़ावा देना तथा इसके साथ ही क्षेत्रीय विविधताओं का पूरा सम्मान करना।
संघवाद के विभिन्न रूप
♦ संघीय व्यवस्था के गठन और काम-काज के लिए दो चीजें सबसे महत्त्वपूर्ण हैं। विभिन्न स्तरों की सरकारों के बीच सत्ता के बँटवारे के नियमों पर सहमति होनी चाहिए और इनके एक-दूसरे पर भरोसा होना चाहिए कि वे अपने-अपने अधिकार क्षेत्रों को मानेंगे। आदर्श संघीय व्यवस्था में ये दोनों पक्ष होते हैं आपसी भरोसा और साथ रहने पर सहमति । –
♦ केन्द्र और विभिन्न राज्य सरकारों के बीच सत्ता का बँटवारा हर संघीय सरकार में अलग-अलग किस्म का होता है। यह बात इस चीज पर निर्भर करती है कि संघ की स्थापना किन ऐतिहासिक सन्दर्भों में हुई। संघीय शासन व्यवस्थाएँ आमतौर पर दो तरीकों से गठित होती हैं। पहला तरीका है दो या अधिक स्वतन्त्र राष्ट्रों को साथ लाकर एक बड़ी इकाई गठित करने का। इसमें दोनों स्वतन्त्र राष्ट्र अपनी सम्प्रभुता को साथ करते हैं, अपनी अलग-अलग पहचान को भी बनाए रखते हैं और अपनी सुरक्षा तथा खुशहाली बढ़ाने का रास्ता अख्तियार करते हैं।
♦ साथ आकर संघ बनाने के उदाहरण है—संयुक्त राज्य अमेरिका, स्विट्जरलैण्ड और ऑस्ट्रेलिया । इस तरह की संघीय व्यवस्था वाले मुल्कों में आमतौर पर प्रान्तों को समान अधिकार होता है और वे केन्द्र की अपेक्षा ज्यादा ताकतवर होते हैं।
♦ संघीय शासन व्यवस्था के गठन का दूसरा तरीका है, बड़े देश द्वारा अपनी आन्तरिक विविधता को ध्यान में रखते हुए राज्यों का गठन करना और फिर राज्य और राष्ट्रीय सरकार के बीच सत्ता का बँटवारा कर देना। भारत, बेल्जियम और स्पेन इसके उदाहरण हैं। इस दूसरी श्रेणी वाली व्यवस्था में राज्यों की अपेक्षा केन्द्र सरकार ज्यादा ताकतवर हुआ करती है। अक्सर इस व्यवस्था में विभिन्न राज्यों को समान अधिकार दिए जाते हैं पर विशेष स्थिति में किसी-किसी प्रान्त को विशेष अधिकार भी दिए जाते हैं।
भारत में संघीय व्यवस्था
♦ एक बहुत ही दुखद और रक्तरंजित विभाजन के बाद भारत आजाद हुआ। आजादी के कुछ समय बाद ही अनेक स्वतन्त्र रजवाड़े भारत में विलीन हो गए। भारतीय संविधान ने भारत को राज्यों का संघ घोषित किया। इसमें संघ शब्द नहीं आया पर भारतीय संघ का गठन संघीय शासन व्यवस्था के सिद्धान्त पर हुआ है।
♦ ऊपर संघीय व्यवस्था की जिन सात विशेषताओं की बात की गई है ये सभी विशेषताएँ भारतीय संविधान के विभिन्न प्रावधानों पर लागू होती हैं।
♦ संविधान ने मैलिक रूप से दो स्तरीय शासन व्यवस्था का प्रावधान किया था संघ सरकार (या हम जिसे केन्द्र सरकार कहते हैं) और राज्य सरकारें । केन्द्र सरकार को पूरे भारतीय संघ का प्रतिनिधित्व करना था। बाद में पंचायतों और नगरपालिकाओं के रूप में संघीय शासन का एक तीसरा स्तर भी जोड़ा गया।
♦ किसी भी संघीय व्यवस्था की तरह अपने यहाँ भी तीनों स्तर की शासन व्यवस्थाओं के अपने अलग-अलग अधिकार क्षेत्र हैं।
♦ संविधान में स्पष्ट रूप से केन्द्र और राज्य सरकारों के बीच विधायी अधिकारों को तीन हिस्से में बाँटा गया है। ये तीन सूचियाँ इस प्रकार हैं
संघ सूची इसमें प्रतिरक्षा, विदेशी मामले, बैंकिंग, संचार और मुद्रा जैसे राष्ट्रीय महत्त्व के विषय हैं। पूरे देश के लिए इन मामलों में एक तरह की नीतियों की जरूरत है। इसी कारण इन विषयों को संघ सूची में डाला गया है।
संघ सूची में वर्णित विषयों के बारे में कानून बनाने का अधिकार सिर्फ केन्द्र सरकार को है।
राज्य सूची इसमें पुलिस, व्यापार, वाणिज्य, कृषि और सिंचाई जैसे प्रान्तीय और स्थानीय महत्त्व के विषय हैं। राज्य सूची में वर्णित विषयों के बारे में सिर्फ राज्य सरकार ही कानून बना सकती है।
समवर्ती सूची इसमें शिक्षा, वन, मजदूर संघ, विवाह, गोद लेना और उत्तराधिकार जैसे वे विषय हैं जो केन्द्र के साथ राज्य सरकारों की साझी दिलचस्पी में आते हैं। इन विषयों पर कानून बनाने का अधिकार राज्य सरकारों और केन्द्र सरकार, दोनों को ही है। लेकिन जब दोनों के कानूनों में टकराव हो तो केन्द्र सरकार द्वारा बनाया कानून ही मान्य होता है।
♦ हमारे संविधान के अनुसार, जो विषय इनमें से किसी सूची में नहीं आते तथा वे विषय जो संविधान बनने के बाद आए हैं जैसे—कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर, आदि ‘बाकी बचे विषय केन्द्र सरकार के अधिकार क्षेत्र में चले जाते हैं।
♦ भारतीय संघ के सारे राज्यों को भी बराबर अधिकार नहीं हैं। कुछ राज्यों को विशेष दर्जा प्राप्त है। भारत में जम्मू-कश्मीर एकमात्र ऐसा राज्य है जिसका अपना संविधान है। इस राज्य में विधानसभा की अनुमति के बगैर भारतीय संविधान के कई प्रावधानों को लागू नहीं किया जाता। इस राज्य के स्थायी निवासियों के अतिरिक्त कोई भी भारतीय नागरिक यहाँ जमीन या मकान नहीं खरीद सकता। वास्तव में भारत के कई अन्य प्रदेशों के लिए भी कुछ ऐसे ही विशेष प्रावधान किए गए हैं।
♦ भारतीय संघ की कई इकाइयों को बहुत ही कम अधिकार प्राप्त हैं। ये वैसे छोटे इलाके हैं जो अपने आकार के चलते स्वतन्त्र प्रान्त नहीं बन सकते। इन्हें किसी मौजूदा प्रान्त में विलीन करना भी सम्भव नहीं है। चण्डीगढ़ या लक्षद्वीप अथवा देश की राजधानी दिल्ली जैसे इलाके इसी कोटि में आते हैं और इन्हें केन्द्र शासित प्रदेश कहा जाता है। इन क्षेत्रों को राज्यों वाले अधिकार नहीं हैं। इन इलाकों का शासन चलाने का विशेष अधिकार केन्द्र सरकार को प्राप्त है।
♦ केन्द्र और राज्य सरकारों के बीच सत्ता का यह बँटवारा हमारे संविधान की बुनियादी बात है। अधिकारों के इस बँटवारे में बदलाव करना आसान नहीं है। अकेले संसद इस व्यवस्था में बदलाव नहीं कर सकती। ऐसे किसी भी बदलाव को पहले संसद के दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत से मंजूर किया जाना होता है। फिर कम से कम आधे राज्यों की विधानसभाओं से उसे मंजूर करवाना होता है।
♦ शक्तियों के बँटवारे के सम्बन्ध में कोई विवाद होने की हालत में फैसला उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में ही होता है।
♦ सरकार चलाने और अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह करने के लिए जरूरी राजस्व की उगाही के सम्बन्ध में केन्द्र और राज्य सरकारों को कर लगाने और संसाधन जमा करने के अधिकार हैं।
संघीय व्यवस्था कैसे चलती है?
संघीय व्यवस्था के कारगर कामकाज के लिए संवैधानिक प्रावधान जरूरी हैं पर इतना ही पर्याप्त नहीं है। अगर भारत में संघीय शासन व्यवस्था कारगर हुई है तो इसका कारण सिर्फ संवैधानिक प्रावधानों का होना नहीं है। भारत में संघीय व्यवस्था की सफलता का मुख्य श्रेय वहाँ की लोकतान्त्रिक राजनीति के चरित्र को देना होगा। इसी से संघवाद की भावना, विविधता का आदर और संग-साथ रहने की इच्छा का हमारे देश के साझा आदर्श के रूप में स्थापित होना सुनिश्चित हुआ।
भाषायी राज्य
♦ भाषा के आधार पर प्रान्तों का गठन हमारे देश की लोकतान्त्रिक राजनीति के लिए पहली और एक कठिन परीक्षा थी।
♦ नये राज्यों को बनाने के लिए 1950 ई. के दशक में भारत के कई पुराने राज्यों की सीमाएँ बदलीं। ऐसा यह सुनिश्चित करने के लिए किया गया कि एक भाषा बोलने वाले लोग एक राज्य में आ जाएँ।
♦ इसके बाद कुछ अन्य राज्यों का गठन भाषा के आधार पर नहीं बल्कि संस्कृति, भूगोल अथवा जातीयताओं (एथनीसिटी) की विभिन्नता को रेखांकित करने और उन्हें आदर देने के लिए भी किया गया। इनमें छत्तीसगढ़, उत्तराखण्ड और झारखण्ड जैसे राज्य शामिल हैं।
♦ जब एक भाषा के आधार पर राज्यों के गठन की बात उठी तो कई राष्ट्रीय नेताओं को डर था कि इससे देश टूट जाएगा। केन्द्र सरकार ने इसी के चलते राज्यों का पुनर्गठन कुछ समय के लिए टाल दिया था परन्तु अब यह स्पष्ट हो चुका है कि भाषा वार राज्य बनाने से देश ज्यादा एकीकृत और मजबूत हुआ। इससे प्रशासन भी पहले की अपेक्षा कहीं ज्यादा सुविधाजनक हो गया है।
भाषा-नीति
♦ भारत के संघीय ढाँचे की दूसरी परीक्षा भाषा-नीति को लेकर हुई । हमारे संविधान में किसी एक भाषा को राष्ट्रभाषा का दर्ज नहीं दिया गया।
♦ हिन्दी को राजभाषा माना गया पर हिन्दी सिर्फ 40 फीसदी (लगभग) भारतीयों की मातृभाषा है इसलिए अन्य भाषाओं के संरक्षण के अनेक दूसरे उपाए किए गए।
♦ संविधान में हिन्दी के अलावा अन्य 22 भाषाओं को अनुसूचित भाषा का दर्जा दिया गया है।
♦ केन्द्र सरकार के किसी पद का उम्मीदवार इनमें से किसी भी भाषा में परीक्षा दे सकता है बशर्ते उम्मीदवार इसको विकल्प के रूप में चुने।
♦ राज्यों की भी अपनी राजभाषाएँ हैं। राज्यों का अपना अधिकांश काम अपनी राजभाषा में ही होता है।
♦ काम-काज की भाषा के तौर पर अंग्रेजी का प्रयोग 1965 में बन्द हो जाना चाहिए था पर अनेक गैर-हिन्दी भाषी प्रदेशों ने माँग की कि अंग्रेजी का प्रयोग जारी रखा जाए। तमिलनाडु में तो इस माँग ने उग्र रूप भी ले लिया था। केन्द्र सरकार ने हिन्दी के साथ-साथ अंग्रेजी को राजकीय कामों में प्रयोग की अनुमति देकर इस विवाद को सुलझाया।
केन्द्र-राज्य सम्बन्ध
♦ केन्द्र राज्य सम्बन्धों में लगातार आए बदलाव का यह उदाहरण बताता है कि व्यवहार में संघवाद किस तरह मजबूत हुआ है।
♦ सत्ता की साझेदारी की संवैधानिक व्यवस्था वास्तविकता में कैसा रूप लेगी यह ज्यादातर इस बात पर निर्भर करता है कि शासक दल और नेता किस तरह इस व्यवस्था का अनुसरण करते हैं। आज संघीय व्यवस्था के तहत सत्ता को साझेदारी संविधान लागू होने के तत्काल बाद वाले दौर की तुलना में ज्यादा प्रभावी है।
भारत में विकेन्द्रीकरण
♦ भारत जैसे विशाल देश में सिर्फ दो स्तर की शासन व्यवस्था से ही बढ़िया शासन नहीं चल सकता। भारत के प्रान्त, यूरोप के स्वतन्त्र देशों से भी बड़े हैं।
♦ भारत में संघीय सत्ता की साझेदारी तीन स्तरों पर करने की जरूरत है जिसमें तीसरा स्तर स्थानीय सरकार का हो और यह प्रान्तीय स्तर की सरकार के नीचे हो । भारत में सत्ता के विकेन्द्रीकरण के पीछे यही तर्क दिया गया है। इसके फलस्वरूप तीनों स्तरों को सरकार का संघीय ढाँचा सामने आया जिसमें तीसरे स्तर को स्थानीय शासन कहा जाता है।
♦ जब केन्द्र और राज्य सरकार से शक्तियाँ लेकर स्थानीय सरकारों को दी जाती हैं तो इसे सत्ता का विक्रे द्रीकरण कहते हैं ।
♦ विकेन्द्रीकरण के पीछे बुनियादी सोच यह है कि अनेक मुद्दों और समस्याओं का निपटारा स्थानीय स्तर पर ही बढ़िया ढंग से हो सकता है। लोगों को अपने इलाके की समस्याओं की बेहतर समझ होती है। लोगों को इस बात की भी अच्छी जानकारी होती है कि पैसा कहाँ खर्च किया जाए और चीजों का अधिक कुशलता से उपयोग किस तरह किया जा सकता है। इसके अलावा स्थानीय स्तर पर लोगों को फैसलों में सीधे भागीदार बनाना भी सम्भव हो जाता है। इससे लोकतान्त्रिक भागीदारी की आदत पड़ती है।
♦ स्थानीय सरकारों की स्थापना स्व-शासन के लोकतान्त्रिक सिद्धान्त को वास्तविक बनाने का सबसे अच्छा तरीका है।
♦ विकेन्द्रीकरण की जरूरत हमारे संविधान में भी स्वीकार की गई। इसके बाद से गाँव और शहर के स्तर पर सत्ता के विकेन्द्रीकरण की कई कोशिशें हुई हैं। सभी राज्यों में गाँव के स्तर पर ग्राम पंचायतों और शहरों में नगरपालिकाओं की स्थापना की गई थी। पर इन्हें राज्य सरकारों के सीधे नियन्त्रण में रखा गया था। इन स्थानीय सरकारों के लिए नियमित ढंग से चुनाव भी नहीं कराए जाते थे। इनके पास न तो अपना कोई अधिकार था न संसाधन इस प्रकार प्रभावी ढंग से सत्ता का विकेन्द्रीकरण नाममात्र का हुआ था।
♦ वास्तविक विकेन्द्रीकरण की दिशा में एक बड़ा कदभ 1992 ई. में उठाया गया। संविधान में संशोधन करके लोकतान्त्रिक शासन व्यवस्था के इस तीसरे स्तर को ज्यादा शक्तिशाली और प्रभावी बनाया गया।
♦ अब स्थानीय स्वशासी निकायों के चुनाव नियमित रूप से कराना संवैधानिक बाध्यता है।
♦ निर्वाचित स्वशासी निकायों के सदस्य तथा पदाधिकारियों के पदों में अनूसचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और पिछड़ी जातियों के लिए सीटें आरक्षित हैं।
♦ कम से कम एक-तिहाई पद महिलाओं के लिए आरक्षित हैं।
♦ हर राज्य में पंचायत और नगरपालिका चुनाव कराने के लिए राज्य चुनाव आयोग नामक स्वतन्त्र संस्था का गठन किया गया है।
♦ राज्य सरकारों को अपने राजस्व और अधिकारों का कुछ हिस्सा इन स्थानीय स्वशासी निकायों को देना पड़ता है। सत्ता में भागीदारी की प्रकृति हर राज्य में अलग-अलग है।
♦ गाँवों के स्तर पर मौजूद स्थानीय शासन व्यवस्था को पंचायती राज के नाम से जाना जाता है। प्रत्येक गाँव में, (और कुछ राज्यों में ग्राम-समूह की) एक ग्राम पंचायत होती है। यह एक तरह की परिषद् है जिसमें कई सदस्य और एक अध्यक्ष होता है। सदस्य वार्डों से चुने जाते हैं और उन्हें सामान्यतया पंच कहा जाता है। अध्यक्ष को प्रधान या सरपंच कहा जाता है। इनका चुनाव गाँव अथवा वार्ड में रहने वाले सभी वयस्क लोग मतदान के जरिए करते हैं।
♦ स्थानीय शासन का ढाँचा जिला स्तर तक का है। कई ग्राम पंचायतों को मिलाकर पंचायत समिति का गठन होता है। इसे मण्डल या प्रखण्ड स्तरीय पंचायत भी कह सकते हैं। इसके सदस्यों का चुनाव उस इलाके के सभी पंचायत सदस्य करते हैं।
♦ किसी जिले की सभी पंचायत समितियों को मिलाकर जिला परिषद्का  गठन होता है।
♦ स्थानीय शासन वाली संस्थाएँ शहरों में भी काम करती हैं। शहरों में नगरपालिका होती है। बड़े शहरों में नगरनिगम का गठन होता है। नगरपालिका और नगरनिगम, दोनों का काम काज निर्वाचित प्रतिनिधि करते हैं।
♦ नगरपालिका प्रमुख नगरपालिका के राजनीतिक प्रधान होते हैं। नगरनिगम के ऐसे पदाधिकारी को मेयर कहते हैं।
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