शिबू सोरेन की बहन की भावुक श्रद्धांजलि- पुलिस से बचने के लिए किसान, साधु के वेश धर लेते थे भैया
Shibu Soren News: रामगढ़ के नेमरा गांव से शंकर पोद्दार/सुरेंद्र : दिशोम गुरु शिबू सोरेन का जीवन सिर्फ राजनीति नहीं, बल्कि संघर्ष, बलिदान और जन आंदोलन की प्रेरणादायक कहानी है. महाजनी प्रथा के खिलाफ आंदोलन के दौरान जब शासन-प्रशासन ने आदिवासी अधिकारों की आवाज को दबाने की कोशिश की, तब शिबू सोरेन को बार-बार पुलिसिया दमन का सामना करना पड़ा. ऐसे हालात में उन्होंने खुद को बचाने और आंदोलन को जीवित रखने के लिए वेश बदलकर बरलंगा और नेमरा के घने जंगलों और पहाड़ों में छिपना पड़ता था. कभी किसान, तो कभी साधु और कभी महिला का रूप धरकर वे छिपते रहे.
भैया शुरू से साहसी थे, गरीबों के लिए लड़े : शकुंतला देवी
झारखंड आंदोलन के जननायक और पूर्व मुख्यमंत्री शिबू सोरेन उर्फ गुरुजी के निधन से पूरा झारखंड शोक में डूबा है. इस बीच, गुरुजी की छोटी बहन जैना मोड़ निवासी शकुंतला देवी ने नम आंखों से उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि दी. कहा, ‘मेरे भैया शुरू से ही साहसी थे. बचपन में ही उनमें कुछ अलग था. वे कभी अन्याय सहन नहीं करते थे और हर वक्त गरीबों, मजदूरों और आदिवासियों के हक के लिए खड़े रहते थे.’
Shibu Soren ने हमेशा जुल्म के खिलाफ आवाज उठायी
शकुंतला देवी ने कहा कि भैया ने हमेशा जुल्म के खिलाफ आवाज उठायी. चाहे कोई कितना भी ताकतवर क्यों न हो, अगर गरीबों पर अत्याचार करता था, तो भैया खुलकर उसका विरोध करते थे. शकुंतला देवी ने बताया कि भैया ने न सिर्फ परिवार बल्कि पूरे समाज के लिए अपनी जिंदगी समर्पित की. हमें हमेशा उनका आशीर्वाद और स्नेह मिला.
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यह क्षण अत्यंत पीड़ादायक – शिबू सोरेन की बहन
शकुंतला देवी ने कहा कि वे बड़े होकर भी हमारे लिए हमेशा वही भैया रहे, जो गांव की गलियों में नंगे पांव भागते थे. उन्होंने भर्राई आवाज में कहा कि गांव और परिवार के लिए यह क्षण अत्यंत पीड़ादायक है. उनके जाने से केवल एक नेता ही नहीं, एक संरक्षक और प्रेरणास्रोत इस दुनिया से चला गया.
नेमरा से पैदल 30 किमी दूर पढ़ने जाते थे
शिबू सोरेन का बचपन अभावों से भरा था, लेकिन शिक्षा की ललक ने उन्हें कभी हारने नहीं दिया. नेमरा गांव से पैदल, नंगे पैर वे 30 किलोमीटर दूर गोला हाई स्कूल पढ़ने जाते थे. पगडंडियों और जंगलों के रास्ते से स्कूल पहुंचना उनके लिए रोज की दिनचर्या थी. उस दौर में संसाधनों की कमी थी, लेकिन उनकी इच्छाशक्ति अटूट थी. शिबू सोरेन के इस जुझारूपन ने ही उन्हें बाद में झारखंड आंदोलन का चेहरा बनाया.
नेमरा ने नेता नहीं, बेटा खोया…
दिशोम गुरु शिबू सोरेन की मृत्यु से उनका पैतृक गांव नेमरा शोक में डूबा है. गांव के लोगों के लिए यह किसी नेता की नहीं, अपने घर के बेटे की अंतिम विदाई थी. जैसे ही उनका पार्थिव शरीर गांव पहुंचा, हर आंख नम हो गयी. अंतिम दर्शन के लिए महिलाएं दरवाजों के बाहर बैठ गयीं. नेमरा गांव के माझी टोला में चूल्हे तक नहीं जले. मातम का ऐसा माहौल था कि हर दिशा में सन्नाटा पसरा था. नेमरा ने सिर्फ एक जननेता नहीं, अपनी माटी का लाल खोया है. यह शून्यता गांव की आत्मा में हमेशा बनी रहेगी.
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बरलंगा और नेमरा के जंगल हैं शिबू के संघर्ष के गवाह
स्थानीय लोग बताते हैं कि कई बार वे रात में चुपचाप गांव आते, साथियों से मिलते और फिर वापस जंगलों में चले जाते. उनकी रणनीति, साहस और लोगों से जुड़ाव ही था, जिसने आंदोलन को दबने नहीं दिया. बरलंगा और नेमरा के जंगल आज भी उनके संघर्ष के गवाह हैं. दिशोम गुरु का यह छुपा हुआ पक्ष उन्हें केवल राजनेता नहीं, बल्कि आंदोलन का सच्चा योद्धा बनाता है, जिसकी गूंज पीढ़ियों तक सुनाई देती रहेगी.
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