विश्व एड्स दिवस – १ दिसम्बर १९९५
विश्व एड्स दिवस – १ दिसम्बर १९९५
सजगता, जागरूकता और स्वच्छता से स्वच्छन्द विलास के लिये कितने आवश्यक हैं, यह आज का विलासी भोग और सम्भोग प्रिय व्यक्ति नहीं जानता। उसे अपनी कामवासना की पूर्ति के लिये प्राकृतिक, अप्राकृतिक या पाशविक सम्भोग ही चाहिये ।
ह्रयूमन इम्यूनो डिफिसिएन्सी वाइरस अथवा एच० आई० वी० । यही एच० आई० वी० शरीर की रोग प्रतिरोधी क्षमताओं को नष्ट कर देते हैं। जिसके परिणामस्वरूप मानव शरीर किसी भी संक्रमण की धार को ध्वस्त करने में पूर्णतः असमर्थ हो जाता है और अन्ततः यह मौत की नींद है सो जाता ।
एड्स यानी जानलेवा बीमारी जिसने आज पूरे विश्व में एक महामारी का रूप धारण कर लिया है। आये दिन अखबारों में इस महामारी के प्रकोप का मृत्यु के आँकड़ों से पता चलता । पर इसकी जानकारी या अज्ञानता से आँकड़ों में किसी प्रकार भी गिरावट नहीं आ रही है । साथ ही तरह-तरह की चलाई जाने वाली योजनाओं के बाद भी आज इस रोग के रोगियों की संख्या में निरन्तर बढ़ोत्तरी हो रही है। लोगों में इस रोग के प्रति अनेक ग़लत फहमियाँ फैल रही हैं। यह रोग कभी भी रोगी से मात्र हाथ मिलाने से, रोगी का तौलिया प्रयोग करने से, एक ही कमरे में रोगी के साथ सोने आदि से नहीं हो सकता । तो फिर ऐसी क्या स्थिति एवं परिस्थितियाँ हैं जिससे रोगियों की संख्या में निरन्तर बढ़ोत्तरी हो रही वर्ष १ ८. उपसंहार । है? इनके सभी कारणों और बचावों की जानकारी हेतु विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा दिसम्बर को ‘विश्व एड्स दिवस’ के रूप में मनाये जाने का निश्चय किया गया है जिससे विश्व के सभी राष्ट्र हर प्रकार से सहयोग का आदान-प्रदान कर इस बढ़ती महामारी पर अंकुश लगा सकें ।
एड्स भयानक जानलेवा बीमारी है, जिसके विषाणु संक्रमित रोगियों के रक्त, वीर्य, रक्त के बने पदार्थ, योनि स्त्राव रोगी के विभिन्न अंग में भी अधिक मात्रा में व्याप्त रहते हैं और कम मात्रा जाते हैं। में लार, आँसू, माँ के दूध, पसीना, मूत्र आदि में पाये जाते है I
जब भी किसी भी रोग से ग्रस्त व्यक्ति से अधिक मात्रा में विषाणु व्याप्त पदार्थ किसी स्वस्थ व्यक्ति में यौन सम्बन्ध, आदि माध्यम से प्रवेश होता है तो वह स्वस्थ व्यक्ति भी इस रोग से ग्रसित हो सकता है।
किसी भी माध्यम से एड्स विषाणु शरीर में प्रवेश करें, किन्तु ये सभी अपने तरीके से शरीर की अवरोध शक्ति को समाप्त कर देते हैं। जिसके कारण तरह-तरह की अन्य बीमारियों के रोगाणु अवसर पाकर संक्रमण करते हैं। इस प्रकार संक्रमण को अवसरवादी संक्रमण कहते हैं और रोग के उत्पन्न होते ही वैसे ही लक्षण दृष्टिगोचर होने लगते हैं ।
एड्स विषाणु से ग्रसित होने पर रोगी में निम्न लक्षण पाये जाते हैं –
→ लगातार बुखार रहना ।
→ निरन्तर शरीर का भार गिरना तथा कमजोर महसूस करना ।
→ अधिक दस्त या अतिसार होना ।
→ शरीर के विभिन्न भागों में लसिका ग्रन्थियों का बढ़ना ।
इन लक्षणों के अतिरिक्त अन्य लक्षण भी मिल सकते हैं जैसे— चक्कर आना, चलने-फिरने में गिर पड़ना आदि । आज एड्स जैसे भयानक रोग से बचने के लिये हर कदम पर हर व्यक्ति के साथ-साथ समाज के सहयोग की आवश्यकता है।
एड्स रोग क्या भारत के लिये भी महामारी है। यह एक शोचनीय विषय है क्योंकि भारत की सांस्कृतिक सभ्यता, सहचारिता के सामाजिक परिवेश में इसके रोगी पाना अथवा रोग के संक्रमण का प्रसार होना तो अभी तक सम्भव नहीं था पर आज स्थिति भिन्न है, क्योंकि भारत में पश्चिमी देशों की सभ्यता की छाप से बड़े-बड़े शहरों में इसके रोगी पाये जा रहे हैं और सम्पूर्ण भारत चुप है ।
इसके लिये भारत के प्रत्येक नागरिक में एक चैतन्यता एवं जागरूकता उत्पन्न करने की आवश्यकता है। विशेषकर उन ग्रामीण अंचलों में जहाँ ८० प्रतिशत आबादी रहती है और उन्हें सिर्फ २० प्रतिशत की ही चिकित्सा सुविधा उपलबध है । यद्यपि वे शहरों में व्याप्त पश्चिमी सभ्यता से परे हैं, लेकिन आज का वातावरण युवा पीढ़ी को जवानी की मादकता में शहरी क्षेत्रों में भेजकर रोग को पनपा रहा है ।
प्रारम्भ में ऐसा विश्वास था कि एड्स विलासिता पूर्ण वातावरण में अनेक लोगों में आपसी यौन सम्बन्ध रखने वाले व्यक्तियों को ही हो सकता है परन्तु ऐसा नहीं है। अधिकतर एक सिरींज से इन्जेक्शन द्वारा अनेक लोगों में प्रयोग की जा रही नशीली दवाओं से रोग के विषाणुओं के आदान-प्रदान से भी प्रभावित व्यक्तियों में देखा गया और इससे तरह-तरह की दशहत फैली। इसका परिणाम यह हुआ कि विलासितापूर्ण जीवन जीने वाले व्यक्तियों की विलासिता में कुछ कमी तो अवश्य आयी ।
इसे एक सुखद संयोग ही कहें कि आज भी अपने देश में एड्स पीड़ितों की कुल संख्या विश्व के अन्य कई देशों की संख्या के सामने लगभग नगण्य है, फिर भी रोग के निरन्तर बढ़ते प्रसार को देखते हुए देशवासियों के दिलोदिमाग में इस रोग के प्रति दहशत तो उत्पन्न हो ही चुकी है। आज देश के एड्स ग्रस्त रोगियों की स्थिति वही है, जो अमेरिका में आठवें दशक की शुरू में थी। परन्तु इसके विस्तार क्रम को देखते हुए कहा जा सकता है कि रोक-थाम के व्यावहारिक एवं त्वरित उपाय के अभाव में यह भविष्य में मानव समुदाय के लिए एक गम्भीर समस्या खड़ी कर सकती है।
दिन-प्रतिदिन एड्स के सम्बन्ध में बदलते दृष्टिकोणों के चलते इसे उत्पन्न करने वाले कारकों के सम्बन्ध में अन्तिम रूप से जानकारी देना लगभग असम्भव ही है, परन्तु अब तक ज्ञात तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि एड्स एच० आई० वी० के संक्रमण-कारणों से असुरक्षित यौन सम्बन्ध, संक्रमित रक्त-सेवन, संक्रमित सुई अथवा सिरींज के प्रयोग एवं एच० आई० वी० से संक्रमित माता से संतानोत्पत्ति आदि मुख्य हैं ।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार पूरे विश्व में लगभग एक करोड़ ६० लाख युवा एवं लगभग १० लाख बच्चे वर्ष १९९४ के मध्य तक न केवल एच० आई० वी० के शिकार हो चुके थे, बल्कि उस समय तक लगभग ४० लाख व्यक्ति मौत के मुँह में भी समा चुके थे, जिनमें ७५ प्रतिशत से अधिक विकासशील देशों से सम्बद्ध व्यक्ति थे । विकसित देशों की अपेक्षा विकासशील अथवा अविकसित देशों की स्थिति चिन्ताजनक है। इसका कारण है—इन देशों में सुरक्षा उपायों में बरती जा रही लापरवाही अथवा रोग की भयावहता के प्रति अज्ञानता । भारत की स्थिति भी कमोबेश यही है । उपलब्ध सर्वेक्षण रिपोर्टों के आधार पर देश में सितम्बर १९९४ तक एच० आई० वी० एवं एड्स की पुष्टि वाले व्यक्तियों की संख्या क्रमशः १५६९२ एवं ८४९ थी, परन्तु वास्तविक संख्या इससे कहीं अधिक आँकी जा रही है।
यह एक दुःख़द विषय है कि अनवरत प्रयासों के बावजूद एड्स नामक महामारी से निजात दिलाने वाली दवाओं का अन्तिम रूप से अभी आविष्कार नहीं हुआ है।
ऐसी स्थिति में एक ही रास्ता बचता है, और वह है और अधिक संक्रमण में विस्तार न हो, इसकी व्यावहारिक विधियाँ अपनाने का । विभिन्न प्रयोगों से सिद्ध हो चुका है कि रोकथाम की समुचित विधियाँ अपनाकर इसके प्रसार की धार को कमजोर किया जा सकता है। जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है कि उन्मुक्त यौन सम्बन्धों एवं एकाधिक साथियों के साथ शारीरिक सम्बन्ध स्थापित करने से एच० आई० वी० का प्रसार अधिक होता है। अतः इसे हतोत्साहित करना ही इसके निदान की दिशा में एक ठोस प्रयास होगा।
जहाँ तक रक्त लेने अथवा देने का सम्बन्ध है, यह एक जटिल समस्या तो है ही । रक्त लेने से पूर्व अच्छी तरह जाँच-पड़ताल करना आवश्यक है, अन्यथा, ये एच० आई० वी० से ग्रस्त भी हो सकता है। चूँकि ब्लड बैंक में एकत्रित रक्त अधिकतर पेशेवर रक्तदाताओं के होते हैं, अतः इनमें संक्रमण संभावना अधिक होती है । इसके बावजूद अच्छी कमाई के मोह में लोग इस पर कोई आपत्ति नहीं करते । ऐसी स्थिति में, जहाँ तक सम्भव हो सके, अपने परिचितों एवं सगे-सम्बन्धियों से ही कम-से-कम मात्रा में रक्त की आपूर्ति करनी चाहिए ।
चूँकि यह स्पष्ट हो चुका है कि एड्स- ग्रस्त माताओं की ३० प्रतिशत सन्तान एच० आई० वी० से संक्रमित हो जाती हैं, अतः संक्रमित माताओं का गर्भधारण हर हालत में रोग के विस्तार में सहायक हो सकता है। इसके अलावा एक-दूसरे के शरीर में प्रयुक्त होने वाली सिरींजों को भी अच्छी तरह शुद्ध करना आवश्यक होता है । परन्तु यह प्रक्रिया सामान्य रूप से नहीं अपनाई जाती है और जाने-अनजाने हम एच० आई० वी० को दावत दे बैठते हैं । एच० आई० वी० के ग्रस्त लगभग सभी व्यक्ति बाद में एड्स के रोगी बन जाते हैं I
एड्स से सम्बन्धित समुचित ज्ञान एवं अन्तिम रूप से जाँच के अभाव में अफवाहें समाज के लिए अलाभकारी सिद्ध होती हैं। कभी-कभी एड्स-ग्रस्त रोगी जाँच-परख के अभाव में अनजान में पूरे समाज में एच० आई० वी० का वाहक बन जाता है, तो कभी निरोग व्यक्ति को भी एड्स पीड़ित उपेक्षा का शिकार होना पड़ जाता है।
ऐसी समस्याओं के निराकरण हेतु सरकारी अथवा गैर सरकारी स्तर पर जन-जागरण अभियान चलाया जा रहा है। परन्तु इसे दुःखंद सत्य ही कहें कि आज भी जागरूकता के क्षेत्र में हम काफी पीछे हैं। अब तक हुए परीक्षणों के आधार पर सिद्ध हो चुका है कि हाथ मिलाने, आलिंगन अथवा चुम्बन, खाँसने-छीकने, सार्वजनिक शौचालय का इस्तेमाल करने, साथ बैठकर भोजन करने, तरण ताल का उपयोग करने, मच्छरों के काटने तथा एक-दूसरे के वस्त्रों को पहनने से एच० आई० वी० का प्रसार नहीं होता है ।
आगे इस दिशा में हमारे वैज्ञानिकों को कहाँ तक सफलता मिलती है, यह तो अभी भविष्य के गर्भ में है, परन्तु इस दिशा में बरती गई ईमानदार नीतियों एवं उसके सफल क्रियान्वयन से सामान्य जन अंधकारमय सुरंग में समाने से बच सकते हैं ।
पूरे परिवार की यह जिम्मेदारी है कि वे एच० आई० वी० / एड्स से पीड़ित परिवार के सदस्यों को तिरस्कृत न करें बल्कि उनका परिवार में पूरा ध्यान रखा जाये और सहायता की जाये। सांस्कृतिक, शैक्षिक और धार्मिक संस्थानों का यह उत्तरदायित्व है कि वे एच० आई० वी० / एड्स निवारण की सूचना और शिक्षा का उचित तरीके से प्रसार करें तथा एच० आई० वी० / एड्स पीड़ित लोगों के प्रति सहनशीलता, संवेदनशीलता दायित्व और भेदभाव रहित व्यवहार को प्रोत्साहन दें ।
उपसंहार—अभी कैंसर के प्रकोप का समुचित निदान ढूंढ़ने में सफलता मिली भी नहीं थी कि उससे अपेक्षाकृत घातक एवं लाइलाज एड्स नामक बीमारी से समुचित सुरक्षा की जिम्मेदारी विश्व के तमाम वैज्ञानिकों पर आ पड़ी है। हालांकि इस सम्बन्ध में अब तक पूरे विश्व में सफलता प्राप्ति के अनेक दावे प्रस्तुत किये जा चुके हैं, परन्तु सच्चाई यह है कि अब तक जो भी सफलताएँ हाथ लगी हैं, उनके आधार पर इस घातक रोग के प्रति निश्चिन्त हो जाना, अपने-आप को अंधेरे में रखने के समान ही है । अतः विश्वभर के वैज्ञानिकों से अपेक्षा की जाती है कि वे समय रहते इसके निदान की दिशा में समुचित ठोस कार्यवाही बिना समय गँवाये करें।
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