लोकतन्त्र की चुनौतियाँ Challenges of Democracy

लोकतन्त्र की चुनौतियाँ    Challenges of Democracy

 

♦ दुनिया भर में लोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं के सामने गम्भीर चुनौतियाँ हैं। ये चुनौतियाँ किसी आम समस्या जैसी नहीं हैं। हम आमतौर पर उन्हीं मुश्किलों को ‘चुनौती’ कहते हैं, जो महत्त्वपूर्ण तो हैं, लेकिन जिन पर जीत भी हासिल की जा सकती है अर्थात् अगर किसी मुश्किल के भीतर ऐसी सम्भावना है कि उस मुश्किल से छुटकारा मिल सके तो उसे हम चुनौती कहते हैं।
♦ अलग-अलग देशों के सामने अलग-अलग तरह की चुनौतियाँ होती हैं। दुनिया के कुछ देश ऐसे हैं जिनमें लोकतान्त्रिक व्यवस्था की तरफ जाने और लोकतान्त्रिक सरकार गठित करने के लिए जरूरी बुनियादी आधार बनाने की चुनौती है। इनमें मौजूदा गैर-लोकतान्त्रिक शासन व्यवस्था को गिराने, सत्ता पर सेना के नियन्त्रण को समाप्त करने और एक सम्प्रभु तथा कारगर शासन व्यवस्था को स्थापित करने की चुनौती है।
♦ अधिकांश स्थापित लोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं के सामने अपने विस्तार की चुनौती है। इसमें लोकतान्त्रिक शासन के बुनियादी सिद्धान्तों को सभी इलाकों, सभी सामाजिक समूहों और विभिन्न संस्थाओं में लागू करना शामिल है। स्थानीय सरकारों को अधिक अधिकार सम्पन्न बनाना, संघ की सभी इकाइयों के लिए संघ के सिद्धान्तों को व्यावहारिक स्तर पर लागू करना, महिलाओं और अल्पसंख्यक समूहों की उचित भागीदारी सुनिश्चित करना आदि ऐसी ही चुनौतियाँ हैं।
♦ तीसरी चुनौती लोकतन्त्र को मजबूत करने की है। हर लोकतान्त्रिक व्यवस्था के सामने किसी न किसी रूप में यह चुनौती है ही। इसमें लोकतान्त्रिक संस्थाओं और बर्तावों को मजबूत बनाना शामिल है। यह काम इस तरह से होना चाहिए कि लोग लोकतन्त्र से जुड़ी अपनी उम्मीदों को पूरा कर सकें।
राजनीतिक सुधारों पर विचार
♦ प्रत्येक चुनौती के साथ सुधार की सम्भावनाएँ भी जुड़ी होती हैं। लोकतन्त्र की विभिन्न चुनौतियों के बारे में सभी सुझाव या प्रस्ताव ‘लोकतान्त्रिक सुधार’ या ‘राजनीतिक सुधार कहे जाते हैं।
♦ भारतीय लोकतन्त्र में सुधार के कुछ व्यापक दिशा-निर्देश जिन्हें भारत में राजनीतिक सुधारों के लिए तरीका और जरिया ढूँढ़ते समय अपने ध्यान में रखा जा सकता है
♦ कानून बनाकर राजनीति को सुधारने की बात सोचना बहुत लुभावना लग सकता है। नये कानून सारी अवांछित चीजें खत्म कर देंगे यह सोच लेना भले ही सुखद हो लेकिन इस लालच पर लगाम लगाना ही बेहतर है। निश्चित रूप से सुधारों के मामले में कानून की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका है। सावधानी से में बनाए गए कानून गलत राजनीतिक आचरणों को हतोत्साहित और अच्छे कामकाज को प्रोत्साहित करेंगे। परन्तु विधिक-संवैधानिक बदलावों को ला देने भर से लोकतन्त्र की चुनौतियों को हल नहीं किया जा सकता। राजनीतिक सुधारों का काम मुख्यतः राजनीतिक कार्यकर्ता, दल, आन्दोलन और राजनीतिक रूप से सचेत नागरिकों के द्वारा ही हो सकता है।
♦ कानूनी बदलाव करते हुए इस बात पर गम्भीरता से विचार करना होगा कि राजनीति पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा। कई बार परिणाम एकदम उल्टे निकलते हैं, जैसे कई राज्यों ने दो से ज्यादा बच्चों वाले लोगों के पंचायत चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी है। इसके चलते अनेक गरीब लोग और महिलाएँ लोकतान्त्रिक अवसर से वंचित हुईं। जबकि ऐसा करने के पीछे यह मंशा न थी। आमतौर पर किसी चीज की मनाही करने वाले कानून राजनीति में ज्यादा सफल नहीं होते। सबसे बढ़िया कानून वे हैं जो लोगों को लोकतान्त्रिक सुधार करने की ताकत देते हैं। सूचना का अधिकार कानून लोगों को जानकार बनाने और लोकतन्त्र के रखवाले के तौर पर सक्रिय करने का अच्छा उदाहरण है।
♦ लोकतान्त्रिक सुधार तो मुख्यतः राजनीतिक दल ही करते हैं। इसलिए, राजनीतिक सुधारों का जोर मुख्यतः लोकतान्त्रिक कामकाज को ज्यादा मजबूत बनाने का होना चाहिए। ऐसे सभी सुधारों में मुख्य चिन्ता इस बात की होनी चाहिए कि इससे आम नागरिक की राजनीतिक भागीदारी के स्तर और गुणवत्ता में सुधार होता है या नहीं।
♦ राजनीतिक सुधार के किसी भी प्रस्ताव में अच्छे समाधान की चिन्ता होने के साथ-साथ यह सोच भी होनी चाहिए कि इन्हें कौन और क्यों लागू करेगा? यह मान लेना समझदारी नहीं कि संसद कोई ऐसा कानून बना देगी जो हर राजनीतिक दल और सांसद के हितों के खिलाफ हो परन्तु लोकतान्त्रिक आन्दोलन, नागरिक संगठन और मीडिया पर भरोसा करने वाले उपायों के सफल होने की सम्भावना होती है।
लोकतन्त्र की पुनर्परिभाषा
♦ लोकतन्त्र शासन का वह स्वरूप है जिसमें लोग अपने शासकों का चुनाव खुद करते हैं। इस परिभाषा में कुछ और चीजें जोड़ी जा सकती हैं
♦ लोगों द्वारा चुने गए शासक ही सारे प्रमुख फैसले लें।
♦ चुनाव में लोगों को वर्तमान शासकों को बदलने और अपनी पसन्द जाहिर करने का पर्याप्त अवसर और विकल्प मिलना चाहिए। ये विकल्प और अवसर हर किसी को बराबरी में उपलब्ध होने चाहिए।
♦ विकल्प चुनने के इस तरीके से ऐसी सरकार का गठन होना चाहिए जो संविधान के बुनियादी नियमों और नागरिकों के अधिकारों को मानते हुए काम करे।
♦ नागरिकों के ऊँचे आदर्शों का सम्मान हो।
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