लोकतन्त्र और विविधता Democracy and Diversity

लोकतन्त्र और विविधता      Democracy and Diversity

 

समानताएँ, असमानताएँ और विभाजन
♦ हर समाज में सामाजिक विविधता अलग-अलग रूप में सामने आती है।
♦ सामाजिक विभाजन अधिकांशतः जन्म पर आधारित होता है। सामान्य तौर पर अपना समुदाय चुनना हमारे वश में नहीं होता। हम सिर्फ इस आधार पर किसी खास समुदाय के सदस्य हो जाते हैं कि हमारा जन्म उस समुदाय के एक परिवार में हुआ होता है।
♦ किन्तु, सभी किस्म के सामाजिक विभाजन सिर्फ जन्म पर आधारित नहीं होते। कुछ चीजें व्यक्ति के पसन्द या चुनाव के आधार पर भी तय होती हैं। कई लोग अपने माँ-बाप और परिवार से अलग अपनी पसन्द का भी धर्म चुन लेते हैं। पढ़ाई के विषय, पेशे, खेल या सांस्कृतिक गतििवधियों का चुनाव भी इसी प्रकार के चयन का उदाहरण है। इन सबके आधार पर भी सामाजिक समूह बनते हैं और ये जन्म पर आधारित नहीं होते।
♦ सामाजिक विभिन्नताएँ लोगों के बीच बँटवारे का एक बड़ा कारण होती जरूर हैं लेकिन यही विभिन्नताएँ कई बार अलग-अलग तरह के लोगों के बीच पुल का काम भी करती हैं। विभिन्न सामाजिक समूहों के लोग अपने समूहों की सीमाओं से परे भी समानताओं और असमानताओं का अनुभव करते हैं।
♦ अक्सर यह देखा जाता है कि एक धर्म को मानने वाले लोग खुद को एक ही समुदाय का सदस्य नहीं मानते क्योंकि उनकी जाति या उनका पंथ अलग होता है। यह भी सम्भव है कि अलग-अलग धर्म के अनुयायी होकर भी एक जाति वाले लोग खुद को एक-दूसरे के ज्यादा करीब महसूस करें।
♦ एक ही परिवार के अमीर और गरीब ज्यादा घनिष्ठ सम्बन्ध नहीं रख पाते क्योंकि सभी अलग-अलग तरीके से सोचने लगते हैं।
♦ सामाजिक विभाजन तब होता है जब कुछ सामाजिक अन्तर दूसरी अनेक विभिन्नताओं से ऊपर और बड़े हो जाते हैं। अमेरिका में श्वेत और अश्वेत का अन्तर एक सामाजिक विभाजन भी बन जाता है क्योंकि अश्वेत लोग आमतौर पर गरीब हैं, बेघर हैं, भेदभाव का शिकार हैं। हमारे देश में भी दलित आमतौर पर गरीब और भूमिहीन हैं। उन्हें भी अक्सर भेदभाव और अन्याय का शिकार होना पड़ता है।
♦ जब एक तरह का सामाजिक अन्तर अन्य अन्तरों से ज्यादा महत्त्वपूर्ण बन जाता है और लोगों को यह महसूस होने लगता है कि वे दूसरे समुदाय के हैं तो इससे एक सामाजिक विभाजन की स्थिति पैदा होती है।
♦ आज अधिकतर समाजों में कई किस्म के विभाजन दिखाई देते हैं। देश बड़ा हो या छोटा इससे खास फर्क नहीं पड़ता।
सामाजिक विभाजनों की राजनीति
♦ लोकतन्त्र में विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के बीच प्रतिद्वन्द्विता का माहौल होता है। इस प्रतिद्वन्द्विता के कारण कोई भी समाज फूट का शिकार बन सकता है। अगर राजनीतिक दल समाज में मौजूद विभाजनों के हिसाब से राजनीतिक होड़ करने लगे तो इससे सामाजिक विभाजन राजनीतिक विभाजन में बदल सकता है और ऐसे में देश विखण्डन की तरफ जा सकता है। ऐसा कई देशों में हो चुका है।
♦ कुछ विद्वानों का मानना है कि राजनीति और सामाजिक विभाजन का मेल नहीं होना चाहिए। उनका मानना है कि सर्वश्रेष्ठ स्थिति तो यह है कि समाज में किसी किस्म का विभाजन ही न हो। अगर किसी देश में सामाजिक विभाजन है तो उसे राजनीति में अभिव्यक्त ही नहीं होने देना चाहिए। पर इसके साथ यह भी सच्चाई है कि राजनीति में सामाजिक विभाजन की हर अभिव्यक्ति फूट पैदा नहीं करती।
♦ दुनिया के अधिकतर देशों में किसी न किसी किस्म का सामाजिक विभाजन है और ऐसे विभाजन राजनीतिक शक्ल भी अख्तियार करते ही हैं।
♦ लोकतन्त्र में राजनीतिक दलों के लिए सामाजिक विभाजनों की बात करना तथा विभिन्न समूहों से अलग-अलग वायदे करना बड़ी स्वाभाविक बात है, विभिन्न समुदायों को उचित प्रतिनिधित्व देने का प्रयास करना और विभिन्न समुदायों की उचित माँगों और जरूरतों को पूरा करने वाली नीतियाँ बनाना भी इसी कड़ी का हिस्सा है।
♦ अधिकतर देशों में मतदान के स्वरूप और सामाजिक विभाजनों के बीच एक प्रत्यक्ष सम्बन्ध दिखाई देता है। इसके तहत एक समुदाय के लोग आमतौर पर किसी एक दल को दूसरों के मुकाबले ज्यादा पसन्द करते हैं।
तीन आयाम
♦ सामाजिक विभाजनों की राजनीति का परिणाम तीन चीजों पर निर्भर करता है
1. पहली चीज है लोगों में अपनी पहचान के प्रति आग्रह की भावना। अगर लोग खुद को सबसे विशिष्ट और अलग मानने लगते हैं तो उनके लिए दूसरों के साथ तालमेल बैठाना बहुत मुश्किल हो जाता है। अगर लोग अपनी बहु-स्तरीय पहचान के प्रति सचेत हैं और उन्हें राष्ट्रीय पहचान का हिस्सा या सहयोगी मानते हैं तब कोई समस्या नहीं होती। हमारे देश में भी ज्यादातर लोग अपनी पहचान को लेकर ऐसा ही नजरिया रखते हैं। वे खुद को पहले भारतीय मानते हैं फिर किसी प्रदेश, क्षेत्र, भाषा समूह या धार्मिक और सामाजिक समुदाय का सदस्य।
2. दूसरी महत्त्वपूर्ण चीज है कि किसी समुदाय की माँगों को राजनीतिक दल कैसे उठा रहे हैं। संविधान के दायरे में आने वाली और दूसरे समुदाय को नुकसान न पहुँचाने वाली माँगों को मान लेना आसान है।
3. तीसरी चीज है सरकार का रुख । सरकार इन माँगों पर क्या प्रतिक्रिया व्यक्त करती है, यह भी महत्त्वपूर्ण है। अगर शासन सत्ता में साझेदारी करने को तैयार हो और अल्पसंख्यक समुदाय की उचित माँगों को पूरा करने का प्रयास ईमानदारी से किया जाए तो सामाजिक विभाजन मुल्क के लिए खतरा नहीं बनते। अगर शासन राष्ट्रीय एकता के नाम पर किसी ऐसी माँग को दबाना शुरू कर देता है तो अकसर उलटे और नुकसानदेह परिणाम ही निकलते हैं। ताकत के दम पर एकता बनाए रखने की कोशिश अक्सर विभाजन की ओर ले जाती है।
♦ किसी देश में सामाजिक विभिन्नताओं पर जोर देने की बात को हमेशा खतरा मान कर नहीं चलना चाहिए। लोकतन्त्र में सामाजिक विभाजन की राजनीतिक अभिव्यक्ति एक सामान्य बात है और यह एक स्वस्थ राजनीति का लक्षण भी हो सकता है। इसी से विभिन्न छोटे सामाजिक समूह, हाशिये पर पड़ी जरूरतों और परेशानियों को जाहिर करते हैं और सरकार का ध्यान अपनी तरफ खींचते हैं। राजनीति में विभिन्न तरह के सामाजिक विभाजनों की अभिव्यक्ति ऐसे विभाजनों के बीच सन्तुलन पैदा करने का काम भी करती हैं। इसके चलते कोई भी सामाजिक विभाजन एक हद से ज्यादा उग्र नहीं हो पाता। इस स्थिति में लोकतन्त्र मजबूत ही होता है।
♦ विभिन्नता के प्रति सकारात्मक नजरिया रखना और सभी चीजों को समाहित करने की इच्छा रखना इतना आसान मामला नहीं है। जो लोग खुद को वंचित, उपेक्षित और भेदभाव का शिकार मानते हैं उन्हें अन्याय से संघर्ष भी करना होता है। ऐसी लड़ाई अक्सर लोकतान्त्रिक रास्ता ही अख्तियार करती है। लोग शान्तिपूर्ण और संवैधानिक तरीके से अपनी माँगों को उठाते हैं और चुनावों के माध्यम से उसके लिए दबाव बनाते हैं, उसका समाधान पाने का प्रयास करते हैं। कई बार सामाजिक असमानताएँ इतनी ज्यादा गैर-बराबरी और अन्याय वाली होती हैं कि उनको स्वीकार करना असम्भव होता है। ऐसी गैर-बराबरी और अन्याय के खिलाफ होने वाला संघर्ष कई बार हिंसा का रास्ता भी अपना लेता है और शासन के खिलाफ उठ खड़ा होता है।
उपरोक्त तमाम गड़बड़ियों की पहचान करने और विविधता को समाहित करने का लोकतन्त्र ही सबसे अच्छा तरीका है।
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