रेल– दुर्घटना का दृश्य

रेल– दुर्घटना का दृश्य

          सुबह का वक्त था । पहली गाड़ी छूट गई थी। दिल में तकलीफ थी, कालेज कैसे पहुँचूंगा। खैर, किसी तरह गाजियाबाद स्टेशन पहुँचा। 8-10 की E.M.U. (विद्युत रेल-सेवा) तैयार थी। यह गाड़ी गाजियाबाद से नयी दिल्ली होते हुए पुरानी दिल्ली प्लेटफार्म को छूकर फिर गाजियाबाद को रवाना होती है। लिहाजा गाड़ी में बैठा। भीड़ खचाखच भरी थी। तिल रखने को कहीं भी जगह न थी। कुछ लोग चुपचाप यात्रा कर रहे थे। कुछ सरकारी नौकरी के विषय में समाचार पत्र में बढ़ी डी.ए. किश्त पर मनन कर रहे थे। कुछ लोग अपने मालिक को कोस रहे थे और कुछ जोर-जोर से किसी देहाती रागिनी को गा रहे थे ।
          गाड़ी साहिबाबाद से आनन्द विहार पहुँची। एक-आध आदमी चढ़ा-उतरा गाड़ी फिर चल दी। अचानक गाड़ी रुकी। यह स्थान प्रगति मैदान था; कोई मालगाड़ी तीव्र गतिवाली थी, हमारी गाड़ी उसी की प्रतीक्षा कर रही थी। लगभग दो-तीन मिनट बाद गाड़ी फिर चली। अभी गाड़ी चले हुए एक ही मिनट भी नहीं बीता था कि तभी लोगों का शोर सुनाई दिया, आग लग गई……… आग लग गई……… आग लग……… गई ……… ।
          पूरा कम्पार्टमेंट (डिब्बा) अज्ञात भय से सिहर उठा। लोगों के हाथ-पैर फूल गए। समझ में नहीं आ रहा था, क्या करें ? गाड़ी पूरी तेजी के साथ तिलक ब्रिज की ओर बढ़ रही थी, एक अलार्म बेल पर बीस-तीस आदमी लटके हुए थे। पर गाड़ी रुकने का नाम नहीं ले रही थी।
          गाड़ी से कूदा भी नहीं जा रहा था, क्योंकि ऐसी गाड़ियों के पायदान नहीं होते। इधर आग का धुआँ लोगों की आँखों को सेंकने लगा था। कुछ लोग जोर-जोर से खाँस रहे थे, आग की लपटें तेजी से आगे की ओर बढ़ रही थीं । विचित्र बात यह थी कि लोगों को आग से दूर रहने का कोई तरीका नहीं समझ आ रहा था । लोगों की चीख-चिल्लाहट गाड़ी के ड्राइवर तक नहीं पहुँच रही थी। तब गाड़ी ने आउटर केबिन को पार किया, लोगों ने दयनीय दशा से आउटर सिगनल देखा, पर केबिन मैन बजाय हरी झण्डी के लाल झण्डी दे रहा था, यमराज का साक्षात निमन्त्रण था, मर गए रे ……… मर गए रे ………उधर आग अब अपना शिकार करने लगी थी, में सब……. को आग की लपटों से झुलसता देख रहा था ।
          यात्रियों के सामने अब नीचे कूदने के शिवाय कोई दूसरा चारा न था पर गाड़ी की गति में कोई कमी नहीं थीं। अब तिलक ब्रिज नजदीक आ रहा था। कुछ लोगों ने कूदने का साहस किया। पर इधर कुआँ था, उधर खाई। अमृतसर से बम्बई की ओर जाने वाली फ्रंटियर मेल तिलक ब्रिज को पार कर आगे बढ़ रही थी, लोग अब कूद भी नहीं सकते थे, कुछ लोग और आग में झुलसने शुरू हो गए थे, तभी प्लेटफार्म आने को हुआ एक साहेब कूदे, मुँह के बल गिरे उसके साहस को देखकर जो भी कूदे, वे अपने हाथ-पैर तुड़वा बैठे। तभी कुछ लोग चिल्ला उठे – जब मरना ही है तो आग से क्यों मरें कूद पड़ो-गिरकर बच तो सकते हो, पर आग से बचने का तो सवाल पैदा ही नहीं होता …… ।
          और मैं भी कूद पड़ा आग मुझसे सिर्फ सौ सेण्टीमीटर दूर थी। मेरे हाथ-पाँव में चोट लगी …… बेहोस हो गया । जब मुझे होश आया तब मैं प्लेटफार्म पर पड़ा था। और मैंने देखा कि सैकड़ों लोग प्लेटफार्म पर पड़े हुए चीख-चिल्ला रहे थे, गाड़ी रुकी पड़ी थी। जिस डिब्बे में आग लगी थी । वह धूं-धूं करके जल रहा था ….. रेलवे विभाग के पास उस समय न तो आग बुझाने के न साधन थे और न घायल लोगों को अकस्मात् चिकित्सा सहायता देने के मैं पूरी हिम्मत के साथ उठा लंगड़ा ….. लंगड़ाकर उस जगह पर पहुँचा। जहाँ कुछ यात्री ड्राइवर के साथ दुर्व्यवहार करने पर तुले थे।
          मैंने बड़ी मुश्किल से समझाने की कोशिश की। यात्री छिन्न-भिन्न हुए। एक साहेब ने मुझे प्लेटफार्म के बैंच पर बैठा दिया। मैंने उनसे निवेदन किया कि वे मेरी चिन्ता छोड़ें और उन लोगों को अस्पताल पहुँचाएँ, जो गम्भीर रूप से घायल हुए हैं। एक व्यक्ति मेरे पास रह गया, बाकी अन्य व्यक्तियों को देख-रेख में लग । उधर डिब्बा पूरी तरह राख हो चुका था ।
          आग दूसरे डिब्बे की ओर बढ़ रही थी दमकल विभाग ने अपना काम शुरू कर दिया। अस्पताल से चिकत्सिा सहायता भी आ गई। कुछ रेलवे अधिकारी घायल यात्रियों से इण्टरव्यू लेने की कोशिशें कर रहे थे। तभी एक सामाजिक कार्यकर्त्ता मुझे अपनी बाहों के बल पर अस्पताल की गाड़ी तक ले गया। मुझे एक-दो यात्रियों के साथ रेलवे डिस्पेन्सरी में ले जाया गया। मरहमपट्टी हुई और अवकाश दे दिया।
          दोपहर बाद अब समाचार-पत्र पढ़ा तो दंग रह गया। अखबार में जो कुछ छपा वह कम था और जो हुआ वह ज्यादा। 11 मार्च, 1999 का दिन भी याद आता है, सिहर उठता है मन ।
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