रामचरितमानस की देन अथवा मेरा प्रिय ग्रंथ और उसकी विशेषतायें
रामचरितमानस की देन अथवा मेरा प्रिय ग्रंथ और उसकी विशेषतायें
“भारी भव सागर से उतारतौ कवन पार ।
जो पै यह रामायण तुलसी न गावतौ ॥ “
बेनी कवि की यह उक्ति अपने में कितनी सत्य है, इसका अनुमान आज के घोर अनैतिक समय में भी रामचरितमानस के प्रचार एवं प्रसार से लगाया जा सकता है । सम्भवतः ही कोई हिन्दू घर ऐसा हो, जिसमें रामचरितमानस की एक प्रति न हो, चाहे वह छोटी हो या मोटी, फटी हो या पुरानी । बड़े से बड़े महलों से लेकर निर्धन की वैभवहीन झोंपड़ी तक में इसके प्रति सम्मान, आदर और श्रध्दाहै । सभी लोग चाहे वे थोरे पढ़े-लिखे हों या बहुत, चाहे वे धार्मिक दृष्टि से पढ़ते हों या ज्ञान की दृष्टि से, चाहे वे ऐतिहासिक दृष्टि से पढ़ते हों या राजनीतिक दृष्टि से, इससे समान रूप से लाभान्वित होते हैं । निःसन्देह रामचरितमानस का गम्भीरतापूर्वक मनन करने वाला व्यक्ति एक श्रेष्ठ नागरिक बन सकता है, एक श्रेष्ठ । सामाजिक बन सकता है, एक श्रेष्ठ गृहस्थी । बन सकता है, एक श्रेष्ठ समाज सुधारक बन सकता है, एक श्रेष्ठ राजनीतिक नेता बन सकता है, एक परम विनम्र भगवद्-भक्त बन सकता है और एक उच्च ज्ञानी बन सकता है तथा एक कुशल कर्मकाण्डी बन सकता है । कहने का तात्पर्य यह है कि रामचरितमानस के अनुसार अपना जीवन-यापन करने वाला क्या नहीं बन सकता ? रामचरितमानस केवल लौकिक उन्नति का ही साधन मात्र नहीं है, पारलौकिक उन्नति और समृद्धि का भी साधन है। संसार रूपी समुद्र के सन्तरण के लिए रामचरितमानस एक विशाल नौका है, जिसके अनुसार चलकर मनुष्य सरलता से ही भवसागर से पार उतर जाता है। यह वह रसायन है जिसका सेवन करने के बाद संसार के भयानक रोग भी मनुष्य पर अपना प्रभाव नहीं डाल सकते । यह वह चिन्तामणि है, जिसके हाथ में आते ही मनुष्य के आगे प्रकाश ही प्रकाश हो जाता है, अन्धकार ठहरता तक नहीं । काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद मात्सर्य, ईर्ष्या, द्वेष उस व्यक्ति से दूर खड़े रहते हैं जो रामचरितमानस को अपने जीवन का पथ-प्रदर्शक मानता है और उसकी बताई हुई रीति और नीतियों पर चलता है। रामचरितमानस का महत्त्व आज केवल भारतवासियों की दृष्टि में ही नहीं, अपितु विदेशी विद्वानों ने भी इसके महत्त्व को स और अपनी भाषाओं में इसका अनुवाद किया है तथा अध्ययन करके लाभान्वित हो रहे हैं। यह एक ऐसा अमूल्य रत्न है, जिसे प्राप्त करके मनुष्य को और कुछ प्राप्त करने की अभिलाषा नहीं रहती । तुलसी ने रामचरितमानस में शाश्वत धर्म और विश्व धर्म की स्थापना की है। धर्म और अधर्म की परिभाषा करते हुए गोस्वामी जी लिखते हैं
“परहित सरिस धरम नहिं भाई ।
परपीड़ा सम नहि अधमाई ॥”
रामचरितमानस की रचना ऐसे समय में हुई थी, जबकि हिन्दू जनता समस्त शौर्य और पराक्रम खो चुकी थी। विदेशियों के चरण भारत में जम चुके थे । हताश और हतप्रभ जनता अपना नैराश्यपूर्ण जीवन व्यतीत कर रही थी। सामाजिक जीवन एक विषैली गैस बन गया था। वह समय दो विरोधी संस्कृतियों साधनाओं, सभ्यताओं और जातियों का सन्धिकाल था । देश की सामाजिक, राजनीतिक एवं धार्मिक स्थिति विशृंखलित हो गई थी । पारस्परिक ईर्ष्या और द्वेष की खाइयाँ इतनी गहरी होती जा रही थीं कि उनका पटना असम्भव नहीं, तो मुश्किल अवश्य था। अपने उचित पथ-प्रदर्शक के अभाव में जनता किंकर्त्तव्यविमूढ़ बन गई थी । ईश्वरवाद बढ़ता जा रहा था । कुछ लोग भगवान् की वेदी पर विष्णु और शिव का बलिदान करके एकता का नारा बुलन्द कर रहे थे, जो कि जनता के अनुकूल नहीं था । इन्हीं परिस्थितियों में लोकनायक तुलसीदास भारत-भूमि पर अवतरित हुए और इन्ही परिस्थितियों की काली छाया में रामचरितमानस का सृजन हुआ, जिसने डूबती हुई हिन्दू जनता को नष्ट होती हुई सामाजिक मर्यादा को, विशृंखलित होती हुई वर्ण-व्यवस्था को, बढ़ती हुई भयानक अमित्रता को, असामयिक आन्तरिक कलह को और लुप्त होती हुई आशा को बचा लिया ।
गोस्वामी जी भगवान् राम के अनन्य भक्त होते हुए भी, एक सच्चे महान् समाज सुधारक तथा लोकनायक थे। उन्होंने राम के रूपक के द्वारा जनता को आत्म-कल्याण और आत्म-रक्षा के अमोघ मन्त्र प्रदान किए । भिन्न-भिन्न प्रकार के चरित्र चित्रण से भिन्न-भिन्न आचरणों की शिक्षा प्रदान की, जो कि मानव जीवन की उन्नति के लिए परम आवश्यक । तुलसीदास जी ने मर्यादा पुरुषोत्तम राम के आदर्श चरित्र द्वारा मनुष्य के उत्कृष्ट आचार का उदाहरण प्रस्तुत किया है । रामचरितमानस का प्रत्येक पात्र किसी न किसी विशेष गुण और किसी आदर्श आचरण की प्रतिष्ठा करता है। राम का बाल्यकाल, गुरु-गृह-गमन, विश्वामित्र की यज्ञ रक्षा, सीता स्वयंवर, परशुराम जी को क्षमा करना, वनगमन, राक्षस – संहार, सुग्रीव और विभीषण की मैत्री, रावण वध तथा अयोध्या के राजा के रूप में राम के आदर्श चरित्र से तुलसी पग-पग पर अपने पाठकों को एक श्रेष्ठ आचरण और मर्यादित जीवन की शिक्षा देते हैं। राम का अपने कनिष्ठ भ्राताओं के साथ व्यवहार, प्राणपण से पिता की आज्ञा-पालन, माताओं की समान भाव से सेवा, एक आदर्श भ्रातृ-प्रेम, पितृ-भक्ति और मातृ-सेवा आदि के उदाहरण हैं। सीता भारतीय महिलाओं के समक्ष ऐसा आदर्श उपस्थित करती हैं, जो उन्हें युगों तक प्रकाश प्रदान करता हुआ सदाचरण की शिक्षा देता रहेगा। पति-सेवा व पति- व्रत धर्म का ऐसा उज्ज्वलतम उदाहरण भारतीय इतिहास के पृष्ठों पर दृष्टिगोचर नहीं होता। ‘भरत का त्याग’ भी भारतीय संस्कृति में सभ्यता की एक प्रकाशपूर्ण ज्योति है। रामचरितमानस पढ़ने के पश्चात् किसके मन में अपने ज्येष्ठ भ्राता के प्रति उदात्त भावनाएँ जागृत नहीं होतीं या कौन सी स्त्री अपने आचरण को सीता के समान शुद्ध और पवित्र बनाना नहीं चाहती ? राम का बालि-बध और सुग्रीव मैत्री की घटनाएँ एक आदर्श मित्रता का स्वरूप उपस्थित करती हैं। प्रत्येक मित्र मानस श्रवण के पश्चात् यह अनुभव करने लगता है, कि मेरी भी मित्रता राम और सुग्रीव जैसी हो । विभीषण की रक्षा से तुलसी ने यह सिद्ध कर दिया कि मनुष्य को प्राणपण से अपने शरणागत की रक्षा करनी चाहिए । कृतज्ञता का हनुमान और राम जैसा प्रसंग दूसरा क्या हो सकता है? साधारण से साधारण व्यक्ति भी यदि हमारे साथ भलाई करता है तो हमारा कर्तव्य है कि हम कृतज्ञ बनें। बनवास के समय राक्षसों का संघर्ष, सीताहरण, लक्ष्मणमूर्छा आदि ऐसे प्रसंग हैं, जिनमें राम का चंरित्र अग्नि में तपाए हुए स्वर्ण की भाँति शुद्ध रूप में पाठक के समक्ष आ जाता है जिससे वह धीरता, वीरता, कृतज्ञता आदि गुणों को स्वयं ही अपनाने लगता है। कहने का तात्पर्य यह है कि रामायण का प्रत्येक पात्र, प्रत्येक घटना और प्रत्येक कथा किसी न किसी विशेष गुण और शुद्धाचरण की शिक्षा देती है।
रामचरितमानस भारतीय जनता का एक महान् धार्मिक ग्रन्थ हैं। आज तुलसी के प्रताप से ही राम-भक्ति समस्त भारत में व्याप्त है। राम ब्रह्म के रूप में देखे जाते हैं। अशक्त और निर्धन व्यक्ति भी ‘निर्बल के बल राम’ कहकर शान्ति और सुख की श्वाँस लेता है। यद्यपि तुलसी के पूर्व महाकवि बाल्मिकि ने भी बाल्मीकि रामायण में राम का जीवन वृत्त प्रतिपादित किया था, परन्तु वह संस्कृत भाषा में होने के कारण केवल संस्कृतज्ञों तक ही सीमित रहा । तुलसी ने अपने महाकाव्य में ज्ञान, भक्ति और धर्म की विभिन्न धार्मिक धाराओं का समन्वय स्थापित कर आर्य धर्म का फिर से प्रतिपादन किया है। हमारा धर्म एक-दूसरे से लड़ने की और परस्पर ईर्ष्या करने की शिक्षा नहीं देता। यह सहयोग और समन्वय सिखाता है । तुलसी ने शैव, शक्ति और वैष्णवों के पारस्परिक धार्मिक मतमतान्तरों को समाप्त कर तथा कोरे ब्रह्मज्ञानियों को अपने उक्ति-वैचित्र्य से हतप्रभ करके समाज के समक्ष एक ऐसे सरल धर्म का स्वरूप प्रस्तुत किया कि जनता स्वतः ही इस ओर आकर्षित हो उठी और तुलसी के स्वर में स्वर मिलाकर कहने लगी कि –
“सियाराममय सब जग जानी, करहुँ प्रणाम जोरि जुग पानी ।”
रामचरितमानस के धार्मिक उपदेश, दुराचारी, पापी, अत्याचारी और अधार्मिक व्यक्ति को भी सन्मार्ग पर लाकर एक श्रेष्ठ व्यक्ति बना सकते हैं। कितने पथ-भ्रष्ट व्यक्ति रामचरितमानस के प्रताप से ही महान् बन गये, यह बताने की आवश्यकता नहीं ।
तुलसी ने रामचरितमानस में तत्कालीन भ्रष्ट समाज का चित्र भी उपस्थित किया है और यह बताया है कि समाज कैसा होना चाहिए, सुसंगठित समाज की स्थापना और व्यवस्था कैसे हो सकती है। एक समाज सुधारक के नाते तुलसीदास जी ने समाज की भी पुनर्व्यवस्था की। उन्होंने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र की वर्ण-व्यवस्था तथा ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यासाश्रम-व्यवस्था को सुसंगठित समाज के लिए आवश्यक बताया है। वर्णाश्रम व्यवस्था पर आधारित समाज कभी विशृंखलित नहीं हो सकता । सामाजिक उन्नति के लिये जो प्रयत्न किये जा रहे हैं आज से शताब्दियों पूर्व गोस्वामी जी ने भी वही प्रयत्न किये थे । अछूतोद्धार, स्त्री शिक्षा, लोकतन्त्रात्मक भावनायें, प्रत्येक जाति और वर्ण की मर्यादा आदि की शिक्षा के लिये ही राम ने सीता का परित्याग किया, गुरु को प्रणाम न करने पर काकभुशुण्ड का अधःपतन, छोटे भाई की स्त्री को अपनी पत्नी बनाने के फलस्वरूप बालि का वध, ऐसे सभी प्रसंग सामाजिक शिक्षा के अन्तर्गत आते हैं। तुलसीदास जी ने लिखा हे –
“अनुज वधू भगिनी, सुत नारी ।
सुन सठ ये कन्या सम चारी ॥”
रामचरितमानस और राजनीति का घनिष्ठ सम्बन्ध है । तत्कालीन समाज में दूषित राजनीति का कुचक्र चल रहा था । रामचरितमानस के पात्रों और घटनाओं के माध्यम से तुलसीदास जी ने जनता को वह मन्त्र दिया जिससे वह जीवित कर अत्याचारियों का दमन कर सके। किस प्रकार राजा को प्रजा की सुख-समृद्धि का ध्यान रखना चाहिये, प्रजा के हितों और अधिकारों के सरंक्षण के लिए राजा को क्या-क्या करना पड़ता है और राजा के कार्य से असन्तुष्ट प्रजा राजा को अपदस्थ भी कर सकती है— इन सब बातों का पूर्ण विवेचन रामचरितमानस में यथा स्थान प्राप्त होता है। गोस्वामी जी के अनुसार राजा का जीवन प्रजा का जीवन है, इसलिए राजा और प्रजा के जीवन में कोई व्यवधान रेखा नहीं होनी चाहिये, राजा का व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन एक होना चाहिए। साम, दाम, दण्ड, भेद आदि नीतियों में निपुण होते हुए राजा को आदर्श और सच्चरित्र होना चाहिए। वह अपनी प्रजा का एकमात्र पिता है। जिस राजा के राज्य में प्रजा दुखी रहती है वह नर्कगामी होता है। गोस्वामी जी ने लिखा है –
“जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी ।
सो नृप अबस नरक अधिकारी ॥”
यदि राजा समदृष्टा होगा, तो प्रजा सुखी और शान्त रहेगी और यदि राजा की नीति भेदभाव की हुई तो समाज में एक दिन वैषम्य की अग्नि भड़क उठेगी। गोस्वामी जी ने लिखा है –
“मुखिया मुखि सौं चाहिए, खान पान कहँ एक ।
पाले पोशे शकल तुलसी सहित विवेक || ”
हिन्दू-धर्म, हिन्दू-जाति, हिन्दू संस्कृति और सभ्यता का जितना उपकार गोस्वामी जी ने रामचरितमानस के द्वारा किया है, सम्भवतः ही किसी दूसरी साहित्यिक कृति ने किया हो। उनके दिव्य सन्देश ने मृतप्राय हिन्दू जाति के लिये संजीवनी का कार्य किया, जिससे जनता में संगठन व सामञ्जस्य की भावना उत्पन्न हुई । आज भी वह इसी दिव्य सन्देश से अनुप्राणित हो रही है। आज भी हमारे कर्त्तव्यों की दिशा का निर्धारण गोस्वामी जी की सूक्तियों पर आधारित रहता है। परन्तु पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव से हमने अपने पूर्वजों के अनुभव-सिद्ध उपदेशों को ग्रहण करना छोड़ दिया है और विदेशियों के चमक-दमक के सिद्धान्तों को ग्रहण करते जा रहे हैं। यही कारण है कि समाज उत्तरोत्तर अशान्ति और कलह का घर बनता जा रहा है, आपस में असहयोग और असमानता बढ़ती जा रही है, ईर्ष्या और द्वेष की अग्नि की लपटें हमें झुलसाये डाल रही हैं। यदि हम अपना, अपने समाज का और अपने देश का कल्याण चाहते हैं, तो हमें अपने पूर्वजों के दर्शाये हुये मार्ग पर चलना होगा, रामचरितमानस जैसे महान् ग्रन्थों की शिक्षाओं को आत्मसात करना होगा, तभी हमारी सर्वांगीण उन्नति सम्भव है । रामचरितमानस की महानता और कल्याणकारिता के विषय में बेनी कवि ने लिखा है –
“वेदमत सोधि, सोधि, सोधि कै पुरान सबै, सन्त औ असन्त के भेद को बतावतौ ।
कपटी कुराही कूप कलि के कुचाली जीव, कौन राम नाम की चर्चा चलावतौ ॥
बेनी कवि कहै मानो-पानी हो प्रतीति यह पाहन हिये में कौन प्रेम उपजावतौ ।
भारी भवसागर उतारतौ कवन पार, जो पै यह रामायण तुलसी न गावतौ ॥”
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