युद्ध – अभिशाप अथवा वरदान
युद्ध – अभिशाप अथवा वरदान
“लौट आओ, माँग के सिंदूर की सौगन्ध तुमको,
नयन का सावन निमन्त्रण दे रहा है।”
अरब और इजराइल, भारत और पाक, उत्तरी और दक्षिणी वियतनाम, १७ फरवरी ७९ से ४ मार्च ७९ तक का चीन वियतनाम युद्ध तथा इनसे पूर्व युद्धों की विधवायें आज भी एक दर्दभरी आह भरकर उपरिलिखित पंक्तियों को दुहराने लगती हैं, कितना कारुणिक दृश्य है, इन युद्धों के परिणामों का। स्वार्थी मानव कब चाहता है कि उसका पड़ौसी सुख से समय काट ले । एक राष्ट्र कब चाहता है कि दूसरा राष्ट्र फले-फूले और आगे बढ़े। ईर्ष्या और प्रतिस्पर्धा की आग एक-दूसरे को जलाने के लिए अपनी जीभ लपलपाती रहती है। प्रत्येक राष्ट्र अपने को दूसरे से आगे देखना चाहता है, उसके आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप करके, गृह युद्ध भड़का कर बाहर से आक्रमण करने की प्रतीक्षा में घात लगाये बैठा रहता है । स्वार्थी का टकराव, अपनी सार्वभौमिकता की रक्षा, नियन्त्रण में रखने की मनोवृत्ति, दूसरों पर अपना प्रभुत्व स्थापना का गर्व आदि कारण रूपी तीव्र वायु युद्ध के बादलों को एक जगह लाकर इकट्ठा कर देते हैं। एक राष्ट्र दूसरों से अपने सिद्धान्त और विचारधाराओं को हठात् मनवाना चाहता है। एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्रों से अपने उचित, अनुचित कार्यों में जबरदस्ती समर्थन चाहता है और मनोवांछित समार्थन न मिलने पर उसे सहायता न देने और समय आने पर बरबाद करने की धमकी देता है। विश्व के राष्ट्रों में शस्त्र अस्त्रों के निर्माण और उन्हें एकत्रित करने की होड़ लगी हुई है, आखिर क्यों ? केवल अपनी दानवी और आसुरी पिपासा को युद्ध के रक्त से शान्त करने के लिए ।
देवासुर संग्राम सदैव से होते आये हैं। ‘वीरभोग्या वसुन्धरा के आधार पर सदैव से शक्तिशालियों ने अशक्त पर आक्रमण और अत्याचार किये हैं। जर, जोरू और जमीन पर भी राजाओं में युद्ध होते थे, परन्तु उन युद्धों और आज के युद्धों में पृथ्वी और आकाश का अन्तर है। आमने-सामने की लड़ाई और मल्ल युद्धों का समय जा चुका है। युद्ध-साधनों की व्यापकता इतनी बढ़ गई है कि कुछ कहा नहीं जा सकता कि कब क्या हो जाये ? आज के युद्ध केवल भूमि ही पर नहीं लड़े जाते, अपितु आकाश और पारावार का प्रांगण भी समरांगण बन गया । ध्वनि से भी दुगुनी गति से उड़ने वाले युद्ध के लड़ाकू जेट, कैनेबरा और मिग जैसे विमान एक क्षण में हजारों मील भूमि, अनन्त प्रासादों और असंख्य मानवों के संहार में भयंकर अणु बम एवम् हाइड्रोजन बम, पृथ्वी से आकाश तक मार करने वाले राकेट, आकाश की लड़ाई में काम आने वाले नवीनतम शस्त्रों और नवीनतम प्रणाली की गड़गड़ाहट भरी तोपों ने आज के युद्ध का नक्शा ही बदल दिया है। जल, थल और नभ-तीनों प्रकार की युद्धकला के नवीन आविष्कारों ने युद्ध में आमूल-चूल परिवर्तन उपस्थित कर दिया है।
युद्ध का कल्पनातीत नरसंहार कितनी माताओं की गोदियों के इकलौते लाड़लों को, कितनी प्रेयसियों के जीवनाधारों को, कितनी सधवाओं के सौभाग्य बिन्दुओं को कितनी बहिनों की राखियों को अपने क्रूर हाथों से एक साथ ही छीन लेता है। यह विचार भी नहीं किया जा सकता, कितने बच्चे अनाथ होकर दर-दर की ठोकरें खाने लगते हैं, कितनी विधवाएँ अपने जीवन को सारहीन समझकर आत्महत्या कर लेती हैं, कितने परिवारों का दीपक युग-युग के लिये बुझ जाता है, कितने पिता अपने पुत्र को याद करते-करते अपना प्राणोत्सर्ग कर लेते हैं, कौन जाने ? असंख्य पुरुषों का संहार और नारियों का अवशेष जीवन देश में चरित्रहीनता ला देता है। पुरुषों के अभाव में देश का उत्पादन बन्द हो जाता है, वृद्ध रह जाते हैं जो न खेती कर सकते हैं और न कल-कारखानों में काम। देश के कलाकार, शिल्पकार, वीर, विशेषज्ञ, डाक्टर, सभी समय पड़ने पर आपातकालीन स्थिति में, युद्ध भूमि में बुला लिये जाते हैं। परिणाम यह होता है कि युद्ध के बाद न कोई किसी कला का दक्ष बच पाता है और न वीर । विषाक्त गैसों से अनेकों बीमारियाँ फूट पड़ती हैं, इलाज करने वाले डाक्टर होते नहीं, देश पर गरीबी छा जाने के कारण पैसा रहता नहीं, विध्वंसक विस्फोटों के कारण भूमि की उर्वराशक्ति नष्ट हो जाती है, कल कारखाने बन्द हो जाते हैं। उनमें काम करने वाले पैदा नहीं होते, अन्धे, लंगड़े, लूले और अपाहिजों कि संख्या बढ़ जाती है। कुछ तो युद्ध भूमि में विकलांग हो जाते हैं और कुछ नगरों में बम वर्षा से । मकान धराशायी हो जाते हैं, सोने या विश्राम के लिए केवल ऊपर आकाश और नीचे पृथ्वी ही होती है। जब रुई और कपास पैदा करने वाले और उसके योग्य भूमि ही न रही तो मिल स्वयं बन्द हो जाते हैं, जीवन यापन के लिए दैनिक उपयोग की वस्तुओं का मिलना असम्भव हो जाता है और यदि मिलती भी हैं तो दस गुनी कीमतों पर। उत्पादन के अभाव में मूल्य वृद्धि इतनी बढ़ जाती है कि कोई वस्तु खरीदना सम्भव नहीं होता। देश में अकाल की स्थिति आ जाती है। लोग बेमौत मरने लगते हैं, कुछ भूख से और कुछ बीमारियों से। जनता का स्वास्थ्य, मनोबल और नैतिक चरित्र गिर जाता है, क्योंकि भूखा क्या पा नहीं करता ?
बुभुक्षितः किं न करोति पापम् ?
युद्ध के समय जो कुछ उत्पादन होता है उसका बड़ा भाग सेना के उपयोग के लिए चला जाता है। चाहे वह अन्न हो, वस्त्र हो, दूध हो या अन्य उपयोगी वस्तुयें । युद्ध-सामग्री का उत्पादन उतना बढ़ जाता है कि सामान्य उपयोग की वस्तुओं का अभाव हो जाता है। अतः महँगाई बढ़ जाती है। देश में अराजकता और अव्यवस्था फैल जाती है । सरकारी कोष समाप्त होने लगता है, जनता पर युद्ध-कालीन कर बढ़ा दिये जाते हैं । अतः युद्ध-कालीन तथा युद्धोत्तर दोनों ही स्थितियाँ जनता के लिये अभिशाप बनकर सामने आती हैं ।
क्या युद्ध भी वरदान हो सकता है ? इसका प्रत्यक्ष उत्तर उस समय सामने आया जब पड़ोसी चीन ने भारत पर अपना क्रूर आक्रमण किया। पं० नेहरू की एक पुकार पर सारा देश सोना लिये खड़ा था। पंडित जी को सोने से तोला जाता और फिर उस सोने को देश-रक्षा के लिये पंडित जी के चरणों में चढ़ा दिया जाता । सभी जातियाँ, सभी सम्प्रदाय, सभी वर्ग अपनी-अपनी विचार भिन्नताओं को भुलाकर एकाकार हो उठे थे । सबके सामने अपना देश था, अपना राष्ट्र था और था अपने प्राणप्रिय नेता नेहरू के संकेत पर सर्वस्व समर्पण | देश की इस अभूतपूर्व भावात्मक एकता के लिए जन-जागृति के लिए चीनी आक्रमण एक वरदान के रूप में देश के सामने आया । इसी की पुनरावृत्ति सितम्बर ६५ और दिसम्बर ७१ में तब हुई जब पाकिस्तान ने भारत पर सहसा आक्रमण कर दिया। तात्पर्य यह है कि युद्ध से जन-जागरण एवं भावात्मक एकता का लाभ भी है। युद्ध से देश की जनसंख्या कम होती है। इस दृष्टि से युद्ध उन देशों के लिए वरदान है जहाँ उत्पादन कम है और खाने वाले अधिक हैं युद्ध के समय बेकारी दूर हो जाती है, सभी को कुछ न कुछ काम मिल ही जाता है, युद्ध जन्य कठिनाइयों में मनुष्य में आत्मबल का उदय होता है। देश की मान-रक्षा के लिए सब कुछ त्याग देने की उदात्त भावनायें नागरिकों में सहसा पैदा हो हो उठती हैं, जो कि देश के भविष्य के लिए एक शुभ लक्षण होता है। युद्ध के बहाने से देश शक्ति का अर्जन करता हैं। यदि धार्मिक दृष्टि से देखा जाये तो पापियों, अधर्मियों एवं भ्रष्टाचारियों के विनाश के लिए युद्ध एक वरदान बन जाता हैं I
“जब-जब होहि धरम की हानि । बाढ़हि असुर अधम अभिमानी ।।
तब – तब घरि मैं मनुज सरीरा…………………………………………।।”
ऊपर दिये दो चित्रों से यह स्पष्ट हो जाता है कि युद्ध मानव के लिए क्या अभिशाप है या वरदान भी। अच्छी से अच्छी वस्तु जहाँ लाभदायक होती है, वहाँ वह हानिप्रद भी होती है। सृष्टि में कोई पदार्थ ऐसा नहीं जिसमें गुण ही हों और अवगुण एक भी न हो । कोई पदार्थ ऐसा नहीं जो केवल कल्याणकारी ही हो । सृष्टि का निर्माण भी गुण-अवगुण तथा सुख-दुखों की भित्ति पर हुआ है। । युद्ध भी इसी प्रकार कुछ दृष्टियों से भले ही वरदान हो पर इस पर दो मत नहीं हो सकते, कि युद्ध मानव-कल्याण के लिए कम एवं मानव विनाश के लिये अधिक है। यदि युद्ध वरदान है, तो फिर विश्व के महापुरुष विश्वशान्ति के लिये क्यों प्रयत्नशील हैं ? गाँधी और कैनेडी को गोली क्यों मारी गई ? महाराजा अशोक को युद्ध से घृणा क्यों हुई? जापान के नागासाकी और हिरोशिमा के ध्वंसावशेष आज क्या संदेश दे रहे हैं ? उत्तरी वियतनाम के निरीह बच्चों और अबलाओं पर की गई बम वर्षा वरदान का कौन-सा रूप है ? इजराइल द्वारा ध्वस्त जॉर्डन, इराक, सीरिया और मिस्र आज क्या कह रहे हैं ? १७ फरवरी, ७९ को चीन द्वारा वियतनाम पर किया गया बर्बर आक्रमण क्या संकेत दे रहा है ? उत्तर केवल एक है— युद्ध मानव-कल्याण के लिये नहीं अपितु विनाश के लिए है।
युद्ध रुक सकते हैं, यदि विश्व भारत द्वारा प्रदर्शित मार्ग पर चले । निःशस्त्रीकरण आज के युग में विश्वशान्ति के लिए अनिवार्य है। पर कहते सब हैं, करता कोई नहीं । तात्पर्य यह निकला कि युद्ध निःसन्देह मानव-मात्र के लिये अभिशाप है | विष, अमृत कैसे हो सकता है ?
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