मानव नेत्र तथा रंगबिरंगा संसार Human Eye and Colourful World
मानव नेत्र तथा रंगबिरंगा संसार Human Eye and Colourful World
मानव नेत्र
• मानव नेत्र एक अत्यन्त मूल्यवान एवं सुग्राही ज्ञानेन्द्रिय हैं। यह हमें इस अद्भुत संसार तथा हमारे चारों ओर के रंगों को देखने योग्य बनाता है। आँखें बन्द करके हम वस्तुओं को उनकी गन्ध, स्वाद, उनके द्वारा उत्पन्न ध्वनि या उनको स्पर्श करके, कुछ सीमा तक पहचान सकते हैं। तथापि आँखों को बन्द करके रंगों को पहचान पाना असम्भव है। इस प्रकार समस्त ज्ञानेन्द्रियों में मानव नेत्र सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यह हमें हमारे चारों ओर के रंग बिरंगे संसार को देखने योग्य बनाता है।
• मानव नेत्र एक कैमरे की भाँति है। इसका लेन्स-निकाय एक प्रकाश-सुग्राही परदे, जिसे रेटिना या दृष्टिपटल कहते हैं, पर प्रतिबिम्ब बनाता है। प्रकाश एक पतली झिल्ली से होकर नेत्र में प्रवेश करता है। हम झिल्ली को कॉर्निया या स्वच्छ मण्डल कहते हैं। यह झिल्ली नेत्र गोलक के अग्र पृष्ठ पर एक पारदर्शी उभार बनाती है।
• नेत्र गोलक की आकृति लगभग गोलाकार होती है तथा इसका व्यास लगभग 2.3 सेमी होता है।
• नेत्र में प्रवेश करने वाली प्रकाश किरणों का अधिकांश अपवर्तन कॉर्निया के बाहरी पृष्ठ पर होता है। क्रिस्टलीय लेन्स केवल विभिन्न दूरियों पर रखी वस्तुओं को रेटिना पर फोकसित करने के लिए आवश्यक फोकस दूरी में सूक्ष्म समायोजन करता है।
• कॉर्निया के पीछे एक संरचना होती है जिसे परितारिका कहते हैं। परितारिका गहरा पेशीय डायफ्राम होता है जो पुतली के साइज को नियन्त्रित करता है।
• पुतली नेत्र में प्रवेश करने वाले प्रकाश की मात्रा को नियन्त्रित करती है। अभिनेत्र लेन्स रेटिना पर किसी वस्तु का उलटा तथा वास्तविक प्रतिबिम्ब बनाता है।
• रेटिना एक कोमल सूक्ष्म झिल्ली होती है जिसमें बृहत् संख्या में प्रकाश – सुग्राही कोशिकाएँ होती हैं। प्रदीप्ति होने प्रकाश-सुग्राही कोशिकाएँ सक्रिय हो जाती हैं तथा विद्युत सिग्नल उत्पन्न करती हैं। ये सिग्नल दृक् तन्त्रिकाओं द्वारा मस्तिष्क तक पहुँचा दिए जाते हैं। मस्तिष्क इन सिग्नलों की व्याख्या करता है तथा अन्ततः इस सूचना को संसाधित करता है जिससे कि हम किसी वस्तु को जैसा है, वैसा ही देख लेते हैं।
• दृष्टि तन्त्र के किसी भी भाग के क्षतिग्रस्त होने अथवा कुसंक्रियाओं (Malfunctioning) से दृष्टि प्रकार्यों में सार्थक क्षति हो सकती है। उदाहरण के लिए, प्रकाश संचरण में सम्मिलित कोई भी संरचना (जैसे कॉर्निया, पुतली, अभिनेत्र लेन्स, नेत्रोद तथा काचाभ द्रव) अथवा रेटिना जैसी संरचना (जो प्रकाश को विद्युत सिग्नल में परिवर्तित करने के लिए उत्तरदायी हैं), या दृक् तन्त्रिका (जो इन सिग्नलों को मस्तिष्क तक पहुँचाती है), भी क्षतिग्रस्त होने पर चाक्षुष-विकृति उत्पन्न करती हैं।
• जब हम तीव्र प्रकाश से किसी मन्द प्रकाशित कमरे में प्रवेश करते हैं. तो आरम्भ में कुछ देर तक उस कमरे की वस्तुओं को नहीं देख पाते। तथापि, कुछ समय पश्चात् हम उसी मन्द प्रकाशित कमरे की वस्तुओं को देख पाते हैं। आँख की पुतली परिवर्ती द्वारक की भाँति कार्य करती है जिसके साइज को परितारिका की सहायता से बदला जा सकता है। जब प्रकाश अत्यधिक चमकीला होता है तो परितारिका सिकुड़ कर पुतली को छोटा बना देती है जिससे आँख में कम प्रकाश प्रवेश कर सके। परन्तु जब प्रकाश मन्द होता है तो परितारिका फैलकर पुतली को बड़ा बना देती है जिससे आँख में अधिक प्रकाश प्रवेश कर सके। इस प्रकार मन्द प्रकाश में परितारिका की शिथिलता से पुतली पूर्ण रूप से खुल जाती है।
• समंजन क्षमता अभिनेत्र लेन्स रेशेदार जेलीवत पदार्थ का बना होता है। इसकी वक्रता में कुछ सीमाओं तक पक्ष्माभी पेशियों द्वारा रूपान्तरण किया जा सकता है। अभिनेत्र लेन्स की वक्रता में परिवर्तन होने पर इसकी फोकस दूरी भी परिवर्तित हो जाती है। जब पेशियाँ शिथिल होती हैं तो अभिनेत्र लेन्स पतला हो जाता है। इस प्रकार इसकी फोकस दूरी बढ़ जाती है। इस स्थिति में हम दूर रखी वस्तुओं को स्पष्ट देख पाने में समर्थ होते हैं। जब हम आँख के निकट की वस्तुओं को देखते हैं तब पक्ष्माभी पेशियाँ सिकुड़ जाती हैं। इसमें अभिनेत्र लेन्स की वक्रता बढ़ जाती है। अभिनेत्र लेन्स अब मोटा हो जाता है। परिणामस्वरूप, अभिनेत्र लेन्स की फोकस दूरी घट जाती है। इससे हम निकट रखी वस्तुओं को स्पष्ट देख सकते हैं।
दृष्टि दोष तथा उनका संशोधन
• अभिनेत्र लेन्स की वह क्षमता जिसके कारण वह अपनी फोकस दूरी को समायोजित कर लेता है समंजन कहलाती है। तथापि अभिनेत्र लेन्स की फोकस दूरी एक निश्चित न्यूनतम सीमा से कम नहीं होती।
• किसी वस्तु को आराम से सुस्पष्ट देखने के लिए आपको इसे अपने नेत्रों से कम से कम 25 सेमी दूर रखना होगा। वह न्यूनतम दूरी जिस पर रखी कोई वस्तु बिना किसी तनाव के अत्यधिक स्पष्ट देखी जा सकती है, उसे सुस्पष्ट दर्शन की अल्पतम दूरी कहते हैं। इसे नेत्र का निकट-बिन्दु भी कहते हैं। किसी सामान्य दृष्टि के तरुण वयस्क के लिए निकट बिन्दु की आँख से दूरी लगभग 25 सेमी होती है। वह दूरतम बिन्दु जिस तक कोई नेत्र वस्तुओं को सुस्पष्ट देख सकता है, नेत्र का दूर बिन्दु (Far point) कहलाता है सामान्य नेत्र के लिए यह अनन्त दूरी पर होता है। इस प्रकार, एक सामान्य नेत्र 25 सेमी से अनन्त दूरी तक रखी सभी वस्तुओं को सुस्पष्ट देख सकता है।
• कभी-कभी अधिक आयु के कुछ व्यक्तियों के नेत्र का क्रिस्टलीय लेन्स दूधिया तथा धुँधला हो जाता है। इस स्थिति को मोतियाबिन्द (Cataract) कहते हैं। इसके कारण नेत्र की दृष्टि में कमी या पूर्ण रूप से दृष्टि क्षय हो जाता है। मोतियाबिन्द की शल्य चिकित्सा के पश्चात् दृष्टि का वापस लौटना सम्भव होता है।
• दृष्टि के लिए हमारे दो नेत्र हैं, केवल एक नहीं इससे हमें अनेक लाभ हैं। इससे हमारा दृष्टि- क्षेत्र विस्तृत हो जता है। मानव के एक नेत्र का क्षैतिज दृष्टि क्षेत्र लगभग 150° होता है जबकि दो नेत्रों द्वारा यह लगभग 180° हो जाता है। वास्तव में, किसी मन्द प्रकाशित वस्तु के संसूचन की सामर्थ्य एक की बजाय दो संसूचकों से बढ़ जाती है।
• शिकार करने वाले जन्तुओं के दो नेत्र प्रायः उनके सिर पर विपरीत दिशाओं में स्थित होते हैं जिससे कि उन्हें अधिकतम विस्तृत दृष्टि क्षेत्र प्राप्त हो सके। परन्तु हमारे दोनों नेत्र सिर पर सामने की ओर स्थित होते हैं। इस प्रकार हमारा दृष्टि क्षेत्र तो कम हो जाता है परन्तु हमें त्रिविम चाक्षुकी का लाभ मिल जाता है। एक नेत्र बन्द करने पर हमें संसार चपटा – केवल द्विविम लगता है। दोनों नेत्र से देखने पर हमें संसार की वस्तुओं में गहराई की तीसरी विमा दिखाई देती है, क्योंकि हमारे नेत्रों के बीच कुछ सेन्टीमीटर का पृथक्कन होता है, इसलिए प्रत्येक नेत्र किसी वस्तु का थोड़ा-सा भिन्न प्रतिबिम्ब देखता है। हमारा मस्तिष्क दोनों प्रतिबिम्बों का संयोजन करके एक प्रतिबिम्ब बना देता है। इस प्रकार अतिरिक्त सूचना का उपयोग करके हम यह बता देते हैं कि कोई वस्तु हमारे कितनी पास या दूर है। प्रमुख रूप से दृष्टि के तीन सामान्य अपवर्तन दोष होते हैं। ये दोष हैं—
1. निकट दृष्टि (Myopia),
2. दीर्घ- दृष्टि (Hypermetropia) तथा
3. जरा दूर-दृष्टिता ( Presbyopia) |
• दृष्टि दोषों को उपयुक्त गोलीय लेन्स के उपयोग से संशोधित किया जा सकता है।
• निकट दृष्टि दोष निकट दृष्टि दोष को निकटदृष्टिता (Near-sightendness) भी कहते हैं। निकट दृष्टि दोषयुक्त कोई व्यक्ति निकट रखी वस्तुओं को तो स्पष्ट देख सकता है, परन्तु दूर रखी वस्तुओं को वह सुस्पष्ट नहीं देख पाता। ऐसे दोषयुक्त व्यक्ति का दूर बिन्दु अनन्त पर न होकर नेत्र के पास आ जाता है। ऐसा व्यक्ति कुछ मीटर दूर रखी वस्तुओं को ही सुस्पष्ट देख पाता है। निकट दृष्टि दोषयुक्त नेत्र में, किसी दूरी रखी वस्तु का प्रतिबिम्ब दृष्टिपल (रेटिना) पर न बनकर, दृष्टिपटल के सामने बनता है।
■ इस दोष के उत्पन्न होने के कारण हैं—
1. अभिनेत्र लेन्स की वक्रता का अत्यधिक होना अथवा
2. नेत्र गोलक का लम्बा हो जाना।
■ इस दोष को किसी उपयुक्त क्षमता के अवतल लेन्स (अपसारी लेन्स) के उपयोग द्वारा संशोधित किया जा सकता है।
■ उपयुक्त क्षमता का अवतल लेन्स वस्तु के प्रतिबिम्ब को वापस के दृष्टिपटल (रेटिना) पर ले आता है तथा इस प्रकार इस दोष का संशोधन हो जाता है ।
• दीर्घ-दृष्टि दोष दीर्घ-दृष्टि दोष को दूर-दृष्टिता (Long-sightendness) भी कहते हैं। दीर्घ-दृष्टि दोषयुक्त कोई व्यक्ति दूर की वस्तुओं को तो स्पष्ट देख सकता है, परन्तु निकट रखी वस्तुओं को सुस्पष्ट नहीं देख पाता। ऐसे दोषयुक्त व्यक्ति का निकट-बिन्दु सामान्य निकट बिन्दु (25 सेमी) से दूर हट जाता है। ऐसे व्यक्ति को आराम से सुस्पष्ट पढ़ने के लिए पठन सामग्री को नेत्र से 25 सेमी से काफी अधिक दूरी पर रखना पड़ता है। इसका कारण यह है कि पास रखी वस्तु से आने वाली प्रकाश किरणें दृष्टिपटल (रेटिना) के पीछे फोकसित होती हैं।
■ इस दोष के उत्पन्न होने के कारण हैं—
1. अभिनेत्र लेन्स की फोकस दूरी का अत्यधिक हो जाना अथवा
2. नेत्र गोलक का छोटा हो जाना।
• इस दोष को उपयुक्त क्षमता के अभिसारी लेन्स (उत्तल लेन्स) का उपयोग करके संशोधित किया जा सकता है।
• उत्तल लेन्स युक्त चश्मे दृष्टिपटल पर वस्तु का प्रतिबिम्ब फोकसित करने के लिए आवश्यक अतिरिक्त क्षमता प्रदान करते हैं।
• जरा-दूरदृष्टिता आयु में वृद्धि होने के साथ-साथ मानव नेत्र की संसजन क्षमता घट जाती है। अधिकांश व्यक्तियो का निकट-बिन्दु दूर हट जाता है। संशोधक चश्मों के बिना उन्हें पास की वस्तुओं को आराम से सुस्पष्ट देखने में कठिनाई होती है। इस दोष को जरा दूरदृष्टिता कहते हैं।
• यह पक्षाभी पेशियों के धीरे-धीरे दुर्बल होने तथा क्रिस्टलीय लेन्स के लचीलेपन में कमी आने के कारण उत्पन्न होता है।
• कभी-कभी किसी व्यक्ति के नेत्र में दोनों ही प्रकार के दोष निकट दृष्टि तथा दूर-दृष्टि दोष हो सकते हैं।
• ऐसे व्यक्तियों को वस्तुओं को सुस्पष्ट देख सकने के लिए प्रायः द्विफोकसी लेन्सों (Bi-focal lens) की आवश्यकता होती है। सामान्य प्रकार के द्विफोकसी लेन्सों में अवतल तथा उत्तल दोनों लेन्स होते हैं। ऊपरी भाग अवलत लेन्स होता है। यह दूर की वस्तुओं को सुस्पष्ट देखने में सहायता करता है। निचला भाग उत्तल लेन्स होता है। यह पास की वस्तुओं को सुस्पष्ट देखने में सहायक होता है।
• आजकल संस्पर्श लेन्स (Contact lens) अथवा शल्य हस्तक्षेप द्वारा दृष्टि दोषों का संशोधन सम्भव है।
प्रिज्म से प्रकाश का अपवर्तन
• काँच के प्रिज्म के दो त्रिभुजाकार आधार तथा तीन आयताकार पार्श्व-पृष्ठ होते हैं। ये पृष्ठ एक-दूसरे पर झुके होते हैं। इसके दो पार्श्व फलकों के बीच के कोणों को प्रिज्म कोण कहते हैं।
• प्रिज्म के प्रत्येक अपर्वतक पृष्ठ पर आपतन कोण तथा अपवर्तन कोण की तुलना करने पर पता चलता है कि इसकी विशेष आकृति के कारण निर्गत किरण, आपतित किरण की दिशा से एक कोण बनाती है। इस कोण को विचलन कोण कहते हैं।
काँच के प्रिज्म द्वारा श्वेत प्रकाश का विक्षेपण
• प्रिज्म से श्वेत प्रकाश को गुजारने पर वह इसे रंगों (वर्णों) की पट्टी में विभक्त कर देता है। इस रंगीन पट्टी के दोनों सिरों पर विभिन्न सात वर्ण दिखाई देते हैं, जिनका क्रम इस प्रकार है, बैंगनी (Violet), जामुनी (Indigo), नीला (Blue), हरा (Green), पीला (Yellow), नारंगी (Orange) तथा लाल (Red)।
• प्रसिद्ध परिवर्णी शब्द VIBGYOR से वर्णों के इस क्रम को याद रखा जा सकता है।
• प्रकाश के अवयवी वर्णों के इस बैण्ड को स्पेक्ट्रम कहते हैं।
• प्रकाश के अवयवी वर्गों में विभाजन को विक्षेपण कहते हैं।
• किसी प्रिज्म से गुजारने के पश्चात प्रकाश के विभिन्न वर्ण, आपतित किरण के सापेक्ष अलग-अलग कोणों पर झुकते (मुड़ते) हैं। लाल प्रकाश सबसे कम झुकता है जबकि बैंगनी सबसे अधिक झुकता है। इसलिए प्रत्येक वर्ण की किरणें अलग-अलग पथों के अनुदिश निर्गत होती हैं तथा सुस्पष्ट दिखाई देती हैं। यह सुस्पष्ट वर्णों का बैण्ड ही हमें स्पेक्ट्रम के रूप में दिखाई देता है।
• आईजक न्यूटन ने सर्वप्रथम सूर्य का स्पेक्ट्रम प्राप्त करने के लिए काँच के प्रिज्म का उपयोग किया। एक दूसरा समान प्रिज्म उपयोग करके उन्होंने श्वेत प्रकाश के स्पेक्ट्रम के वर्णों को और अधिक विभक्त करने का प्रयत्न किया। किन्तु उन्हें और अधिक वर्ण नहीं मिल पाए। फिर उन्होंने एक दूसरा सर्वसम प्रिज्म पहले प्रिज्म के सापेक्ष उलटी स्थिति में रखा। इससे स्पेक्ट्रम के सभी वर्ण दूसरे प्रिज्म से होकर गुजरे। उन्होंने देखा कि दूसरे प्रिज्म से श्वेत प्रकाश का किरण पुन्ज निर्गत हो रहा है। इस प्रेक्षण से न्यूटन को यह विचार आया कि सूर्य का प्रकाश सात वर्णों से मिलकर बना है। कोई भी प्रकाश जो सूर्य के प्रकाश के सदृश स्पेक्ट्रम बनाता है, प्राय: श्वेत प्रकाश कहलाता है।
• इन्द्रधनुष, वर्षा के पश्चात आकाश में जल के सूक्ष्म कणों में दिखाई देने वाला प्राकृतिक ट्रम है। यह वायुमण्डल में उपस्थित जल की सूक्ष्म बूँदों द्वारा सूर्य के प्रकाश के परिक्षेपण के कारण प्राप्त होता है। इन्द्रधनुष सदैव सूर्य के विपरीत दिशा में बनता है। जल की सूक्ष्म बूँदें छोटे प्रिज्मों की भाँति कार्य करती हैं। सूर्य के आपतित प्रकाश को ये बूँदें अपवर्तित तथा विक्षेपित करती हैं, तत्पश्चात इसे आन्तरिक परावर्तित करती हैं, अन्ततः जल की बूँद से बाहर निकलते समय प्रकाश को पुनः अपवर्तित करती हैं। प्रकाश के परिक्षेपण तथा आन्तरिक परावर्तन के कारण विभिन्न वर्ण प्रेक्षक के नेत्रों तक पहुँचते हैं।
वायुमण्डलीय अपवर्तन
• आग या भट्टी अथवा किसी उष्मीय विकिरण के ऊपर उठती गरम वायु के विक्षुब्ध प्रवाह में धूल के कणों की आभासी, अनियमित, अस्थिर गति अथवा झिलमिलाहट दिखाई पड़ती है। ऐसा वायुमण्डलीय अपवर्तन के कारण होता है आग के तुरन्त ऊपर की वायु अपने ऊपर की वायु की तुलना में अधिक गरम हो जाती है। गरम वायु अपने ऊपर की ठण्डी वायु की तुलना में हल्की (कम सघन) होती है तथा इसका अपवर्तनांक ठण्डी वायु की अपेक्षा थोड़ा कम होता है। क्योंकि अपवर्तक माध्यम (वायु) की भौतिक अवस्थाएँ स्थिर नहीं हैं, इसलिए गरम वायु में से होकर देखने पर वस्तु की आभासी स्थिति परिवर्तित होती रहती है। इस प्रकार यह अस्थिरता हमारे स्थानीय पयार्वरण में लघु स्तर पर वायुमण्डलीय अपवर्तन (पृथ्वी के वायुमण्डल के कारण प्रकाश का अपवर्तन) का ही एक प्रभाव है। तारों का टिमटिमाना बृहत् स्तर की एक ऐसी ही परिघटना है।
• तारों का टिमटिमाना तारों के प्रकाश के वायुमण्डलीय अपवर्तन के कारण ही तारे टिमटिमाते प्रतीत होते हैं। पृथ्वी के वायुमण्डल में प्रवेश करने के पश्चात पृथ्वी के पृष्ठ पर पहुँचने तक तारे का प्रकाश निरन्तर अपवर्तित होता जाता है। वायुमण्डलीय अपवर्तन उसी माध्यम में होता है जिसका क्रमिक परिवर्ती अपवर्तनांक हो । क्योंकि वायुमण्डल तारे के प्रकाश को अभिलम्ब की ओर झुका देता है, अत: तारे की आभासी स्थिति उसकी वास्तविक स्थिति से कुछ भिन्न प्रतीत होती है। क्षितिज के निकट देखने पर कोई तारा अपनी वास्तविक स्थिति से कुछ ऊँचाई पर प्रतीत होता है।
इसके अतिरिक्त जैसा कि ऐसी ही परिस्थिति में पिछले अनुभाग में वर्णन किया जा चुका है, तारे की यह आभासी स्थिति भी स्थायी न होकर धीरे-धीरे थोड़ी बदलती भी रहती है क्योंकि, पृथ्वी के वायुमण्डल की भौतिक अवस्थाएँ नहीं है। चूँकि तारे बहुत दूर हैं, अतः वे प्रकाश के स्रोत के सन्निकट हैं। क्योंकि तारों से आने वाली प्रकाश किरणों का पथ थोडा-थोडा परिवर्तित होता रहता है, अतः तारे की आभासी स्थिति विचलित होती रहती है तथा आँखों में प्रवेश करने वाले तारों के प्रकाश की मात्रा झिलमिलाती रहती है, जिसके कारण कोई तारा कभी चमकीला प्रतीत होता है तो कभी धुँधला, जो कि टिमटिमाहट का प्रभाव है।
• ग्रह तारों की अपेक्षा पृथ्वी के बहुत पास हैं और इसीलिए उन्हें विस्तृत स्रोत की भाँति माना जा सकता है। यदि हम ग्रह को बिन्दु- साइज के अनेक प्रकाश स्रोतों का संग्रह मान लें तो सभी बिन्दु साइज के प्रकाश स्रोतों से हमारे नेत्रों में प्रवेश करने वाले प्रकाश की मात्रा में कुल परिवर्तन का औसत मान शून्य होगा, इसी कारण टिमटिमाने का प्रभाव निष्प्रभावित हो जाएगा।
अग्रिम सूर्योदय तथा विलम्बित सूर्यास्त
• वायुमण्डलीय अपवर्तन के कारण सूर्य हमें वास्तविक सूर्योदय से लगभग 2 मिनट पूर्व दिखाई देने लगता है तथा वास्तविक सूर्यास्त के लगभग 2 मिनट पश्चात तक दिखाई देता रहता है।
• वास्तविक सूर्योदय से हमारा अर्थ है, सूर्य द्वारा वास्तव में क्षितिज को पार करना। वास्तविक सूर्यास्त तथा आभासी सूर्यास्त के बीच समय का अन्तर लगभग 2 मिनट है। इसी परिघटना के कारण ही सूर्योदय तथा सूर्यास्त के समय सूर्य की चक्रिका चपटी प्रतीत होती है।
प्रकाश का प्रकीर्णन
• प्रकाश तथा हमारे चारों ओर की वस्तुओं के बीच अन्योन्यक्रिया के कारण ही हमें, प्रकृति में अनेक आश्चर्यजनक परिघटनाएँ देखने को मिलती हैं। आकाश का नीला रंग, गहरे समुद्र के जल का रंग, सूर्योदय तथा सूर्यास्त के समय सूर्य का रक्ताभ दिखाई देना, कुछ ऐसी अद्भुत परिघटनाएँ हैं, जिनसे हम परिचित हैं।
• किसी वास्तविक विलयन से गुजारने वाले प्रकाश किरण पुन्ज का मार्ग हमें दिखाई नहीं देता। तथापित, किसी कोलॉइडी विलयन में जहाँ कणों का साइज अपेक्षाकृत बड़ा होता है, यह मार्ग दृश्य होता है।
• टिण्डल प्रभाव पृथ्वी का वायुमण्डल सूक्ष्म कणों का एक विषमंगी मिश्रण है। इन कणों में धुआँ, जल की सूक्ष्म बूँदें, धूल के निलम्बित कण तथा वायु के अणु सम्मिलित होते हैं। जब कोई प्रकाश किरण पुन्ज ऐसे महीन कणों से टकराता है तो उस किरण पुन्ज का मार्ग दिखाई देने लगता है। इन कणों से विसरित प्रकाश परावर्तित होकर हमारे पास तक पहुँचता है। कोलॉइडी कणों द्वारा प्रकाश के प्रकीर्णन की परिघटना टिण्डल प्रभाव उत्पन्न करती है। जब धुएँ से भरे किसी कमरे में किसी सूक्ष्म छिद्र से कोई पतला प्रकाश किरण पुन्ज प्रवेश करता है तो इस परिघटना को देखा जा सकता है। इस प्रकार, प्रकाश का प्रकीर्णन कणों को दृश्य बनाता है। जब किसी घने जंगल के वितान (बन्दवचल) से सूर्य का प्रकाश गुरजता है तो टिण्डल प्रभाव को देखा जा सकता है। जंगल के कुहासे में जल की सूक्ष्म बूँदें प्रकाश का प्रकीर्णन कर देती हैं। प्रकीर्णित प्रकाश का वर्ण, प्रकीर्णन करने वाले कणों के साइज पर निर्भर करता है। अत्यन्त सूक्ष्म कण मुख्य रूप से नीले प्रकाश को प्रकीर्ण करते हैं जबकि बड़े साइज के कण अधिक तरंगदैर्ध्य के प्रकाश को प्रकीर्ण करते हैं। यदि प्रकीर्णन करने वाले कणों का साइज बहुत अधिक है तो प्रकीर्णित प्रकाश श्वेत भी प्रतीत हो सकता है।
स्वच्छ आकाश का रंग नीला क्यों होता है?
वायुमण्डल में वायु के अणु तथा अन्य सूक्ष्म कणों का साइज दृश्य प्रकाश की तरंगदैर्ध्य के प्रकाश की अपेक्षा नीले वर्ण की ओर के कम तरंगदैर्ध्य के प्रकाश को प्रकीर्णित करने में अधिक प्रभावी है। लाल वर्ण के प्रकाश की तरंगदैर्ध्य नीले प्रकाश की अपेक्षा लगभग 1.8 गुनी है। अतः जब सूर्य का प्रकाश वायुमण्डल से गुजरता है, वायु के सूक्ष्म कण लाल रंग की अपेक्षा नीले रंग (छोटी तरंगदैर्ध्य) को अधिक प्रबलता से प्रकीर्ण करते हैं। प्रकीर्णित हुआ नीला प्रकाश हमारे नेत्रों में प्रवेश करता है। यदि पृथ्वी पर वायुमण्डल न होता तो कोई प्रकीर्णन न हो पाता। तब, आकाश काला प्रतीत होता। अत्यधिक ऊँचाई पर उड़ते हुए यात्रियों को आकाश काला प्रतीत होता है, क्योंकि इतनी ऊँचाई पर प्रकीर्णन सुस्पष्ट नहीं होता।
• ‘खतरे’ के संकेत (सिग्नल) का प्रकाश लाल रंग का होता है। इसका कारण यह है कि लाल रंग कुहरे या धुएँ से सबसे कम प्रकीर्ण होता है। इसीलिए, यह दूर से देखने पर भी लाल रंग का ही दिखलाई देता है।
• प्रकाश के प्रकीर्णन के कारण ही सूर्योदय तथा सूर्यास्त के समय सूर्य का रंग लाल प्रतीत होता है।
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