“मन के हारे हार है, मन के जीते जीत”
“मन के हारे हार है, मन के जीते जीत”
इस परिवर्तनशील संसार में देखा गया है कि कुछ व्यक्ति अनुकूल सहायता, अनुकूल प्रेरणा और अनुकूल वातावरण मिलने पर भी आगे नहीं बढ़ पाते, क्या कारण है उनके पीछे हटने का ? देखने में ये लोग स्वस्थ हैं, हृष्ट-पुष्ट हैं, अच्छा पहनते और अच्छा खाते भी हैं, परन्तु उपलब्धि जैसी कोई वस्तु उनके निकट तक नहीं आ पाती और न वे उसके लिये प्रयत्नशील ही दिखाई पड़ते हैं। असफलताओं और संघर्षों से वे दूर भागते हैं। किसी भी दुःखद या भयानक परिस्थिति का वे मुकाबला ही नहीं कर सकते। कुछ व्यक्ति ऐसे भी देखे गये हैं कि जो देखने मे तो सूखे से, अस्थि पंजर मात्र दिखाई पड़ते हैं, मालूम पड़ता है कि हवा का साधारण झोका भी इन्हें उड़ा ले जा सकता है परन्तु परिणामों से ज्ञात होता है कि उन्हें भयानक तूफान भी अपने स्थान से हटा नहीं सकता, सत्य ही है –
“न पादपीन्मूलनशक्तिरंहः शिलोच्चये मूर्च्छति मारुतस्य ।”
अर्थात् प्रबल प्रभंजन केवल वृक्षों को उखाड़ने में ही समर्थ होता है, पर्वत को हिला भी नहीं पाता। फिर भी ऐसी कौन-सी दैवी शक्ति है, जो उन्हें पराजय के क्षणों में भी, असफलताओं की घड़ियों में मुस्कराने और फिर आगे बढ़ने को कहती है ? वे हँसते हैं, अपने लक्ष्य तक पहुँचने का प्रयास करते हैं और अन्त में पहुँच जाते हैं। इन सब प्रश्नों का केवल एक ही उत्तर है, उनका ‘मन’ अर्थात् “मानसिक बल” (Will power) । अग्रेजी की कहावत है —“If there a will there is a way” और हिन्दी की कहावत तो स्पष्ट है ही —“मन चंगा तो कठौती में गंगा।”
शक्ति को तीन भागों में विभाजित किया जाता है, शारीरिक शक्ति, मानसिक शक्ति और आत्मिक शक्ति । यहाँ हम केवल शारीरिक और मानसिक शक्ति पर ही विचार करेंगे। संसार के सभी देशों के मनुष्य प्रस्तावना । शारीरिक शक्ति में थोड़े बहुत अन्तर के साथ समान होते हैं। शरीर और शरीरिक बल की दृष्टि से प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह अमेरिका का निवासी हो, चाहे अफ्रीका का, चाहे भारत का निवासी हो, चाहे ईरान का, समान स्वस्थ होते हैं, परन्तु जहाँ प्रश्न आता है मनोबल या मानसिक शक्ति का वहाँ प्रत्येक व्यक्ति में अन्तर पाया जाता है। शरीर तो एक यन्त्र है, उसमें कोई न कोई खराबी होते रहना स्वाभाविक है, वह सूख सकता है, जल सकता है, उस पर भौतिक तत्व अपना प्रभाव डाल सकते हैं, परन्तु मन, तन को शक्ति प्रदान करता है । तन थक जाता है तो मन उसे शक्ति देकर पुनः खड़ा कर देता है। जब हम महापुरुषों के जीवन-चरित्र पढ़ते हैं, तब हमें आश्चर्य होता है कि इन व्यक्तियों में कौन-सी ऐसी असाधारण शक्ति थी, जिससे इन्होंने ऐसे कल्पनातीत कार्य कर दिखाये | विचार करने पर ज्ञात होता है कि इन लोगों में मनोबल था, इनकी मानसिक शक्ति प्रबल थी जो इन्हें असाधारण लोगों की पंक्ति में लाकर खड़ा कर देती है अन्यथा थोड़े से वीर मरहठों को लेकर शिवाजी और मुट्ठी भर हड्डियों को लेकर गाँधी जी, वह सब कुछ न कर पाते, जोकि उन्होंने कर दिखलाया। ।
विश्व का इतिहास इसका साक्षी है कि नैपोलियन ने कहा था कि आल्प्स नहीं है और आल्प्स नहीं रहा अर्थात् उसकी सेना ने आल्प्स को आनन-फानन में पार कर लिया। गुरु गोविन्दसिंह जी ने अपना यह कथन, “चिड़ियों से मैं बाज बनाऊँ तभी गोविन्दसिंह नाम कहाऊँ” सिद्ध करके दिखला दिया। नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने ‘आजाद हिन्द फौज’ बना डाली और हवलदार हमीद ने गत युद्ध में पाकिस्तानी टैंकों को अपनी जान पर खेल कर तोड़ डाला।
“मनुष्य जो कुछ उद्योग, आगे बढ़ने का प्रयास या सफलता प्राप्त करता है, वह सब मन के सहारे पर ही करता है। यदि मनुष्य का मन मर जाता है, तो उसके लिये संसार में कुछ रह नहीं जाता। उसे चारों ओर से निराशा घेर लेती है। जब तक उसकी हिम्मत बनी रहती है, वह बड़े से बड़े संघर्ष से भी नहीं घबराता। “मन के हारे हार है, मन के जीते जीत” इस उक्ति का भाव यह है कि जब तक मनुष्य में धैर्य और हिम्मत बनी रहती है, तब तक वह पराजय को भी एक पाठ समझता है और फिर आगे बढ़ने का प्रयास करता है, वह शान्त होकर नहीं बैठता। यदि मनुष्य का मन मर जाता है और हिम्मत टूट जाती है तो शरीर भी निष्क्रिय हो जाता है और जब तक मन नहीं हारता तब तक शरीर कितना ही अशक्त हो जाए, मनुष्य संघर्ष से मुँह नहीं मोड़ता। इसलिए कहा गया है कि—
“हारिये न हिम्मत बिसारिये न हरिनाम,
जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिये ।”
मनुष्य की मानसिक शक्ति उसकी इच्छाशक्ति पर निर्भर होती है। जिस मनुष्य की जितनी इच्छाशक्ति बलवती होगी उसका मन उतना ही दृढ़ और संकल्पवान होगा। इसी इच्छाशक्ति के द्वारा मनुष्य वह दैवी शक्ति प्राप्त कर लेता है, जिसके आगे करोड़ों व्यक्ति, स्वयं नतमस्तक होते हैं। प्रबल इच्छाशक्ति द्वारा मानव एक बार मृत्यु के क्षणों को टाल सकता है। भीष्म पितामह मृत्युशैय्या पर थे, परन्तु सूर्य दक्षिणायन थे, भीष्म ने कहा कि, “मैं अभी प्राणत्याग नहीं करूंगा। जब सूर्य उत्तरायण होंगे तभी प्राणों को विसर्जन करूँगा , ” हुआ भी ऐसा ही । यह सब कुछ इच्छाशक्ति की प्रबलता और मानसिक दृढ़ता का ही परिणाम है। गाँधी जी में भी हमें यही शक्ति दृष्टिगोचर होती है, जो वे चाहते थे वही होता था, शत्रु भी उनके आगे नतमस्तक देखे गये । बस यही विचित्रता गाँधी को साधारण मनुष्य से ऊँचा उठा देती है। विघ्न बाधायें मार्ग की रुकावटें सभी के मार्ग में व्यवधान बनकर आती हैं चाहे वह साधारण व्यक्ति हो या महान् । अन्तर केवल इतना है कि साधारण मनुष्य का मन विपत्तियों को देखकर जल्दी हार मान लेता है, जबकि महान् एवं प्रतिभाशाली व्यक्ति अपने मानसिक बल के आधार पर उन पर विजय प्राप्त करते हैं। विषम परिस्थितियाँ और उन पर दृढ़तापूर्वक विजय प्राप्ति ही मनुष्य को महान् बनाती हैं। भावी संतान के लिये उनके ये कार्य ही आदर्श बन जाते हैं, तथा उनका पथ-प्रदर्शन करते है, उन्हें प्रेरणा देते हैं ।
आशा ही मानव-जीवन का संचार सूत्र है। आशा के सहारे मनुष्य बड़े-बड़े वीरतापूर्ण और साहसपूर्ण कृत्य कर दिखाता है । यही आशा मानव को कर्म की प्रेरणा देती है । इसलिये आशा को “आशा बलवती राजन्” कहा गया है अर्थात् आशा बड़ी बलवान् वस्तु है । आशावादी व्यक्ति कभी अकर्मण्य नहीं हो सकता, वह सदैव कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी प्रयत्नशील रहता है। प्रतिक्षण परिवर्तित होने वाले संसार में कभी सुख है, कभी दुःख है, कभी लाभ हैं, कभी हानि है, कभी उत्कर्ष है, कभी अपकर्ष है। ये समस्त विरोधी प्रवृत्तियाँ क्रमशः आती रहती हैं। बुद्धिमान व्यक्ति इस परिवर्तन को ध्यान में रखकर कभी भी विपत्तियों से नहीं घबराते और न कभी अपने मन को ही हारने देते हैं। संस्कृत में कहा गया है।
“छिन्नोऽपि रोहति तरुः क्षीणोऽप्युपचीयते पुनश्चंद्र: ।
इति विमृशन्तः सन्तः सन्तप्यन्ते न ते विपदा ।”
अर्थात् वृक्ष कटने के बाद फिर बढ़ने लगता है, क्षीण हुआ चन्द्रमा भी फिर वृद्धि को प्राप्त हो जाता है इस प्रकार विचार करके बुद्धिमान व्यक्ति कभी विपत्तियों से दुखी नहीं होते। एक स्थान पर कहा गया है–
“चक्रवत् परिवर्तन्ते सुखानि दुःख च दुःखानि च ”
अर्थात् इस परिवर्तनशील संसार में सुख और दुःख चक्र के समान घूमते रहते हैं। अतः जब के बाद सुख आता ही है तो दुःख से भी नहीं घबराना चाहिये। बद्धिमान मनुष्य को जीवन के प्रति आशावान दृष्टिकोण अपनाना चाहिये, जिससे वह अपना और अपने राष्ट्र का कल्याण कर सके। हिम्मत हारने से कुछ बनता नहीं, बिगड़ता ही है। दूसरी बात यह है कि दुःख और सुख, सफलता और असफलता सब भगवान् की दी हुई वस्तुयें हैं, यदि उसके दिये हुए दुःख से आप घबरा जायेंगे तो वह आपको सुख नहीं देगा। बिहारी ने कहा है –
“दई दई क्यों करत है, दई दई सो निहोरि ।
जापेसुख चाहत लियौ, ताके दुखहिं न फेरि ॥”
भगवान् कृष्ण ने गीता में अर्जुन को उपदेश दिया कि “माम् अनुस्मर, युद्धय च” अर्थात्- “हे अर्जुन ! मेरा स्मरण करो और युद्ध करो ।” इसका तात्पर्य यह है कि मनुष्य को भगवान् का स्मरण करते हुए संघर्ष करना चाहिये । इसी को दूसरे शब्दों में कर्मयोग भी कहा जाता है। जो व्यक्ति हिम्मत खो बैठता है वह निरुद्योगी और अकर्मण्य हो जाता है। हमें विश्वास रखना चाहिये कि जो कुछ करता है भगवान् करता है, मैं जो कुछ करता हूँ उसी की प्रेरणा से करता हूँ। जब मनुष्य को ऐसा विश्वास हो जावेगा कि –
जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्तिः जानाम्यधर्म न च में निवृत्तिः
“त्वया हृषीकेश ! हृदिस्थितेन, यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि।”
अर्थात् मैं धर्म को जानता हूँ, परन्तु उधर मेरी प्रवृत्ति नहीं होती, मैं अधर्म को भी जानता हूँ पर उससे मेरी निवृत्ति नहीं होती। आप मेरे हृदय में स्थित हैं, आप जैसी आज्ञा देते हैं, वैसे ही मैं करता हूँ । इस प्रकार मनुष्य की हिम्मत भी नष्ट नहीं होगी और अकर्मण्य नहीं बनेगा तथा वह मंगलमय भविष्य के लिय आशावान और प्रयत्नशील रहेगा। कहने का तत्पर्य यह है कि यदि मनुष्य जीवन में सफलता प्राप्त करना चाहता है, तो उसे कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी अपनी हिम्मत और अपना हौंसला नहीं खोना चाहिये । मनुष्य को अपना मनोबल बनाये रखना चाहिये मनोबल ही समस्त सफलताओं की कुंजी है । जिस मनुष्य का मनोबल ही समाप्त हो गया वह जीवित रहते हुये भी मृत के समान है। मनोबल से मनुष्य लौकिक ही नहीं लोकोत्तर शक्तियाँ भी है प्राप्त कर सकता है ।
मानसिक शक्ति के सज्वय में ही सच्ची सफलता का अंकुर निहित है ।
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