भारत में सहकारिता आन्दोलन

भारत में सहकारिता आन्दोलन

“एकाकी बादल रो देते । एकाकी रवि जलते रहते।”
          एकाकी जीवन, हिमगिरि के उतंग शिखर पर साधना के लिए भले ही उपयुक्त हो, परन्तु संसार में एकाकी जीवन का कोई महत्व नहीं है । मानव को दूसरों का आश्रय लेना पड़ता है और दूसरों को आश्रय देना भी पड़ता है। परस्परावलम्बुन से ही सभी आगे बढ़ सकते हैं। एक तृण को वायु का साधारण-सा झोंका ही उड़ा ले जाता है, परन्तु उन्हीं बहुत से तृणों को मिलाकर यदि बाँध दिया जाये, तो उससे परम शक्तिशाली गणराज भी बंध जाते हैं। वास्तविक शक्ति संगठन में ही निहित है। सरकारी समितियाँ भी मनुष्यों के संगठन का महत्वपूर्ण स्वरूप हैं ।
          सहकारिता का अर्थ है, एक-दूसरे की सहायता करना, मिल-जुलकर काम करना । जिन लोगों के पास अच्छे साधन नहीं, वे कोई भी काम सुचारु रूप से नहीं कर सकते। पहले छोटे-छोटे किसान और गाँव के मजदूर, महाजनों से कर्ज लेकर दब जाते थे तथा उस कर्ज पर ब्याज बढ़ता जाता था । इस प्रकार वे घोर परिश्रम करने पर भी कर्ज से मुक्त नहीं हो पाते थे । यदि छोटे-छोटे किसान आपस में मिल जाते और अपने साधनों को एक जगह मिला लेते, तो वे बहुत अच्छा काम कर सकते थे। इस प्रकार पारस्परिक सहयोग द्वारा मनुष्य कठिन से कठिन कार्य को सरल, सुगम और सुसाध्य बना सकता है। आज की सहकारी समितियाँ अन्य साधनों वाले श्रमजीवियों के लिए वरदान सिद्ध हुई हैं । सहकारी समिति के सदस्यों को श्रम कम करना पड़ता है और लाभ अधिक प्राप्त होता है। मान लीजिये कि किसी गाँव में छोटे-छोटे किसानों के तीस घर हैं सभी के पास दस-दस बीघा भूमि है, तो एक किसान उस दस बीघा भूमि के लिए न ट्यूबवैल लगा सकता है, न ट्रैक्टर खरीद सकता है और न खेत की रक्षा के लिए नौकर ही रख सकता सहकारिता द्वारा विभिन्न समस्याओं का अन्त । भारत में सहकारी समितियों की कमी और उनके कारण । यदि वे तीस किसान आपस में मिल जाते हैं, तब तीन सौ बीघा भूमि के लिए ट्रैक्टर भी खरीद सकते हैं। इसी प्रकार यदि तीस किसान मिलकर अपनी एक सहकारी समिति बना लेते हैं तो उनकी साख भी अधिक हो जाती है, उत्तरदायित्व भी विभक्त हो जाता है तथा थोड़े परिश्रम से लाभ भी अधिक होता है और हानि हो जाने पर समिति के सभी सदस्यों पर समान उत्तरदायित्व होता है। ऐसा नहीं होता कि एक भरपेट खाना खा रहा है और दूसरा भूखा मर रहा है।
          सहकारी समितियाँ कई प्रकार की होती हैं लेकिन मुख्य रूप से दो प्रकार की समितियाँ होती हैं—पहली उत्पादकों की सहकारी समितियाँ और दूसरी उपभोक्ताओं की सहकारी समितियाँ। उत्पादकों की सहकारी समितियाँ वस्तुओं के उत्पादन में सहयोग प्रदान करती हैं, जैसे—कृषि सहकारी समिति आदि । उपभोक्ताओं की सहकारी समितियों में समिति के सदस्य काम में आने वाली वस्तुओं को मिलकर खरीद लेते हैं और अपने-अपने भाग के अनुसार परस्पर बाँट लेते हैं। मक़ान बनाने या ऋण लेने के लिये भी सहकारी समितियों की स्थापना की जाती है । इन समितियों से उनके सदस्यों को ब्याज पर ऋण मिल जाता है। कुछ बहु प्रयोजनी सहकारी समितियाँ भी होती हैं, जो एक साथ अनेक कार्य करती हैं।
          सहकारिता आन्दोलन का सूत्रपात सर्वप्रथम जर्मनी में हुआ था । सन् १९०० के लगभग भारत में भी सरकार ने इस आन्दोलन को प्रोत्साहन देना आरम्भ किया और सन् १९०४ में भारत सरकार ने प्रथम सहकारी समिति अधिनियम पास किया था । सन् १९०६ में भारतवर्ष में कुल ८३३ सहकारी समितियाँ थीं, जिनकी पूँजी २४ लाख रुपये थी । सन् १९११ में इनकी संख्या .१८७७ हो गई, जिनकी पूंजी २ करोड़ २६ लाख रुपये थी । सन् १९११ में एक अधिनियम बनाया गया, जिसके द्वारा सहकारिता आन्दोलन और भी सुदृढ़ एवं व्यवस्थित हो गया । प्रथम महायुद्ध के समय सहकारी आन्दोलन पर अच्छा प्रभाव पड़ा, परन्तु युद्ध के पश्चात् सन् १९२९ में घोर मन्दी आई जिससे सहकारी समितियों का काम लगभग समाप्त हो गया। किसानों को नुकसान हुआ और बहुत-सी समितियाँ बन्द हो गईं । सन् १९३९ में ११७०० सहकारी समितियाँ थीं । सन् १९४५ में इनकी संख्या १७११७० हो गई । देश के स्वतन्त्र हो जाने के पश्चात् सहकारी आन्दोलन और भी अधिक बढ़ा, क्योंकि भारत सरकार सहकारी समितियों को अधिक से अधिक सुविधा प्रदान कर रही है। नागपुर के सन् १९५९ के कांग्रेस अधिवेशन में यह प्रस्ताव सर्वसम्मति से पास किया गया था कि सहकारिता ही हमारा मुख्य लक्ष्य है।
          वर्तमान भारत सरकार ने सभी योजनाओं में ग्रामीण समाज के अपेक्षाकृत निर्धन वर्ग के आर्थिक विकास के लिए सहकारिता पर विशेष बल दिया है। परिणामस्वरूप सन् १९६१-६२ की अवधि में साख, ब्रिकी, प्रोसेसिंग, कृषिगत सप्लाई व उपभोक्ता व्यापार के क्षेत्र में सहकारिताओं के विकास के लिये काफी प्रयत्न किये गये हैं। सभी दिशाओं में प्रगति सराहनीय रही है और कुछ में तो अत्यधिक प्रगति हुई ।
          आज हमारे देश के समक्ष अनन्त समस्यायें हैं। यदि हम सहकारी समितियों का निर्माण कर लें, तो बहुत-सी समस्यायें तो स्वयं ही सुलझ जायेंगी। सबसे बड़ी समस्या भोजन, वस्त्र और गृह की है। यदि गाँव के किसान सहकारी समिति बनाकर अपनी भूमि मिलाकर एक कर लें और सहकारी ढंग पर कृषि करें तो भोजन की समस्या सरलता से हल हो सकती है। इसी प्रकार यदि जुलाहों की सहकारी समितियाँ स्थापित कर दी जायें, तो वस्त्र का उत्पादन बढ़ सकता है और छोटे-छोटे कुटीर उद्योग-धन्धे भी इस श्रेणी में रक्खे जा सकते हैं। इसी प्रकार थोड़ी आय वाले व्यक्ति के लिये मकान बनाना एक बड़ी कठिन समस्या होती है। यदि गृह निर्माण के लिये भी सहकारी समितियाँ बना ली जायें, तो वह गृह निर्माण के लिये कम ब्याज पर रुपया उधार दे सकती हैं । इन रुपयों को धीरे-धीरे किस्तों के रूप में चुकाया जा सकता है । सहकारी समितियों को सहकारी बैंकों से ऋण प्राप्त हो जाता है । ऋण की समस्या को भी महाजन की अपेक्षा सहकारी समितियाँ सरलता से हल कर सकती हैं। यदि वास्तविक रूप में देखा जाये, तो गाँव में बहुप्रयोजनी सहकारी समितियाँ होनी चाहिये, जो किसान की सभी आवश्यकताओं को पूरा कर सकें ।
          भारतवर्ष में गाँवों की संख्या छः लाख के लगभग है, जबकि सहकारी समितियाँ कुल सवा लाख ही हैं और जिनमें से अधिकांश शहरों में हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि अभी भारतवासियों की सहकारी समितियों के प्रति रुचि कम है। इसके कई कारण हैं। प्रमुख कारण यह है कि देश की अधिकांश जनता अशिक्षित है, वह सहकारी समितियों के लाभों से पूर्णतया परिचित नहीं है, और न उसे समझाने का ही प्रयत्न किया गया है । ये समितियाँ सरकारी अफसरों द्वारा ग्रामीणों पर जबरदस्ती थोप दी जाती हैं। दूसरा कारण यह है कि जनता ने सहकारी समितियों के साथ पूर्ण है सहयोग नहीं किया। समितियों के कारण जिनके व्यापार और आमदनी में बाधा पड़ती थी, उन महाजनों ने उन्हें समाप्त करने का पूर्ण प्रयत्न किया । तीसरा कारण यह है कि सहकारी समितियाँ भी ऋण पर लगभग उतना ही ब्याज लेने लगीं, जितना कि महाजन लेते थे। चौथा कारण यह है कि सहकारी समितियों से जिन्होंने ऋण लिया उन्होंने फिर कभी लौटाने का नाम भी नहीं लिया । ऋण भी प्रायः उन्हीं को मिलता था, जो सहकारी समितियों के संचालकों के रिश्तेदार या निकटतम व्यक्ति होते थे । अतः उनके विरुद्ध कानूनी कार्यवाही भी नहीं की जा सकती थी, इस प्रकार समितियाँ समाप्त हो जाती थीं । पाँचवाँ कारण यह है कि सहकारी समितियों के संचालक सरकारी अफसरों को प्रसन्न करने का ध्यान अधिक रखते थे। इन्हीं सब विघ्न बाधाओं के कारण भारत में सहकारी आन्दोलन को आशातीत सफलता प्राप्त न हो सकी, परन्तु जितनी भी सफलता मिली है, वही बहुत है।
          सहकारिता आन्दोलन भारत जैसे निर्धन देश के लिए परम आवश्यक है। भारत सरकार समस्त देश में सहकारी समितियाँ स्थापित करने के पक्ष में हैं, क्योंकि इन्हीं के द्वारा समाजवादी समाज की स्थापना सम्भव है और देश का कल्याण हो सकता है। आशा है कि भविष्य में भारतवर्ष में सहकारिता आन्दोलन और भी अधिक तीव्रगति से आगे बढ़ेगा, तभी देश समृद्धिशाली और स्वावलम्बी हो सकेगा।
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