भारत में खाद्य सुरक्षा Food Security in India

भारत में खाद्य सुरक्षा    Food Security in India

 

खाद्य सुरक्षा
♦ खाद्य सुरक्षा का अर्थ है, सभी लोगों के लिए सदैव भोजन की उपलब्धता, पहुँच और उसे प्राप्त करने का सामर्थ्य जब भी अनाज के उत्पादन या उसके वितरण की समस्या आती है, तो सहज ही निर्धन परिवार इससे अधिक प्रभावित होते हैं।
♦ खाद्य सुरक्षा सार्वजनिक वितरण प्रणाली, शासकीय सतर्कता और खाद्य सुरक्षा के खतरे की स्थिति में सरकार द्वारा की गई कार्यवाही पर निर्भर करती है।
खाद्य सुरक्षा क्या है?
खाद्य सुरक्षा के निम्नलिखित आयाम हैं
♦ खाद्य उपलब्धता का तात्पर्य देश में खाद्य उत्पादन, खाद्य आयात और सरकारी अनाज भण्डारों में संचित पिछले वर्षों के स्टॉक से है।
♦ पहुँच का अर्थ है कि खाद्य प्रत्येक व्यक्ति को मिलता रहे।
♦ सामर्थ्य का अर्थ है कि लोगों के पास अपनी भोजन आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पर्याप्त और पौष्टिक भोजन खरीदने के लिए धन उपलब्ध हो।
♦ किसी देश में खाद्य सुरक्षा केवल तभी सुनिश्चित होती है जब
♦ सभी लोगों के लिए पर्याप्त खाद्य उपलब्ध हो,
♦ सभी लोगों के पास स्वीकार्य गुणवत्ता के खाद्य पदार्थ खरीदने की क्षमता हो और
♦ खाद्य की उपलब्धता में कोई बाधा नहीं हो।
खाद्य सुरक्षा क्यों?
♦ समाज का अधिक गरीब वर्ग तो हर समय खाद्य असुरक्षा से ग्रस्त हो सकता है परन्तु जब देश भूकम्प, सूखा, बाढ़, सुनामी, फसलों के खराब होने से पैदा हुए अकाल आदि राष्ट्रीय आपदाओं से गुजर रहा हो, तो निर्धनता रेखा से ऊपर के लोग भी खाद्य असुरक्षा से ग्रस्त हो सकते हैं।
♦ किसी प्राकृतिक आपदा जैसे, सूखे के कारण खाद्यान्न की कुल उपज में गिरावट आती है। इससे प्रभावित क्षेत्र में खाद्य की कमी हो जाती है। खाद्य की कमी के कारण कीमतें बढ़ जाती हैं। कुछ लोग ऊँची कीमतों पर खाद्य पदार्थ नहीं खरीद सकते। अगर यह आपदा अधिक विस्तृत क्षेत्र में आती है या अधिक लम्बे समय तक बनी रहती है, तो भुखमरी की स्थिति पैदा हो सकती है। व्यापक भुखमरी से अकाल की स्थिति बन सकती है।
♦ सन् 1970 के दशक में खाद्य सुरक्षा का अर्थ था – ‘आधारिक खाद्य पदार्थों की सदैव पर्याप्त उपलब्धता’ (संयुक्त राष्ट्र 1975)।
♦ अमर्त्य सेन ने खाद्य सुरक्षा में एक नया आयाम जोड़ा और हकदारियों के आधार पर खाद्य की पहुँच पर जोर दिया।
♦ हकदारियों का अभिप्राय राज्य या सामाजिक रूप से उपलब्ध कराई गई अन्य पूर्तियों के साथ-साथ उन वस्तुओं से है, जिनका उत्पादन और विनिमय बाजार में किसी व्यक्ति द्वारा किया जा सकता है। तद्नुसार, खाद्य सुरक्षा के अर्थ में काफी परिवर्तन हुआ है।
♦ विश्व खाद्य शिखर सम्मेलन, 1995 में यह घोषणा की गई कि “वैयक्तिक, पारिवारिक, क्षेत्रीय, राष्ट्रीय तथा वैश्विक स्तर पर खाद्य सुरक्षा का अस्तित्व तभी है, जब सक्रिय और स्वस्थ जीवन व्यतीत करने के लिए आहार सम्बन्धी जरूरतों और खाद्य पदार्थों को पूरा करने के लिए पर्याप्त, सुरक्षा एवं पौष्टिक खाद्य तक सभी लोगों की भौतिक एवं आर्थिक पहुँच सदैव हो ।” (खाद्य एवं कृषि संगठन सन् 1996, पृष्ठ 3 ) । इसके अतिरिक्त घोषणा में यह भी स्वीकार किया गया कि “खाद्य तक पहुँच बढ़ाने में निर्धनता का उन्मूलन किया जाना परमावश्यक है।”
खाद्य असुरक्षित कौन हैं?
♦ यद्यपि भारत में लोगों का एक बड़ा वर्ग खाद्य एवं पोषण की दृष्टि से असुरक्षित है, परन्तु इससे सर्वाधिक प्रभावित वर्गों में निम्नलिखित शामिल हैं— भूमिहीन जो थोड़ी बहुत अथवा नगण्य भूमि पर निर्भर हैं, पारम्परिक दस्तकार, पारम्परिक सेवाएँ प्रदान करने वाले लोग अपना छोटा-मोटा काम करने वाले कामगार और निराश्रित तथा भिखारी।
♦ शहरी क्षेत्रों में खाद्य की दृष्टि से असुरक्षित वे परिवार हैं जिनके कामकाजी सदस्य प्रायः कम वेतन वाले व्यवसायों और अनियत श्रम बाजार में काम करते हैं। ये कामगार अधिकतर मौसमी कार्यों में लगे हैं और उनको इतनी कम मजदूरी दी जाती है कि वे मात्र जीवित रह सकते हैं।
♦ खाद्य पदार्थ खरीदने में असर्मथता के साथ सामाजिक संरचना भी खाद्य की दृष्टि से असुरक्षा में भूमिका निभाती है।
♦ अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ी जातियों के कुछ वर्गों (इनमें से निचली जातियाँ) का या तो भूमि का आधार कमजोर होता है या फिर उनकी भूमि की उत्पादकता बहुत कम होती है, वे खाद्य की दृष्टि से शीघ्र असुरक्षित हो जाते हैं।
♦ वे लोग भी खाद्य की दृष्टि से सर्वाधिक असुरक्षित होते हैं, जो प्राकृतिक आपदाओं से प्रभावित हैं और जिन्हें काम की तलाश में दूसरी जगह जाना पड़ता है।
♦ कुपोषण से सबसे अधिक महिलाएँ प्रभावित होती है। यह गम्भीर चिन्ता का विषय है क्योंकि इससे अजन्मे बच्चों को भी कुपोषण का खतरा रहता है।
♦ खाद्य असुरक्षा से ग्रस्त आबादी का बड़ा भाग गर्भवती तथा दूध पिला रही महिलाओं तथा पाँच वर्ष से कम उम्र के बच्चों का है।
♦ देश के कुछ क्षेत्रों जैसे आर्थिक रूप से पिछड़े राज्य जिनमें गरीबी अधिक है, वहाँ आदिवासी और सुदूर क्षेत्र, प्राकृतिक आपदाओं से बार-बार प्रभावित होने वाले क्षेत्र आदि में खाद्य की दृष्टि से असुरक्षित लोगों की संख्या अनुपातिक रूप से बहुत अधिक है।
♦ उत्तर प्रदेश (पूर्वी और दक्षिण-पूर्वी हिस्से), बिहार, झारखण्ड, ओडिशा, पश्चिम बंग, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के कुछ भागों में खाद्य की दृष्टि से असुरक्षित लोगों की सर्वाधिक संख्या है।
♦ भुखमरी खाद्य की दृष्टि से असुरक्षा को इंगित करने वाला एक से दूसरा पहलू है। भुखमरी गरीबी की एक अभिव्यक्ति मात्र नहीं है, यह गरीबी लाती है। इस तरह खाद्य की दृष्टि से सुरक्षित होने से वर्तमान में भुखमरी समाप्त हो जाती है और भविष्य में भुखमरी का खतरा कम हो जाता है। भुखमरी के दीर्घकालिक ओर मौसमी आयाम होते हैं। दीर्घकालिक भुखमरी मात्रा या गुणवत्ता के आधार पर अपर्याप्त आहार ग्रहण करने के कारण होती है।
♦ गरीब लोग अपनी अत्यन्त निम्न आय और जीवित रहने के लिए खाद्य पदार्थ खरीदने में अक्षमता के कारण दीर्घकालिक भुखमरी से ग्रस्त होते हैं। मौसमी भुखमरी फसल उपजाने और काटने के चक्र से सम्बद्ध है। यह ग्रामीण क्षेत्रों की कृषि क्रियाओं की मौसमी प्रकृति के कारण तथा नगरीय क्षेत्रों में अनियमित श्रम के कारण होती है।
खाद्यान्नों में आत्मनिर्भर होना भारत का लक्ष्य
♦ स्वतन्त्रता के पश्चात् भारतीय नीति-निर्माताओं ने खाद्यान्नों में आत्मनिर्भरता प्राप्त करने के सभी उपाय किए।
♦ भारत ने कृषि में एक नई रणनीति अपनाई, जिसकी परिणति हरित क्रान्ति में हुई, विशेषकर गेहूँ और चावल के उत्पादन में। तत्कालीन प्रधानमन्त्री इन्दिरा गाँधी ने जुलाई, 1968 में ‘गेहूँ क्रान्ति’ शीर्षक से एक विशेष डाक टिकट जारी कर कृषि के क्षेत्र में हरित क्रान्ति की प्रभावशाली प्रगति को आधिकारिक रूप से दर्ज किया।
♦ गेहूँ की सफलता के बाद चावल के क्षेत्र में इस सफलता की पुनरावृत्ति हुई।
भारत में खाद्य सुरक्षा
♦ 70 के दशक के प्रारम्भ में हरित क्रान्ति के आने के बाद से मौसम की विपरीत दशाओं के दौरान भी देश में अकाल नहीं पड़ा है।
♦ देश भर में उपजाई जाने वाली विविध फसलों के कारण भारत पिछले तीस वर्षों के दौरान खाद्यान्नों के मामले में आत्मनिर्भर बन गया है।
♦ सरकार द्वारा सावधानीपूर्वक तैयार की गई खाद्य सुरक्षा व्यवस्था के कारण देश में (खराब मौसम स्थितियों के बावजूद अथवा किसी अन्य कारण से) अनाज की उपलब्धता और भी सुनिश्चित हो गई। इस व्यवस्था के दो घटक हैं- 1. बफर स्टॉक और 2. सार्वजनिक वितरण प्रणाली ।
बफर स्टॉक क्यों बनाया जाता है?
♦ ऐसे कमी वाले क्षेत्रों में और समाज के गरीब वर्गों में बाजार कीमत से कम कीमत पर अनाज के वितरण के लिए किया जाता है। इस कीमत को निर्गम कीमत भी कहते हैं। यह खराब मौसम में या फिर आपदा काल में अनाज की कमी की समस्या हल करने में भी मदद करता है।
सार्वजनिक वितरण प्रणाली क्या है?
♦ भारतीय खाद्य निगम द्वारा अधिप्राप्त अनाज को सरकार विनियमित राशन दुकानों के माध्यम से समाज के गरीब वर्गों में वितरित करती है। इसे सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) कहते हैं। अब अधिकांश क्षेत्रों, गाँवों, कस्बों और शहरों में राशन की दुकानें हैं। देश भर में लगभग 4.6 लाख राशन की दुकानों हैं। राशन की दुकानों में जिन्हें, उचित दर वाली दुकानें कहा जाता है, चीनी खाद्यान्न और खाना पकाने के लिए मिट्टी के तेल का भण्डार होता है। ये सब बाजार कीमत से कम कीमत पर लोगों को बेचा जाता है। राशन कार्ड रखने वाला कोई भी परिवार प्रतिमाह इनकी एक अनुबन्धित मात्रा (जैसे 35 किग्रा अनाज, 5 लीटर मिट्टी का तेल, 5 किग्रा चीनी आदि) निकटवर्ती राशन की दुकान से खरीद सकता है।
बफर स्टॉक क्या है?
बफर स्टॉक भारतीय खाद्य निगम (एफ. सी. आई) के माध्यम से सरकार द्वारा अधिप्राप्त अनाज, गेहूँ और चावल का भण्डार है। भारतीय खाद्य निगम अधिशेष उत्पादन वाले राज्यों में किसानों से गेहूँ और चावल खरीदता है। किसानों को उनकी फसल के लिए पहले से घोषित कीमतें दी जाती हैं। इस मूल्य को न्यूनतम समर्थित कीमत कहा जाता है। इन फसलों के उत्पादन को प्रोत्साहन देने के उद्देश्य से बुआई के मौसम से पहले सरकार न्यूनतम समर्थित कीमत की घोषणा करती है। खरीदे हुए अनाज खाद्य भण्डारों में रखे जाते हैं।
♦ राशन कार्ड तीन प्रकार के होते हैं 1 निर्धनों में भी निर्धन लोगों के लिए अन्त्योदय कार्ड, 2. निर्धनता रेखा से नीचे के लोगों के लिए बी.पी.एल. कार्ड और 3. अन्य लोगों के लिए ए. पी. एल. कार्ड।
♦ भारत में राशन व्यवस्था की शुरुआत बंगाल के अकाल की पृष्ठभूमि में सन् 1940 के दशक में हुई।
♦ हरित क्रान्ति से पूर्वभारी खाद्य संकट के कारण सन् 1960 के दशक के दौरान राशन प्रणाली पुनर्जीवित की गई।
♦ गरीबी के उच्च स्तरों को ध्यान में रखते हुए सन् 1970 के दशक के मध्य एन. एस. एस ओ की रिपोर्ट के अनुसार खाद्य सम्बन्धी तीन महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम प्रारम्भ किए गए सार्वजनिक वितरण प्रणाली (जो पहले से ही थी, लेकिन उसे और मजबूत किया गया), एकीकृत बाल विकास सेवाएँ (आई.सी.डी.एस, जो प्रायोगिक आधार पर सन् 1975 में शरू की गई ) और काम के बदले अनाज (एफ.एफ. डब्ल्यू, सन् 1977-78 में प्रारम्भ ) ।
♦ वर्तमान में अनेक गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम (पी.ए.पी) चल रहे हैं जो अधिकतर ग्रामीण क्षेत्रों में हैं। इनमें स्पष्ट रूप से घटक खाद्य भी है, जहाँ सार्वजनिक वितरण प्रणाली, दोपहर का भोजन आदि विशेष रूप से खाद्य की दृष्टि से सुरक्षा के कार्यक्रम हैं। अधिकतर पी. ए. पी भी खाद्य सुरक्षा बढ़ाते हैं, रोजगार कार्यक्रम गरीबों की आय में बढ़ोत्तरी कर खाद्य सुरक्षा में बड़ा योगदान करते हैं।
सार्वजनिक वितरण प्रणाली की वर्तमान स्थिति
♦ सार्वजनिक वितरण प्रणाली खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने की दिशा में भारत सरकार का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कदम है। प्रारम्भ में यह प्रणाली सब के लिए थी और निर्धन और गैर-निर्धनों के बीच कोई भेद नहीं किया जाता था। बाद के वर्षों में सार्वजनिक राष्ट्रीय उत्पादन एवं वितरण प्रणाली को अधिक दक्ष और अधिक लक्षित बनाने के लिए संशोधित किया गया।
♦ सन् 1992 में देश के 1700 ब्लॉकों में संशोधित सार्वजनिक वितरण प्रणाली (आर. पी. डी. एस) शुरू की गई। इसका लक्ष्य दूर-दराज और पिछड़े क्षेत्रों में सार्वजनिक वितरण प्रणाली से लाभ पहुँचाना था। जून, 1997 से ‘सभी क्षेत्रों में गरीबों को लक्षित करने के सिद्धान्त को अपनाने के लिए लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली (टी.पी.डी.एस) प्रारम्भ की गई। यह पहला मौका था जब निर्धनों और गैर-निर्धनों के लिए विभेदक कीमत नीति अपनाई गई। इसके अलावा, सन् 2000 में दो विशेष योजनाएँ अन्त्योदय अन्न योजना और अन्नपूर्णा योजना प्रारम्भ की गई। ये योजनाएँ क्रमशः ‘गरीबों में भी सर्वाधिक गरीब’ और ‘दीन वरिष्ठ नागरिक’ समूहों पर लक्षित हैं। इन दोनों योजनाओं का संचालन सार्वजनिक वितरण प्रणाली के वर्तमान नेटवर्क से जोड़ दिया गया है।
♦ इन वर्षों के दौरान सार्वजनिक वितरण प्रणाली मूल्यों को स्थिर बनाने और सामर्थ्य अनुसार कीमतों पर उपभोक्ताओं को खाद्यान्न उपलब्ध कराने की सरकार की नीति में सर्वाधिक प्रभावी सामान सिद्ध हुई है। इसने देश के अनाज की अधिशेष क्षेत्रों में कमी वाले क्षेत्रों में खाद्य पूर्ति के माध्यम से अकाल और भुखमरी की व्यापकता को रोकने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसके अतिरिक्त, आमतौर पर निर्धन परिवारों के पक्ष में कीमतों का संशोधन होता रहा है।
♦ न्यूनतम समर्थित कीमत और अधिप्राप्ति ने खाद्यान्नों के उत्पादन की वृद्धि में योगदान दिया है तथा कुछ क्षेत्रों में किसानों को आय सुरक्षा प्रदान की है।
राष्ट्रीय काम के बदले अनाज कार्यक्रम
♦ राष्ट्रीय काम के बदले अनाज कार्यक्रम 14, नवम्बर, 2004 को पूरक श्रम रोजगार के सृजन को तीव्र करने के उद्देश्य से देश के 150 सर्वाधिक पिछड़े जिलों में प्रारम्भ किया गया था। यह कार्यक्रम उन समस्त ग्रामीण गरीबों के लिए है, जिन्हें वेतन रोजगार की आवश्यकता है और जो अकुशल शारीरिक श्रम करने के इच्छुक हैं। इसे शत-प्रतिशत केन्द्र द्वारा प्रायोजित कार्यक्रम के रूप में लागू किया गया और राज्यों को निःशुल्क अनाज मुहैया कराया जाता रहा है।
♦ जिला स्तर पर कलैक्टर शीर्ष अधिकारी है और उन पर इस कार्यक्रम की योजना बनाने, कार्यान्वयन, समन्वयन और पयर्वक्षेण की जिम्मेदारी है।
अन्त्योदय अन्न योजना
♦ अन्त्योदय अन्न योजना दिसम्बर, 2000 में शुरू की गई थी। इस योजना के अन्तर्गत लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली में आने वाले निर्धनता रेखा से नीचे के परिवारों में से एक करोड़ लोगों की पहचान की गई।
♦ सम्बन्धित राज्य के ग्रामीण विकास विभागों ने गरीबी रेखा से नीचे के गरीब परिवारों को सर्वेक्षण के द्वारा चुना।
♦ ₹2 प्रति किग्रा गेहूँ और ₹ 3 प्रति किग्रा चावल की अत्यधिक आर्थिक सहायता प्राप्त दर पर प्रत्येक पात्र परिवार को 25 किग्रा अनाज उपलब्ध कराया गया।
सहकारी समितियों की खाद्य सुरक्षा में भूमिका में
♦ भारत में विशेषकर देश के दक्षिणी और पश्चिमी भागों में सहकारी समितियाँ भी खाद्य सुरक्षा में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं।
♦ सहकारी समितियाँ निर्धन लोगों को खाद्यान्न की बिक्री के लिए कम कीमत वाली दुकानें खोलती हैं। उदाहरणार्थ तमिलनाडु में जितनी राशन की दुकानें हैं, उनमें से करीब 94% सहकारी समितियों के माध्यम से चलाई जा रही हैं।
♦ दिल्ली में मदर डेयरी उपभोक्ताओं को दिल्ली सरकार द्वारा निर्धारित नियन्त्रित दरों पर दूध और सब्जियाँ उपलब्ध कराने में तेजी से प्रगति कर रही है।
♦ गुजरात में दूध तथा दुग्ध उत्पादों में अमूल एक और सफल सहकारी समिति का उदाहरण है। इसने देश में श्वेत क्रान्ति ला दी है।
♦ देश के विभिन्न भागों में कार्यरत सहकारी समितियों के और अनेक उदाहरण हैं, जिन्होंने समाज के विभिन्न वर्गों के लिए खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित कराई है।
♦ महाराष्ट्र में एकेडमी ऑफ डेवलमपमेन्ट साइंस (ए.डी.एस) ने विभिन्न क्षेत्रों में अनाज बैंकों की स्थापना के लिए गैर-सरकारी संगठनों के नेटवर्क में सहायता की है। ए.डी.एस गैर-सरकारी संगठनों के लिए खाद्य सुरक्षा के विषय में प्रशिक्षण और क्षमता के निर्माण कार्यक्रम संचालित करती है। अनाज बैंक अब धीरे-धीरे महाराष्ट्र के विभिन्न भागों में खुलते जा रहे हैं।
♦ अनाज बैंकों की स्थापना, गैर-सरकारी संगठनों के माध्यम से उन्हें फैलाने और खाद्य सुरक्षा पर सरकार की नीति को प्रभावित करने में ए. डी. एस की कोशिश रंग ला रही है।
♦ ए.डी. एस अनाज बैंक कार्यक्रम को एक सफल और एक नये प्रकार के खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम के रूप में स्वीकृति मिली है।
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