भारतीय शौर्य पर्व – विजयदशमी

भारतीय शौर्य पर्व – विजयदशमी

          भारतवर्ष की संस्कृति में त्यौहार माला में मोतियों की भाँति पिरोए हुए हैं। उन्हें उससे पृथक् नहीं किया जा सकता । प्रत्येक उत्सव अपना-अपना धार्मिक, सामाजिक एवं ऐतिहासिक महत्त्व रखता है। आश्चर्य की बात है कि त्यौहार भी जाति के आधार पर बट गये हैं और विजयदशमी क्षत्रियों के हिस्से में आई, परन्तु हिन्दू संस्कृति में ऐसा कोई उत्सव नहीं जिसे समस्त जातियाँ समान रूप मनाती हों । अन्य त्यौहारों की भाँति विजयदशमी हिन्दुओं का परम् पवित्र पर्व है । देवासुर संग्राम में देवताओं की विजय का शंखनाद करती हुई, विजयदशमी वर्षा ऋतु के अन्त में प्रतिवर्ष हमारे यहाँ आती है। भारतीय जनता अनुराग और उल्लास भरे हृदय से इसका स्वागत करती है । युग-युग से यह त्यौहार हिन्दू जनता में नवीन आशा, नया उत्साह और नव जागृति का संचार करता हुआ पुण्य एवं धर्म की विजय उद्घोषणा करता है। विजयदशमी राम के अलौकिक पुरुषार्थ की स्मृति के रूप में आती है।
          यह त्यौहार आश्विन मास के शुक्ल पक्ष में दशमी तिथि के दिन भारतवर्ष के समस्त अंचलों में समान रूप से मनाया जाता है। कहीं दुर्गा जी की पूजा होती है, तो कहीं राम की । वर्षा ऋतु के अन्त में और शरद् के आरम्भ में यह उत्सव अपना विशेष आकर्षण रखता है। क्षत्रिय इस पर्व पर शस्त्रों की पूजा करते हैं। कहीं-कहीं घोड़ों की भी पूजा होती है। प्राचीन काल में राजपूत इसी शुभ अवसर पर अपने शत्रुओं पर आक्रमण करने का निश्चय करते थे। आज भी, सभी वर्गों के लोग इस राष्ट्रीय पर्व को बड़ी रुचि से मनाते हैं। आज भी, गाँवों में इसी दिन बड़े-बड़े दंगल होते हैं, जिनमें मल्लविद्या एवं शस्त्रों का प्रदर्शन होता है।
          शरद् ऋतु में जब यह उत्सव मनाया जाता है, प्रकृति की शोभा अनुपम होती है। निरभ्र आकाश अत्यन्त स्वच्छ एवं निर्मल होता है। पृथ्वी पर हरी – हरी घास मखमल के समान बिछी रहती है। वर्षा ऋतु में उन्मत्त वेग से उफनकर चलती हुई सरिता अब धीर-मन्थर गति से कलकल करती हुई बहने लगती है। नदियों का नीर निर्मल हो जाता है। गोस्वामी जी के शब्दों में –
‘सरिता सरे निर्मल जल सोहा ।
सन्त हृदय जस गत मद-मोहा ।’
          सरोवर सुन्दर सरोजों से अपने हृदय को भर लेते हैं और उन पर भ्रमरों का मधुर गुञ्जन हठात अपनी ओर दृष्टि आकर्षित कर लेता है। प्रकृति के इसी हास-विलास के बीच विजयदशमी का पदार्पण होता है और हम प्रसन्नता से फूले नहीं समाते । हमारे स्कूल और कॉलेज बन्द हो जाते हैं। नगरों और गाँवों में रामलीला होने लगती है, जनता उसका आनन्द लेती है।
          विजयदशमी के साथ अनेक धार्मिक कथायें सम्बन्धित हैं। रामानुज सम्प्रदाय के अनुसार, इस पवित्र तिथि को राम ने रावण का संहार किया था। इसी लक्ष्य से भारतवर्ष में नगर-नगर तथा गाँव-गाँव में दशहरे के एक सप्ताह पूर्व से रामलीला का आयोजन किया जाता है। तुलसीकृत रामायण के आधार पर इन लीलाओं में रामचन्द्र जी के जीवन से सम्बन्धित समस्त घटनायें दिखाई जाती हैं। विजयदशमी के दिन रावण और कुम्भकर्ण के शरीर का पुतला बनाकर जलाया जाता है। इस प्रकार, हम लोग विजयदशमी के पुण्य पर्व को रामचन्द्र जी की स्मृति के रूप में तथा दानवी शक्ति की पराजय के रूप में मनाते हैं।
          शक्तो (शक्ति की पूजा करने वालों) के अनुसार इस उत्सव से एक और पौराणिक कथा सम्बन्धित है। जब महिषासुर नामक राक्षस के अत्याचारों से जनता में कोहराम मच गया, देवता भी कम्पित हो उठे, तो उन्होंने मिलकर महाशक्ति की उपासना की । भक्तों की प्रार्थना से प्रसन्न होकर महाशक्ति श्री दुर्गा जी प्रकट हुईं। उन्होंने अपने अनन्त पराक्रम से महिषासुर तथा शुम्भ और निशुम्भ, आदि भयंकर राक्षसों का वध करके भयग्रस्त जनता की रक्षा की। उसी दैवी शक्ति की विजय स्मृति के रूप में हम इस त्योहार को मनाते हैं। आश्विन शुक्ल पक्ष प्रतिपदा तिथि में दशहरा प्रारम्भ होता है। उसी दिन से दुर्गा पाठ होने लगते हैं। दुर्गा जी के भक्त इस उत्सव को नवरात्र भी कहते हैं। नवरात्र में प्रतिपदा से लेकर नवमी तक दुर्गा जी की पूजा होती है और दुर्गा सप्तशती का पाठ होता है। बहुत से भक्त नौ दिन तक व्रत रखते हैं। केवल १ लौंग का जोड़ा खाकर ही अपना फलाहार करते हैं। नवें दिन यज्ञ होता है। रात्रि में जागरण होता है और घर-घर में देवी जी के गीत गाये जाते हैं ।
          इस उत्सव पर किन्हीं-किन्हीं स्थानों में शमी वृक्ष की पूजा भी होती हैं। इस पूजा से सम्बन्धित एक पौराणिक कथा है। महाराजा दिलीप के पुत्र रघु ने एक बार विश्वजीत यज्ञ किया । उस यज्ञ में उन्होंने समस्त धन विद्वानों, ब्राह्मणों, आचार्यों तथा अतिथियों को दान में दे दिया। तभी महर्षि वरतन्तु के आश्रम में विद्याध्ययन समाप्त करके उनका कौत्स नाम का शिष्य रघु के पास आया और गुरुदक्षिणा में देने के लिए चौदह करोड़ स्वर्ण मुद्रायें माँगीं। रघु के पास उस समय कुछ नहीं था, बड़ी चिन्ता में पड़ गये। फिर विचार किया कि धनाधिपति कुबेर पर आक्रमण करना चाहिये, वहीं से इतना द्रव्य प्राप्त हो सकता है। आक्रमण के भय से भयभीत कुबेर ने रात्रि में ही आकाश से एक शमी वृक्ष के ऊपर असंख्य स्वर्ण मुद्राओं की वर्षा की, रघु ने भी प्रसन्न होकर समस्त स्वर्ण मुद्रायें गुरुदक्षिणा के लिये कौत्स को दे दीं । इसी घटना की स्मृति में विजयदशमी के दिन शमी वृक्ष की विधिवत् पूजा होती है।
          उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यभारत, राजस्थान आदि प्रदेशों की तरह बंगाल में भी विजयदशमी का विशेष महत्त्व है । वे इसे दुर्गापूजा के नाम से सम्बोधित करते हैं। उनका विश्वास है कि राम • जब युद्ध में रावण को परास्त करने में अपनी असमर्थता का अनुभव करने लगे तब उन्होंने महामाया दुर्गा जी की पूजा की। महामाया के चरणों में चढ़ाने के लिये हनुमान को एक सौ. एक नीलकमल लेने के लिये भेजा। उन्हें सौ कमल तो मिल गये, परन्तु एक नहीं मिल पाया। हनुमान थंक कर लौट आये और अपना वृत्तान्त राम को सुनाया। उन्होंने कहा, “यदि एक नीलकमल न मिला तो क्या चिन्ता, मुझे भी तो सारा संसार नीलकमल के समान नेत्रों वाला कहता है, मैं ही उन सौ कमलों में अपना एक नेत्र मिलाकर एक सौ एक करके भगवती महामाया के चरणों में चढ़ा दूँगा।” इतना कहकर नेत्र निकालने ही वाले थे कि महामाया ने राम को साक्षात् दर्शन दिये और कहा, “पुत्र मैं तेरी भक्ति से प्रसन्न हूँ और मैं तुझे वरदान देती हूँ कि रावण के साथ युद्ध में तेरी विजय होगी और आज ही होगी।” फल यह हुआ कि राम की विजय हुई। इसी की स्मृति में आज भी वहाँ दुर्गा जी की पूजा होती है।
          यह त्यौहार हमारी और हमारे देश की सांस्कृतिक एकता का आधार है और अनेकता में एकता, विषमता में समता तथा पाप पर पुण्य की विजय का सन्देश देता हुआ प्राणी-प्राणी में नवचेतना जाग्रत करता है। यह उत्सव हमें शिक्षा देता है कि अन्याय, अत्याचार और दुराचार को सहन करना भी एक महान् पाप है, उनके अमूलोच्छेदन के लिये समाज में संगठन और एकता आवश्यक है, जिसके उदाहरण श्री राम हैं। पाप के विनाश के लिये कटिबद्ध रहना चाहिये । वीर भावनाओं से ओत-प्रोत विजयदशमी हमें राष्ट्रीय एकता और दृढ़ता की प्रेरणा देती है, आततायियों को समाप्त करने का संकेत करती है, हमारे हृदय की वीर भावनाएँ आज के दिन पुनः अनुप्राणित हो उठती हैं ।
          अब हम स्वतन्त्र राष्ट्र के नागरिक हैं। हमें अपनी पुरातन दूषित परम्परायें समाप्त कर देनी चाहियें । देवी माँ तो श्रद्धा और अनन्य भक्ति से प्रसन्न होती है, विजयदशमी हमें पवित्र सन्देश देती है कि जीवन में राम के चरित्रों और आदर्शों का अनुकरण करो न कि रावण का, तभी जीवन सुखी और शान्त रह सकता है। हमें इन राष्ट्रीय चेतना के प्रतीक महान् पर्वों को अधिकाधिक प्रसन्नता और उल्लास से मनाना चाहिये । पारस्परिक ईर्ष्या को भूलकर एक-दूसरे को गले से लगाना चाहिये, समाज में सहानुभूति और संवेदना का प्रचार करना चाहिये । हमारा कर्त्तव्य है कि अपने इन शुभ पर्वों से शिक्षा ग्रहण करें और उत्सवों का आयोजन करके गौरव की वृद्धि करें।
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