भारतीय जनता के प्रतीक श्री लालबहादुर शास्त्री

भारतीय जनता के प्रतीक श्री लालबहादुर शास्त्री

‘लाल’ बहुत हैं, किन्तु एक है ‘लाल बहादुर’ 
          २७ मई, १९६४ को एक युग समाप्त हुआ, जिसे भारतवर्ष के इतिहास में समस्त विश्व ‘नेहरू युग’ के नाम से पुकारता था । एक प्रकाश था, जो सदैव – सदैव के लिए लुप्त हो गया। उनके स्थान की रिक्तता की पूर्ति यद्यपि नितान्त असम्भव थी, फिर भी सरकार और देश के संचालन के लिए प्रधानमन्त्री की आवश्यकता थी । देश के राजनीतिज्ञों की आँखें चारों तरफ दौड़ने लगीं, लोग अपने को असहाय-सा अनुभव कर रहे थे । प्रधानमन्त्री पद के चुनाव के मैदान में मोरारजी देसाई और जगजीवन राम आये, परन्तु एक ऐसा भी मौन साधक था, जो चुप था, जिसके कन्धों पर हाथ रखकर नेहरू जी ने स्वयं संबल बनाया था तथा अपनी नीतियों की गम्भीरता से शिक्षा दी थी । बड़े लोगों में चर्चा हुई कि इस समय देश को ऐसे नेतृत्व की आवश्यकता है, जो सबको साथ लेकर चले, अपनों को तो बनाये रक्खे ही पर विरोधियों से भी कटुता न बढ़ाए । यह व्यक्तित्व था श्री लाल बहादुर शास्त्री का जिनके विषय में भूतपूर्व कांग्रेस अध्यक्ष स्वर्गीय पुरुषोत्तम दास टण्डन ने कहा था कि श्री लाल बहादुर शास्त्री कठिन से कठिन परिस्थिति का सामना करने व समस्याओं को सुलझाने की क्षमता रखते हैं और स्वर्गीय नेहरू तो सदैव कहा करते थे, श्री लाल बहादुर एक ईमानदार और परिश्रमी व्यक्ति है, जिसने उच्च कोटि के नेताओं के समझाने पर भी चुनाव मैदान में कूदने से मना कर दिया था, जिसने घोषणा की थी कि यदि एक भी व्यक्ति मेरे विरोध में हुआ तो उस स्थिति में मैं प्रधानमन्त्री बनना नहीं चाहूँगा। कांग्रेस के अध्यक्ष श्री कामराज ने कांग्रेसजनों की आम राय ली। समस्त दल ने हृदय खोलकर श्री शास्त्री का समर्थन किया । २ जून, १९६४ को कांग्रेस के संसदीय दल ने सर्व सम्मति से श्री शास्त्री को अपना नेता स्वीकार किया तथा ९ जून, १९६४ को श्री शास्त्री ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ग्रहण की।
          श्री लाल बहादुर शास्त्री का जन्म वाराणसी के मुगल सराय नामक ग्राम में २ अक्तूबर, १९०४ ई० में हुआ था तथा सोवियत रूस के ताशकन्द नगर में भारतीय जनता के लिये चिर-शान्ति की खोज करते-करते उनकी मृत्यु, ११ जनवरी, १९६६ ई० को हुई। इनके पिता श्री शारदा प्रसाद जी एक सामान्य शिक्षक थे । डेढ़ वर्ष की अवस्था में ही पितृविहीन हो गए। अपनी माता श्रीमती रामदुलारी देवी का ही इन्हें बाल्यावस्था में स्नेह मिल सका। यद्यपि इनके पिता श्री शास्त्री को अपना स्नेह भले ही न दे सके तथापि ऐसी दिव्य प्रेरणाओं की विभूति प्रदान कर गए कि शास्त्री जी एक सेनानी की भाँति जीवन के समस्त संकटों को अपने चरित्र-बल से पद-दलित करते चले गए। शास्त्री जी की प्रारम्भिक शिक्षा बड़ी निर्धनता में हुई। उन्होंने स्वयं कहा है “जब मैं अपने गाँव से वाराणसी पढ़ने जाता था, इतने तो पैसे न होते थे कि नाव में बैठकर गंगा पार कर सकता, इसलिये गंगा को तैर कर ही पार करता था ।” सत्रह वर्ष की अवस्था थी, श्री शास्त्री, हरिश्चन्द्र स्कूल वाराणसीं के विद्यार्थी थे । गाँधी जी अपने असहयोग आन्दोलन के सिलसिले में १९२१ में वाराणसी आए हुये थे । सभा में गाँधी ने कहा- भारत माँ दासता की बेड़ियों में जकड़ी है। जरूरत है नौजवानों की जो इन बेड़ियों को काट देने के लिये अपना सब कुछ बलिदान कर देने को तैयार हों। इसी सभा में एक नौजवान आगे आया । सोलह-सत्रह वर्ष की अवस्था, माथे पर तेज, बाहें दासता की बेड़ियों को काट डालने को फड़क उठीं । यह बालक श्री लाल बहादुर शास्त्री ही थे वे स्कूली शिक्षा छोड़ स्वाधीनता संग्राम में कूद पड़े । साम्राज्यवादी सरकार ने इन्हें बेड़ियों में कस लिया । श्री शास्त्री की यह प्रथम जेल यात्रा ढ़ाई वर्ष की थी । जेल से रिहाई के पश्चात् उन्होंने काशी विद्यापीठ में पुनः अध्ययन प्रारम्भ किया। सुप्रसिद्ध दार्शनिक, भारत रत्न डॉ० भगवान दास जी विद्यापीठ के प्रिंसिपल थे तथा आचार्य कृपलानी, श्री प्रकाश और डॉ० सम्पूर्णानन्द उनके शिक्षक थे । यहीं से उन्हें शास्त्री की उपाधि प्राप्त हुई। यहीं पर चार वर्ष लगातार शास्त्री जी ने दर्शन और संस्कृत का अध्ययन किया ।
          शास्त्री जी का जीवन बहुत ही कठिनाइयों से भरा हुआ जीवन रहा है। कठिनाइयों के अनुभव ने उनके हृदय में गरीबी के प्रति एक असीम करुणा भरी थी। पिछड़े हुए वर्गों, उपेक्षित तथा आश्रयहीन व्यक्तियों को ऊपर उठाने में उनकी विशेष रुचि रही थी । हरिजनोत्थान में उनका विशेष हाथ रहा था। उत्तर प्रदेश के पूर्वी जिलों में उनका कार्य क्षेत्र था । उन्होंने बहुत ही कठिन श्रम, निष्ठा और लगन से कार्य किया । अध्ययन के पश्चात् श्री शास्त्री, लोक सेवक संघ के आजीवन सदस्य बन गये और उनका कार्य क्षेत्र इलाहाबाद बन गया। श्री शास्त्री जी सात वर्ष तक इलाहाबाद म्यूनिसिपल बोर्ड के सदस्य रहे तथा चार वर्ष तक इलाहाबाद इम्प्रूवमेंट ट्रस्ट के सदस्य रहें, फिर इलाहाबाद जिला कांग्रेस कमेटी के महासचिव तथा १९३० से ३६ तक अध्यक्ष रहे। उनकी संगठन कार्य करने की क्षमताओं की बड़े-बड़े नेताओं ने प्रशंसा की।
          श्री शास्त्री का प्रारम्भिक राजनैतिक प्रशिक्षण उत्तर प्रदेश कांग्रेस संगठन में हुआ, जिस पर पं० गोविन्द बल्लभ पन्त का जबरदस्त प्रभाव था। गुणग्राहक पं० पन्त के नेतृत्व में श्री शास्त्री १९३५ से १९३८ तक उत्तर प्रदेश कांग्रेस के महासचिव रहे। ब्रिटिश शासन काल में कांग्रेस का यह पद काँटों की सेज से किसी प्रकार कम नहीं था। तब तक एक बागी संगठन को संगठित करने और उसका तथा उसके द्वारा संचालित आन्दोलन का संचालन करने की जिम्मेदारी का आज की स्थिति में सहज ही अनुमान नहीं लगाया जा सकता। श्री शास्त्री उसमें पूर्ण सफल रहे। १९३७ में वे उत्तर प्रदेश विधान सभा के लिए चुने गए। १९४० में विदेशी सरकार द्वारा उन्हें पुनः गिरफ्तार कर लिया गया। इसके बाद १९४२ में भी वे गिरफ्तार कर लिये गये। शास्त्री जी अपने जीवन काल में आठ बार जेल गये। इस प्रकार नौ वर्षों तक कारागृह में उन्होंने स्वतन्त्रता की साधना की। दस वर्ष तक तो शास्त्री जी ने बड़ा ही कठिन और संघर्षमय जीवन व्यतीत किया। सारा परिवार आर्थिक संकट के कारण दुःखी था । सन् १९४६ में वे प्रदेश के चुनाव अधिकारी नियुक्त हुए। शास्त्री जी की कार्यकुशलता और संगठन शक्ति के कारण ही कांग्रेस को चुनाव में बहुमत प्राप्त हुआ । सन् १९४६ में उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री पं० पन्त ने इन्हें अपना सभा सचिव नियुक्त किया तथा १९४७ में पन्त मन्त्रिमण्डल में उन्हें गृह मन्त्री बनाया गया ।
          श्री शास्त्री जी की कर्त्तव्यनिष्ठा और योग्यता को देखते हुये १९५१ में प्रधानमंत्री पं० नेहरू ने उन्हें आम चुनावों में कांग्रेस का कार्य करने के लिये दिल्ली बुलाया । पं० नेहरू कांग्रेस अध्यक्ष थे और श्री शास्त्री महासचिव नियुक्त किये गये। पं० पन्त के नेतृत्व में कार्य करने के बाद देश में सर्वोच्च नेता का विश्वास प्राप्त करना और अपने प्रयासों के संगठन को अपूर्व सफलता दिलाना श्री शास्त्री की वह बुनियादी उपलब्धि थी । इसके बाद उनका कार्य क्षेत्र केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल बन गया। यह उनका और देश का सौभाग्य था कि उन्हें केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल में पं० नेहरू और पं० पन्त के साथ उनके उच्च स्तरीय सहयोगी के रूप में काम करने का काफी अवसर मिला।
          पं० नेहरू के नेतृत्व में पहली बार जब भारतीय गणतन्त्र का निर्वाचित मन्त्रिमण्डल बना उसमें शास्त्री जी रेल और परिवहन मन्त्री बनाये गये । शास्त्री जी की कृपा से ही देश को जनता गाड़ी मिली। छोटे-छोटे स्टेशनों का निर्माण और विकास हुआ और हजारों मील लम्बी नई रेल की पटरियाँ बिछायी गई । ईंजन माल गाड़ियाँ तथा सवारी गाड़ियों के डिब्बों के वर्कशाप बने । तीसरी श्रेणी के यात्रियों को सुख-सुविधा देने आदि का कार्य उनके ही मन्त्रित्व काल में हुआ, किन्तु सन् १९५२ में आरियालूर रेल दुर्घटना के कारण शास्त्री जी ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया। जिम्मेदारी न होने पर भी घटना का उत्तरदायित्व उन्होंने सम्भाला तथा एक नई परिपाटी को जन्म दिया । सन् १९५६-५७ में शास्त्री जी इलाहाबाद के शहरी क्षेत्र से लोक सभा के सदस्य चुने गये। नेहरू जी के नेतृत्व में जो नया मन्त्रिमण्डल बना उसमें शास्त्री जी को संचार और परिवहन मन्त्री बनाया गया। इस पर रहकर उन्होंने जो कार्य किये, उनसे जनता और कर्मचारी दोनों ही प्रसन्न हुये | श्री टी० टी० कृष्णमाचारी के त्याग-पत्र से केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल में जब परिवर्तन हुआ उस समय उन्हें वाणिज्य और उद्योग विभाग सौंपे गये । शास्त्री जी के सान्निध्य में हमारे देश का व्यापार विदेशों में बढ़ा तथा लघु और बड़े उद्योगों को बढ़ावा मिला । सन् १९६१ की अप्रैल में उन्हें स्व-राष्ट्र मन्त्रालय का कार्यभार सौंपा गया । वे इस पद पर बहुत कुशलता से कार्य कर रहे थे । देश के कांग्रेस संगठन में शक्ति संचार का प्रश्न उठा, कामराज योजना प्रस्तुत की गई, “पद से पहले पार्टी” का नारा बुलन्द किया गया । शास्त्री जी ने निर्लिप्त भाव से कहा कि वह संगठन का काम करने के इच्छुक हैं, अतः उन्होंने अगस्त १९६३ में स्वराष्ट्र मन्त्रालय से त्याग-पत्र दे दिया। राष्ट्र नायक पं० नेहरू का स्वास्थ्य खराब रहने लगा था । प्रश्न यह था कि नेहरू जी के काम में कौन मदद करे? उन्होंने शास्त्री जी को अपने काम में अधिक सहायक समझा । फलस्वरूप केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल में २६ जनवरी, १९६४ की वह पुनः बिना विभाग के मन्त्री नियुक्त किये गये। इन दिनों नेहरू जी के गहन कार्यों को निपटाने में उन्होंने बहुत ही तत्परता से कार्य किया । ।
          २७ मई, १९६४ को दो बजे हमारे प्रिय प्रधानमन्त्री पं० नेहरू का देहावसन हुआ। उनके देहान्त से एकदम यह प्रश्न उठ खड़ा हुआ कि हमारा प्रधानमन्त्री कौन हो ? कांग्रेस के संसद सदस्यों ने शास्त्री जी को सर्वसम्मति से अपना नेता चुना। श्री शास्त्री ने ९ जून, १९६४ को प्रधानमंत्री पद सम्भाल लिया ।
          शास्त्री जी का अपना निराला व्यक्तित्व था। उनके शांत, गम्भीर, मृदु और संकोची स्वभाव का किसी भी व्यक्ति पर प्रभाव पड़े बिना नहीं रह सकता था। वे उच्च कोटि के विचारक, प्रशासक और राजनीतिज्ञ थे। वे भारतीय जनता के पं० नेहरू के बाद सच्चे हृदय सम्राट थे। विश्व उनकी ओर टकटकी लगाए देख रहा था। श्री शास्त्री में हिमालय-सा अडिग दृढ़ निश्चय, सागर सा अथाह जनप्रेम और किसी निर्वात स्थान पर रखे दीपक की तरह स्थिर उत्तरदायित्व की भावना विद्यमान थी । वे बहुत शांत थे, किन्तु उनमें शक्ति का समुद्र छिप रहा था। यद्यपि उनमें शासन की लिप्सा नहीं थी, परन्तु अपने बुद्धि-कौशल से कठिन से कठिन परिस्थति को सम्भालने की उनमें अद्भुत क्षमता थी । वे शासन के प्रमुख पदों पर रहे, परन्तु पद के मोह और आत्म-विज्ञापन की आकांक्षा से सदा शून्य । सत्ता और शक्ति का त्यागपूर्वक उपभोग और मानवता में अटूट विश्वास ही शास्त्री जी का धर्म था ।
          भारत में स्वराष्ट्र-मन्त्री के रूप में शास्त्री जी ने कठिन से कठिन ग्रन्थियों को भी सरलता से सुलझा लिया था, यह बात आज भी देशवासियों से छिपी नहीं है। असम में भाषा विवाद ने जटिल रूप ले लिया था, भारत और नेपाल के सम्बन्धों में भ्रांति उत्पन्न हो गई थी अथवा कश्मीर में हजरत बल दरगाह से पवित्र बाल की चोरी हो जाने से गम्भीर स्थिति उत्पन्न हो गई थी। इनमें से प्रत्येक स्थिति भारत की राजनीतिक सम्बद्धता की नींव हिला सकती थी । किन्तु श्री लाल बहादुर शास्त्री ने स्वराष्ट्र मन्त्री के दायित्व का पूर्ण निर्वाह करते हुए असम की भाषा और बंगाल के भाषा विवाद को सदैव के लिये समाप्त कर दिया। उन्होंने नेपाल की सद्भावना यात्रा की । यात्रा करते समय उन्हें डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद के देहावसान की सूचना मिली । वे पटना में रुक गये। वहाँ से नेपाल जाकर उन्होंने भारत और नेपाल के बीच जो सौहार्द की भावना उत्पन्न की, उसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि नेपाल नरेश ने भारत में अपनी सद्भावना यात्रा का कार्यक्रम बनाया ।
          जब कश्मीर में कुछ षड्यन्त्रकारियों ने हरजत बल दरगाह में पवित्र बाल की चोरी कराकर व्यर्थ का झगड़ा खड़ा किया, तो ऐसा ज्ञात होने लगा कि यह समस्या अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्रों में एक भयानक अशन्ति उत्पन्न कर देगी । भारतीय मन्त्रिमण्डल के सदस्य के रूप में श्री लालबहादुर शास्त्री ने इसकी सम्भावनाओं को पूर्ण रूप से समझा और वह तुरन्त स्थिति सम्भालने के लिये वहाँ पहुँच गये। समस्या बहुत गम्भीर थी, किन्तु शास्त्री जी की दूरदर्शिता, प्रतिभा और राजनीतिक अन्तर्दृष्टि ने उस भीषण परिस्थिति को इतनी सुचारुता से सम्भाला कि षड्यन्त्रकारी एक-दूसरे का मुँह ताकते रह गये ।
          प्रधानमंत्री के रूप में सर्वप्रथम शास्त्री जी ने संयुक्त अरब गणराज्य की यात्रा की । २ अक्टूबर, १९६४ को शास्त्री जी ने ६१वें वर्ष में पदार्पण किया था उसी दिन गाँधी जयन्ती के पुण्य पर्व पर गाँधी जी की समाधि पर चर्खा यज्ञ का सम्पादन कर शास्त्री जी एशियाई तटस्थ राष्ट्र सम्मेलन में भाग लेने गये । राष्ट्रपति नासिर ने हृदय खोलकर शास्त्री जी का स्वागत और सम्मान किया। तीन दिन की राजकीय यात्रा के पश्चात् शास्त्री जी ने ऐतिहासिक काहिरा सम्मेलन में भारतीय शिष्ट मण्डल का प्रतिनिधित्व किया । सम्मेलन में उन्होंने भारत की तटस्थता तथा सहअस्तित्व एवम् निःशस्त्रीकरण, आदि नीतियों का प्रभावोत्पादक प्रतिपादन किया । शास्त्री जी का यह अटूट विश्वास था कि प्रत्येक ग्रन्थि शांतिपूर्ण समझौते से सुलझाई जा सकती है और शत्रु को भी मित्र बनाया जा सकता है । इस नीति के फलस्वरूप काहिरा से लौटते समय शास्त्री जी कराँची में रुके और पाकिस्तान के राष्ट्रपति अय्यूब खाँ से मिलें, विचार-विमर्श किया । लंका के प्रवासी भारतीयों की समस्या भी, जो वर्षों से उलझी हुई चली आ रही थी, आपने बड़ी सुगमतापूर्वक सुलझाई और लंका की तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती भण्डारनायक के साथ समझौता किया।
          २ दिसम्बर, १९६४ को प्रधानमन्त्री श्री शास्त्री ने बम्बई में पोप पाल श्रेष्ठ का अभिनन्दन किया और उसी दिन अपनी प्रथम ब्रिटेन यात्रा की। ब्रिटेन के नवनिर्वाचित प्रधानमन्त्री श्री विल्सन के निमन्त्रण पर शास्त्री जी अपनी तीन दिन की राजकीय यात्रा पर लन्दन गये। ७ दिसम्बर को लन्दन से लौटन पर शास्त्री जी ने मुस्कराते हुये कहा कि ‘मेरी लन्दन यात्रा लाभप्रद रही, वास्तव में मैं वहाँ किसी विशेष उद्देश्य से या सहायता या वित्तीय सहायता माँगने नहीं गया था, मैं ब्रिटेन के प्रधानमन्त्री के निमन्त्रण पर गया था, इस दौरे से हम और निकट आये हैं तथा एक-दूसरे के दृष्टिकोण को समझ सके हैं।”
          राष्ट्रीय नेतृत्व के महान् दायित्व को अपने सबल कन्धों पर लेते हुये प्रधानमन्त्री के रूप में अपने प्रथम भाषण में श्री शास्त्री जी ने जो घोषणा की थी वह उनकी महती कर्तव्यनिष्ठा एवं देशभक्ति की परिचायिका है। शास्त्री जी ने कहा था- “सबसे अधिक विकल करने वाली समस्या हमारे सामने गरीबी की है और मैं ऐसी समाज व्यवस्था स्थापित करने में योग देकर गौरव अनुभव करूंगा, जिसमें आज की अपेक्षा अधिक न्याय हो, अनुसूचित जातियों और जनजातियों को मैं खास तौर से नहीं भूल सकूँगा, क्योंकि ये सदियों से तिरस्कृत रही हैं, हमें समाजवादी लोकतन्त्र के आधार पर सुखी तथा सशक्त भारत का निर्माण करना है। डॉ० रामकुमार वर्मा के शब्दों में,
भारत भू का भाग्य भव्य होगा भविष्य में,
राष्ट्र-यज्ञ हित हृदय हमारा हो भविष्य में । 
नेहरू का नेतृत्व, नए नायक निर्णय में –
जीवित है जंग के जन-जन की ज्योति जय में II
 जन मानस में हुआ तरंगित जननी का उर । 
‘लाल’ बहुत हैं, किन्तु एक हैं ‘लाल दुर’ II
          श्री लाल बहादुर शास्त्री की अद्वितीय योग्यता और महान् नेतृत्व का परिचय भारत पाकिस्तान युद्ध के समय और भी अधिक मिला। इस युद्ध में जिस बुद्धि और कौशल का परिचय उन्होंने दिया, उसने उन्हें पराकाष्ठा पर पहुँचा दिया- उनके ओजस्वी भाषणों से वीर सैनिकों और देश की जनता का मनोबल बहुत ऊँचा हो गया, उनके सफल नेतृत्व में भारत ने पाकिस्तान को पराजित किया। विश्व की दृष्टि में भारत को एक सम्माननीय स्थान दिलाने का श्रेय उन्हीं को है। भारत-चीन युद्ध के बाद भारत का मान बहुत गिर गया था। देश की जनता में आत्म-विश्वास जैसे खो गया था, श्री लाल बहादुर शास्त्री की संगठनात्मक शक्ति और लगन ने भारत को अपना खोया हुआ गौरव प्रदान किया है। श्री लाल बहादुर शास्त्री के प्रति लोगों का बहुत विश्वास हो गया और वे जन-जन के हृदय में समा गये। उन्होंने बड़े ओजपूर्ण और सन्तुलित भाषण दिए, जिनके प्रत्येक शब्द में जनता की वाणी विद्यमान थी। सचमुच में ही वे एक ऐसे साधु पुरुष थे, जिन्होंने हर क्षेत्र में अपनी कुशलता की छाप छोड़ी।
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