भगवान श्री जगन्नाथ की रथयात्रा, आस्था, परंपरा और भक्ति का महापर्व
महामहोपाध्याय आचार्य डाo सुरेन्द्र कुमार पाण्डेय
पूर्व आई .ए .एस.
त्रिवेणी संगम प्रयागराज
आषाढ़ कृष्ण अमावस्या
बुधवार.
संवत् 2082
25 जून 2025
नीलाचलनिवासाय नित्याय परमात्मने.
बलभद्रसुभद्राभ्यां जगन्नाथाय ते नमः..
Jagannath Rath Yatra 2025: श्री जगन्नाथ पुरी का सनातन धर्मालोक में मान्य चार पवित्रतम धामों में अतिमहत्त्वपूर्ण स्थान है. यहां विराजमान दारुब्रह्म ( काष्ठमयी प्रतिमा )भगवान् श्री जगन्नाथ का स्पष्ट संकेत ऋग्वेद,अथर्ववेद एवं तैत्तिरीय संहिता में मिलता है. तत्पश्चात् वाल्मीकि रामायण, महाभारत, ब्रह्म पुराण, स्कन्द पुराण, ब्रह्म वैवर्त पुराण, पद्मपुराण , मत्स्यपुराण, नारद पुराण, कूर्मपुराण और कपिल संहिता आदि ग्रंथों में विस्तार से वर्णित है. ऋग्वेद दशम मण्डल सूक्त 155 का मन्त्र 3 भगवान् श्री जगन्नाथ की काष्ठ मूर्ति के संकेत रूप में पठनीय है –
अदो यद्दारु प्लवते सिन्धो:पारे अपुरुषम्.
तदा रभस्व दुर्हणो तेन गच्छ परस्तरम्..
आचार्य सायण ने अपनी टीका में इसे भगवान् श्री जगन्नाथ की वैदिक अवधारणा के रूप में ग्रहण किया है.
उल्लेखनीय है कि अवन्ती के राजा इन्द्रद्युम्न को भगवान् विष्णु ने स्वप्न में कहा था कि समुद्र के जल में तैरता हुआ दिव्य दारु ( लकड़ी का गट्ठा) मिलेगा, उसी को तरास कर मूर्ति बनेगी . ऐसा उल्लेख ब्रह्म पुराण, स्कन्द पुराण आदि में है. वेद की इसी अवधारणा का उपबृंहण बाद में पुराणों में हुआ है.
वाल्मीकि रामायण के उत्तर काण्ड में श्रीराम ने विभीषण को उपदेश देते हुए कहा है कि हमारे इक्ष्वाकु वंश के कुलदेवता भगवान् श्रीजगन्नाथ हैं. इन्द्र आदि देवता भी उनकी निरन्तर आराधना करते हैं. तुम भी सदा उनकी पूजा करते रहना.
आराधय जगन्नाथमिक्ष्वाकुकुलदैवतम्.
आराधनीयमनिशं देवैरपि सवासवै :.
इससे भगवान् श्री जगन्नाथ और उनकी पूजा परम्परा की नि:सन्देह प्राचीनता प्रमाणित होती है.
पुराणों में जिस राजा इन्द्रद्युम्न द्वारा श्री जगन्नाथ की सर्वप्रथम काष्ठ प्रतिमा बनवाने का वर्णन है,उन राजा इन्द्रद्युम्न की कथा महाभारत वन पर्व अध्याय 199 में प्राप्त होती है. पुण्य क्षीण होने के फलस्वरूप राजा इन्द्रद्युम्न के स्वर्ग से गिरने और कछुवे द्वारा यह कह कर कि इन्होंने ने एक हजार बार यज्ञ यूपों की स्थापना की है, पहचान लेने पर पुनः उनके स्वर्ग जाने की कथा है.
ब्रह्म पुराण में जगन्नाथ पुरी को पुरुषोत्तम क्षेत्र कहा गया है. अन्य पुराणों में जगन्नाथपुरी को श्रीक्षेत्र, नीलगिरी,शंख क्षेत्र, दशावतार क्षेत्र, पुरुषोत्तम क्षेत्र,नीलक्षेत्र ,नीलाद्रि नरसिंह क्षेत्र भगवान् श्रीकृष्ण पुरुषोत्तम नाम से विख्यात हैं.वे जगद्व्यापी जगन्नाथ हैं. इसी में आगे अवन्ती के महाराज इन्द्रद्युम्न के पुरुषोत्तम क्षेत्र में जाने तथा वहां इन्दनीलमयी प्रतिमा के बालू में गुप्त होने की जानकारी होने ,राजा को स्वप्न में प्रत्यक्ष भगवान् का दर्शन, काष्ठ की भगवत प्रतिमाओं का निर्माण, स्थापना और रथयात्रा का वर्णन है. ब्राह्मण रूप धारी भगवान् विष्णु के निर्देश पर विश्वकर्मा द्वारा श्री कृष्ण,अनन्त और सुभद्रा की दारु प्रतिमा बनाने और उसे स्थापित किए जाने का वर्णन है.
स्कन्द पुराण में भी थोड़े अन्तर के साथ किन्तु अधिक विस्तार से राजा इन्द्रद्युम्न द्वारा नीलमाधव भगवान् की काष्ठमयी प्रतिमा के निर्माण कराने, संस्कार,स्तवन और स्थापना का वर्णन है. यहां पर राजा इन्द्रद्युम्न को भगवान् जगन्नाथ की प्रतिमा की प्रतिष्ठा विधि और तीन रथों के निर्माण के विषय में नारद जी द्वारा दिशा निर्देश प्राप्त होता है. भगवान् वासुदेव के रथ पर गरुड़ध्वज, सुभद्रा जी के रथ पर कमल ध्वज और श्री बलभद्र जी के रथ पर ताल ध्वज बनाने का निर्देश है. इसी प्रकार नारद जी ने श्री विष्णु के रथ में सोलह, बलभद्र के रथ में चौदह और सुभद्रा के रथ में बारह पहिये का विधान बताया गया है. तत्पश्चात् इन सभी भगवद्विग्रहों की स्तुति देवताओं और ब्रह्मा जी द्वारा की गयी है.
स्कन्द पुराण में ब्रह्माजी द्वारा भगवत्स्वरूप की एकता का प्रतिपादन किया गया है. हलधर को ऋग्वेद स्वरूप, नृसिंह जी को सामवेद स्वरूप, सुभद्रा जी को यजुर्वेद स्वरूप और सुदर्शन चक्र अथर्ववेद स्वरूप माना गया है. ब्रह्माजी के निवेदन पर काष्ठमयी शरीर वाले भगवान् जगन्नाथ जी ने राजा इन्द्रद्युम्न को अनेकशः वर और आशीष दिया और यह कहा कि जब तक ब्रह्मा जी का दूसरा परार्ध पूरा होगा, तब तक इस काष्ठमय विग्रह में ही मै निवास करूंगा. आगे प्रति वर्ष आषाढ़ शुक्ल पक्ष द्वितीया तिथि को रथयात्रा के माध्यम से गुण्डिचामण्डप स्थान पर उन दारुमयी प्रतिमाओं को ले जाने का निर्देश दिया गया है.
स्कन्द पुराण में बलभद्र जी को शेषनाग का अवतार बताते हुए उनकी स्तुति की गयी है और सुभद्रा को परमात्मा की अनुपम शक्ति, भगवान् विष्णु की माया, भद्ररूपा और जगत् की मूलभूता देवी कह कर स्तुति की गयी है.गुण्डिचा मन्दिर में जाकर सात दिन तक भगवान् विन्दुतीर्थ के तट पर निवास करते हैं. तत्पश्चात् आषाढ़ शुक्ल नवमी को भगवद्विग्रहों को रथ पर विराजमान कर वापस मन्दिर में प्रवेश कराया जाता है.जो लोग रथयात्रा का दर्शन करते हैं वे लोग मोक्ष के भागी होते हैं, अर्थात् भगवान् के वैकुण्ठ धाम में जाते हैं. रथयात्रा के पूर्व ज्येष्ठ पूर्णिमा को भगवान् श्री जगन्नाथ बीमार होकर एकान्तवास में चले जाते हैं.इसे अनासरा कहते हैं.इस अवधि में भक्तों के मन्दिर का पट बन्द रहता है. स्थानीय लोगों के अनुसार यह परम्परा भगवान् श्री जगन्नाथ जी के अनन्य भक्त माधवदास से जुड़ी है.
श्री जगन्नाथ मंदिर में वैसे तो पूरे वर्ष भर अनेक उत्सव और यात्राएं होती हैं, जिनमें रथयात्रा के अतिरिक्त चुंडन यात्रा, स्नान यात्रा,झूलन यात्रा और डोलायात्रा प्रमुख हैं.नीम के लकड़ी की बनी इन दारु प्रतिमाओं का नवीनीकरण बारह – चौदह वर्षों पर होता है. मूर्ति बदलने की प्रक्रिया को नवकलेवर कहा जाता है.
जगन्नाथ मन्दिर का महाप्रसाद सम्पूर्ण विश्व में प्रसिद्ध है.इसका वैशिष्ट्य अद्भुत है.यह महाप्रसाद पांच चरणों में भगवान् को समर्पित किया जाता है. यहां किसी प्रकार का छुआ छूत और भेदभाव नहीं है. यहां के महाप्रसाद को अन्न न मानकर चिन्मय तत्त्व माना जाता है . यहां की पवित्र रसोई विश्व की सबसे बड़ी रसोई मानी जाती है.
भगवान् जगन्नाथ मंदिर कलिंग शैली के वास्तुकला का सर्वोत्तम निदर्शन है. इस मन्दिर में कुल चार महाद्वार हैं. पूर्व दिशा में सिंह द्वार, पश्चिम में व्याघ्र द्वार, उत्तर में हस्ति द्वार और दक्षिण में अश्व द्वार शोभायमान है. इसका निर्माण गंगवंश के राजा अनंग भीमदेव ने 1197 ई0 में कराया था. वास्तु कला और मूर्ति कला की दृष्टि से यह मन्दिर पूर्वी भारत का अनुपम स्मारक है. यह मन्दिर धार्मिक सहिष्णुता एवं समन्वय का अद्भुत उदाहरण है.
यह मन्दिर सामाजिक सौहार्द्र , समरसता और परस्पर सद्भाव का जीवन्त प्रतीक है.भगवान् श्री जगन्नाथ सभी संस्कृतियों, धार्मिक मान्यताओं और परम्पराओं के समन्वय के देव हैं. आदिवासी,शबर ,शाक्त,गाणपत्य और शैव मतावलंबी भी भगवान् श्री जगन्नाथ मे अपनी आस्था को पुष्ट करते हैं. परम वैष्णव पीठ तो यह है ही.पुरी का जगन्नाथ मन्दिर इतिहास, अध्यात्म, कला और संस्कृति का अद्भुत धरोहर एवं संगम है. मन्दिर के शिखर पर लगे हुए ध्वज को नीलच्छत्र कहा जाता है.यह ध्वज प्रतिदिन बदला जाता है. प्रतिदिन ध्वज परिवर्तन मन्दिर के अन्दर विराजमान सत्,चित् और आनन्दमय देवता का द्योतक है.
जगन्नाथ पुरी की गणना देवी के पावन शक्तिपीठों में भी होती है. मुख्य मन्दिर के पास दक्षिण पश्चिम कोने में ही विमला देवी का मन्दिर है , जिन्हें देवी पार्वती का रूप माना जाता है. इसके पार्श्व में पवित्र तालाब रोहिणी कुण्ड है. मत्स्यपुराण,वामन पुराण और देवी भागवत आदि पुराणों में देवी विमला का शक्ति पीठ के रूप में उल्लेख है.
गयायां मङ्गला प्रोक्ता विमला पुरुषोत्तमे. देवी भागवत 7/30/64.
मन्दिर के भीतर वाले आहाते में मुक्ति मण्डप है, जहां विद्वानों और पण्डितों के बीच शास्त्रार्थ की गौरवशाली परम्परा है. इसके बाद अक्षय वट है. वहीं पर प्रलय काल की भगवान् बाल मुकुन्द की मूर्ति है.
रथयात्रा का धार्मिक महत्त्व के साथ -साथ अत्यन्त आध्यात्मिक और दार्शनिक महत्त्व भी है. रथयात्रा शरीर और आत्मा के मिलन का प्रतीक है.रथरूपी शरीर में आत्मारूपी भगवान् जगन्नाथ विराजमान होते हैं. जीवन यात्रा की सफलता मानसिक और शारीरिक रूप से स्वस्थ शरीर पर निर्भर करती है. पवित्र और स्वस्थ शरीर में ही भगवान् का वास होता है.
रथयात्रा में आस्था और भक्ति का अनूठा संगम देखने को मिलता है. इसमें किसी प्रकार का जाति , क्षेत्र,लिंग , आस्था और पन्थ का भेद नहीं होता है. रथयात्रा मानव चेतना को ब्रह्माण्डीय व्यवस्था के साथ सम्पृक्त करता है. इसके माध्यम से भक्त पृथ्वी पर भगवान् जगन्नाथ के कालातीत विरासत के प्रति सम्मान प्रकट करते हैं. जैसे व्यष्टि और समष्टि में कोई अन्तर नहीं है, वैसे ही आत्मा और परमात्मा में कोई भेद नहीं.भेद तो दोषमूलक होता है.रथ और रथी में भी कोई तात्त्विक भेद नहीं है. रथ का एक अर्थ काया भी होता है.श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दिये उपदेश में कहा है –
आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव च.
जड़ चेतन सभी में ईश्वर का वास है. ईशावास्यमिदं सर्वम् हमारी सनातन संस्कृति का डिण्डिम नाद है. कालान्तर में पुरी की रथयात्रा का विस्तार समस्त भारत में हो गया. अब पूरे देश में रथयात्रा का आयोजन होता है. बंगाल में रथयात्रा को लोगों के बीच श्रद्धा और आस्था से जोड़ने का पुनीत कार्य महाप्रभु चैतन्य ने किया.जगन्नाथ पुरी में शिवावतार आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित ऋग्वैदिक पूर्वाम्न्याय गोवर्धन पीठ है. जिसका महावाक्य प्रज्ञानं ब्रह्म है. यह महावाक्य ऋग्वेद से सम्बद्ध ऐतरेयोपनिषद् 5/3 में पाया जाता है.
तीर्थं महोदधि: प्रोक्तं ब्रह्मचारी प्रकाशक:.
महावाक्यं च तत्र स्यात् प्रज्ञानं ब्रह्म चोच्यते ..
भगवान् आदि शंकराचार्य ने पद्मपादाचार्य को इस पीठ का प्रथम अधिपति बनाया था. वर्तमान में सन् 1992 से परमपूज्य गुरुदेव श्री निश्चलानंद सरस्वती जी इस पीठ के शंकराचार्य पद पर विराजमान हैं. परमपूज्य श्री गुरुदेव शंकराचार्य जी अद्वैत वेदांत के निष्णात विद्वान् हैं.
इस प्रकार समस्त ब्रह्माण्ड के स्वामी भगवान् श्री जगन्नाथ और उनकी पावन पुरी का अवर्णनीय महत्त्व जिसकी अवधारणा वैदिक वाङ्मय में है,वह उपबृंहण केरूप में अनेक पुराणों अनेकशः वर्णित है. भगवान् श्री जगन्नाथ कलियुग के सर्वाधिक प्रभावी देवता हैं. शास्त्रों में इसे धरती का वैकुण्ठ कहा गया है. कपिलसंहिता में पृथ्वी का स्वर्ग कहकर इसकी महिमा प्रख्यापित है.जगन्नाथ पुरी रथयात्रा सभी के लिए मङ्गलमय और शुभकारी हो .
अनाथस्य जगन्नाथ नाथस्त्वं मे न संशय :.
यस्य नाथो जगन्नाथस्तस्य दुःखं कथं प्रभो..