प्राकृतिक सम्पदा Natural Resources

प्राकृतिक सम्पदा  Natural Resources

 

♦ पृथ्वी पर उपलब्ध सभी प्रकार के जीवों की मूल आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सूर्य से ऊर्जा तथा पृथ्वी पर उपलब्ध सम्पदा की आवश्यकता होती है। पृथ्वी पर इनमें से प्रमुख सम्पदा हैं— स्थल, जल एवं वायु ।
♦ पृथ्वी की सबसे बाहरी परत को स्थलमण्डल कहते हैं। पृथ्वी के 75 प्रतिशत भाग पर जल है। यह भूमिगत जल के रूप में भी पाया जाता है। इन सभी को जलमण्डल कहते हैं।
♦ वायु, जो पूरी पृथ्वी को कम्बल के समान ढके रहती है, उसे वायुमण्डल कहते हैं। जीवित पदार्थ वहीं पाए जाते हैं जहाँ ये तीनों अवयव स्थित होते हैं।
♦ जीवन को आश्रय देने वाला पृथ्वी का वह घेरा जहाँ वायुमण्डल, स्थलमण्डल तथा जलमण्डल एक-दूसरे से मिलकर जीवन को सम्भव बनाते हैं, उसे जीवमण्डल के नाम से जाना जाता है।
♦ सजीव, जीवमण्डल के जैविक घटक को बनाते हैं। वायु, जल और मृदा जीवमण्डल के निर्जीव घटक हैं।
जीवन की श्वास वायु
♦ वायु बहुत-सी गैसों, जैसे-नाइट्रोजन, ऑक्सीजन, कार्बन डाइऑक्साइड तथा जलवाष्प का मिश्रण है।
♦ पृथ्वी पर जीवन वायु के घटकों का परिणाम है।
♦ ऑक्सीजन पृथ्वी पर स्थित जन्तुओं की प्राणवायु है।
♦ हरे पेड़-पौधे सूर्य की किरणों की उपस्थिति में कार्बन डाइऑक्साइड को ग्लूकोस में बदल देते हैं।
♦ शुक्र तथा मंगल, जैसे ग्रहों जहाँ कोई जीवन नहीं है, वायुमण्डल का मुख्य घटक कार्बन डाइऑक्साइड है। इन ग्रहों के वायुमण्डल में 95 से 97 प्रतिशत तक कार्बन डाइऑक्साइड है।
♦ जलवायु के नियन्त्रण में वायुमण्डल की भूमिका वायुमण्डल पृथ्वी को कम्बल के समान ढके हुए है। वायु, ऊष्मा का कुचालक है। वायुमण्डल पृथ्वी के औसत तापमान को दिन के समय और यहाँ तक कि पूरे वर्षभर लगभग नियत रखता है। वायुमण्डल दिन में तापमान को अचानक बढ़ने से रोकता है और रात के समय ऊष्मा को बाहरी अन्तरिक्ष में जाने की दर को कम करता है।
♦ वायु की गति पवनें दिनभर की गर्मी के बाद शाम को बहने वाले ठण्डे समीर, कई दिनों तक अधिक गर्म मौसम के पश्चात् वर्षा, कभी तेज हवा या कभी तूफान ये सभी प्रक्रियाएँ हमारे वायुमण्डल में हवा के गर्म होने और जलवाष्प के बनने का परिणाम है। जलवायु जीवित प्राणियों के क्रिया-कलापों और जल के गर्म होने के कारण बनती है। स्थलीय भाग या जलीय भाग से होने वाले विकिरण के परावर्तन तथा पुनर्विकिरण के कारण वायुमण्डल गर्म होता है। गर्म होने पर वायु में संवहन धाराएँ उत्पन्न होती हैं। वायु की सभी गतियाँ विभिन्न वायुमण्डलीय प्रक्रियाओं का परिणाम हैं, जो पृथ्वी के वायुमण्डल के असमान विधियों से गर्म होने के कारण होता है। इन हवाओं को बहुत से अन्य कारक, जैसे पृथ्वी की घूर्णन गति तथा पवन के मार्ग में आने वाली पर्वत श्रृंखलाएँ भी प्रभावित करती हैं।
♦ वर्षा वर्षा एवं वर्षा का पैटर्न भी वायु एवं वायु के पैटर्न पर निर्भर करता है।
♦ वायु प्रदूषण वायु में अवांछित हानिकारक पदार्थों की वृद्धि को वायु प्रदूषण कहा जाता है। प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक दोहन, जंगलों की कटाई एवं उद्योगों की वृद्धि के कारण वायु प्रदूषण में वृद्धि हुई है।
जल एक अद्भुत द्रव
♦ जल एक महत्त्वपूर्ण सम्पदा है, जो जीवन को स्थल पर निर्धारित करता है।
♦ जल पृथ्वी की सतह के सबसे बड़े भाग पर उपस्थित है और यह भूमिगत भी होता है। जल की कुछ मात्रा जलवाष्प के रूप में वायुमण्डल में भी पाई जाती है।
♦ पृथ्वी की सतह पर पाया जाने वाला अधिकतर जल समुद्र और महासागरों में है तथा यह खारा है।
♦ शुद्ध जल बर्फ के रूप में दोनों ध्रुवों पर और बर्फ से ढके पहाड़ों पर पाया जाता है।
♦ भूमिगत जल और नदियों, झीलों और तालाबों का जल भी शुद्ध होता है। फिर भी इस जल की उपलब्धता विभिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न होती है।
♦ गर्मी में अधिकतर स्थानों पर जल की कमी होती है।
♦ ग्रामीण इलाकों में जहाँ जल आपूर्ति की व्यवस्था नहीं है वहाँ लोगों का अधिकतर समय दूर से जल लाने में व्यय होता है।
♦ सभी प्राणियों के लिए जल आवश्यक है, क्योंकि सभी कोशिकीय प्रक्रियाएँ जलीय माध्यम में होती हैं। सभी प्रतिक्रियाएँ, जो हमारे शरीर में या कोशिकाओं के अन्दर होती हैं, वह जल में घुले हुए पदार्थों में होती हैं। शरीर के एक भाग से दूसरे भाग में पदार्थों का संवहन घुली हुई अवस्था में होता है। इसलिए जीवित प्राणी जीवित रहने के लिए अपने शरीर में जल की मात्रा को सन्तुलित बनाए रखते हैं। स्थलीय जीवों को जीवित रहने के लिए शुद्ध जल की आवश्यकता होती है क्योंकि खारे जल में नमक की अधिक मात्रा होने के कारण जीवों का शरीर उसे सहन नहीं कर पाता है। इसलिए प्रणियों और पौधों को पृथ्वी पर जीवित रहने के लिए आसानी से जल उपलब्धि के स्रोत आवश्यक हैं।
♦ जल की उपलब्धता प्रत्येक स्पीशीज के वर्ग, जो कि एक विशेष क्षेत्र में जीवित रहने में सक्षम है, की संख्या को ही निर्धारित नहीं करती है अपितु यह वहाँ के जीवन में विविधता को भी निर्धारित करती है। यद्यपि जल की उपलब्धता ही केवल एक कारक नहीं है जो उस क्षेत्र में जीवन के लिए आवश्यक है। दूसरे कारक, जैसेतापमान और मिट्टी की प्रकृति भी महत्त्वपूर्ण हैं |
♦ जल प्रदूषण जल उन कीटनाशकों और उर्वरकों को भी घोल लेता है जिसका उपयोग हम खेतों में करते हैं। अत: इन पदार्थों का कुछ प्रतिशत भाग जल में चला जाता है। इसी प्रकार शहरों में नालियों के माध्यम से गन्दा जल नदी के जल में मिल जाता है। इस तरह का जल हमारे लिए उपयोगी नहीं होता। जल में अवांछित हानिकारक पदार्थों का मिल जाना ही जल प्रदूषण कहलाता है। जल-प्रदूषण से जैव-प्रणाली में उपस्थित जीवों का सन्तुलन बिगड़ जाता है।
मृदा में खनिज की प्रचुरता
♦ जीवन की विविधता को निर्धारित करने वाली एक महत्त्वपूर्ण सम्पदा मृदा है।
♦ पृथ्वी की सबसे बाहरी परत को भू-पृष्ठ कहा जाता है और इस परत में पाए जाने वाले खनिज जीवों को विभिन्न प्रकार के पालन-पोषण करने वाले तत्व प्रदान करते हैं। जब ये खनिज बड़े पत्थरों के साथ संलग्न होते हैं तो ये जीवों के लिए उपलब्ध नहीं हो सकते। हजारों और लाखों वर्ष के लम्बे समयान्तराल में पृथ्वी की सतह या उसके समीप पाए जाने वाले पत्थर विभिन्न प्रकार के भौतिक रासायनिक और कुछ जैव प्रक्रमों के द्वारा टूट जाते हैं। टूटने के बाद सबसे अन्त में बचा महीन कण ही मृदा (मिट्टी) है।
♦ कारक या प्रक्रियाएँ हैं जिनसे मृदा बनती है
♦ सूर्य सूर्य दिन के समय पत्थर को गर्म कर देता है जिससे वे प्रसारित हो जाते हैं। रात के समय ये पत्थर ठण्डे होते हैं और संकुचित हो जाते हैं क्योंकि पत्थर का प्रत्येक भाग असमान रूप से प्रसारित तथा संकुचित होता है। ऐसा बार-बार होने पर पत्थर में दरार आ जाती है तथा अन्त में ये बड़े पत्थर टूट कर छोटे-छोटे टुकड़ों में विभाजित हो जाते हैं।
♦ जल जल मृदा के निर्माण में दो प्रकार से सहायता करता है। पहला सूर्य के ताप से बने पत्थरों की दरार में जल जा सकता है। यदि यह जल बाद में जम जाता है, तो यह दरार को और अधिक चौड़ा करेगा। दूसरा बहता हुआ जल कठोर पत्थरों को भी तोड़-फोड़ देता है। तेज गति के साथ बहता हुआ जल प्राय: अपने साथ बड़े और छोटे पत्थरों को बहा कर ले जाता है। ये पत्थर दूसरे पत्थरों के साथ टकराकर छोटे-छोटे कणों में बदल जाते हैं। जल, पत्थरों के इन कणों को अपने साथ ले जाता है और आगे निक्षेपित कर देता है। इस प्रकार मृदा अपने मूल पत्थर से काफी दूर वाले स्थान पर पाई जाती है।
♦ वायु जिस प्रकार जल में पत्थर एक-दूसरे से टकराने के कारण टूटते हैं उसी प्रकार तेज हवाएँ भी पत्थरों को तोड़ देती हैं। वायु जल की ही तरह बालू को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाती है।
♦ जीव भी मृदा के बनने की प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं। लाइकेन पत्थरों की सतह पर भी उगते हैं। इस क्रम में वे एक पदार्थ छोड़ते हैं, जो पत्थर की सतह को चूर्ण के समान कर देता है और मृदा की एक पतली परत का निर्माण करता है। अब इस सतह पर मॉस (moss) जैसे दूसरे छोटे पौधे उगने में सक्षम होते हैं और ये पत्थर को और अधिक तोड़ते हैं। बड़े पेड़ों की मूलें कभी-कभी पत्थरों में बनी दरारों में चली जाती हैं और वे दरार को चौड़ा कर देती हैं।
♦ मृदा एक मिश्रण है। इसमें विभिन्न आकार के छोटे-छोटे टुकड़े मिले होते हैं। इसमें सड़े-गले जीवों के टुकड़े भी मिले होते हैं, जिसे ह्यूमस (humus) कहा जाता है। इसके अतिरिक्त, मिट्टी में विभिन्न प्रकार के सूक्ष्म जीव भी मिले होते हैं।
♦ मृदा के प्रकार का निर्णय उसमें पाए जाने वाले कणों के औसत आकार द्वारा निर्धारित किया जाता है।
♦ मृदा के गुण को उसमें स्थित ह्यूमस की मात्रा और पाए जाने वाले सूक्ष्म जीवों के आधार पर किया जाता हैं।
♦ मृदा की संरचना का मुख्य कारक ह्यूमस है क्योंकि यह मृदा को सरन्ध्र बनाता है और वायु तथा जल को भूमि के अन्दर जाने में सहायक होता है।
♦ खनिज पोषक तत्व, जो उस मृदा में पाए जाते हैं वह उन पत्थरों पर निर्भर करते हैं जिससे मृदा बनी है।
♦ किस मृदा पर कौन-सा पौधा होगा यह इस पर निर्भर करता है कि उस मृदा में पोषक तत्व कितने हैं, ह्यूमस की मात्रा कितनी है और उसकी गहराई क्या है?
♦ मृदा की ऊपरी परत में जिसमें मृदा के कणों के अतिरिक्त ह्यूमस और सजीव स्थित होते हैं, उसे ऊपरीमृदा कहा जाता है। ऊपरीमृदा की गुणवत्ता, जो उस क्षेत्र की जैविक विविधता को निर्धारित करती है, में एक महत्त्वपूर्ण कारक है।
♦ आधुनिक खेती में पीड़कनाशकों और उर्वरकों का बहुत बड़ी मात्रा में प्रयोग हो रहा है। लम्बे समय तक इन पदार्थों का उपयोग करने से मृदा के सूक्ष्म जीव मृत हो जाते हैं और मृदा की संरचना को नष्ट कर सकते हैं, जो कि मृदा के पोषक तत्वों का पुनर्चक्रण करते हैं। ह्यू बनाने में सहायक भूमि में स्थित केंचुओं को भी ये समाप्त कर सकते हैं। अगर सम्पूषणीय खेती नहीं की जाए तो उपजाऊ मृदा जल्द बंजर भूमि में परिवर्तित हो सकती है।
♦ उपयोगी घटकों का मृदा से हटना और दूसरे हानिकारक पदार्थों का मृदा में मिलना जोकि मृदा की उर्वरता को प्रभावित करते हैं और उसमें स्थित जैविक विविधता को नष्ट कर देते हैं। इसे भूमि-प्रदूषण कहते हैं।
♦ मृदा, जिसे हम आज एक स्थान पर देखते हैं वह लम्बे समयान्तराल के पश्चात् निर्मित हुई है। यद्यपि, कुछ मृदा को एक स्थान पर निर्मित करने वाले कुछ कारक, इसको किसी दूसरे स्थान पर स्थानान्तरित करने के लिए भी उत्तरदायी हो सकते हैं। मृदा के महीन कण प्रवाहित वायु या जल के साथ भी स्थानान्तरित हो सकते हैं। मृदा के समस्त कणों के स्थानान्तरित हो जाने पर कठोर पत्थर बाहर आ जाता है। इस प्रक्रिया में एक महत्त्वपूर्ण सम्पदा की हानि हो जाती है क्योंकि पत्थर पर उर्वरता नगण्य होती है ।
♦ पौधों की जड़ें मृदा के अपरदन (erosion) को रोकने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। बड़े स्तर पर जंगलों का कटना (जो कि पूरे विश्व में हो रहा है) न केवल जैविक विविधता को नष्ट कर रहा है बल्कि मृदा के अपरदन के लिए भी उत्तरदायी है । वनस्पति के लिए सहायक ऊपरीमृदा, अपरदन की प्रक्रिया में तीव्रता से हट सकती है। यह पहाड़ी और पर्वतों वाले भागों में त्वरित गति से होता है। मृदा के अपरदन की इस क्रिया (मृदा अपरदन) को रोकना बहुत कठिन है।
♦ मृदा की सतह पर पाई जाने वाली वनस्पति, जल को इसके परतों के अन्दर जाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
जैव रासायनिक चक्रण
♦ जीवमण्डल के जैविक और अजैविक घटकों के बीच का सामंजस्य जीवमण्डल को गतिशील और स्थिर बनाता है। इस सामंजस्य के द्वारा जीवमण्डल के विभिन्न घटकों के बीच पदार्थ और ऊर्जा का स्थानान्तरण होता है।
♦ जलीय-चक्र पृथ्वी पर मौजूद जलाशयों से जल वाष्पीकृत होकर जलवाष्प में परिवर्तित होता है, उसके बाद यह जलवाष्प बादल में परिवर्तित होकर वर्षा के जरिए पुनः पृथ्वी पर पहुँचता है, फिर यह जल पुनः नदी, तालाब, जैसे जलाशयों एवं नदियों के रास्ते समुद्र में पहुँच जाता है। यह पूरी प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है। इसी प्रक्रिया को जल चक्र कहते हैं।
♦ नाइट्रोजन-चक्र हमारे वायुमण्डल का 78 प्रतिशत भाग नाइट्रोजन गैस है। यह गैस जो जीवन के लिए आवश्यक बहुत सारे अणुओं का भाग है, जैसे-प्रोटीन, न्यूक्लिक अम्न, DNA और RNA तथा कुछ विटामिन । नाइट्रोजन दूसरे जैविक यौगिकों में भी पाया जाता है, जैसे-एल्केलॉइड तथा यूरिया । इसलिए नाइट्रोजन सभी प्रकार के जीवों के लिए एक आवश्यक पोषक है। पृथ्वी पर मौजूद नाइट्रोजन का उपयोग जीवों द्वारा इस तरह किया जाता है, पर्यावरण में यह पुनः वापस आ जाता है। इस प्रक्रिया को ही नाइट्रोजन-चक्र कहा जाता है।
♦ कार्बन-चक्र कार्बन पृथ्वी पर बहुत सारी अवस्थाओं में पाया जाता हैं। यह अपने मूल रूप में हीरा और ग्रेफाइट में पाया जाता है। यौगिक के रूप में यह वायुमण्डल में कार्बन डाइऑक्साइड के रूप में, विभिन्न प्रकार के खनिजों में कार्बोनेट और हाइड्रोजन कार्बोनेट के रूप में पाया जाता है। जबकि सभी जीवरूप कार्बन आधारित अणुओं जैसे- प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट्स, वसा, न्यूक्लिक अम्ल और विटामिन पर आधारित होते हैं। बहुत सारे जन्तुओं के बाहरी और भीतरी कंकाल भी कार्बोनेट लवणों से बने होते हैं। जल की तरह कार्बन का भी विभिन्न भौतिक एवं जैविक क्रियाओं के द्वारा पुनर्चक्रण होता है, जिसे कार्बन-चक्र कहा जाता है।
♦ ग्रीन हाउस प्रभाव कार्बन-चक्र में ग्रीन हाउस प्रभाव की भूमिका महत्वपूर्ण होतो है। ग्रीन हाउस का निर्माण शीशे या प्लास्टिक से इस प्रकार किया जाता है कि वह अपने अन्दर आने वालो अधिकतर ऊष्मा को रोककर रखने में सक्षम होता है। इससे अन्दर का तापमान बाहर से काफी अधिक होता है।
♦ कार्बन डाइऑक्साइड भी एक ऐसी गैस है, जिससे पृथ्वी पर ग्रीन हाउस प्रभाव उत्पन्न होता है। यही कारण है कि कार्बन डाइऑक्साइड की अत्यधिक वृद्धि से ग्लोबल वार्मिंग की स्थिति उत्पन्न हो गई।
♦ ऑक्सीजन-चक्र ऑक्सीजन पृथ्वी पर बहुत अधिक मात्रा में पाया जाने वाला तत्व है। इसकी मात्रा भूल रूप में वायुमण्डल में लगभग 21 प्रतिशत है। यह बड़े पैमाने पर पृथ्वी के पटल में यौगिक के रूप में तथा वायु में कार्बन डाइऑक्साइड के रूप में भी पाई जाती है। पृथ्वी के पटल में यह धातुओं तथा सिलिकॉन के ऑक्साइडों के रूप में पाई जाती है। यह कार्बोनेट, सल्फेट, नाइट्रेट तथा अन्य खनिजों के रूप में भी पाई जाती है। यह जैविक अणुओं, जैसे- कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, न्यूक्लिक अम्ल और वसा का भी एक आवश्यक घटक है। ऑक्सीजन चक्र वह प्रक्रिया है जिसमें ऑक्सीजन की मात्रा वायुमण्डल में सन्तुलित अवस्था में बनी रहती है। इसमें ऑक्सीजन के उपयोग की तीन प्रक्रियाओं श्वसन, दहन तथा नाइट्रोजन के ऑक्साइड के निर्माण की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती हैं।
ओजोन परत
♦ पृथ्वी के चारों ओर समताप मण्डल में 15 से 35 किमी के बीच एक परत विद्यमान है, जो ऑक्सीजन के तीन परमाणुओं से मिलकर बनने वाले अणुओं, जिसे ओजोन कहा जाता है, से निर्मित है। ओजोन से बनी इसी परत को ओजोन परत कहा जाता है।
♦ यह परत पृथ्वी की सुरक्षा के दृष्टिकोण से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। यह पृथ्वी पर आने वाली सूर्य की खतरनाक पराबैंगनी किरणों का अवशोषण करता है। सूर्य की ये पराबैंगनी किरणें प्राणियों की त्वचा के लिए अत्यन्त घातक हैं। इस तरह ओजोन परत पृथ्वी की सुरक्षा कवच का कार्य करता है।
ओजोन परत के क्षय के कारण
♦ औद्योगीकरण के बाद से वातावरण में हुए प्रदूषण के कारण पृथ्वी की इस सुरक्षा कवच में क्षरण हुआ है।
♦ ओजोन परत के क्षरण के लिए सर्वाधिक जिम्मेदार क्लोरोफ्लोरोकार्बन (CFC) एवं हाइड्रोक्लोरोफ्लोरोकार्बन (HCFC) जैसे रासायनिक पदार्थ होते हैं। इन दो पदार्थों के अतिरिक्त कार्बन टेट्राक्लोराइड, मिथाइल क्लोरोफॉर्म, मिथाइल ब्रोमाइड जैसे रासायनिक पदार्थ भी ओजोन परत के क्षरण के लिए जिम्मेदार रहे हैं।
♦ ग्रीन हाउस प्रभाव के कारण भी ओजोन परत को क्षति पहुँची है। पृथ्वी पर आने वाली सौर ऊर्जा की बड़ी मात्रा अवरक्त किरणों के रूप में पृथ्वी के वातावरण से बाहर चली जाती है। इस ऊर्जा की कुछ मात्रा ग्रीन हाउस गैसों द्वारा अवशोषित होकर पुनः पृथ्वी पर पहुँच जाती है जिससे तापक्रम अनुकूल बना रहता है।
♦ ग्रीन हाउस गैसों में मेथेन, कार्बन डाइऑक्साइड, नाइट्स ऑक्साइड इत्यादि हैं। वातावरण में ग्रीन हाउस गैसों का होना अच्छा है, किन्तु जब इनकी मात्रा बढ़ जाती है तो तापमान में वृद्धि होने लगती है। इसके कारण पृथ्वी के ध्रुवों के ऊपर ओजोन परत को भारी क्षति पहुँची है। पिछले पचास वर्षों में इसकी क्षति में वृद्धि की दर अधिक रही है। संयुक्त राज्य अमेरिका की विभिन्न रिपोर्टों के अनुसार पृथ्वी के वायुमण्डल ओजोन परत में दो बड़े-बड़े छिद्र हैं। एक अण्टार्कटिका महासागर के ऊपर एवं दूसरा आर्कटिक महासागर के ऊपर।
♦ ओजोन परत के क्षरण के घातक परिणाम ओजोन परत के क्षरण के कई घातक परिणाम अब तक सामने आए हैं। यदि इसका क्षय नहीं रोका गया तो इसके और भी घातक परिणाम सामने आने की आशंका है।
♦ इसके कारण पृथ्वी पर आने वाली सूर्य की पराबैंगनी किरणों की मात्रा बढ़ जाएगी, जिसके कारण जीव-जन्तुओं को त्वचा सम्बन्धी अनेक प्रकार की समस्याओं (जैसे कैन्सर) का सामना करना पड़ेगा।
♦ पेड़-पौधों का विकास बाधित होने से अनेक प्रकार की कठिनाइयाँ उत्पन्न होंगी। पृथ्वी के तापमान में अत्यधिक वृद्धि होगी, जिससे पर्यावरण सन्तुलन बिगड़ेगा।
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