परहित सरिस धर्म नहिं भाई (परोपकार)
परहित सरिस धर्म नहिं भाई (परोपकार)
महर्षि वेद व्यास के विषय में लिखा है –
अटादश पुराणेषु व्यासस्य वचनं द्वयम् ।
परोपकाराय, पुण्याय पापाय परपीडनम् ।।
अर्थात् महिर्ष वेद व्यास ने अठारह पुराणों की रचना करने के बाद तत्त्व रूप से केवल दो बातें ही कही हैं – पुण्य प्राप्ति के लिए परोपकार और दूसरों के कष्ट से पाप ये ही दो कर्म हैं। जिसमें पहला कर्म सुकर्म है और दूसरा दुष्कर्म ।
परोपकार के समान कोई बड़ा धर्म नहीं है । परोपकार शब्द दो शब्दों के मेल से बना हुआ है – पर + उपकार अर्थात् दूसरों का उपकार । परोपकार के द्वारा मनुष्य दूसरों की भलाई करता है। उसका यह सुकर्म निःस्वार्थ और आत्म त्याग के द्वारा होता है। परोपकारी मनुष्य अपना और पराया का भेद भूल जाता है। वह प्रत्येक कार्य को अपना ही समझकर करता है। इसलिए उसका यह कार्य सच्चाई, निष्ठा, कर्त्तव्यनिष्ठा और सत्यता के साथ आरम्भ होकर पूर्ण होता है। उसके इस कार्य से सर्वत्र सुख और शान्ति की स्थापना होती है; क्योंकि यह समय की सबसे बड़ी आवश्यकता होती है। इसलिए हम यह देखते हैं कि जहाँ परोपकार हुए हैं। वहाँ इसकी नितान्त आवश्यकता और अत्यन्त अपेक्षा बनी हुई है। परोपकारी व्यक्ति इस अर्थ के पर्याय और प्रतीक होते हैं। वे समय की सबसे बड़ी आवश्यकता और अपेक्षा के प्रतिनिधि होते हैं। यही कारण है कि परोपकारी व्यक्ति अपनी जीवन लीला की तनिक भी परवाह नहीं करते हुए आत्म-बलिदान किया करते हैं। वे मृत्यु का स्वागत करते हुए अपनी यश पताका को निरन्तर फहराया करते हैं I
परोपकार के धर्म के समान और कोई दूसरा धर्म नहीं है। अर्थात् परोपकार सबसे बड़ा धर्म है । यह धर्म पुण्य और पवित्रता का सूचक है और मानवता से ऊँचा और श्रेष्ठ देवत्व का परिचायक है। इसलिए इसकी महानता की कोई सीमा नहीं है। परोपकार करने वाले व्यक्ति के अन्दर इसीलिए श्रेष्ठ, उच्च और दिव्य गुणों का समावेश होता है। उसमें सच्चरित्रता और नैतिकता का उदय होता है । इससे यह दिव्य ज्योति प्राप्त होती है। यह आकर्षण और चमत्कार का केन्द्र बन जाता है। इसलिए उसका सम्मान और समादर हर जगह से प्राप्त होता है ।
परोपकारी मनुष्य अपनी शक्ति और सामर्थ्य के समुचित उपयोग के द्वारा परोपकार करते हुए वह प्रेरणादायक कार्यों को ही चुनता है। इस प्रकार का कार्य परहित की भावना से होता है, तभी तो इससे सामूहिक कल्याण की रूपरेखा झलकती और दमकती है। परोपकारी मनुष्य सहानुभूति को उड़ेलता हुआ प्रगतिगामी होता है। परोपकारी व्यक्ति तो अपने सत्कर्मों से दीन-दुखियों, घायलों, अपंगों; अनाथों की सेवाओं के लिए विभिन्न अवस्थाओं और विद्यालय, औषधालय, धर्मशालाएं आदि स्थानों की संस्थापना करके जीवनभर कल्याणार्थ लगे रहते हैं। इसी तरह तालाब, दान, दक्षिणा आदि का मार्ग परोपकारी अपनाया करते हैं ।
हमारे देश में और विदेशों में भी अनेक परोपकारी मानव हुए हैं। उनसे यह धारा पूर्णतः धन्य और कृतार्थ हैं। ईसा मसीह, संत निकोलस, रंति देव, महर्षि दधीचि, शिबि, कर्ण आदि प्रमुख परोपकारी महामानव हुए हैं। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्तजी ने इन परोपकारी व्यक्तियों के महान् सत्कार्मों को प्रकाशित करते हुए समस्त मानव जाति को परोपकार के मार्ग पर चलने की प्रेरणा प्रदान करते हुए की है –
क्षुधार्थ रंतिदेव दिया करस्थ थाल भी,
तथा दधीचि ने दिया परार्थ अस्थि जाल भी ।
उशीनर क्षितीश ने स्वमांस दान भी किया,
सहर्ष वीर कर्ण ने शरीर चर्म भी दिया।
अनित्य देह के लिए अनादि जीव क्यों डरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए ।।
न केवल मनुष्य ही अपितु मनुष्य के अतिरिक्त अन्य जीव-जन्तु भी परोपकार किया करते हैं। समस्त प्रकृति परोपकार के सत्कर्म से आबद्ध और सन्नद्ध है । वर्षा, धूप, हवा, पृथ्वी, आकाश और अग्नि सभी के सभी हमारे लिए परोपकार किया करते हैं। इससे प्रेरित होकर हमें गोस्वामी तुलसीदास की इस काव्य-पंक्ति के अर्थ के अनुसार परोपकार करना चाहिए –
परहित सरसि धर्म नहिं भाई ।
परपीड़ा नहिं सम अधमाई ।।
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