निर्धनता : एक चुनौती Poverty : A Challenge

निर्धनता : एक चुनौती    Poverty : A Challenge

 

निर्धनता
♦ निर्धनता स्वतन्त्र भारत के सम्मुख एक सर्वाधिक कठिन चुनौती है।
♦ चूँकि निर्धनता के अनेक पहलू हैं, सामाजिक वैज्ञानिक उसे अनेक सूचकों के माध्यम से देखते हैं। सामान्यतया प्रयोग किए जाने वाले सूचक वे हैं, जो आय और उपभोग के स्तर से सम्बन्धित हैं, लेकिन अब निर्धनता को निरक्षरता स्तर, कुपोषण के कारण रोग प्रतिरोधी क्षमता की कमी, स्वास्थ्य सेवाओं की कमी, रोजगार के अवसरों की कमी, सुरक्षित पेयजल एवं स्वच्छता तक पहुँच की कमी आदि जैसे अन्य सामाजिक सूचकों के माध्यम से भी देखा जाता है। सामाजिक अपवर्जन और असुरक्षा पर आधारित निर्धनता का विश्लेषण अब बहुत सामान्य होता जा रहा है।
♦ सामान्य अर्थ में सामाजिक अपवर्जन निर्धनता का एक कारण और परिणाम दोनों हो सकता है। मोटे तौर पर यह एक प्रक्रिया है जिसके माध्यम से व्यक्ति या समूह उन सुविधाओं, लाभों और अवसरों से अपवर्जित रहते हैं, जिनका उपभोग दूसरे (उनसे ‘अधिक अच्छे’) करते हैं। इसका एक विशिष्ट उदाहरण भारत में जाति-व्यवस्था की कार्य शैली है, जिसमें कुछ जातियों के लोगों को समान अवसरों से अपवर्जित रखा जाता है। इस प्रकार, सामाजिक अपवर्जन लोगों की आय ही बहुत कम नहीं करता बल्कि यह इससे भी कहीं अधिक क्षति पहुँचा सकता है।
♦ निर्धनता के प्रति असुरक्षा एक माप है जो कुछ विशेष समुदायों (जैसे किसी पिछड़ी जाति के सदस्य) या व्यक्तियों (जैसे कोई विधवा या शारीरिक रूप से विकलांग व्यक्ति) के भावी वर्षों में निर्धन होने या निर्धन बने रहने की अधिक सम्भावना जताता है।
♦ असुरक्षा का निर्धारण परिसम्पत्तियों, शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के अवसरों के रूप में जीविका खोजने के लिए विभिन्न समुदायों के पास उपलब्ध विकल्पों से होता है। इसके अलावा, इसका विश्लेषण प्राकृतिक आपदाओं (भूकम्प, सुनामी), आतंकवाद आदि मामलों में इन समूहों के समक्ष विद्यमान बड़े जोखिमों के आधार पर किया जाता है अतिरिक्त विश्लेषण इन जोखिमों से निपटने की उनकी सामाजिक और आर्थिक क्षमता के आधार पर किया जाता है।
♦ जब सभी लोगों के लिए बुरा समय आता है, चाहे कोई बाढ़ हो या भूकम्प या फिर नौकरियों की उपलब्धता में कमी, दूसरे लोगों की तुलना में अधिक प्रभावित होने की बड़ी सम्भावना का निरूपण सामाजिक अपवर्जन ही असुरक्षा है।
निर्धनता रेखा
♦ निर्धनता पर चर्चा के केन्द्र में सामान्यतया ‘निर्धनता रेखा’ की अवधारणा होती है। निर्धनता के आकलन की एक सर्वमान्य सामान्य विधि आय अथवा उपभोग स्तरों पर आधारित है।
♦ किसी व्यक्ति को निर्धन माना जाता है, यदि उसकी आय या उपभोग स्तर किसी ऐसे ‘न्यूनतम स्तर’ से नीचे गिर जाए, जो मूल आवश्यकताओं के एक दिए हुए समूह को पूर्ण करने के लिए आवश्यक है।
♦ मूल आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए आवश्यक वस्तुएँ विभिन्न कालों एवं विभिन्न देशों में भिन्न है। अत: काल एवं स्थान के अनुसार निर्धनता रेखा भिन्न हो सकती है।
♦ प्रत्येक देश एक काल्पनिक रेखा का प्रयोग करता है, जिसे विकास एवं उसके स्वीकृत न्यूनतम सामजिक मानदण्डों के वर्तमान स्तर के अनुरूप माना जाता है। उदाहरण के लिए, अमेरिका में उस आदमी को निर्धन माना जाता है जिसके पास कार नहीं है, जबकि भारत में अब भी कार रखना विलासिता मानी जाती है।
♦ भारत में निर्धनता रेखा का निर्धारण करते समय जीवन निर्वाह के लिए खाद्य आवश्यकता, कपड़ों, जूतों, ईंधन और प्रकाश शैक्षिक एवं चिकित्सा सम्बन्धी आवश्यकताओं आदि पर विचार किया जाता है। इन भौतिक मात्राओं को रुपयों में उनकी कीमतों से गुणा कर दिया जाता है।
♦ निर्धनता रेखा का आकलन करते समय खाद्य आवश्यकता के लिए वर्तमान सूत्र वांछित कैलोरी आवश्यकताओं पर आधारित है।
♦ खाद्य वस्तुएँ जैसे—अनाज, दालें, सब्जियाँ, दूध, तेल, चीनी आदि मिलकर इस आवश्यक कैलोरी की पूर्ति करती हैं। आयु, लिंग, काम करने की प्रकृति आदि के आधार पर कैलोरी आवश्यकताएँ बदलती रहती हैं।
♦ भारत में स्वीकृत कैलोरी आवश्यकता ग्रामीण क्षेत्रों में 2400 कैलोरी प्रति व्यक्ति प्रतिदिन एवं नगरीय क्षेत्रों में 2100 कैलोरी प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन है।
♦ चूँकि ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोग अधिक शारीरिक कार्य करते हैं, अत: ग्रामीण क्षेत्रों में कैलोरी आवश्यकता शहरी क्षेत्रों की तुलना में अधिक मानी गई है।
♦ अनाज आदि के रूप में इन कैलोरी आवश्यकताओं को खरीदने के लिए प्रति व्यक्ति मौद्रिक व्यय को, कीमतों में वृद्धि को ध्यान में रखते हुए, समय-समय पर संशोधित किया जाता है। इन परिकलनों के आधार पर सन् 2016 में किसी व्यक्ति के लिए निर्धनता रेखा का निर्धारण ग्रामीण क्षेत्रों में ₹972 प्रतिमाह और शहरी क्षेत्रों में ₹1407 प्रतिमाह किया गया है।
♦ कम कैलोरी की आवश्यकता के बावजूद शहरी क्षेत्रों के लिए उच्च राशि निश्चित की गई, क्योंकि शहरी क्षेत्रों में अनेक आवश्यक वस्तुओं की कीमतें अधिक होती हैं। इस प्रकार, सन् 2016 में ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाला पाँच सदस्यों का परिवार निर्धनता रेखा के नीचे रह सकता है, यदि उसकी आय लगभग र 4500 प्रतिमाह से कम है। इसी तरह के परिवार को शहरी क्षेत्रों में अपनी मूल आवश्यकताएँ पूरा करने के लिए कम-से-कम, ₹ 7200 प्रतिमाह की आवश्यकता होगी।
♦ निर्धनता रेखा का आकलन समय-समय पर (सामान्यतः हर पाँच वर्ष पर) प्रतिदर्श सर्वेक्षण के माध्यम से किया जाता है। यह सर्वेक्षण राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण संगठन अर्थात् नेशनल सैम्पल सर्वे ऑर्गनाइजेशन (एनएसएसओ) द्वारा कराए जाते हैं, तथापि विकासशील देशों के बीच तुलना करने के लिए विश्व बैंक जैसे अनेक अन्तर्राष्ट्रीय संगठन निर्धनता रेखा के लिए एकसमान मानक का प्रयोग करते हैं, जैसे एक डॉलर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन के समतुल्य न्यूनतम उपलब्धता के आधार पर।
असुरक्षित समूह
♦ निर्धनता रेखा से नीचे के लोगों का अनुपात भी भारत में सभी सामाजिक समूहों और आर्थिक वर्गों में एकसमान नहीं है। जो सामाजिक समूह निर्धनता के प्रति सर्वाधिक असुरक्षित हैं, वे अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के परिवार हैं। इसी प्रकार, आर्थिक समूहों में सर्वाधिक असुरक्षित समूह, ग्रामीण कृषि श्रमिक परिवार और नगरीय अनियत मजदूर परिवार हैं।
♦ यद्यपि निर्धनता रेखा के नीचे के लोगों का औसत भारत में सभी समूहों के लिए 26 है, अनुसूचित जनजातियों में 100 में से 51 लोग अपनी मूल आवश्यकताओं को पूरा करने में असमर्थ हैं। इसी तरह नगरीय क्षेत्रों में 50% अनियत मजदूर निर्धनता रेखा के नीचे हैं।
♦ लगभग 50% भूमिहीन कृषि श्रमिक और 43% अनुसूचित जातियाँ भी निर्धन हैं।
वैश्विक निर्धनता परिदृश्य
♦ विकासशील देशों में अत्यन्त आर्थिक निर्धनता ( विश्व बैंक की परिभाषा के अनुसार प्रतिदिन 1 डॉलर से कम पर जीवन निर्वाह करना) में रहने वाले लोगों का अनुपात सन् 1990 के 28% से गिर कर सन् 2016 में 21% हो गया है। यद्यपि वैश्विक निर्धनता में उल्लेखनीय गिरावट आई है, लेकिन इसमें वृहत क्षेत्रीय भिन्नताएँ पाई जाती हैं।
♦ रूस जैसे पूर्व समाजवादी देशों में भी निर्धनता पुनः व्याप्त हो गई, जहाँ पहले आधिकारिक रूप से कोई निर्धनता थी ही नहीं।
♦ तीव्र आर्थिक प्रगति और मानव संसाधन विकास में वृहत निवेश के कारण चीन और दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों में निर्धनता में विशेष कमी आई है।
♦ दक्षिण एशिया के देशों ( भारत, पाकिस्तान, श्रीलंका, नेपाल, बांग्लादेश, भूटान) में निर्धनों की संख्या में गिरावट इतनी तीव्र नहीं है।
♦ भिन्न निर्धनता रेखा परिभाषा के कारण भारत में भी निर्धनता राष्ट्रीय अनुमान से अधिक है।
अन्तर्राज्यीय असमानताएँ
♦ भारत में निर्धनता का एक और पहलू या आयाम है। प्रत्येक राज्य में निर्धन लोगों का अनुपात एक समान नहीं है।
♦ यद्यपि सन् 1970 के दशक के प्रारम्भ से राज्य स्तरीय निर्धनता में सुदीर्घकालिक कमी हुई है, निर्धनता कम करने में सफलता की दर विभिन्न राज्यों में भिन्न-भिन्न है।
♦ ओडिशा, बिहार, छत्तीसगढ़ जैसे राज्य भारत के निर्धनतम राज्यों में गिने जाते हैं, जबकि गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब आदि राज्य अपेक्षाकृत अधिक अमीर राज्यों के रूप में गिने जाते हैं।
निर्धनता के कारण
♦ भारत में व्यापक निर्धनता के अनेक कारण हैं।
♦ एक ऐतिहासिक कारण ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासन के दौरान आर्थिक विकास का निम्न स्तर है। औपनिवेशिक सरकार की नीतियों ने पारम्परिक हस्तशिल्पकारी को नष्ट कर दिया और वस्त्र जैसे उद्योगों के विकास को हतोत्साहित किया। विकास की धीमी दर सन् 1980 के दशक तक जारी रही। इसके परिणामस्वरूप रोजगार के अवसर घटे और आय की वृद्धि दर गिरी । इसके साथ-साथ जनसंख्या में उच्च दर से वृद्धि हुई। इन दोनों ने प्रति व्यक्ति आय की संवृद्धि दर को बहुत कम कर दिया।
♦ आर्थिक प्रगति को बढ़ावा और जनसंख्या नियन्त्रण, दोनों मोर्चों पर असफलता के कारण निर्धनता का चक्र बना रहा।
♦ सिंचाई और हरित क्रान्ति के प्रसार से कृषि क्षेत्र में रोजगार के अनेक अवसर सृजित हुए। लेकिन इनका प्रभाव भारत के कुछ भागों तक ही सीमित रहा। सार्वजनिक और निजी, दोनों क्षेत्रों ने कुछ रोजगार उपलब्ध कराए। लेकिन ये रोजगार तलाश करने वाले सभी लोगों के लिए पर्याप्त नहीं हो सके। शहरों में उपयुक्त नौकरी पाने में असफल अनेक लोग रिक्शा चालक, विक्रेता, गृहनिर्माण श्रमिक, घरेलू नौकर आदि के रूप में कार्य करने लगे।
♦ अनियमित और कम आय के कारण ये लोग मँहगे मकानों में नहीं रह सकते थे। वे शहरों से बाहर झुग्गियों में रहने लगे और निर्धनता की समस्याएँ जो मुख्य रूप से एक ग्रामीण परिघटना थी, नगरीय क्षेत्र की एक विशेषता बन गई।
♦ उच्च निर्धनता दर की एक और विशेषता आय असमानता रही है। इसका एक प्रमुख कारण भूमि और अन्य संसाधनों का असमान वितरण है। अनेक नीतियों के बावजूद, हम किसी सार्थक ढंग से इस मुद्दे से नहीं निपट सके हैं।
♦ ग्रामीण क्षेत्रों में परिसम्पत्तियों के पुनर्वितरण पर लक्षित भूमि सुधार जैसी प्रमुख नीति- पहल को ज्यादातर राज्य सरकारों ने प्रभावी ढंग से कार्यान्वित नहीं किया। चूँकि भारत में भूमि-संसाधनों की कमी निर्धनता का एक प्रमुख कारण रही है, इस नीति का उचित कार्यान्वयन करोड़ों ग्रामीण निर्धनों का जीवन सुधार सकता था।
♦ अनेक अन्य सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक कारक भी निर्धनता के लिए उत्तरदायी हैं। अति निर्धनों सहित भारत में लोग सामाजिक दायित्वों और धार्मिक अनुष्ठानों के आयोजन में बहुत पैसा खर्च करते हैं।
♦ छोटे किसानों को बीज, उर्वरक, कीटनाशकों जैसे कृषि औजारों की खरीदारी के लिए धनराशि की जरूरत होती है। चूँकि निर्धन कठिनाई से ही कोई बचत कर पाते हैं, वे इनके लिए कर्ज लेते हैं। निर्धनता के चलते पुनः भुगतान करने में असमर्थता के कारण वे ऋणग्रस्त हो जाते हैं। अतः अत्यधिक ऋणग्रस्तता निर्धनता का कारण और परिणाम दोनों है।
निर्धनता-निरोधी उपाय
♦ निर्धनता उन्मूलन भारत की विकास रणनीति का एक प्रमुख उद्देश्य रहा है। सरकार की वर्तमान निर्धनता-निरोधी रणनीति मोटे तौर पर दो कारकों 1. आर्थिक संवृद्धि को प्रोत्साहन और 2. लक्षित निर्धनता- निरोधी कार्यक्रमों पर निर्भर है।
♦ सन् 1980 के दशक के आरम्भ तक समाप्त हुए 30 वर्ष की अवधि के दौरान प्रतिव्यक्ति आय में कोई वृद्धि नहीं हुई और निर्धनता में भी अधिक कमी नहीं आई।
♦ सन् 1950 के दशक के आरम्भ में अधिकारिक निर्धनता अनुमान 45% का था और सन् 1980 के दशक के आरम्भ में भी वही बना रहा।
♦ सन् 1980 के दशक से भारत की आर्थिक संवृद्धि दर विश्व में सबसे अधिक रही। संवृद्धि दर सन् 1970 के दशक के करीब 3.5% के औसत सें बढ़कर सन् 1980 और सन् 1990 के दशक में 6% के करीब पहुँच गई।
♦ विकास की उच्च दर ने निर्धनता को कम करने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
♦ यद्यपि ऐसी अनेक योजनाएँ हैं जिनको प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से निर्धनता कम करने के लिए बनाया गया, उनमें से कुछ का उल्लेख यहाँ करना आवश्यक है।
♦ राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारन्टी अधिनियम, 2005 (एन आरई जी ए) को सितम्बर, 2005 में पारित किया गया। यह विधेयक प्रत्येक वर्ष देश के सभी जिलों में प्रत्येक ग्रामीण परिवार को 100 दिन के सुनिश्चित रोजगार का प्रावधान करता है। रोजगारों का एक तिहाई रोजगार महिलाओं के लिए आरक्षित है।
♦ राष्ट्रीय काम के बदले अनाज यह एक राष्ट्रीय और महत्त्वपूर्ण योजना कार्यक्रम है जिसे सन् 2004 में देश के सबसे पिछड़े 150 जिलों में लागू किया गया था। यह कार्यक्रम उन सभी ग्रामीण निर्धनों के लिए है, जिन्हें मजदूरी पर रोजगार की आवश्यकता है और जो अकुशल शारीरिक काम करने के इच्छुक हैं। इसका कार्यान्वयन शत-प्रतिशत केन्द्रीय वित्तपोषित कार्यक्रम के रूप में किया गया है और राज्यों को खाद्यान्न निःशुल्क उपलब्ध कराए जा रहे हैं।
♦ प्रधानमन्त्री रोजगार योजना इस योजना को सन् 1993 में आरम्भ किया गया। इस कार्यक्रम का उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों और छोटे शहरों में शिक्षित बेरोजगार युवाओं के लिए स्वरोजगार के अवसर सृजित करना है। उन्हें लघु व्यवसाय और उद्योग स्थापित करने में सहायता दी जाती है।
♦ ग्रामीण रोजगार सृजन इस कार्यक्रम का आरम्भ सन् 1995 में किया गया। इसका उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों और छोटे शहरों में स्वरोजगार के अवसर सृजित करना है।
♦ स्वर्ण जयन्ती ग्राम स्वरोजगार योजना इसका आरम्भ सन् 1999 में किया गया। इस कार्यक्रम का उद्देश्य सहायता प्राप्त निर्धन परिवारों को स्व-सहायता समूहों में संगठित कर बैंक ऋण और सरकारी सहायिकी के संयोजन द्वारा निर्धनता रेखा से ऊपर लाना है।
♦ प्रधानमन्त्री ग्रामोदय योजना (सन् 2000 में आरम्भ ) इसके अर्न्तगत प्राथमिक स्वास्थ्य, प्राथमिक शिक्षा, ग्रामीण आश्रय, ग्रामीण पेयजल और ग्रामीण विद्युतीकरण जैसी मूल सुविधाओं के लिए राज्यों को अतिरिक्त केन्द्रीय सहायता प्रदान की जाती है।
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