दिल्ली से कराची, फिर ढाका तक, जब एक हर्बल दुकान ने रचा इतिहास, जानिए रूह अफ़ज़ा की पूरी कहानी
Rooh Afza Success Story: गर्मियों में मटके का पानी और एक गिलास रूह अफ़ज़ा… बच्चा हो या बुजुर्ग, हर किसी की जान बसती है इस गुलाबी शर्बत में. लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि इस ठंडक देने वाली बोतल के पीछे किसका दिमाग है? आइए मिलते हैं उस शख्स से जिसने एक हर्बल दुकान से शुरुआत करके, रूह अफ़ज़ा को दुनिया भर में मशहूर कर दिया.
हर्बल की दुकान से ब्रांड तक का सफर
साल था 1883. दिल्ली के एक पढ़े-लिखे परिवार में जन्मे हाकिम हफ़ीज़ अब्दुल मजीद को बचपन से ही यूनानी दवाओं का शौक था. उर्दू-फ़ारसी की पढ़ाई के साथ-साथ उन्होंने यूनानी चिकित्सा पद्धति में महारत हासिल की. उनका मानना था कि दवाएं सिर्फ बीमारी की दवा नहीं, बल्कि शरीर और आत्मा की सेहत के लिए होनी चाहिए. इसी सोच से शुरू हुआ हमदर्द का सफर.
जब दिल्ली में खुली एक छोटी सी दवाखाना
1906 में हाकिम मजीद ने दिल्ली के क़ाज़ी हाउस में एक छोटी सी हर्बल दुकान खोली. शुरुआत तो सादी थी, लेकिन इरादे बड़े थे. उन्हीं दिनों गर्मी में हीट स्ट्रोक और पानी की कमी से लोग बेहाल रहते थे. तब उन्होंने एक ऐसा हर्बल शरबत बनाने की ठानी, जो शरीर को ठंडक दे और आत्मा को ताज़गी. उन्होंने कई तरह की ठंडी तासीर वाली जड़ी-बूटियों को मिलाकर एक मीठा, ठंडा और सेहतमंद शरबत बनाया. इसका नाम रखा – “रूह अफ़ज़ा” यानी “रूह को ताज़गी देने वाला”. नाम भी दिल को छू गया और टेस्ट तो लोगों के दिल में बस गया.
लेबल भी बना था कमाल का, बंबई में छपवाया गया था
1910 में रूह अफ़ज़ा का लेबल तैयार किया गया. वो भी कलर में. उस दौर में इंडिया में रंगीन छपाई आसान नहीं थी. इसलिए इसे बंबई के Bolton Press में छपवाया गया. आर्टिस्ट मिर्ज़ा नूर अहमद ने डिजाइन तैयार किया. वो लेबल आज भी यादगार है.
1947 की बंटवारे में बंटा हिंदुस्तान… और रूह अफ़ज़ा भी
देश बंटा तो कारोबार भी. मगर रूह अफ़ज़ा की रूह नहीं टूटी. उसका फैलाव तीन देशों में हो गया.
- भारत: बड़े बेटे हाकिम अब्दुल हमीद ने दिल्ली में हमदर्द चलाया
- पाकिस्तान: छोटे बेटे हाकिम मोहम्मद सईद कराची चले गए और वहां दो कमरे से हमदर्द पाकिस्तान की शुरुआत की
- बांग्लादेश: 1971 में आज़ादी के बाद, उन्होंने हमदर्द को वहां की जनता को समर्पित कर दिया
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