दल परिवर्तन

दल परिवर्तन

          औरंगजेब आदि मुसलमान तानाशाहों के समय में धर्म परिवर्तन की घटनायें हुई थीं, ईश्वरदत्त से लोग अल्लाहबख्श बना दिये जाते थे । परन्तु यह परिवर्तन वही स्वीकार करते जो निम्न स्तर के होते या हीन मनोवृत्ति के तथा भीरू एवं कायर लोग, जिनका अज्ञान के अन्धकार में जन्म हुआ और अज्ञात में ही मर जाना ध्रुव था । अन्यथा लोग हँसते-हँसते फाँसी के फन्दे को माला की भाँति गले में पहनते या चमचमाती हुई तलवार की धार को गले में आलिंगन करते और मुस्कराते हुए ‘स्वधर्म निधनं श्रेयः परधर्मो भयावह ‘ का पाठ करते-करते सीधे स्वर्ग सिधार जाते । गुरु गोविन्द सिंह के छोटे-छोटे बच्चे दीवार में चिन दिये गये, पर धर्म परिवर्तन के नाम पर अन्तिम क्षणों तक ‘न’ ही ‘न’ करते रहे । था ‘भारतीय आदर्श ।’
          भारत में अंग्रेजों के आधिपत्य के समय ईसाई मिशनरियों ने भी वही काम किया जो अपने काल में मुसलमानों ने किया था । अन्तर केवल इतना था कि मुसलमान तलवार के जोर पर धर्म परिवर्तन करते थे, इन्होंने धन और सुख सुविधाओं का प्रलोभन देकर वह कार्य किया। इसमें भी वे ही निम्न कोटि के लोग थे जिनका हिन्दू समाज में कुछ संकीर्णताओं के कारण कोई महत्व नहीं था और पैसे के लोभ में अपने धर्म को, अपने शरीर को, अपने बच्चों को अपनी स्त्री को और अपने दीन ईमान को बेच सकते थे, जिनके पास न बुद्धि थी और न आत्मा । वे ही बैजू से बैंजामिन और हीरा से हैरीसन हुए। हिन्दू समाज के लिये वे कलंकित होकर सदैव-सदैव के लिये समाप्त हो गये। इन ईसाइयों का बदला आर्य समाज ने शुद्धि आन्दोलन चला कर लिया ।
          इन कलुषित एवं जघन्य परिवर्तन की शृंखला में आधुनिक युग में एक नवीन मनोवैज्ञानिक कड़ी भी जुड़ी और वह थी हृदय परिवर्तन की। विनोबा भावे का दस्यु हृदय परिवर्तन प्रारम्भ हुआ। कुछ चला भी, परन्तु बिना दण्ड के दस्यु मुक्ति में जब वैधानिक अड़चनें आकर खड़ी हुईं तो वह समाप्त हो गया। परन्तु यह एक पवित्र और पुण्य कार्य था, दुराचार से सदाचार की ओर लाने का एक सराहनीय प्रयास था। इसमें न किसी के धर्म, जाति, सम्प्रदाय और सिद्धान्त बदले जा रहे थे और न माँ-बाप का नाम, और न किसी की संस्कृति और सभ्यता से किसी को छीना जा रहा था। यह तो विचार परिवर्तन मात्र था, बुराई से अच्छाई की ओर ले जाने का एक महत्वपूर्ण पदन्यास था।
          सन् १९६७ के चतुर्थ सामान्य निर्वाचन के पश्चात् भारत के समक्ष दल परिवर्तन का एक नवीन प्रचलन प्रारम्भ हुआ। जहाँ विदेशों में बड़े-बड़े डाक्टर दिल परिवर्तन में लगे हुए हैं वहाँ भारत में दल- परिवर्तन बड़ी तेजी से चल रहा है। जिस प्रकार संसार में जन्म लेकर मनुष्य किसी विशेष देशीय संस्कृति, किसी विशेष धर्म और कुछ विशेष संस्कारों से आबद्ध रहता है और उस जाति और उस देशीय संस्कृति के प्रति उसके कुछ दायित्व होते हैं जिन्हें वह मृत्यु पर्यन्त निभा कर अपने कर्त्तव्य का पालन करता है, उसी प्रकार दल विशेष भी एक जाति, एक धर्म और एक संस्कृति के समान होता है। उसकी परम्पराओं, नियमों, नीतियों और सिद्धान्तों से हम बँधे होते हैं, जिनका कठोरता से अनुपालन और अनुसरण हमारा कर्त्तव्य होता है। दल परिवर्तन भी उसी प्रकार जघन्य और नैतिक दृष्टि से हेय है जितना हिन्दू से मुसलमान हो जाना या सिक्ख से ईसाई हो जाना। पुराने लोगों का कहना है कि अपने बाप को बाप कहो, दूसरे के बाप को अपना बाप बनाने में क्या लाभ ।
          दल-परिवर्तन की इस दूषित मनोवृत्ति के पीछे, जिसके कारण आये दिन विभिन्न प्रान्तों में सरकारें बन रही हैं और बिगड़ रही हैं, अविश्वास के प्रस्ताव लाये जा रहे हैं और पास हो रहे हैं, सरकार के आगे अनिश्चितता और अस्थिरता छायी रहती है, कई कारण कार्य कर रहे हैं । पहिला कारण तो यह है कि आज के युग में व्यक्तिगत स्वार्थन्धता इतनी छा गयी है जिसके कारण न तो उसे देश दिखायी पड़ता है और न अपना दल । दलीय प्रतिष्ठा से पहले उसे अपनी प्रतिष्ठा और अपनी जेब गरम चाहिए । स्वार्थ सिद्धि में वह इतना पागल हो जाता है कि उसे ध्यान ही नहीं. रहता कि मैंने जनता को क्या वचन दिये थे और अब उसे कैसे मुँह दिखाऊँगा ? दूसरा कारण पद लोलुपता है, जब सदस्य को यह मालूम हो जाता है कि इस सरकार में न मुझे कोई पद मिला और न महत्व, तब वह विरोधी पार्टियों से साँठ-गाँठ जोड़ लेता है और पहली सरकार के पतन में सहायक सिद्ध होकर झट से मंत्री या सचिव का पद ग्रहण कर लेता है। तीसरा कारण पारस्परिक ईर्ष्या और द्वेष है, मान लिया कि एक सदस्य किसी विशेष पार्टी से खड़ा हुआ और जीत भी गया, परन्तु उस पार्टी के प्रमुख स्तम्भों से उसका किसी विशेष कारणवश मनोमालिन्य है या ईर्ष्याया द्वेष है वह निश्चित ही उन्हें नीचा दिखाने के लिये जीतने के बाद पार्टी छोड़ देगा और दूसरों से जा मिलेगा। चौथा कारण व्यक्ति सम्मान है, यदि सम्मान के योग्य को उचित सम्मान प्राप्त नहीं होता तो वह दूसरों के द्वार खट-खटाने लगता है और कुछ दिनों में वह उन्हीं का हो जाता है । पाँचवाँ कारण व्यक्ति में निश्चित निर्णायिका शक्ति का अभाव है। भगवान ने जब बुद्धि दी है तो पहिले ही सोच-समझकर पार्टी चयन करना चाहिये जिससे बाद में छोड़ने पर, जनता में अपयश न उठाना पड़े और लोक हँसाई से व्यक्ति बच सके । छठा कारण व्यक्ति की मानसिक अस् है। ऐसे व्यक्ति के प्रत्येक कार्य में सदैव अस्थिरता बनी रहती है। न उसकी वाणी का कोई भरोसा और न किसी कार्य का । ऐसा व्यक्ति आज इस पार्टी में है तो कल दूसरे मंच पर जा बैठेगा और परसों तीसरे मंच पर। देखने वाले भी आश्चर्य में पड़ जायेंगे कि यह भी अजीब आदमी है, किसी का सगा नहीं। सातवाँ कारण है अस्थिर नेतृत्व की भावना। ऐसे व्यक्ति केवल ५ वर्ष के लिये ही नेता बनते हैं, न आगे कभी उन्हें चुनाव में खड़ा होना है और न किसी से वोट माँगना है। ‘आगे अपने घर का धन्धा देखेंगे, वैसे तजुर्बा सब चीजों का करना चाहिये, इसीलिये एक बार इलेक्शन भी लड़कर देख लिया और जीत भी गये। पाँच साल लखनऊ में उन कुर्सियों पर भी बैठ आये जिनको लोग देखने को तरसते हैं।” ऐसे नेताओं को यह कहते सुना गया है। आठवाँ कारण—किसी दूसरी पार्टी के शक्तिशाली और प्रभावपूर्ण नेता का प्रभाव होता है, जिसके आकर्षक व्यक्तित्व के आगे लोग ‘न’ नहीं कर सकते, क्योंकि सदैव उसे बड़ा और श्रृद्धा की दृष्टि से देखा जाता है, अतः चुपचाप हम बदली कर लेते हैं। नवाँ प्रमुख कारण है- ऐसे व्यक्तियों में आदर्श . और चरित्र का नितान्त अभाव होना । ऐसी जाति बदलने वाले लोगों का न कोई आदर्श होता है न चरित्र | गंगा गये तो गंगादास और जमुना गए तो जमुनादास ।
          दल परिवर्तन से दो प्रकार का लाभ होता है, व्यक्ति को और जनता को । व्यक्ति की स्वार्थ सिद्धि हो जाती है, वह थोड़े से ही समय में अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति कर लेता है। स्वार्थी व्यक्ति का निम्नलिखित मूल मन्त्र होता है
अपमान पुरस्कृत्य मानं कृत्वा तु पृष्ठतः
स्वकार्य साधयेत् धीमान् कार्य भ्रंशो हि मूर्खता ॥
          अर्थात् बुद्धिमान व्यक्ति को अपमान सामने रखकर और मान को पीछे रखते हुये अपना काम सिद्ध करना चाहिये, क्योंकि काम बिगड़ जाना सबसे बड़ी मूर्खता है। जनता को यह लाभ होता है कि वह उस व्यक्ति के फन्दे में दुबारा फिर नहीं आ सकती । जब एक बार उसकी पोल खुल गयी तो फिर वह कैसा ही आदर्शवान बनकर आये, जनता उसका स्वागत नहीं कर सकती । सन् १९६८ में हरियाणा, के एक सज्जन ने भी तीन चार बार दल बदल की, परिणाम यह हुआ कि मई १९६८ में जब हरियाणा में मध्यावधि चुनाव हुए तो उनकी करारी हार हुई ।
          दल परिवर्तन के बड़े दुष्प्रभाव होते हैं जो व्यक्ति और राष्ट्र दोनों को सहने पड़ते हैं। दल परिवर्तन से दलीय सरकार का बहुमत समाप्त हो जाता है और इस प्रकार सरकार का जाता है । पतन के बाद या तो दूसरा दल जिसे बहुमत प्राप्त है अपनी सरकार बनाये, या फिर राष्ट्रपति शासन लागू हो । राष्ट्रपति शासन की अवधि भी अधिक से अधिक छः महीने तक रह सकती है। इसके बाद मध्यावधि चुनाव होना आवश्यक होता है। मध्यावधि चुनावों में सरकार को लाखों रुपये खर्च करने पड़ते हैं, तब कहीं दूसरी सरकार स्थापित हो पाती है और यदि थोड़े दिन बाद फिर दल बदली हो गई तो फिर चुनाव । इस प्रकार राष्ट्र की अपार धन शक्ति का अपव्यय होता है और समय की बर्बादी होती है । इसके साथ-साथ राज्य में अस्थिरता का साम्राज्य छाया रहता है, न कोई प्रशासनिक कार्य हो पाते हैं और न कोई निर्णय । ऐसी अस्थिरता की स्थिति में न जनता के हित की कोई योजना क्रियान्वित की जा सकती है और न राज्य में कोई सुधार ही लाया जा सकता है। सरकार के दलों को आपस में लड़ने से ही फुर्सत नहीं मिलती तो सुधार कौन करे ? दूसरे अधिकारी भी काम करना बन्द कर देते हैं, ऊपर फाइल भेजें तो किसके पास ? जब कोई मन्त्री जी ही नहीं, मन्त्री जी इस्तीफा दिए घर बैठे हैं। किसी भी अधिकारी को किसी का कुछ भय नहीं रहता। इस प्रकार राज्य में एक अव्यवस्था सी छा जाती है।
          व्यक्ति, जो दल परिवर्तन करता है, उसके विश्वासघात के कारण जनता में एक प्रकार की नीरसता और उदासी छा जाती है, क्योंकि उसने किसी दल विशेष की नीतियों के आधार पर ही उस व्यक्ति को चुना था। दल परिवर्तन से नीति परिवर्तन आवश्यक हो जाता है। उधर उस व्यक्ति की भी एक प्रकार से मनोवैज्ञानिक मृत्यु हो जाती है, वह जनता के सामने आ नहीं सकता और न उसके दुःख दर्दों को सुन ही सकता है। एक व्यक्ति के नैतिक पतन के कारण दूसरों को भी ऐसा करने की प्रेरणा मिलती है। इस प्रकार यह दूषित वातावरण बढ़ जाता है। उस व्यक्ति की जो दल परिवर्तित करता है, जगह-जगह चर्चा होती है और वह अपयश का पात्र बन जाता है।
“संभावितस्य चाकीर्तिः मरणादतिरिच्यते । “
          अर्थात् प्रतिष्ठित मनुष्य की निन्दा या अपकीर्ति होना मृत्यु से भी बढ़कर होता है। अतः यह आवश्यक है कि प्रत्येक दल अपनी-अपनी एक चरित्र-संहिता तैयार करे, जिसमें स्पष्ट उल्लेख हो कि यदि मैं दल परिवर्तन करूंगा तो पहले जिस दल के प्रतिनिधि के रूप में जनता ने मुझे चुना है उस दल की सदस्यता त्यागने के साथ-साथ विधान सभा की सदस्यता से भी त्याग पत्र दे दूँगा, उसके पश्चात् जिस दल की सदस्यता स्वीकार करूँगा उस दल की ओर से दुबारा चुनाव लडूंगा। इस प्रकार के अनुबन्धों को वैधानिक समर्थन भी प्राप्त होना चाहिये, अन्यथा न इनका कुछ महत्व होगा और न कोई इन्हें मानेगा ही, क्योंकि यह तो भारतीय परम्परा है कि बिना दण्ड भय के अपना नैतिक कर्त्तव्य समझते हुए कोई भी कुछ काम करने को तैयार नहीं होता, “भय बिन होई न प्रीति” या फिर केन्द्रीय सरकार ही कोई ऐसा अधिनियम बनाये जिससे दल परिवर्तन इतना सरल न रह जाए । देश में १९७१ से १९७३ की अवधि में दल परिबर्तन की घटनायें हुईं और दल परिवर्तन के कारण ही १९७९ में केन्द्र में जनता पार्टी का पतन हुआ । यद्यपि १६ मई, १९७३ ई० को इन्दिरा गाँधी सरकार के गृहमन्त्री श्री उमाशंकर दीक्षित ने दल बदल पर रोक लगाने के लिये एक संविधान संशोधन विधेयक प्रस्तुत किया था, लेकिन आपसी मतभेदों के कारण यह विधेयक पारित न हो सका । भारत के अनेक प्रान्तों में दल बदल का स्थिति के कारण सरकारें समुचित रूप से कार्य नहीं कर पा रही थीं। इस स्थिति को देखते हुए भारत सरकार ने इस जटिल समस्या को समाप्त करने के लिए १९८५ में लोकसभा में दल परिवर्तन सम्बन्धी विधेयक प्रस्तुत किया जो सामान्य संशोधनों के पश्चात् बहुमत से स्वीकार कर लिया गया इस प्रकार चार दशकों से चली आ रही दल-बदल राजनीति कानूनन समाप्त कर दी गई ।
          अपनी-अपनी पार्टी के सांसदों को एकता के सूत्र में बाँध रखने में दल परिवर्तन विरोधी कानून ने जो भूमिका निभाई है उससे पार्टियों की श्रृंखला की कड़ियाँ टूटने नहीं पाई हैं। यह कानून प्रधानमन्त्री राजीव गाँधी के लिये भी अमोघ अस्त्र सिद्ध हुआ है।
          जून ८८ के संसदीय एवं विधान सभा के उपचुनावों के परिणामों को देखते हुए तथा विश्वनाथ प्रताप सिंह द्वारा नवगठित जनमोर्चे की अराजनैतिक स्थिति को देखते हुए सरकार दल बदल विरोधी कानून को और कड़ा तथा प्रभावी बनाने के लिए उसमें सुधार पर विचार कर रही है। सरकार के उच्चस्तरीय विचार-विमर्श के बाद कानून मंत्रालय को यह निर्देश दिया गया है कि कानून में मौजूद कमियों को पूरा करने के लिए सुधार विधेयक तैयार करें। आशा है जौलाई ८८ के तीसरे सप्ताह में शुरू होने वाले संसद के मानसून अधिवेशन में संसदीय कार्य मंत्रालय यह विधेयक लाने का प्रयत्न करेगी। निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि इस विधेयक से सभी पक्षों एवं पार्टियों के सदस्यों में अनुशासन दृढ़ होगा।
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