“जो तोकू काँटा बुवै ताहि बोय तू फूल” अथवा सहनशीलता

“जो तोकू काँटा बुवै ताहि बोय तू फूल” अथवा सहनशीलता

          अजातशत्रुता एक ईश्वरीयं गुण है। संसार के महान् पुरुष अजातशत्रु हुए हैं, उनकी कीर्ति आज भी विश्व के कोने-कोने में गाई जाती है। अजातशत्रु का अर्थ है, जिनका कोई शत्रु पैदा ही न हुआ हो। जब आप किसी का अहित नहीं करेंगे, किसी के मार्ग में विघ्न बनकर खड़े नहीं होंगे, या अपने स्वार्थ साधन के लिए दूसरों के स्वार्थ को क्षति नहीं पहुँचायेंगे, तब कौन आपका शत्रु हो सकता है ? परन्तु आज का युग ऐसे व्यक्तियों पर भी कृपा नहीं करता, उन्हें भी नहीं छोड़ता, आप भले ही किसी का अहित-चिन्तन या स्वार्थ में क्षति न कीजिए, फिर भी ऐसे-ऐसे महापुरुष आपको मिलेंगे जो बिना किसी प्रयोजन के ही आपके मार्ग में आकर खड़े हो जायेंगे, और एक विघ्न उपस्थित कर देंगे । चाहे इस विन के डालने से उनका कोई लाभ न होता हो, फिर भी उन नर-पिशाचों को इन कुकृत्यों में आनन्द आता है। “बिल्ली खायेगी नहीं तो गिरा अवश्य देगी” आदि कहावतों से ऐसे लोग अपने इन नीचतापूर्ण कृत्यों में मानसिक शान्ति प्राप्त करते हैं और अपनी विजय पर फूले नहीं समाते। ऐसे ही व्यक्तियों के लिए भर्तृहरि जी ने लिखा है कि ऐसे लोग जो निरर्थक ही दूसरों का अहित करते हैं, मैं नहीं जानता किस कोटि के हैं। वे लिखते हैं—
“ये निध्वन्ति निरर्थकं परहितम् ते के न जानीमहे ।
          आज का संसार आपको अजातशत्रु नहीं रहने देगा। आप भले ही किसी का अहित या किसी से शत्रुता न रखें परन्तु इस घृणित समाज में ऐसे बहुत से व्यक्ति मिल जायेंगे, जो व्यर्थ में ही शत्रुता मान लेंगे, छिपकर आपके ऊपर तीर पर तीर चलाये जायेंगे, कभी तो आपको वह तीर लगेगा ही और आप तिलमिला उठेंगे। इसके पश्चात् आपके हृदय से प्रतिशोध की अग्नि भी धधकने लगेगी ही, क्योंकि मानव स्वभाव से ही प्रतिशोधपूर्ण होता है बस इस स्थिति पर विजय पाने के लिये ही प्रस्तुत निबन्ध के शीर्षक की उक्ति है। उक्ति का अर्थ है, ‘जो तुम्हारे लिये काँटे बोता है, तुम उसके लिए फूल बोओ’, अर्थात् जो तुम्हारा अहित करता है तुम उसका हित करो, जो तुम्हें दुख देता है तुम उसे सुख दो, जो तुमसे द्वेष रखता है तुम उससे प्रेम करो, जो तुम्हें हानि पहुँचा रहा है तुम उसे लाभ पहुँचाओ, जो तुम्हें गिरा रहा है तुम उसे उठाओ । निःसन्देह एक दिन ऐसा आयेगा कि वह अपने इन धूर्ततापूर्ण कुकृत्यों को छोड़कर तुम्हारा प्रशंसक और सहायक बन जायेगा ।
          प्रतिशोध पशुओं की वस्तु है । आप जाते हुए सर्प पर छोटा-सा ईंट या पत्थर का टुकड़ा फेंककर देखिए, यदि वह उसको थोड़ा-सा भी लग गया और उसने आपको देख लिया तो फिर वह आपको छोड़ नहीं सकता, चाहे आप दुनिया के किसी पर्दे पर क्यों न चले जायें। आप किसी भैंस या बिजार या बैल की ओर लाठी उठा लीजिए, वह भी आपको सींग उठाकर मारने दौड़ेगा। यदि आप इस पाशविक प्रवृत्ति से मुक्त होना चाहते हैं, यदि आप अपने को पशुओं की अपेक्षा अधिक ज्ञानवान जीव समझते हैं, यदि आप शुद्ध रूप से श्रेष्ठ जीवन व्यतीत करना चाहते हैं, तो आपको इस उक्ति के अनुसार अपना जीवन-यापन करना होगा, इस उक्ति को अपने जीवन की सहचरी बनाना होगा, फिर देखिये कि यह आपकी किस तरह सेवा करती है, और आपको उठाकर कहाँ से कहाँ ले जाती है। यदि आप जीवन में उन्नति और उत्कर्ष प्राप्त करना चाहते हैं, तो आपको प्रतिहिंसा और प्रतिशोध की भावनाओं को तिलांजलि देनी ही होगी और उसके स्थान पर सहनशीलता, सहयोग, सहानुभूति, संवेदना और दुःख, कातरता आदि दैवी गुणों को जीवन में लाना होगा। प्रतिशोध और प्रतिहिंसा की भावना से मनुष्य की आत्मा का पतन हो जाता है। क्रोध से उसकी बुद्धि का विनाश होता है और बुद्धि भ्रष्ट होने से वह भिन्न-भिन्न जग्रन्य कुकृत्य और कुकर्म करने में प्रवृत्त हो जाता है, जिससे उसका पतन अवश्यम्भावी हो जाता है।
“कीर्तिर्यस्य स जीवति”
          जिस मनुष्य की संसार में कीर्ति होती है, वह सदैव जीवित रहता है, चाहे भले ही वह पार्थिव शरीर से इस संसार में न रहा हो। कीर्ति का भागी वही मनुष्य होता है, जिसमें कुछ असाधारण प्रतिभा होती है, जो अपने गुणों और प्रतिभा के सहारे से समाज की तन, मन, धन से सेवा करता है। जो मनुष्य बुराई के बदले में सदा भलाई ही करता है, जो ईंट का उत्तर फूल से देता है, जो अपने सुकर्मों और सरल स्वभाव से घृणा को प्रेम में बदल देता है, उससे बढ़कर कौन गुणवान हो सकता है, उससे अधिक कौन समाजसेवी हो सकता है ? समाज सेवा ही वह व्यक्ति कर सकता है, जो समदृष्टा हो, सहनशील हो, सहानुभूतिपूर्ण हो। जिस व्यक्ति ने आपके साथ दुर्व्यवहार किया है यदि उसके बदले में आपने उससे सद्व्यवहार किया, जिस व्यक्ति ने आपकी निन्दा की है, यदि आपने उसकी प्रशंसा की तो आप समाज के अन्य व्यक्तियों में कीर्ति के पात्र होंगे। समाज में आपका यश बढ़ेगा, घर-घर में आपका गुणगान होगा। एक दिन ऐसा भी आएगा कि वे ही आपके -निन्दक आपके प्रशंसक बन जायेंगे ।
“क्षमाशस्त्रं कर यस्य दुर्जनः किं करिष्यति 
अतृणे पतितो बह्नि स्वयमेवोपशाम्यति ।” 
          ” अर्थात् जिस मनुष्य के हाथ में क्षमा रूपी शस्त्र है उसका दुष्ट मनुष्य क्या करेगा अर्थात् कुछ नहीं बिगाड़ सकता, जैसे बिना तिनकों वाली भूमि पर गिरी हुई अग्नि स्वयं ही बुझ जाती है।
          समाज ऐसे ही व्यक्ति को मूर्धन्यता प्रदान करता है, उसी व्यक्ति को प्रतिष्ठा प्रदान करता है, जो स्वर्ण की भाँति अग्निपरीक्षा के बाद भी मुस्करा रहा हो, संघर्ष और विपरीत परिस्थितियों में भी जिसकी भौंहों में सिकुड़न न पड़ी हों, गालियाँ खाने और पिटने के बाद भी जिसके हृदय में प्रतिहिंसा की भावना जाग्रत न हुई हो, चोरी करके जाते हुए तथा पुलिस के द्वारा पकड़े जाने पर भी जिस धनी ने उन चोरों को अपना रिश्तेदार तथा अपहृत धन को अपने हाथ से दिया हुआ उपहार बता दिया हो, इतिहास ऐसे व्यक्तियों के उदाहरणों से भरा पड़ा है। जिन्होंने स्वयं कितना ही कष्ट सह लिया, परन्तु कष्ट देने वाले के साथ थोड़ा-सा भी कठोर व्यवहार नहीं किया, ऐसे व्यक्तियों की उनके जीवन काल में भी और आज भी, जबकि वे नहीं रहे, ज्यों-की त्यों प्रतिष्ठा बनी हुई है। आज भी जनता उनका हृदय से स्वागत करती है और उनकी प्रशंसा करने में अपनी वाणी को धन्य समझती है। आज भी वे महापुरुष समाज में श्रद्धा और आदर के पात्र बने हुये हैं ।
          जो मनुष्य शत्रु के साथ भी मित्रता का व्यवहार करता है, जो मनुष्य दुष्ट के साथ भी सज्जन जैसा आचरण करता है, उसकी आत्मा शुद्ध हो जाती है। ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध और वैमनस्य ही मनुष्य की आत्मा के पतन के मुख्य कारण हैं। जो मनुष्य बुराई करने वाले के साथ भी भलाई करता है, उसकी आत्मा दिव्यलोक में विचरण करती है। वह कभी आत्म-ग्लानि और आत्म- पराजय की अग्नि में नहीं जलता। सबके साथ समानता का व्यवहार करना, शान्ति और सज्जनता का व्यवहार करना, संसार का सबसे बड़ा तप है, दान है और ज्ञान है। वह सबसे बड़ा आत्म-ज्ञानी है, जो संसार की समस्त आत्माओं को अपनी आत्मा समझता है। गीता में कहा गया है कि –
“आत्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यति सः पण्डितः ।”
           जो मनुष्य समस्त संसार को अपनी ही आत्मा के समान समझता है, वही पंडित है अर्थात् ज्ञानी है। जब सभी अपनी आत्मा हैं, अपने ही हैं, फिर किसके साथ प्रतिहिंसा और कैसा प्रतिशोध । जो लोग हिंसा और प्रतिहिंसा, अपना और पराया आदि की भावना में फँसे रहते हैं, वे संसार के और निम्न कोटि के प्राणी होते हैं। उनकी आत्मा का कभी उद्धार नहीं हो पाता। वे आत्मशुद्धि और आत्मसंस्कार के कार्य में कभी उन्नति नहीं कर सकते ।
“अयं निजः परो वेति गणना लघु चेतसाम् ।
उदार-चरिताम्त वसुधैव कुटुम्बकम् ।” 
          मनुष्य की आत्मिक शुद्धि से उसे सच्चे सुख और शांति की प्राप्ति होती है। उसके हृदय में दिव्य भावनाएँ उत्पन्न होती हैं और वह प्रेम पारावार में गोते लगा कर जीवन भर आनन्द का अनुभव करता है। आनन्द को नष्ट करने वाला शोक उसके पास तक नहीं आता, क्योंकि शोक • उत्पन्न करने वाले शत्रु और स्वार्थ उसके निकट नहीं आते। वह किसी का बुरा नहीं चाहता, वह किसी से शत्रुता नहीं चाहता, वह किसी का अहित चिन्तन नहीं करता, वह किसी के मार्ग में प्रत्यूह उपस्थति नहीं करता। वह वास्तविक सुख और शांति का अनुभव करता है। ईर्ष्या की आग और द्वेष का धुआँ उससे कोसों दूर खड़ा रहता है । शत्रु की ईंट के द्वारा फूटे हुए मस्तक से बहने वाली रक्त की धारा को वह अपने गले का हार समझता है, क्यों न इसे व्यक्ति को जीवन का सच्चा सुख और शांति प्राप्त होगी। रहीम की पंक्तियों में उसका अडिग विश्वास प्रकट होता है—
“प्रीति रीति सब सों भली, बैर न हित मित गोत ।
रहिमन याही जनम में बहुरि न संगति होत ॥” 
          महात्मा गाँधी के निधन पर जितना हिन्दू रोये उतने ही मुसलमान, जितने सिक्ख रोये उतने ही पारसी, जितना इंग्लैंड को दुःख हुआ उतना ही अमेरिका को । जब हम सोचते हैं कि गाँधी जी तो हिन्दू थे, हिन्दुओं को ही दुःख होना चाहिये था, तब हमारे सामने केवल यही उत्तर आता है कि उन्होंने जो कुछ किया वह सबके लिए किया । जिन्होंने विदेशों में उन्हें मारा-पीटा और तरह-तरह की यातनाएँ दीं, उनकी भी उन्होंने कल्याण-कामना की, उनकी भलाई के लिए भी उन्होंने सोचा और प्रयत्न किया। इसीलिए आज उन्हें विश्वबन्धु कहा जाता है। गाँधी जी ने “जो तोकू काँटा बुवै ताहि बोय तू फूल” वाली उक्ति को जीवन में ग्रहण किया था । वे कहा करते थे जो व्यक्ति तुम्हारे एक गाल पर थप्पड़ जमाता है, तुम उसके आगे दूसरा गाल भी मारने के लिये कर दो, वह एक बार में नहीं तो दूसरी बार में अवश्य लज्जित होगा और अपने किए हुए कुकर्म पर पश्चात्ताप करेगा। महात्मा बुद्ध जीवन काल में बौद्ध धर्म के विरोधी शासकों ने उसका घोर विरोध किया। भिक्षा माँगते समय भिक्षुओं पर ईंट-पत्थर फेंके जाते, भिक्षु बेचारे खून से लथपथ हो जाते, परन्तु मुँह से एक शब्द भी न कहते । भगवान् बुद्ध को मारने के लिये अनके भयानक डाकुओं को भेजा जाता | बुद्ध को जब यह पता लगता तो वह स्वयं उनके पास पहुँच जाते और कहते कि “लो मारो, मै आ गया हूँ।” भगवान् बुद्ध यदि चाहते तो अपने अनुयायी शासकों से उनको समाप्त भी करा सकते थे, परन्तु नहीं, यदि वे ऐसा करते तो सम्भवतः आज बुद्ध को भगवान् कोई न कहता । शान्ति, प्रेम और अहिंसा से उन्होंने अपने कट्टर विरोधियों पर विजय प्राप्त की । प्रभु ईसा मसीह के जीवन काल में भी उनके विरोधियों ने उन पर कितने भयानक अत्याचार किये, परन्तु उन्होंने सदैव भगवान् से उनकी मंगलकामना ही की। परिणाम यह हुआ कि आज संसार में ईसाई धर्मावलम्बियों की संख्या सबसे अधिक है। इंग्लैंड के प्रसिद्ध बिशप की कैंडलस्टिक चुराने के लिये जेल से भागा हुआ खूँख्वार डाकू खुली हुई खिड़की के रास्ते से जब भीतर आ गया, तब बिशप ने हाथ जोड़कर कहा कि आप कई दिनों से भूखे होंगे, बैठिये, मै आपके लिये भोजन बनवाता हूँ, आप स्नान तो नहीं करेंगे? इस व्यवहार को देखकर डाकू भी दंग रह गया। चोरी करके भागते हुये, उसी डाकू को पुलिस ने पकड़ लिया और जब वह बिशप के पास लाया गया तो बिशप ने यही कहा कि ये तो मेरे रिश्तेदार हैं, उन्होंने ये चीजें चुराई नहीं बल्कि उपहारस्वरूप मैंने ही भेंट की थीं। धन्य है रे बिशप तेरी महान् साधुता । इन दिनों आचार्य विनोबा भावे भी डाकुओं के हृदय परिवर्तन में विश्वास रखकर उन्हें सभ्य नागरिक बनाने का प्रयत्न कर रहे थे ।
          कुछ व्यक्तियों का विचार है कि इस प्रकार की विचारधारा से मनुष्य में कायरता और भीरुता आ जाती है, वह अपने स्वाभिमान को खो बैठता है। विपत्तियाँ उसे चारों ओर से घेरती हैं। वह उनका कुछ भी प्रतिकार नहीं कर सकता, इस प्रकार वह एक नपुंसक व्यक्ति बन जाता है।
” शठें शाठ्यं समाचरेत्” या “मायाचारी मायया वर्तितव्यः।
           ये उक्तियाँ, अर्थात् दुष्ट के साथ दुष्टता करनी चाहिये या मायावी के साथ मायावी बनना चाहिये, उचित नहीं ।
          कटुता से कटुता बढ़ती है, क्रोध से क्रोध कभी शान्त नहीं होता । बैर को प्रेम से ही जीता जा सकता है न कि बैर से, बैर से तो बैर और बढ़ेगा । अतः मानव जीवन में शान्ति, सन्तोष, दया, क्षमा, सहानुभूति आदि आदर्श एवं उदात्त गुणों की नितान्त आवश्यकता है बदला लेना तो पाशविक प्रवृत्ति है।
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