जैव प्रक्रम Bio Process
जैव प्रक्रम Bio Process
♦ जीवों का अनुरक्षण कार्य निरन्तर होते रहता है। यह उस समय भी चलता रहता है जब वे कोई विशेष कार्य नहीं करते। वे सभी प्रक्रम जो सम्मिलित रूप से जीवों के अनुरक्षण का कार्य करते हैं जैव प्रक्रम कहलाते हैं।
♦ चूँकि क्षति तथा टूट-फूट रोकने के लिए अनुरक्षण प्रक्रम की आवश्यकता होती है अतः इसके लिए उन्हें ऊर्जा की आवश्यकता होगी। यह ऊर्जा एकल जीव के शरीर के बाहर से आती है। इसलिए ऊर्जा के स्रोत का बाहर से जीव के शरीर में स्थानान्तरण के लिए कोई प्रक्रम होना चाहिए। इस ऊर्जा के स्रोत को हम भोजन तथा इसे शरीर के अन्दर लेने के प्रक्रम को पोषण कहते हैं।
♦ यदि जीव में शारीरिक वृद्धि होती है तो इसके लिए उसे बाहर से अतिरिक्त कच्ची सामग्री की भी आवश्यकता होगी। क्योंकि पृथ्वी पर जीवन कार्बन आधारित अणुओं पर निर्भर है अतः अधिकांश खाद्य पदार्थ भी कार्बन आधारित हैं। इन कार्बन स्रोतों की जटिलता विविध जीव भिन्न प्रकार के पोषण प्रक्रम को प्रयुक्त के अनुसार करते हैं।
♦ पोषण के अतिरिक्त, श्वसन, उत्सर्जन, नियन्त्रण एवं समन्वय, आदि जैव प्रक्रम के उदाहरण हैं।
♦ विभिन्न जीव शरीर के अनुरक्षण तथा शरीर की वृद्धि के लिए शरीर के अन्दर रासायनिक क्रियाओं की एक श्रृंखला की आवश्यकता है। उपचयन-अपचयन अभिक्रियाएँ अणुओं के विघटन की कुछ सामान्य रासायनिक युक्तियाँ हैं। इसके लिए बहुत से जीव शरीर के बाहरी स्रोत से ऑक्सीजन प्रयुक्त करते हैं। शरीर के बाहर से ऑक्सीजन को ग्रहण करना तथा कोशिकीय आवश्यकता के अनुसार खाद्य स्रोत के विघटन में उसका उपयोग श्वसन कहलाता है।
♦ एक एककोशिकीय जीव की पूरी सतह पर्यावरण के सम्पर्क में रहती है। अतः इन्हें भोजन ग्रहण करने के लिए, गैसों का आदान-प्रदान करने के लिए या वर्ज्य पदार्थ के निष्कासन के लिए किसी विशेष अंग की आवश्यकता नहीं होती हैं।
♦ बहुकोशिकीय जीवों में सभी कोशिकाएँ अपने आसपास के पर्यावरण के सीधे सम्पर्क में नहीं रह सकतीं। अतः साधारण विसरण सभी कोशिकाओं की आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सकता। बहुकोशिकीय जीवों में विभिन्न कार्यों को करने के लिए भिन्न-भिन्न विशिष्टीकृत हो जाते हैं। भोजन तथा ऑक्सीजन का अन्तर्ग्रहण भी विशिष्टीकृत ऊतकों का कार्य है। परन्तु इससे एक समस्या पैदा होती है यद्यपि भोजन एवं ऑक्सीजन का अन्तर्ग्रहण कुछ विशिष्ट अंगों द्वारा ही होता है, परन्तु शरीर के सभी भागों को इनकी आवश्यकता होती है। इस स्थिति में भोजन एवं ऑक्सीजन को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने के लिए वहन – तन्त्र की आवश्यकता होती है।
♦ जब रासायनिक अभिक्रियाओं में कार्बन स्रोत तथा ऑक्सीजन का उपयोग ऊर्जा प्राप्ति के लिए होता है, तब ऐसे उपोत्पाद भी बनते हैं जो शरीर की कोशिकाओं के लिए न केवल अनुपयोगी होते हैं बल्कि वे हानिकारक भी हो सकते हैं। इन अपशिष्ट उपोत्पादों को शरीर से बाहर निकालना अति आवश्यक होता है। इस प्रक्रम को उत्सर्जन कहा जाता है।
पोषण
♦ सजीव अपना भोजन कैसे प्राप्त करते हैं? सभी जीवों में ऊर्जा तथा पदार्थ की सामान्य आवश्यकता समान है। लेकिन इसकी आपूर्ति भिन्न विधियों से होती है। कुछ जीव अकार्बनिक स्रोतों से कार्बन डाइऑक्साइड तथा जल के रूप में सरल पदार्थ प्राप्त करते हैं। ये जीव स्वपोषी हैं जिनमें सभी हरे पौधे तथा कुछ जीवाणु हैं। अन्य जीव जटिल पदार्थों का उपयोग करते हैं। इन जटिल पदार्थों को सरल पदार्थों में खण्डित करना अनिवार्य है ताकि ये जीव के समारक्षण तथा वृद्धि में प्रयुक्त हो सकें। इसे प्राप्त करने के लिए जीव जैव-उत्प्रेरक का उपयोग करते हैं जिन्हें एंजाइम कहते हैं। अतः विषमपोषी उत्तरजीविता के लिए प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से स्वपोषी पर आश्रित होते हैं। जन्तु तथा कवक इसी प्रकार के विषमपोषी जीवों में सम्मिलित हैं।
♦ स्वपोषी पोषण स्वपोषी जीव की कार्बन तथा ऊर्जा की आवश्यकताएँ प्रकाश संश्लेषण द्वारा पूरी होती हैं। यह वह प्रक्रम है जिसमें स्वपोषी बाहर से लिए पदार्थों को ऊर्जा संचित रूप में परिवर्तित कर देता है। ये पदार्थ कार्बन डाइऑक्साइड तथा जल के रूप में लिए जाते हैं जो सूर्य के प्रकाश तथा क्लोरोफिल की उपस्थिति में कार्बोहाइड्रेट में परिवर्तित कर दिए जाते हैं। कार्बोहाइड्रेट पौधों को ऊर्जा प्रदान करने में प्रयुक्त होते हैं। जो कार्बोहाइड्रेट तुरन्त प्रयुक्त नहीं होते हैं उन्हें मण्ड के रूप में संचित कर लिया जाता है। यह रक्षित आन्तरिक ऊर्जा की तरह कार्य करता है तथा पौधे द्वारा आवश्यकतानुसार प्रयुक्त कर लिया जाता है।
♦ प्रकाश-संश्लेषण की प्रक्रिया के दौरान वायुमण्डल में उपलब्ध कार्बन डाइऑक्साइड पत्तियों के रन्ध्रों द्वारा ली जाती है और कार्बोहाइड्रेटस-मुख्यतया ग्लूकोस (शर्करा) एवं स्टार्च बनाने में उपयोग की जाती है।
♦ प्रकाश-संश्लेषण की क्रिया पौधों के हरे भागों, मुख्यतः पत्तियों में सम्पन्न होती है। पत्तियों के अन्तर्गत पर्णमध्योतक कोशिकाओं में भारी मात्रा में क्लोरोप्लास्ट होता है जोकि कार्बन डाइऑक्साइड यौगिकीकरण (फिक्सेशन) के लिए उत्तरदायी होता है। क्लोरोप्लास्ट के अन्तर्गत, प्रकाश अभिक्रिया के लिए झिल्लिकाएँ वह स्थल होती हैं, जबकि केमोसिन्थेटिक पथ स्ट्रोमा में स्थित होता है।
♦ प्रकाश-संश्लेषण में दो चरण होते हैं प्रकाश अभिक्रिया तथा कार्बन फिक्सिंग रिएक्शन।
♦ प्रकाश- अभिक्रिया में प्रकाश ऊर्जा एन्टेना में मौजूद वर्णकों द्वारा अवशोषित किए जाते हैं तथा अभिक्रिया केन्द्र में मौजूद क्लोरोफिल के अणुओं को भेज दिए जाते हैं।
♦ प्रकाश-संश्लेषण का समीकरण
6CO2 + 12H2 0→क्लोरोफिल एवं सूर्य का प्रकाश C6H1206 + 602 + 6H2O
♦ प्रकाश-संश्लेषण प्रक्रम के दौरान निम्नलिखित घटनाएँ होती हैं
(i) क्लोरोफिल द्वारा प्रकाश ऊर्जा को अवशोषित करना ।
(ii) प्रकाश ऊर्जा को रासायनिक ऊर्जा में रूपान्तरित करना तथा जल अणुओं का हाइड्रोजन तथा ऑक्सीजन में अपघटन ।
(iii) कार्बन डाइऑक्साइड का कार्बोहाइड्रेट में अपचयन ।
♦ यह आवश्यक नहीं है कि उपरोक्त चरण तत्काल एक के बाद दूसरा हो। उदाहरण के लिए, मरुद्भिद पौधे रात्रि में कार्बन डाइऑक्साइड लेते हैं और एक मध्यस्थ उत्पाद बनाते हैं। दिन में क्लोरोफिल ऊर्जा अवशोषित करके अन्तिम उत्पाद बनाता है।
♦ पत्ती की अनुप्रस्थ काट का सूक्ष्मदर्शी द्वारा अवलोकन करने पर कुछ कोशिकाओं में हरे रंग के बिन्दु दिखाई देते हैं। ये हरे बिन्दु कोशिकांग हैं जिन्हें क्लोरोप्लास्ट कहते हैं इनमें क्लोरोफिल होता है। प्रकाश-संश्लेषण के लिए क्लोरोफिल आवश्यक है।
♦ प्रकाश-संश्लेषण की क्रिया के लिए सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति भी अनिवार्य है।
♦ स्थलीय पौधे प्रकाश-संश्लेषण के लिए आवश्यक जल की पूर्ति जड़ों द्वारा मिट्टी में उपस्थित जल के अवशोषण से करते हैं। नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, लोहा तथा मैग्नीशियम जैसे अन्य पदार्थ भी मिट्टी से लिए जाते हैं। नाइट्रोजन एक आवश्यक तत्त्व है जिसका उपयोग प्रोटीन तथा अन्य यौगिकों के संश्लेषण में किया जाता है। इसे अकार्बनिक नाइट्रेट तथा नाइट्राइट के रूप में लिया जाता है। इन्हें उन कार्बनिक पदार्थों के रूप में लिया जाता है जिन्हें जीवाणु वायुमण्डलीय नाइट्रोजन से बनाते हैं।
♦ विषमपोषी पोषण प्रत्येक जीव अपने पर्यावरण के लिए अनुकूलित है। भोजन के स्वरूप एवं उपलब्धता के आधार पर पोषण की विधि विभिन्न प्रकार की हो सकती है, इसके अतिरिक्त यह जीव के भोजन ग्रहण करने के ढंग पर भी निर्भर करती है। जीवों द्वारा भोजन ग्रहण करने और उसके उपयोग की अनेक युक्तियाँ हैं। कुछ जीव भोज्य पदार्थों का विघटन शरीर के बाहर हो कर देते हैं और तब उसका अवशोषण करते हैं। फफूँदी, यीस्ट तथा मशरूम आदि कवक इसके उदाहरण हैं। अन्य जीव सम्पूर्ण भोज्य पदार्थ का अन्तर्गहण करते हैं तथा उनका पाचन शरीर के अन्दर होता है।
♦ जीव द्वारा किस भोजन का अन्तर्गहण किया जाए तथा उसके पाचन की विधि उसके शरीर की अभिकल्पना तथा कार्यशैली पर निर्भर करता है।
जीव अपना पोषण कैसे करते हैं?
♦ क्योंकि भोजन और उसके अन्तर्ग्रहण की विधि भिन्न है, अतः विभिन्न जीवों में पाचन तन्त्र भी भिन्न होते हैं। एककोशिकीय जीवों में भोजन सम्पूर्ण सतह से लिया जा सकता है। लेकिन जीव की जटिलता बढ़ने के साथ-साथ विभिन्न कार्य करने वाले अंग विशिष्ट हो जाते हैं।
मनुष्य में पोषण
♦ मनुष्य में पोषण की प्रक्रिया पाचन एवं अवशोषण के जरिए सम्पन्न होती है।
♦ जटिल पोषक पदार्थों को अवशोषण योग्य सरल रूप में परिवर्तित करने की क्रिया को पाचन कहते हैं और हमारा पाचन तन्त्र इसे यान्त्रिक एवं रासायनिक विधियों द्वारा सम्पन्न करता है।
♦ पाचन तन्त्र
♦ मनुष्य का पाचन तन्त्र आहार नाल एवं सहायक ग्रन्थियों से मिलकर बना होता है।
♦ आहार नाल आहार नाल अग्र भाग में मुख से प्रारम्भ होकर पश्च भाग में स्थित गुदा द्वारा बाहर की ओर खुलती है। मुख, मुखगुहा में खुलता है।
♦ मुखगुहा में कई दाँत और एक पेशीय जिह्वा होती है। प्रत्येक दाँत जबड़े में बने एक साँचे में स्थित होता है। इस तरह की व्यवस्था को गर्तदन्ती कहते हैं।
♦ मनुष्य सहित अधिकांश स्तनधारियों के जीवन काल में दो तरह के दाँत आते हैं—अस्थायी दाँत-समूह अथवा दूध के दाँत जो वयस्कों में स्थायी दाँतों से प्रतिस्थापित हो जाते हैं। इस तरह की दाँत ( दन्त) व्यवस्था को द्विबारदन्ती कहते हैं। वयस्क मनुष्य में 32 स्थायी दाँत होते हैं, जिनके चार प्रकार है जैसे कृंतक (I) रदनक (C) अग्र-चर्वणक (PM) और चर्वणक (M)। ऊपरी एवं निचले जबड़े के प्रत्येक आधे भाग में दाँतों की व्यवस्था प्ए ब्ए चडए डक्रम में एक दन्तसूत्र के अनुसार होती है जो मनुष्य के लिए 21232123 है। इनैमल से बनी दाँतों की चबाने वाली कठोर सतह भोजन को चबाने में मदद करती है।
♦ पाचन प्रन्थियाँ आहार नाल से सम्बन्धित पाचन प्रन्थियों में लार ग्रन्थियाँ, यकृत और अग्न्याशय शामिल हैं।
♦ लार लार का निर्माण तीन जोड़ी ग्रन्थियों द्वारा होता है। ये हैं गाल में कर्णपूर्व, निचले जबड़े में अधेजम्भ / अवचिम्बुकीय तथा जिह्वा के नीचे स्थित अधेजिह्वा । इन ग्रन्थियों से लार मुखगुहा में पहुँचती है।
♦ यकृत (liver) यह मनुष्य के शरीर की सबसे बड़ी ग्रन्थि है जिसका वयस्क में भार लगभग 1.2 से 1.5 किग्रा होता है। यह उदर में मध्यपट के ठीक नीचे स्थित होता है और इसकी दो पालियाँ (lobes) होती हैं। यकृत पालिकाएँ यकृत की संरचनात्मक और कार्यात्मक इकाइयाँ हैं जिनके अन्दर यकृत कोशिकाएँ रज्जु की तरह व्यवस्थित रहती हैं।
♦ अग्न्याशय यह U आकार के ग्रहणी के बीच स्थित एक लम्बी ग्रन्थि है जो बहिःस्रावी और अन्तःस्रावी, दोनों ही ग्रन्थियों की तरह कार्य करती है। बहिःस्रावी भाग से क्षारीय अग्न्याशयी स्राव निकलता है, जिसमें एन्जाइम होते हैं और अन्तःस्रावी भाग से इन्सुलिन और ग्लुकेगोन नामक हॉर्मोन का स्राव होता है।
♦ भोजन का पाचन
♦ पाचन की प्रक्रिया यान्त्रिक एवं रासायनिक विधियों द्वारा सम्पन्न होती है।
♦ मुखगुहा के मुख्यतः दो प्रकार्य हैं, भोजन का चर्वण और निगलने की क्रिया ।
♦ लार की मदद से दाँत और जिह्वा भोजन को अच्छी तरह चबाने एवं मिलाने का कार्य करते हैं।
♦ लार का श्लेषम भोजन कणों को चिपकाने एवं उन्हें बोलस में रूपान्तरित करने में मदद करता है। इसके उपरान्त निगलने की क्रिया द्वारा बोलस ग्रसनी से ग्रसिका में चला जाता है।
♦ बोलस पेशीय संकुचन के क्रमाकुंचन (peristalsis) द्वारा ग्रसिका में आगे बढ़ता है। जठर-ग्रसिका अवरोधिनी भोजन के आमाशय में प्रवेश को नियन्त्रित करती है। लार में विद्युत अपघट्य (Electrolytes) (Na+, K+, CI¯, HCO3) और एन्जाइम (लार एमाइलेज या टायलिन तथा लाइसोजाइम) होते हैं।
♦ पाचन की रासायनिक प्रक्रिया मुखगुहा में कार्बोहाइड्रेट को जल अपघटित करने वाली एन्जाइम टायलिन या लार एमाइलेज की सक्रियता से प्रारम्भ होती है। लगभग 30% स्टार्च इसी एन्जाइम की सक्रियता (pH 6-8) से द्विशर्करा माल्टोस में अपघटित होती है। लार में उपस्थित लाइसोजाइम जीवाणुओं के संक्रमण को रोकता है।
♦ आमाशय की म्यूकोसा में जठर ग्रन्थियाँ स्थित होती हैं।
♦ जठर ग्रन्थियों में मुख्य रूप से तीन प्रकार की कोशिकाएँ होती हैं, यथा (i) म्यूकस का स्राव करने वाली श्लेषम ग्रीवा कोशिकाएँ (ii) पेप्टिक या मुख्य कोशिकाएँ जो प्रोएन्जाइम पेप्सिनोजेन का स्राव करती हैं तथा (iii) भित्तीय या ऑक्सिन्टिक कोशिकाएँ जो हाइड्रोक्लोरिक अम्ल और नैज कारक स्रावित करती हैं।
♦ आमाशय 4-5 घण्टे तक भोजन का संग्रहण करता है।
♦ आमाशय की पेशीय दीवार के संकुचन द्वारा भोजन अम्लीय जठर रस से पूरी तरह मिल जाता है जिसे काइम (Chyme) कहते हैं।
♦ प्रोएन्जाइम पेप्सिनोजेन हाइड्रोक्लोरिक अम्ल के सम्पर्क में आने से सक्रिय एन्जाइम पेप्सिन में परिवर्तित हो जाता है जो आमाशय का प्रोटीन-अपघटनीय एन्जाइम है।
♦ पेप्सिन प्रोटीनों को प्रोटियोज तथा पेप्टोंस (पेप्टाइड) में बदल देता है। जठर रस में उपस्थित श्लेष्म एवं बाइकार्बोनेट श्लेष्म उपकला स्तर का स्नेहन और अत्यधिक सान्द्रित हाइड्रोक्लोरिक अम्ल से उसका बचाव करते हैं।
♦ हाइड्रोक्लोरिक अम्ल पेप्सिनों के लिए उचित अम्लीय माध्यम (pH 1-8) तैयार करता है।
♦ नवजातों के जठर रस मे रेनिन नामक प्रोटीन अपघटनीय एन्जाइम होता है जो दूध के प्रोटीन को पचाने में सहायक होता है।
♦ जठर ग्रन्थियाँ थोड़ी मात्रा में लाइपेज भी स्रावित करती हैं। छोटी आँत का पेशीय स्तर कई तरह की गतियाँ उत्पन्न करता है। इन गतियों से भोजन विभिन्न स्रावों से अच्छी तरह मिल जाता है और पाचन की क्रिया सरल हो जाती है। यकृत अग्न्याशयी नलिका द्वारा पित्त, अग्न्याशयी रस और आँत्र – रस छोटी आँत्र में छोड़े जाते हैं।
♦ पाचित उत्पादों का अवशोषण
♦ अवशोषण वह प्रक्रिया है, जिसमें पाचन से प्राप्त उत्पाद यान्त्रिक म्यूकोसा से निकलकर रक्त या लसीका में प्रवेश करते हैं। यह निष्क्रिय, सक्रिय अथवा सुसाध्य परिवहन क्रियाविधियों द्वारा सम्पादित होता है।
♦ ग्लूकोज, अमीनो अम्ल, क्लोराइड आयन आदि की थोड़ी मात्रा सरल विसरण प्रक्रिया द्वारा रक्त में पहुँच जाती हैं। इन पदार्थों का रक्त में पहुँचना सान्द्रण – प्रवणता
(Concentration gradient) पर निर्भर है।
♦ अवशोषित पदार्थ अन्त में ऊतकों में पहुँचते हैं जहाँ वे विभिन्न क्रियाओं के उपयोग में लाए जाते हैं। इस प्रक्रिया को स्वांगीकरण (Assimilation) कहते हैं।
♦ पाचक अवशिष्ट मलाशय में कठोर होकर सम्बद्ध मल बन जाता है जो तान्त्रिक प्रतिवर्ती, दमनतन्स तमसिमगद्ध क्रिया को शुरू करता है जिससे मलत्याग की इच्छा पैदा होती है। मलद्वार से मल का बहिक्षेपण एक एच्छिक क्रिया है जो एक बृहत् क्रमाकुंचन गति से पूरी होती है।
श्वसन और गैसों का विनिमय
♦ सजीव पोषक तत्त्वों जैसेग्लूकोस को तोड़ने के लिए ऑक्सीजन का परोक्ष रूप से उपयोग करते हैं, जिससे विभिन्न क्रियाओं को सम्पादित करने के लिए आवश्यक ऊर्जा प्राप्त होती है उपरोक्त अपचयी क्रियाओं में कार्बन डाइऑक्साइड भी मुक्त होती है जो हानिकारक है इसलिए यह आवश्यक है कि कोशिकाओं को लगातार O2उपलब्ध कराई जाए और CO2 को बाहर मुक्त किया जाए। वायुमण्डलीय O2 और कोशिकाओं में उत्पन्न CO2के आदान-प्रदान (विनियम) की इस प्रक्रिया को श्वसन कहते हैं।
♦ श्वसन के अंग
♦ प्राणियों के विभिन्न वर्गों के बीच श्वसन की क्रियाविधि उनके निवास और संगठन के अनुसार बदलती है। निम्न अकशेरुकी जैसे स्पंज, सीलेन्ट्रेटा चपटे कृमि आदि O2 और CO2 का आदान-प्रदान अपने सारे शरीर की सतह M से सरल विसरण द्वारा करते हैं।
♦ केंचुए अपनी आर्द्र क्यूटिकल को श्वसन के लिए उपयोग करते हैं।
♦ कीटों के शरीर में नलिकाओं का एक जाल (श्वसन नलिकाएँ) होता है जिनसे वातावरण की वायु उनके शरीर में विभिन्न स्थान पर पहुँचती है ताकि कोशिकाएँ सीधे गैसों का आदान-प्रदान कर सकें।
♦ स्तनधारियों में एक पूर्ण विकसित श्वसन प्रणाली होती है।
♦ मानव श्वसन तन्त्र
♦ हमारे एक जोड़ी बाह्य नासाद्वारा होते हैं, जो होठों के ऊपर बाहर की तरफ खुलते हैं। ये नासा मार्ग द्वारा नासा कक्ष तक पहुँचते हैं।
♦ नासा कक्ष ग्रसनी के एक भाग, नासा ग्रसनी में खुलते हैं। ग्रसनी आहार और वायु दोनों के लिए उभयनिष्ठ मार्ग है। नासा ग्रसनी कण्ठक्षेत्र स्थित घाँटी द्वारा श्वासनली में खुलती है।
♦ कण्ठ एक उपास्थिमय पेटिका है जो ध्वनि उत्पादन में सहायता करती है इसीलिए इसे ध्वनि पेटिका भी कहा जाता है। श्वासनली, प्राथमिक, द्वितीयक एवं तृतीयक श्वसनी तथा प्रारम्भिक श्वसनिकाएँ अपूर्ण उपास्थिल वलयों से आलम्बित होती हैं।
♦ प्रत्येक अन्तस्थ श्वसनिका बहुत सारी पतली अनियमित भित्ति युक्त वाहिकायित थैली जैसी संरचना कूपिकाओं में खुलती है. जिसे वायु कूपिका कहते हैं।
♦ श्वसनी, श्वसनिकाओं और कूपिकाओं का शाखित जाल फेफड़ों (Lungs) की रचना करते हैं।
♦ श्वसन के चरण
♦ श्वसन में निम्नलिखित चरण सम्मिलित हैं
(i) श्वसन या पुफप्पुफसी संवातन जिससे वायुमण्डलीय वायु अन्दर खींची जाती है और CO2से भरपूर कूपिका की वायु को बाहर मुक्त किया जाता है।
(ii) कूपिका झिल्ली के आर-पार गैसों (O2और CO2) का विसरण।
(iii) रुधिर द्वारा गैसों का परिवहन (अभिगमन)
(iv) रुधिर और ऊतकों के बीच O2और CO2 का विसरण।
(v) अपचयी क्रियाओं के लिए कोशिकाओं द्वारा O2 का उपयोग और उसके फलस्वरूप CO2 का उत्पन्न होना।
♦ गैसों का विनिमय कुपिकाएँ गैसों के विनिमय के लिए प्राथमिक स्थल होती हैं। गैसों का विनिमय रक्त और ऊतकों के बीच भी होता है। इन स्थलों O2 और CO2का विनिमय दाब अथवा सान्द्रता प्रवणता के आधार पर सरल विसरण द्वारा होता है। गैसों की घुलनशीलता के साथ-साथ विसरण में सम्मिलित झिल्लियों की मोटाई भी विसरण की दर को प्रभावित करने वाले कुछ महत्त्वपूर्ण घटक हैं।
♦ गैसों का परिवहन
♦ O2और CO2के परिवहन का माध्यम रुधिर होता है। लगभग 97% O2 का परिवहन रुधिर में लाल रुधिर कणिकाओं द्वारा होता है। शेष 3% O2 का प्लाज्मा द्वारा घुल्य अवस्था में होता है।
♦ लगभग 20 – 25% CO2 का परिवहन लाल रुधिर कणिकाओं द्वारा होता है, जबकि 70% का बाईकार्बोनेट के रूप में अभिगमन होता है। लगभग 7% CO2प्लाज्मा द्वारा घुल्य अवस्था में होता है।
♦ ऑक्सीजन का परिवहन
♦ हीमोग्लोबिन लाल रुधिर कणिकाओं में स्थित एक लाल रंग का लौहयुक्त वर्णक है।
♦ हीमोग्लोबिन के साथ उत्क्रमणीय (Reversible) ढंग से बन्धकर ऑक्सीजन ऑक्सी- हीमोग्लोबिन का गठन कर सकता है।
♦ प्रत्येक हीमोग्लोबिन अणु अधिकतम चार O2अणुओं के वहन कर सकते हैं। हीमोग्लोबिन के साथ ऑक्सीजन का बन्धना प्राथमिक तौर पर O2 के आंशिक दाब से सम्बन्धित है।
♦ CO2 का आंशिक दाब हाइड्रोजन आयन सान्द्रता और तापक्रम के कुछ अन्य कारक हैं जो इस बन्धन को बाधित कर सकते हैं।
♦ श्वसन का नियमन (Regulation of Respiration)
♦ मानव में अपने शरीर के ऊतकों की माँग के अनुरूप श्वसन की लय को सन्तुलित और स्थिर बनाए रखने की एक महत्त्वपूर्ण क्षमता है। यह नियमन तन्त्रिका तन्त्र द्वारा सम्पन्न होता है।
♦ मस्तिष्क के मेड्यूला क्षेत्र में एक विशिष्ट श्वसन लयकेन्द्र विद्यमान होता है, जो मुख्य रूप से श्वसन के नियमन के लिए उत्तरदायी होता है।
♦ मस्तिष्क के पोंस क्षेत्र में एक अन्य केन्द्र स्थित होता है जिसे श्वसाप्रभावी केन्द्र कहते है जो श्वसन लयकेन्द्र के कार्यों को सयत कर सकता है। इस केन्द्र के तन्त्रिका संकेत अन्तः श्वसन की अवधि को कम कर सकते हैं और इस प्रकार श्वसन दर को परिवर्तित कर सकते हैं।
शरीर द्रव्य वहन
♦ सरल प्राणी जैसे स्पन्ज व सिलेण्ट्रेट बाहर से अपने शरीर में पानी का संचरण शारीरिक गुहाओं में करते हैं, जिससे कोशिकाओं के द्वारा इन पदार्थों का आदान-प्रदान सरलता से हो सके।
♦ जटिल प्राणी इन पदार्थों के परिवहन के लिए विशेष तरल का उपयोग करते हैं।
♦ मनुष्य सहित उच्च प्राणियों में रुधिर इस उद्देश्य में काम आने वाला सर्वाधिक सामान्य तरल है। एक अन्य शरीर द्रव लसिका भी कुछ विशिष्ट तत्त्वों के परिवहन में सहायता करता है ।
♦ रुधिर रुधिर एक विशेष प्रकार का ऊतक है, जिसमें द्रव्य आधत्री (मैट्रिक्स) प्लाज्मा (प्लैज्मा) तथा अन्य संगठित संरचनाएँ पाई जाती हैं।
♦ प्लाज्मा प्लाज्मा अर्थात् प्रद्रव्य एक हल्के पीले रंग का गाढ़ा तरल पदार्थ है, जो रुधिर के आयतन का लगभग 55% होता है।
♦ प्रद्रव्य में 90–92 प्रतिशत जल तथा 6-8 प्रतिशत प्रोटीन पदार्थ होते हैं।
♦ फाइब्रिनोजन, ग्लोबुलिन तथा एल्बुमिन प्लाज्मा में उपस्थित मुख्य प्रोटीन हैं।
♦ फाइब्रिनोजन की आवश्यकता रुधिर थक्का बनाने या स्कन्दन में होती है।
♦ ग्लोबुलिन का उपयोग शरीर के प्रतिरक्षा तन्त्र तथा एल्बुमिन का उपयोग परासरणी सन्तुलन के लिए होता है।
♦ प्लाज्मा अनेक खनिज आयन में जैसे Na+, Ca++, Mg++, HCO–3, CI–– इत्यादि भी पाए जाते हैं।
♦ शरीर मे संक्रमण की अवस्था होने के कारण ग्लूकोस, अमीनो अम्ल तथा लिपिड भी प्लाज्मा में पाए जाते हैं। रुधिर का थक्का बनाने अथवा स्कन्दन के अनेक कारक प्रद्रव्य के साथ निष्क्रिय दशा में रहते हैं।
♦ बिना थक्का / स्कन्दन कारकों के प्लाज्मा को सीरम कहते हैं।
♦ संगठित पदार्थ
♦ लाल रुधिर कणिका (इरिथ्रोसाइट), श्वेताणु (ल्यूकोसाइट) तथा पट्टिकाणु ( प्लेटलेट्स) को संयुक्त रूप से संगठित पदार्थ कहते हैं। ये रुधिर के लगभग 45% भाग बनाते हैं।
♦ इरिथ्रोसाइट (रक्ताणु) या लाल रुधिर कणिकाएँ अन्य सभी कोशिकाओं से संख्या में अधिक होती हैं।
♦ एक स्वस्थ मनुष्य में ये कणिकाएँ लगभग 50 से 50 लाख प्रति घन मिमी रुधिर (5 ये 5.5 मिलियन प्रति घन मिमी) होती हैं।
♦ वयस्क अवस्था में लाल रुधिर कणिकाएँ लाल अस्थि मज्जा में बनती हैं।
♦ अधिकतर स्तनधारियों की लाल रुधिर कणिकाओं में केन्द्रक नहीं मिलते हैं तथा इनकी आकृति उभयावतल होती हैं। इनका लाल रंग एक लौह युक्त जटिल प्रोटीन हीमोग्लोबिन को उपस्थिति के कारण है।
♦ एक स्वस्थ मनुष्य में प्रति 100 मिली रुधिर में लगभग 12 से 16 ग्राम हीमोग्लोबिन पाया जाता है। इन पदार्थों की श्वसन गैसों के परिवहन में महत्त्वपूर्ण भूमिका है। लाल रुधिर कणिकाओं की औसत आयु 120 दिन होती है। तत्पश्चात् इनका विनाश प्लीहा (लाल रुधिर कणिकाओं को कब्रिस्तान) में होता है।
♦ ल्यूकोसाइट को हीमोग्लोबिन के अभाव के कारण तथा रंगहीन होने के कारण श्वेत रुधिर कणिकाएँ भी कहते हैं।
♦ इसमें केन्द्रक पाए जाते हैं तथा इनकी संख्या लाल रुधिर कणिकाओं की अपेक्षा कम, औसतन 6000-8000 प्रति घन मिमी रुधिर होता है। सामान्यतया ये कम समय तक जीवित रहती हैं। इनको दो मुख्य श्रेणियों में बाँटा गया है – कणिकाणु ( ग्रेन्यूलोसाइट) तथा अकण के शिका (एग्रेन्यूलो साइट) न्यूट्रोफिल, इओसिनोफिल व बेसोकिल कणिकाओं के प्रकार हैं, जबकि लिम्फोसाइट तथा मोनोसाइट अक कोशिका के प्रकार हैं।
♦ पट्टिकाणु (प्लेटलेट्स) को थ्रोम्बोसाइट भी कहते हैं, ये मैगाकेरियो साइट (अस्थि मज्जा की विशेष कोशिका) के टुकड़ों में विखण्डन से बनती हैं। रुधिर में इनकी संख्या 1.5 से 3.5 लाख प्रति घन मिमी होती है। प्लेटलेट्स कई प्रकार के पदार्थ स्रावित करती हैं जिनमें अधिकांश रुधिर का थक्का जमाने (स्कन्दन) में सहायक हैं। प्लेटलेट्स की संख्या में कमी के कारण स्कन्दन (जमाव) में विकृति हो जाती है तथा शरीर से अधिक रुधिर स्राव हो जाता है।
♦ रुधिर समूह ( ब्लड ग्रुप) मनुष्य का रुधिर एक जैसा दिखते हुए भी कुछ अर्थों में भिन्न होता है। अधिर का कई तरीके से समूहीकरण किया गया है। इनमें से दो मुख्य समूह ABO तथा Rh का उपयोग पूरे विश्व में होता है।
♦ ABO समूह ABO समूह मुख्यतया लाल रुधिर कणिकाओं की सतह पर दो प्रतिजन / एण्टीजन की उपस्थिति या अनुपस्थिति पर निर्भर होता है। ये एन्टीजन A और B हैं जो प्रतिरक्षा अनुक्रिया को प्रेरित करते हैं। इसी प्रकार विभिन्न व्यक्तियों में दो प्रकार के प्राकृतिक प्रतिरक्षी/ एण्टीबॉडी (शरीर प्रतिरोधी) मिलते हैं।
♦ प्रतिरक्षी वे प्रोटीन पदार्थ हैं, जो प्रतिजन के विरुद्ध पैदा होते हैं।
♦ चार रुधिर समूहों, A, B, AB और O में प्रतिजन तथा प्रतिरक्षी स्थिति को देखते हैं।
♦ दाता एवं ग्राही / आदाता के रुधिर समूहों का रुधिर चढ़ाने से पहले सावधानीपूर्वक मिलान कर लेना चाहिए जिससे रुधिर स्कन्दन एवं RBC के नष्ट होने जैसी गम्भीर परेशानियाँ न हों। रुधिर समूह O एक सर्वदाता है, जो सभी समूहों को रुधिर प्रदान कर सकता हैं।
♦ रुधिर समूह AB सर्वआदाता (ग्राही) है। जो सभी प्रकार के रुधिर समूहों से रुधिर ले सकता हैं।
♦ Rh समूह एक अन्य प्रतिजन / एण्टीजन Rh है, जो लगभग 80 प्रतिशत मनुष्यों में पाया जाता है तथा यह Rh एण्टीजन रीसेस बन्दर में पाए जाने वाले एण्टीजन के समान है।
♦ ऐसे व्यक्ति को जिसमें Rh एण्टीजन होता है, को Rh सहित (Rh+ve) और जिसमें यह नहीं होता उसे Rh हीन (Rh – ve) कहते हैं।
♦ यदि Rh रहित (Rh – ve) के व्यक्ति के रुधिर को Rh सहित (Rh+ve) पॉजिटिव के साथ मिलाया जाता है तो व्यक्ति में Rh प्रतिजन Rh – ve के विरूद्ध विशेष प्रतिरक्षी बन जाती है, अतः रुधिर आदान-प्रदान के पहले Rh समूह को मिलना भी आवश्यक है।
♦ एक विशेष प्रकार की Rh अयोग्यता को एक गर्भवती (Rh-ve) माता एवं उसके गर्भ में पल रहे भ्रूण के Rh+ve के बीच पाई जाती है।
♦ अपरा द्वारा पृथक् रहने के कारण भ्रूण का Rh एण्टीजन सगर्भता में माता के Rh – ve को प्रभावित नहीं कर पाता, लेकिन फिर भी पहले प्रसव के समय माता के Rh ve रुधिर से शिशु के Rh+ve रुधिर के सम्पर्क में आने की सम्भावना रहती है। ऐसी दशा में माता के रुधिर में Rh प्रतिरक्षी बनना प्रारम्भ हो जाता है। ये प्रतिरोध में एण्टीबॉडीज बनाना शुरू कर देती हैं।
♦ यदि परवर्तीगर्भावस्था होती है तो रुधिर से (Rh – ve) भ्रूण के रुधिर (Rh+ve) में Rh प्रतिरक्षी का रिसाव हो सकता है और इससे भ्रूण की लाल रुधिर कणिकाएँ नष्ट हो सकती हैं। यह भ्रूण के लिए जानलेवा हो सकती है या उसे रक्ताल्पता और पीलिया हो सकता है। ऐसी दशा को इरिथ्रोब्लास्टोसिस पिफटैलिस (गर्भ रुधिराणु कोरकता) कहते हैं। इस स्थिति से बचने के लिए माता को प्रसव के तुरन्त बाद Rh प्रतिरक्षी का उपयोग करना चाहिए।
♦ रुधिर – स्कन्दन ( रुधिर का जमाव)
♦ किसी चोट या घात की प्रतिक्रिया स्वरूप रुधिर स्कन्दन होता है। यह क्रिया शरीर से बाहर अत्यधिक रुधिर को बहने से रोकती है। किसी चोट घात या घाव पर कुछ समय बाद गहरे लाल व भूरे रंग का झाग ही रुधिर का स्कन्दन या थक्का है, जो मुख्यतया फाइब्रिन धागे के जाल से बनता है। इस जाल में मरे तथा क्षतिग्रस्त संगठित पदार्थ भी उलझे हुए होते हैं।
♦ फाइब्रिन रुधिर प्लाज्मा में उपस्थित एन्जाइम थ्रोम्बिन की सहायता से फाइब्रिनोजन से बनती है। थ्रोम्बिन की रचना प्लाज्मा में उपस्थित निष्क्रिय प्रोथोम्बिन से होती है। इसके लिए थ्रोंबोकाइनेज एन्जाइम समूह की आवश्यकता होती है। यह एन्जाइम समूह रुधिर प्लाज्मा में उपस्थित अनेक निष्क्रिय कारकों की सहायता से एक के बाद एक अनेक एन्जाइम प्रतिक्रिया की शृंखला (सोपानी प्रक्रम) से बनता है।
♦ एक चोट या घात रुधिर में उपस्थित प्लेटलेट्स को विशेष कारकों को मुक्त करने के लिए प्रेरित करती है जिनसे स्कन्दन की प्रक्रिया शुरू होती है।
♦ लसीका (ऊतक द्रव) रुधिर जब ऊतक की कोशिकाओं से होकर गुजरता है तब बड़े प्रोटीन अणु एवं संगठित पदार्थों को छोड़कर रुधिर से जल एवं जल में घुलनशील पदार्थ कोशिकाओं से बाहर निकल जाते हैं। इस तरल को अन्तराली द्रव या ऊतक द्रव कहते है। इसमें प्लाज्मा के समान ही खनिज लवण पाए जाते हैं। रुधिर तथा कोशिकाओं के बीच पोषक पदार्थ एवं गैसों का आदान-प्रदान इसी द्रव से होता है।
♦ मानव परिसंचरण तन्त्र
♦ मानव परिसंचरण तन्त्र जिसे रुधिरवाहिनी तन्त्र भी कहते हैं जिसमें कक्षों से बना पेशी हृदय, शाखित बन्द रुधिर वाहिनियों का एक जाल, रुधिर एवं तरल समाहित होता है।
♦ हृदय इसकी उत्पत्ति मध्यजन स्तर (मीसोडर्म) से होती है तथा यह दोनों फेफड़ों के मध्य, वक्ष गुहा में स्थित रहता है यह थोड़ा-सा बाईं तरफ झुका रहता है। यह बन्द मुट्ठी के आकार का होता है। यह एक दोहरी भित्ति की झिल्लीमय थैली, हृदयावरणी द्वारा सुरक्षित होता है जिसमें हृदयावरणी द्रव पाया जाता है।
♦ हमारे हृदय में चार कक्ष होते हैं जिसमें दो कक्ष अपेक्षाकृत छोटे तथा ऊपर को पाए जाते हैं। जिन्हें अलिन्द (आट्रिया) कहते हैं तथा दो कक्ष अपेक्षाकृत बड़े होते हैं जिन्हें निलय (वेंट्रिकल) कहते हैं। एक पतली पेशीय भित्ति, जिसे अन्तर अलिन्दी कहते हैं, जो दाएँ एवं बाएँ अलिन्द को अलग करती है जबकि एक मोटी भिति जिसे अन्तर निलयी कहते हैं, जो बाएँ एवं दाएँ निलय को अलग करती है।
♦ हृदय चक्र हृदय की इस क्रमिक घटना को एक चक्र के रूप में बार-बार दोहराया जाता है जिसे हृदय चक्र कहते हैं। एक स्वस्थ व्यक्ति प्रति मिनट ऐसे 72 चक्रों को प्रदर्शित करता है। एक हृदय चक्र के दौरान प्रत्येक निलय द्वारा लगभग 70 मिली रुधिर हर बार पम्प किया जाता है। इसे स्ट्रोक या विस्पन्दन आयतन कहते हैं।
पादपों में परिवहन
♦ पादप प्रचलन नहीं करते हैं और पादप शरीर का एक बड़ा अनुपात अनेक ऊतकों में मृत कोशिकाओं का होता है। इसके परिणामस्वरूप पादपों को कम ऊर्जा की आवश्यकता होती है तथा वे अपेक्षाकृत धीमे वहन तन्त्र प्रणाली का उपयोग करते हैं।
♦ पादप वहन तन्त्र पत्तियों से भण्डारित ऊर्जा युक्त पदार्थ तथा जड़ों से कच्ची सामग्री का वहन करता है। ये दो पथ स्वतन्त्र संगठित चालन नलिकाओं से निर्मित होते हैं। एक जाइलम है, जो मृदा से प्राप्त जल और खनिज लवणों को वहन करता है तथा दूसरा फ्लोएम, जो पत्तियों से जहाँ प्रकाश-संश्लेषण के उत्पाद संश्लेषित होते हैं, पौधे के अन्य भागों तक वहन करता है।
♦ जल का परिवहन जाइलम ऊतक में जड़ों, तनों और पत्तियो की वाहिनिकाएँ तथा वाहिकाएँ आपस में जुड़कर जल संवहन वाहिकाओं का एक सतत् जाल बनाती हैं जो पादप के सभी भागों से सम्बद्ध होता है। जड़ो की कोशिकाएँ मृदा के सम्पर्क में हैं तथा वे सक्रिय रूप से आयन प्राप्त करती हैं। यह जड़ और मृदा के मध्य आयन सान्द्रण में एक अन्तर उत्पन्न करता है। इस अन्तर को समाप्त करने के लिए मृदा से जल जड़ मे प्रवेश कर जाता है। इसका अर्थ है कि जल अनवरत गति से जड़ के जाइलम में जाता है और जल के स्तम्भ का निर्माण करता है जो लगातार ऊपर की ओर धकेला जाता है।
♦ पादप के वायवीय भागों द्वारा वाष्प के रूप में जल की हानि वाष्पोत्सर्जन कहलाती है। अतः वाष्पोत्सर्जन, जल के अवशोषण एवं जड़ सें पत्तियों तक जल तथा उसमें विलेय खनिज लवणों के उपरिमुखी गति में सहायक है। यह ताप के नियमन में भी सहायक है।
♦ जल के वहन में मूल दाब रात्रि के समय विशेष रूप से प्रभावी है। दिन में जब रन्ध्र खुले होते हैं वाष्पोत्सर्जन कर्षण, जाइलम में जल की गति के लिए, मुख्य प्रेरक बल का कार्य करता है।
♦ भोजन तथा दूसरे पदार्थों का स्थानान्तरण प्रकाश – संश्लेषण के विलेय उत्पादों का वहन स्थानान्तरण कहलाता है और यह संवहन ऊतक के फ्लोएम नामक भाग द्वारा होता है। प्रकाश संश्लेषण के उत्पादों के अलावा फ्लोएम अमीनो अम्ल तथा अन्य पदार्थों का परिवहन भी करता है। ये पदार्थ विशेष रूप से जड़ के भण्डारण अंगों, फलों, बीजों तथा वृद्धि वाले अंगो में ले जाए जाते हैं। भोजन तथा अन्य पदार्थों का स्थानान्तरण संलग्न साथी कोशिका की सहायता से चालनी नलिका मे उपरिमुखी तथा अधोमुखी दोनों दिशाओं में होता है।
उत्सर्जन
♦ वह जैव प्रक्रम जिसमें शरीर में निर्मित हानिकारक उपापचयी वर्ज्य पदार्थों का निष्कासन होता है, उत्सर्जन कहलाता है। विभिन्न जन्तु इसके लिए विविध युक्तियाँ करते हैं। बहुत से एक कोशिकीय इन जीव अपशिष्टों को शरीर की सतह से जल में विसरित कर देते हैं। जटिल बहुकोशिकीय जीव इस कार्य को पूरा करने के लिए विशिष्ट अंगों का उपयोग करते हैं।
मानव में उत्सर्जन
♦ मनुष्यों में उत्सर्जी तन्त्र एक जोड़ी वृक्क, एक जोड़ी मूत्र नलिका, एक मूत्राशय और एक मूत्र मार्ग का बना होता है।
♦ वृक्क वृक्क सेम के बीज की आकृति के गहरे भूरे लाल रंग के होते हैं तथा ये अन्तिम वक्षीय और तीसरी कटि कशेरुका के समीप उदर गुहा में आन्तरिक पृष्ठ सतह पर स्थित होते हैं।
♦ वयस्क मनुष्य के प्रत्येक वृक्क की लम्बाई 10-12 सेमी, चौड़ाई 5-7 सेमी., मोटाई 2-3 सेमी तथा भार लगभग 120-170 ग्राम होता है।
♦ वृक्क के केन्द्रीय भाग की भीतरी अवतल सतह के मध्य में एक खाँच होती है, जिसे हाइलम कहते हैं। इससे होकर मूत्र-नलिका, रुधिर वाहिनियाँ और तन्त्रिकाएँ प्रवेश करती हैं। हाइलम के भीतरी ओर कीप के आकार की रचना होती है जिसे वृक्कीय श्रोणि (पेल्विस) कहते हैं तथा इससे निकलने वाले प्रक्षेपों को चषक कहते हैं।
♦ वृक्क की बाहरी सतह पर दृढ़ सन्पुट होता है । वृक्क में दो भाग होते हैं—बाहरी वल्कुट (कॉर्टेक्स) और भीतरी मध्यांश (मेडुला) । मध्यांश कुछ शंक्वाकार पिरामिड में बँटा होता है जो कि चषकों में फैले रहते हैं।
♦ वल्कुट मध्यांश पिरामिड के बीच फैलकर वृक्क स्तम्भ बनाते हैं, जिन्हें बरतीनी- स्तम्भ (Columns of Bertini) कहते हैं।
♦ प्रत्येक वृक्क मे लगभग 10 लाख जटिल नलिकाकार संरचना वृक्काणु (नेफोन) पाई जाती हैं जो क्रियात्मक इकाइयाँ हैं। प्रत्येक वृक्काणु के दो भाग होते हैं, जिन्हें गुच्छ और वृक्क नलिका कहते हैं।
♦ मूत्र निर्माण मूत्र निर्माण में तीन मुख्य प्रक्रियाएँ सम्मिलित हैं — गुच्छीय निस्यन्दन, पुन: अवशोषण, स्रावण जो वृक्काणु के विभिन्न भागों में होता है।
♦ मूत्र निर्माण के प्रथम चरण में केशिका गुच्छ द्वारा रुधिर का निस्यन्दन होता है जिसे गुच्छ या गुच्छीय निस्यन्दन कहते हैं।
♦ वृक्कों द्वारा प्रति मिनट औसतन 1100-1200 मिली रुधिर का निस्यन्दन किया जाता है, जो कि हृदय द्वारा एक मिनट में निकाले गए रुधिर के 1/5 वें भाग के बराबर होता है।
♦ गुच्छ की केशिकाओं का रुधिरदाब रुधिर का 3 परतों में से निस्यन्दन करता है। ये तीन परते हैं गुच्छ की रुधिर केशिका की आन्तरिक उपकला, बोमेन सम्पुट की उपकला तथा इन दोनों पर्तों के बीच पाई जाने वाली आधार झिल्ली होती हैं।
♦ बोमेन सम्पुट की उपकला कोशिकाएँ पदाणु (पोडोसाइट्स) कहलाती हैं, जो विशेष प्रकार से विन्यसित होती हैं, जिससे कुछ छोटे-छोटे अवकाश बीच में रह जाते हैं। इन्हें निस्यन्दन खाँच या खाँच छिद्र कहते हैं। इन झिल्लियों से रुधिर इतनी अच्छी तरह छनता है कि जिससे रुधिर के प्लाज्मा की प्रोटीन को छोड़कर प्लाज्मा का शेष भाग छन कर सम्पुट की गुहा में इकट्ठा हो जाता है। इसलिए इसे परा – निस्यन्दन (अल्ट्रा फिल्ट्रेशन) कहते हैं।
♦ वृक्कों द्वारा प्रतिमिनट निस्यन्दित की गई मात्रा गुच्छीय निस्यन्दन दर कहलाती है। एक स्वस्थ व्यक्ति में यह दर 125 मिली प्रति मिनट अर्थात् 180 लीटर प्रतिदिन है।
♦ मूत्रण
♦ वृक्क द्वारा निर्मित मूत्र अन्त में मूत्राशय में जाता है और केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र द्वारा ऐच्छिक संकेत दिए जाने तक संग्रहित रहता है। मूत्राशय में मूत्र भर जाने पर उसके फैलने के फलस्वरूप यह संकेत उत्पन्न होता है। मूत्राशय भित्ति से इन आवेगों को केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र में भेजा जाता है। केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र से मूत्राशय की चिकनी पेशियों के संकुचन तथा मूत्राशयी – अवरोधिनी के शिथिलन हेतु एक प्रेरक सन्देश जाता है, जिससे मूत्र का उत्सर्जन होता है। मूत्र उत्सर्जन की क्रिया मूत्रण कहलाती है और इसे सम्पन्न करने वाली तन्त्रिका क्रियाविधि मूत्रणप्रतिवर्त कहलाती है।
♦ एक वयस्क मनुष्य प्रतिदिन औसतन 1-1.5 लीटर मूत्र उत्सर्जित करता है। मूत्र एक विशेष गन्धयुक्त जलीय तरल है, जो रंग में हल्का पीला थोड़ा अम्लीय होता है। औसतन प्रतिदिन 25-30 ग्राम यूरिया का उत्सर्जन होता है।
♦ उत्सर्जन में अन्य अंगों की भूमिका
♦ वृक्कों के अलावा फुफ्फुस यकृत और त्वचा भी उत्सर्जी अपशिष्टों को बाहर निकालने में मदद करते हैं।
♦ हमारे फेफड़े प्रतिदिन भारी मात्रा में CO218 लीटर/दिन और जल की पर्याप्त मात्रा का निष्कासन करते हैं।
♦ हमारे शरीर की सबसे बड़ी ग्रन्थि यकृत ‘पित्त’ का स्राव करती है जिसमें बिलिरुबिन, बिलीविरडिन, कॉलेस्ट्रॉल, निम्नीकृत स्टीरॉइड हॉर्मोन, विटामिन तथा औषध आदि होते हैं। इन अधिकांश पदार्थों को अन्ततः मल के साथ बाहर निकाल दिया जाता है।
♦ त्वचा में उपस्थित स्वेद ग्रन्थियाँ तथा तेल- ग्रन्थियाँ भी स्राव द्वारा कुछ पदार्थों का निष्कासन करती हैं। स्वेद ग्रन्थि द्वारा निकलने वाला पसीना एक जलीय द्रव है, जिसमें नमक, कुछ मात्रा में यूरिया, लैक्टिक अम्ल इत्यादि होते हैं।
♦ हालाँकि पसीने का मुख्य कार्य वाष्पीकरण द्वारा शरीर की सतह को ठण्डा रखना है लेकिन यह ऊपर बताए गए कुछ पदार्थों के उत्सर्जन में भी सहायता करता है। तेल- ग्रन्थियाँ सीबम द्वारा कुछ स्टेरॉल, हाइड्रोकार्बन एवं मोम, जैसे पदार्थों का निष्कासन करती हैं। ये स्राव त्वचा को सुरक्षात्मक तैलीय कवच प्रदान करते हैं।
पादप में उत्सर्जन
♦ पादप उत्सर्जन के लिए जन्तुओं से बिल्कुल भिन्न युक्तियाँ प्रयुक्त करते हैं। प्रकाश-संश्लेषण में जनित ऑक्सीजन भी अपशिष्ट उत्पाद कही जा सकती है।
♦ पौधे अतिरिक्त जल से वाष्पोत्सर्जन द्वारा छुटकारा पा सकते हैं।
♦ पादपों में बहुत से ऊतक मृत कोशिकाओं के बने होते हैं और वे अपने कुछ भागों, जैसे पत्तियों का क्षय भी कर सकते हैं।
♦ बहुत से पादप अपशिष्ट उत्पाद कोशिकीय रिक्तिका में संचित रहते हैं।
♦ पौधे से गिरने वाली पत्तियों में भी अपशिष्ट उत्पाद संचित रहते हैं।
♦ अन्य अपशिष्ट उत्पाद रेजिन तथा गोंद के रूप में विशेष रूप से पुराने जाइलम में संचित रहते हैं।
♦ पादप भी कुछ अपशिष्ट पदार्थों को अपने आस-पास की मृदा में उत्सर्जित करते हैं।
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