जीव विज्ञान -1

जीव विज्ञान -1

9. मानव शरीर के तंत्र
(System of the human body)
1. पाचन तंत्र (Digestive system)
◆ भोजन के पाचन की सम्पूर्ण प्रक्रिया पाँच अवस्थाओं से गुजरता है –
1. अन्तर्ग्रहण ( Ingestion) 2. पाचन (Digestion) 3. अवशोषण (Absorption) 4. स्वांगीकरण (Assimilation) 5. मल परित्याग (Defacation).
आमाशय (Stomach) में पाचन –
◆ आमाशय में भोजन लगभग चार घंटे तक रहता है ।
◆ भोजन के आमाशय में पहुँचने पर पाइलोरिक ग्रंथियों में मठर रस (Gastric Juice) निकलता है। यह हल्का पीला रंग का अम्लीय द्रव होता है ।
◆ आमाशय के ऑक्सिन्टिक कोशिकाओं से हाइड्रोक्लोरिक अम्ल निकलता है, जो भोजन के साथ आए हुए जीवाणुओं को नष्ट कर देता है तथा एन्जाइम की क्रिया को तीव्र कर देता है । हाइड्रोक्लोरिक अम्ल भोजन के माध्यम को अम्लीय बना देता है, जिससे लार की टायलिन की क्रिया समाप्त हो जाती है ।
◆ आमाशय से निकलने वाले जठर रस में एन्जाइम होते हैं- पेप्सिन एवं रेनिन ।
◆ पेप्सिन प्रोटीन को खंडित कर सरल पदार्थों (पेप्टीन्स) में परिवर्तित कर देता है ।
◆ रेनिन दूध की धुली हुई प्रोटीन केसीनोजेन (Caseinogen) को ठोस प्रोटीन कैल्शियम पैराकेसीनेट (Casein) के रूप में बदल देता है ।
पक्वाशय (Durodenum) में पाचन
◆ भोजन को पक्वाशय में पहुँचते ही सर्वप्रथम इसमें यकृत (liver) से निकलने वाला पित्त रस (bile duct) आकर मिलता है। पित्त रस क्षारीय होता है और यह भोजन को अम्लीय से क्षारीय बना देता है ।
◆ यहाँ अग्न्याशय से अग्न्याशय रस आकर भोजन में मिलता है । इसमें तीन प्रकार के एन्जाइम होते हैंW
(i) ट्रिप्सिन ( Tripsin) – यह प्रोटीन एवं पेप्टीन को पॉलीपेप्टाइड्स तथा अमीनो अम्ल में परिवर्तित करता है ।
(ii) एमाइलेज (Amylase) – यह मांड ( starch) को घुलनशील शर्करा (sugar) में परिवर्तित करता है।
(iii) लाइपेज (Lipase) – यह इमल्सीफाइड वसाओं को ग्लिसरीन तथा फैटी एसिड्स में परिवर्तित करता है ।
छोटी आँत (Small Instestine) में पाचन
◆ यहाँ भोजन के पाचन क्रिया पूर्ण होती है एवं पचे हुए भोजन का अवशोषण होता है।
◆ छोटी की दीवारों से आंत्रिक रस निकलता है। इसमें निम्न एन्जाइम होते हैं।
(i) इरेप्सिन (Erepsin) -शेष प्रोटीन एवं पेप्टीन का अमीनो अम्ल में परिवर्तित करता है।
(ii) माल्टेस (Maltase) – यह माल्टोस को ग्लूकोज में परिवर्तित करता है।
(iii) सुक्रेस (Surcrase)-सुक्रोस (sucrose) को ग्लूकोज एवं फ्रुकटोज में परिवर्तित करता है ।
(iv) लैक्टेस (Lactase) – यह इमल्सीफायड वसाओं को ग्लिसरीन तथा फैटी एसिड्स में परिवर्तित करता है ।
◆ आंत्रिक रस क्षारीय होता है। स्वस्थ मनुष्य में प्रतिदिन लगभग 2 ली० आत्रिक रस स्रावित होता है ।
 3. अवशोषण (Absorption)-पचे हुए भोजन को रुधिर में पहुँचाना अवशोषण कहलाता है।
◆ पचे हुए भोजन का अवशोषण छोटी आँत की रचना उद्धर्ध (villi) के द्वारा होती है ।
4. स्वांगीकरण (Assimilation) – अवशोषित भोजन का शरीर के उपयोग में लाया जाना स्वांगीकरण कहलाता है।
5. मल- परित्याग (Deforeation)- अपच भोजन बड़ी आँत में पहुँचता है, जहाँ जीवाणु इसे मल में बदल देते हैं, जिसे गुदा ( anus) द्वारा बाहर निकाल दिया जाता है ।
पाचन कार्य में भाग लेने वाले प्रमुख अंग
यकृत (liver) –
◆ यह मानव शरीर की सबसे बड़ी ग्रंथि है। इसका वजन लगभग 1.5-2kg होता है।
◆ यकृत द्वारा ही पित्त स्रावित होता है। यह पित्त आँत में उपस्थित एन्जाइमों की क्रिया को तीव्र कर देता है ।
◆ यकृत प्रोटीन के उपापचय में सक्रिय रूप से भाग लेता है और प्रोटीन विघटन के फलस्वरूप उत्पन्न विषैले अमोनिया को यूरिया में परिवर्तित कर देता है ।
◆ यकृत प्रोटीन की अधिकतम मात्रा को कार्बोहाइड्रेट में परिवर्तित कर देता है।
◆ कार्बोहाइड्रेट उपापचय के अन्तर्गत यकृत रक्त के ग्लूकोज (Glucose ) वाले भाग को ग्लाइकोजिन (Glycogen) में परिवर्तित कर देता है और सचित पोषक तत्त्वों के रूप में यकृत कोशिका (Hepatic Cell) में संचित कर देता है। ग्लूकोज में परिवर्तित कर देता है। इस प्रकार यह रक्त में ग्लूकोज की मात्रा को नियमित बनाए रखता है ।
◆ भोजन में वसा की कमी होने पर यकृत कार्बोहाइड्रेट के कुछ भाग को वसा में परिवर्तित कर देता है ।
◆ फाइब्रिनोजेन Fibrinogen) नामक प्रोटीन का उत्पादन यकृत से ही होता है, जो रक्त के थक्का बनाने में मदद करता है ।
◆ हिपैरीन (Heparin) नामक प्रोटीन का उत्पादन यकृत के द्वारा ही होता है, जो शरीर के अन्दर रक्त को जमने से रोकता है।
◆ मृत RBC को नष्ट यकृत के द्वारा ही किया जाता है।
◆ यकृत थोड़ी मात्रा में लोहा (Iron), ताँबा (Copper) और विटामिन को संचित करके रखता है। ।
◆ शरीर के ताप को बनाये रखने में मदद करता है।
◆ भोजन में जहर (Poision) देकर मारे गए व्यक्ति को मृत्यु के कारणों की जाँच में यकृत एक महत्त्वपूर्ण सुराग होता है ।
पित्ताशय (Gall-bladder) –
◆ पित्तशय नाशपाती के आकार की एक थैली होती है, जिसमें यकृत से निकलने वाला पित्तजमा रहता है ।
◆ पित्ताशय से पित्त पक्वाशय में पित्त-नलिका के माध्यम से आता है।
◆ पित्त का पक्वाशय में गिरना पित्तवर्ती क्रिया (Reflex action) द्वारा होता है ।
◆ पित्त (Bile) पीले-हरे रंग का क्षारीय द्रव है, जिसे pH मान 7.7 होता है ।
◆ पित्त में जल की मात्रा 85% एवं पित्त वर्णक (Bile pigment) की मात्रा 12% होती है।
पित्त (Bile) मुख्य कार्य निम्न है –
(i) यह भोजन के माध्यम को क्षारीय कर देता है,
(ii) यह भोजन के साथ आए हानिकारक जीवाणुओं को नष्ट करता है।
(iii) यह वसाओं का इमाल्सीकरण (Emulsification of fat) करता है।
(iv) यह आँत की क्रमाकुंचन गतियों को बढ़ाता है, जिससे भोजन में पाचक रस भलीभाँति मिल जाते हैं।
(v) यह विटामिन k एवं वसाओं में घुले अन्य विटामिनों के अवशोषण में सहायक होता है।
◆ पित्तवाहिनी में अवरोध हो जाने पर यकृत कोशिकाएँ रुधिर से विलिरूबिन लेना बन्द कर देती है। फलस्वरूप विलिरुबिन सम्पूर्ण शरीर में फैल जाता है। इसे ही पीलिया कहते हैं।
अग्न्याशय (Pancreas ) –
◆ यह मानव शरीर की दूसरी सबसे बड़ी ग्रंथि है। यह एक साथ अन्तःस्त्रावी (नलिकाहीन -Endocrine) और वहि:स्रावी (नलिकायुक्त Exocrine) दोनों प्रकार की ग्रंथि है।
◆ इससे अग्न्याशयी रस निकलता है जिसमें 9.8% जल तथा शेष भाग में लवण एव एन्जाइम होते हैं | यह क्षारीय द्रव होता है, जिसका pH मान 7.5-8.3 होता है। इसमें तीनों प्रकार के मुख्य भोज्य पदार्थ (यथा कार्बोहाइड्रेट, वसा एवं प्रोटीन) के पचाने के एन्जाइम होते हैं, इसलिए इसे पूर्ण पाचक रस कहा जाता है।
लैंगर हैंस की द्वीपिका (Islets of Langerhans) –
◆ यह अग्न्याशय का ही एक भाग है।
◆ इसकी खोज लैंगर हैंस नामक चिकित्साशास्त्री ने की थी ।
◆ इसके B-कोशिका (B-cell) से इन्सुलिन ( insuline), o. -कोशिका (a-cell) से ग्लूकॉन (Glucagon) एवं y – कोशिका (y-cell) से सोमेटोस्टेटिन (Somatostatin) नामक हॉर्मोन निकलता है।
इन्सुलिन (Insuline) 
◆ यह अग्न्याशय के एक भाग लैंगर हैंस की द्वीपिका के B-कोशिका द्वारा स्रावित होता है।
◆ इसकी खोज वैटिंग एवं वेस्ट ने सन् 1921 ई० में की थी ।
◆ यह ग्लूकोज से ग्लाइकोजिन बनने की क्रिया को नियंत्रित करता है
◆ इन्सुलिन के अल्प स्रवण से मधुमेह (डाइबीटिज) नामक रोग हो जाता है ।
नोट- रुधिर में ग्लूकोज की मात्रा को बढ़ाना मधुमेह कहलाता है ।
◆ इन्सुलिन के अतिस्रवण से हाइपोग्लाइसीमिया (Hypoglycemia) नामक रोग हो जाता है, जिसमें जनन क्षमता तथा दृष्टि-ज्ञान कम होने लगता है ।
◆ ग्लूकॉन (Glucagon)यह ग्लाइकीजिन को पुनः ग्लूकोज में परिवर्तित कर देता है।
◆ सोमेटोस्टेटिन (Somatostain) – यह पॉलीपेप्टाइड (Polypeptide) हॉर्मोन होता है,
जो भोजन के स्वांगीकरण की अवधि को बढ़ाता है।
2. परिसंचरण तंत्र (Circulatory system) –
◆ रक्त परिसंचरण की खोज सन् 1628 ई० में विलियम हार्वे ने की थी ।
◆ इसके अन्तर्गत निम्न चार भाग है- (i) हृदय (Heart), (ii) धमनियाँ (Arteries), (iii) शिराएँ (Veins) और (iv) रुधिर (Blood)।
◆ हृदय (Heart) – यह हृदयावरण (Pericardium) नामक थैली में सुरक्षित रहता है । इसका भार लगभग 300 ग्राम होता है ।
◆ मनुष्य का हृदय चार कोष्ठों (chamber) का बना होता है। अगले भाग में एक दायाँ आलिंद (Right auricle) एक बायाँ आलिंद (left auricle) तथा हृदय के पिछले भाग में एक दायाँ निलय (right ventricle) तथा एक बायाँ निलय (Left ventricle) होता है ।
◆ दायें आलिंद (right auricle) एवं दायें निलय (right ventricle) के बीच त्रिवलनी कपाट (tricuspid valve) होता है ।
◆ बायें आलिंद (left auricle) एवं बायें निलय (left ventricle) के बीच द्विवलनी कपाट (Biscuspid valve) होता है ।
◆ शरीर से हृदय की ओर रक्त ले जाने वाली रक्तवाहिनी को शिरा (vein) कहते हैं ।
◆ शिरा में अशुद्ध रक्त अर्थात् कार्बन डाइऑक्साइड युक्त रस होता है। इसका अपवाद है पल्मोनरी शिरा (Pulmonary vein) । •
◆ पल्मोनरी शिरा फेफड़ा से बाँयें आलिंद में रक्त को पहुँचाता है। इसमें शुद्ध रक्त I होता है ।
◆ हृदय से शरीर की ओर रक्त ले जाने वाली रक्तवाहिनी को धमनी (Artery) कहते हैं।
◆ धमनी (artery) में शुद्ध रक्त अर्थात् ऑक्सीजन युक्त रक्त होता है । इसका अपवाद हैं पल्मोनरी धमनी (Pulmonary artery)।
◆ पल्मोनरी धमनी दाहिने निलय से फेफड़ा में रक्त पहुँचाता है। इसमें अशुद्ध रक्त होता है ।
◆ हृदय के दाहिने भाग में अशुद्ध रक्त यानी कार्बन डाइऑक्साइड युक्त रक्त एवं बायें भाग में शुद्ध रक्त यानी ऑक्सीजन युक्त रक्त रहता है ।
◆ हृदय की मांसपेशियों को रक्त पहुँचाने वाली वाहिनी को कोरोनरी धमनी (Coronary artery) कहते हैं। इसी में किसी प्रकार की रुकावट होने पर हृदयाघात (Heart attack) होता है।
◆ हृदय में रुधिर का मार्ग (Path of Blood in the Heart) – बायाँ आलिंद → बायाँ निलय → दैहिक महाधमनी → विभिन्न धमनियाँ → छोटी धमनियाँ (Arteriole) → धमनी कोशिकाएँ → अंग → अग्र एवं पश्च महाशिरा → दाहिना आलिंद → दाहिने निलय → पल्मोनरी धमनी → फेफड़ा → पल्मोनरी शिरा → बायें आलिंद (ऑक्सीजन युक्त रुधिर ) ।
◆ हृदय के संकुचन (Systole) एवं शिथिलन (Diastole) को सम्मिलित रूप से हृदय की धड़कन (Heart beat) कहते हैं। सामान्य अवस्था में मनुष्य का हृदय एक मिनट में 72 बार (भ्रूण अवस्था में 150 बार) धड़कता है तथा एक धड़कन में लगभग 70 मिली० रक्त पम्प करता है ।
◆ साइनो – ऑरिकुलर नोड (SAN) दाहिने आलिन्द की दीवार में स्थित तंत्रिका कोशिकाओं का समूह है, जिससे हृदय धड़कन की तरंग प्रारंभ होती है ।
◆ सामान्य मनुष्य का रक्तदाब 120/80mmhg होता है । (सिस्टोलिक – 120 डायस्टोलिक 80 )
◆ रक्तदाब मापने वाले यंत्र का नाम स्फिग्मोमेनोमीटर (Sphygmomanometer) है।
◆ थायरॉक्सिन एवं एड्रीनेलिन स्वतंत्र रूप से हृदय की धड़कन को नियंत्रित करने वाले हॉर्मोन है ।
◆ रुधिर में उपस्थित CO2 रुधिर के pH को कम करके हृदय की गति को बढ़ाता है। अर्थात् अम्लीता हृदय की गति को बढ़ाती है एवं क्षारीयता हृदय की गति को कम करती है ।
3. लसिका परिसंचरण तंत्र (pH Circulatory System)
◆ विभिन्न ऊतकों तथा कोशिकाओं के बीच स्थित अंतराकोशिकीय अवकाशों में पाए जाने वाले हल्का पीला द्रव को लसिका कहते हैं ।
◆ लसिका एक प्रकार का द्रव है, जिसकी रचना लगभग रक्त प्लाज्मा जैसी ही होती है, जिसमें पौष्टिक पदार्थ ऑक्सीजन तथा कई अन्य पदार्थ मौजूद रहते हैं ।
◆ लसिका में पायी जाने वाली कणिकाएँ लिम्फोसाइट्स कहलाती है। ये वास्तव में श्वेत रुधिर कणिकाएँ होती हैं ।
◆ लसिका ऊतक से हृदय की ओर केवल एक ही दिशा में बहता है । लसीका के कार्य
(1) लसिका में उपस्थित लिम्फोसाइट्स हानिकारक जीवाणुओं का भक्षण करके रोगों की रोकथाम में सहायक होता है ।
(2) लसिका, लिम्फोसाइट्स का निर्माण करती है ।
(3) लसिका के नोड़, जिन्हें लिम्फनोड कहते हैं, मनुष्य के शरीर में छन्ने का कार्य करते हैं। धूल के कण, जीवाणु कैंसर कोशिकाएँ इत्यादि लिम्फनोड में फँस जाते हैं।
(4) लसिका घाव भरने में सहायता करती है ।
(5) लसिका ऊतकों से शिराओं में विभिन्न वस्तुओं का परिसंचरण करती है ।
4. उत्सर्जन तंत्र (Excretory System) –
◆ उत्सर्जन ( Excretion) – जीवों के शरीर से उपापचयी प्रक्रमों में बने विषैले अपशिष्ट पदार्थों के निष्कासन को उत्सर्जन कहते हैं। साधारण उत्सर्जन का तात्पर्य नाइट्रोजनी उत्सर्जी पदार्थों जैसे यूरिया, अमोनिया, यूरिक अम्ल आदि के निष्कासन से होता है।
◆ मनुष्य में प्रमुख उत्सर्जी अंग निम्न हैं- (i) वृक्क (Kidneys), (ii) त्वचा (Skin), (iii) यकृत (Liver), (iv) फेफड़ा (Lungs) |
◆ (i) वृक्क (Kidneys)मनुष्य एवं अन्य स्तनधारियों में मुख्य उत्सर्जी अंग एक जोड़ा वृक्क है । इसका वजन 140 ग्राम होता है, इसके दो भाग होते हैं। बाहरी भाग को कोर्टेक्स (cortex) और भीतरी भाग को मेडूला (Medulla) कहते हैं। प्रत्येक वृक्क लगभग 1,30,000,00 वृक्क-नलिकाओं से मेलकर बना है, जिन्हें नेफ्रॉन (Nephrons) कहते हैं। नेफ्रॉन ही वृक्क की कार्यात्मक इकाई है । प्रत्येक नेफ्रॉन (Nephrons) कहते हैं । नेफ्रॉन ही वृक्क की कार्यात्मक इकाई है । प्रत्येक नेफ्रॉन में एक छोटी प्यालीनुमा रचना होती हैं, उसे बोमेन सम्पुट (Bowman’s capsule) कहते हैं । ।
◆ बोमन-सम्पुट में पतली रुधिर कोशिकाओं का कोशिकागुच्छ (Glomerulus) पाया जाता है, जो दो प्रकार की धमनिकाओं से बनता है. ।
(i) चौड़ी अभिवाही धमनिका (Afferent Arteriole) – जो रुधिर को कोशिका गुच्छ में पहुँचाती है ।
(ii) पतली अपवाही धमनिका (Efferent Arteriole)जिसके द्वारा रक्त कोशिका-गुच्छ से वापस ले जाया जाता है ।
◆ ग्लोमेरुलस की कोशिकाओं से द्रव के छनकर बोमेन सम्पुट की गुहा में पहुँचने की प्रक्रिया को परानिस्पंदन (ultrafiltration) कहते हैं ।
◆ वृक्कों का प्रमुख कार्य रक्त के प्लाज्मा को छानकर शुद्ध बनाना, अर्थात इसमें से अनावश्यक और अनुपयोगी पदार्थों को जल की कुछ मात्रा के साथ मूत्र के द्वारा शरीर से बाहर निकालना है।
◆ वृक्क में प्रति मिनट औसतन 125 मिली अर्थात् दिन भर में 180 लीटर रक्त निस्पंद (Filtrate) होता है। इसमें से 1.45 लीटर मूत्र रोजना बनता है बाकि निस्पंद वापस रक्त में अवशोषित हो जाता है ।
◆ सामान्य मूत्र में 95% जल, 2% लवण, 2.7% यूरिया और 0.3% यूरिक अम्ल होते हैं ।
◆ मूत्र का रंग हल्का पीला उसमें उपस्थित वर्णक यूरोक्रोम (urochrome) के कारण होता है । यूरोक्रोम हीमोग्लोबिन के विखंडन से बनता है।
◆ मूत्र अम्लीय होता है, इसका pH मान 6 होता है ।
◆ वृक्क के द्वारा नाइट्रोजनी पदार्थों के अलावे पेनिसिलिन और कुछ मसालों का भी उत्सर्जन होता है।
◆ वृक्क में बनने वाला पथरी कैल्शियम ऑक्जलेट का बना होता है ।
◆ (ii) त्वचा (Skin)-त्वचा में पायी जाने वाली तेलीय ग्रंथियाँ एवं स्वेद ग्रंथियाँ क्रमशः सीबम एवं पसीने का स्रवण करती है ।
◆ (iii) यकृत (Liver) – यकृत कोशिकाएँ आवश्यकता से अधिक अमीनो अम्लों तथा यकृत (रुधिर की अमोनिया को यूरिया में परिवर्तित करके उत्सर्जन में मुख्य भूमिका निभाता है।
◆ (iv) फेफड़े (Lungs) – फेफड़ा दो प्रकार के गैसीय पदार्थ कार्बन डाईऑक्साइड और जलवाष्प का उत्सर्जन करता है। कुछ पदार्थ जैसे लहसुन (garlic), प्याज (onion) और कुछ मसाले, जिसमें वाष्पशील घटक होते हैं, का उत्सर्जन फेफड़ों के द्वारा ही होता है।
5. तंत्रिका तंत्र (Nervous System) – Liver) –
◆ तंत्रिका तंत्र (Nervous System) – इसके अन्तर्गत, सारे शरीर में महीन धागे के समान तंत्रिकाएँ फैली रहती हैं। ये वातावरणीय परिवर्तनों की सूचनाएँ संवेदी अंगों से प्राप्त करके विद्युत् आवेगों (electrical impulses) के रूप में इनका द्रुत गति से प्रसारण करती है और शरीर के विभिन्न भागों के बीच कार्यात्मक स्थापित करती हैं।
◆ मनुष्य का तंत्रिका तंत्र तीन भागों में विभक्त होता है –
1. केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र (Central nervous system)
2. परिधीय तंत्रिका तंत्र (Peripheral nervous system)
3. स्वायत्त या स्वाधीन तंत्रिका तंत्र (Autonomic nervous system)
 1. केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र – तंत्रिका तंत्र का वह भाग जो सम्पूर्ण शरीर तथा स्वयं तंत्रिका तंत्र पर नियंत्रण रखता है, केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र कहलाता है। मनुष्य का केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र दो भागों से मिलकर बना होता है – (i) मस्तिष्क (brain) और (ii) मेरुरज्जू (Spinal cord) ।
(i) मस्तिष्क
◆ मनुष्य का मस्तिष्क अस्थियों के खोल क्रेनियम में बन्द रहता है, जो इसे बाहरी आघातों से बचाता है ।
◆ मनुष्य के मस्तिष्क का वजन 1400 ग्राम होता है।
◆ सेरीब्रम के कार्य – यह मस्तिष्क का सबसे विकसित भाग है। यह बुद्धिमता, स्मृति, इच्छा- शक्ति, ऐच्छिक गतियों, ज्ञान वाणी एवं चिन्तन का केन्द्र है। ज्ञानेन्द्रियों से प्राप्त प्रेरणाओं का इसमें विश्लेषण एवं समन्वय होता है ।
◆ थैलमस के कार्य – यह दर्द, ठण्डा तथा गरम को पहचानने का कार्य करता है ।
◆ हाइपोथैलमस के कार्य- यह अन्तःस्रावी ग्रंथियों से स्रावित होने वाले हामोन्स का नियंत्रण करता है । पोस्टीरियर पिट्यूटरी ग्रंथि से स्रावित होने वाले हॉर्मोन्स इससे स्रावित होते हैं। यह भूख प्यास, ताप नियंत्रण, प्यार, घृणा आदि के केन्द्र होते हैं। रक्तदाब (blood pressure), जल के उपापचय, पसीना, गुस्सा, खुशी आदि इसी के नियंत्रण में है।
नोट :- EEG (Electroencephalograph) का प्रयोग मस्तिष्क के कार्य का पता लगाने के लिए किया जाता है ।
कारपोरा क्वार्डिजेमिना के कार्य- यह दृष्टि एवं श्रवण शक्ति पर नियंत्रण का केन्द्र है।
◆ सेरीब्रल मेन्डकल के कार्य- इसे क्रूरा सेरीब्री भी कहते हैं। यह मस्तिष्क के अन्य भागों को मेरुज्जू से जोड़ता है।
◆ सेरीबेलम के कार्य –यह शरीर को संतुलन बनाए रखता है एवं ऐच्छिक पेशियों के संकुचन पर नियंत्रण करता है । यह आंतरिक कान के संतुलन भाग से संवेदनाएँ ग्रहण करता
◆ मेड्यूला ऑब्लागेंटा- यह मस्तिष्क का सबसे पीछे का भाग होता है। इसका क उपापचय, रक्तदाब, आहारनाल के क्रमाकुंचन ग्रंथि स्राव तथा हृदय की धड़कन करता है ।
(ii) मेरुरज्जू (Spinal cord)
◆ मेड्यूला ऑब्लोंगेटा का पिछला भाग ही मेरुरज्जू बनता है । इसका मुख्य का (i) प्रतिवर्ती क्रियाओं का नियंत्रण एवं समन्वय करना अर्थात् प्रतिवर्ती क्रिया के केन्द्र का करता है ।
(ii) मस्तिष्क से आने-जाने वाले उद्दीपनों का संवहन करना ।
नोट :-प्रतिवर्ती क्रियाओं (Reflex actions) का पता सर्वप्रथम मार्शल हाल नामक वैज्ञानिक ने लगाया था ।
2. परिधीय तंत्रिका तंत्र – परिधीय तंत्रिका तंत्र मस्तिष्क एवं मेरुरज्जू से निकलने वाली तंत्रिकाओं का बना होता है । इन्हें क्रमश: कपाल (cranial) एवं मेरुरज्जू (spinal) तंत्रिकाएँ कहते हैं l
◆ मनुष्य में 12 जोड़ी कपाल तंत्रिकाएँ और 31 जोड़ी मेरुरज्जू तंत्रिकाएँ पायी जाती हैं।
◆ न्यूरॉन (Neuron) – तंत्रिका ऊतक की इकाई को न्यूरॉन या तंत्रिका कोशिका कहते हैं।
◆ नॉर एड्रिनलिन नामक रासायनिक द्रव्य न्यरोट्रांसमीटर पदार्थ है ।
3. स्वायत्तता तंत्रिका तंत्र – स्वायत्त तंत्रिका तंत्र कुछ मस्तिष्क एवं कुछ मेरुरज्जू तंत्रिकाओं का बना होता है । यह शरीर के सभी आंतरिक अंगों व रक्त वाहिनियों को तंत्रिकाओं की आपूर्ति करता है । स्वायत्त तंत्रिका तंत्र की अवधारणा को सबसे पहले लैंगली ने 1921 ई० में प्रस्तुत ” • किया । स्वायत्त तंत्रिका तंत्र के दो भाग होते हैं –
(i) अनुकम्पी तंत्रिका तंत्र (Symphathetic nervous system)
(ii) परानुकम्पी तंत्रिका तंत्र (Parasymphathetic nervous system)
अनुकम्पनी तंत्र के कार्य –
(i) यह त्वचा में उपस्थित रुधिर वाहिनियों को संकीर्ण करता है ।
(ii) इसकी क्रिया से बाल खड़े हो जाते हैं ।
(iii) यह लार ग्रंथियों के स्राव को कम करता है ।
(iv) यह हृदय स्पंदन को तेज करता है ।
(v) यह स्वेद ग्रंथियों के स्राव को प्रारंभ करता है
(vi) यह आँख की पुतली को फैलाता है।
(vii) यह मूत्राशय की पेशियों का विमोचन करता है
(viii) यह आंत्र में क्रमाकुंचन गति को कम करता है।
(ix) इसके द्वारा श्वसन दर तीव्र हो जाती है ।
(x) यह रक्तदाब को बढ़ा है
(xi) यह रुधिर में शर्करा के स्तर को बढ़ाता है ।
(xii) यह रुधिर में लाल रुधिर कणिकाओं की संख्या में वृद्धि करता है
(xiii) यह रक्त के थक्का बनाने में मदद करता है ।
(xiv) इसके सामूहिक प्रभाव से भय, पीड़ा तथा क्रोध करता है ।
परानुकम्पी तंत्र के कार्य – इस तंत्र का कार्य सामान्यतया अनुकम्पी तंत्र के कार्य के विपरीत है। जैसे
(i) यह रुधिर – वाहिनियों की गुहा को चौड़ा करता है, किन्तु कोरोनरी रुधिर वाहिनियों को छोड़कर ।
(ii) यह लार के स्राव में तथा अन्य पाचक रसों में वृद्धि करता है।
(iii) यह नेत्र की पुतली का संकुचन करता है ।
(iv) यह मूत्राशय की अन्य पेशियों में संकुचन उत्पन्न करता है ।
(v) यह आन्त्रीय भित्ति में संकुचन एवं गति उत्पन्न करता है।
(vi) इस तंत्रिका तंत्र का प्रभाव सामूहिक रूप से आराम और सुख की स्थितियाँ उत्पन्न करता है ।
6. कंकाल तंत्र (Skeleton System)
◆ मनुष्य का कंकाल तंत्र दो भागों का बना होता है –  (a) अक्षीय कंकाल, (b) उपांगीय कंकाल
(a) अक्षीय कंकाल (Axial skeleton) – शरीर का मुख्य अक्ष बनाने वाले कंकाल को अक्षीय कंकाल कहते हैं। इसके अन्तर्गत खोपड़ी, कशेरुक दण्ड तथा छाती की अस्थियाँ आती हैं
(i) खोपड़ी (Skull) – मनुष्य के सिरं (Head) के अन्तः कंकाल के भाग को खोपड़ी कहते हैं। इसके 29 अस्थियाँ होती हैं। इसमें से 8 अस्थियाँ संयुक्त रूप से मनुष्य के मस्तिष्क को सुरक्षित रखती हैं। इन अस्थियों से बनी रचना को कपाल (cranium) कहते हैं। कपालों की सभी अस्थियाँ सीवनों (sutures) के द्वारा दृढ़ता पूर्वक जुड़ी रहती हैं। इसके अतिरिक्त 14 अस्थियाँ चेहरे को और बनाती है। 6 अस्थियाँ कान को। हॉयड नामक एक और अस्थि खोपड़ी में होती है।
(ii) कशेरुक दण्ड (Vertebral column) – मनुष्य का कशेरुक दण्ड 33 कशेरुकाओं से मिलकर बना है। सभी कशेरुक उपस्थित गद्दियों के द्वारा जुड़े रहते हैं। इन गद्दियों से कशेरुक दण्ड लचीला रहता है। सम्पूर्ण कशेरुक दण्ड को हम निम्नलिखित भागों में विभक्त करते हैं ।
◆ इसका पहला कशेरुक जो कि एटलस कशेरुक (Atlas Vertebra) कहलाता है, खोपड़ी को साधे रहता है ।
कशेरुक दण्ड के कार्य –
(i) सिर को साधे रहता है ।
(ii) यह गर्दन तथा धड़ को आधार प्रदान करता है ।
(iii) यह मनुष्य को खड़े होकर चलने, खड़े होने, आदि में मदद करता है ।
(iv) यह गर्दन तथा धड़ को लचक प्रदान करते हैं जिससे मनुष्य किसी भी दिशा में अपनी गर्दन और धड़ को मोड़ने में सफल होता है।
(v) यह मेरुरज्जू को सुरक्षा प्रदान करता है ।
(b) उपांगीय कंकाल (Appendicular skeleton) – इसके निम्न भाग है-
(i) पादं अस्थियाँ- दोनों हाथ, पैर मिलाकर 118 अस्थियाँ होती है ।
(ii) मेखलाएँ – मनुष्य में अग्रपाद तथा पश्च पाद को अक्षीय कंकाल पर साधने के लिए दो चाप पाए जाते हैं, जिन्हें मेखलाएँ (girdles) कहते हैं।
◆ अग्रपाद की मेखला को अंश मेखला तथा पश्च पाद की मेखला की श्रेणी मेखला (pelvic girdle) कहते हैं ।
◆ अंश मेखला से अग्र पाद की अस्थि ह्यूमरस एवं श्रेणी मेखला से पश्च पाद की हड्डी फीमर जुड़ी होती है।
कंकाल तंत्र के कार्य –
1. शरीर को निश्चित आकार प्रदान करना ।
2. शरीर के कोमल अंग की सुरक्षा प्रदान करना ।
3. पेशियों को जुड़ने का आधार प्रदान करना ।
4. श्वसन एवं पोषण में सहायता प्रदान करना l
5. लाल रक्त कणिकाओं का निर्माण करना ।
◆ मनुष्य के शरीर में कुल हड्डियों की संख्या –206
◆ बाल्यावस्था में कुल हड्डियों की संख्या – 208
◆ सिर की कुल हड्डियों की संख्या-29
[ कपाल – 8, फेसियल – 14, एवं कर्ण-6]
◆ रीढ़ की कुल हड्डियों की संख्या (विकसित होने पर ) – 26
◆ पसलियों की कुल हड्डियों की संख्या ( प्रारंभ में ) – 33
◆ शरीर की सबसे बड़ी हड्डी फीमर (जांघ की हड्डी)
◆ शरीर की सबसे छोटी हड्डी-स्टेप्स (कान की हड्डी)
 नोट :- (i) मांसपेशी एवं अस्थि के जोड़ को टेण्डन कहते हैं । (ii) अस्थि से अस्थि के जोड़ को लिंगामेंटस कहते हैं ।
7. अन्तः स्त्रावी तंत्र (Endocrine system)
(a) बहिःस्रावी ग्रंथियाँ (Endocrine glads) – यह नलिका युक्त (du-tglands) होती है। इससे एन्जाइम का स्राव होता है। जैसे- दुग्ध ग्रंथि, स्वेद ग्रंथि, अश्रु ग्रंथि, श्लेष्म ग्रंथियाँ, लार ग्रंथियाँ आदि ।
 (b) अन्तःस्रावी ग्रंथियाँ (Exocrine glands) – यह नलिकाविहीन युक्त (ductless) ग्रंथि होती है। इससे हॉर्मोन का स्राव होता है। यह हॉर्मोन रक्त प्लाज्मा के द्वारा शरीर के विभिन्न भागों में पहुँचाया जाता है। जैसे- पीयूष ग्रंथि, अबटु ग्रंथि (Thyroid gland), परा अबदु ग्रंथि (Para thyorid gland) आदि ।
◆ मानव शरीर की मुख्य अन्तःस्त्रावी ग्रंथि एवं उनसे उत्पन्न हॉर्मोन के कार्य एवं प्रभाव –
1. पीयूष ग्रंथि (Pituitary gland) –
◆ यह कपाल की स्फेनाइड (Sphenoid) हड्डी में एक गड्ढे में स्थित होती है । इसको रोल टर्सिका (Cell turcica) कहते हैं ।
◆ इसका भार लगभग 0.6gm होता है ।
◆ इसे मास्टर ग्रंथि के रूप में भी जाना जाता है 1
पीयूष ग्रंथि से निकलने वाले हॉर्मोन एवं उनके कार्य –
(i) STH हॉर्मोन (Somatotropic hormonie) – यह शरीर की वृद्धि, विशेषतया हड्डियों की वृद्धि का नियंत्रण करती है । STH की अधिकता से भीमकायत्व (Gigantism) अथवा एक्रोमिगली (Acromegaly) विकार उत्पन्न हो जाते हैं, जिसमें मनुष्य की लम्बाई सामान्य से बहुत अधिक बढ़ जाती है । STH की कमी से मनुष्य में बौनापन (Dwarfism) होता है ।
(ii) TSH हॉर्मोन (Thyroid Stimulating Hormone)–यह थाइरॉइड ग्रंथि को हार्मोन स्रावित करने के लिए प्रेरित करता है !
(iii) ACTC हॉर्मोन (Adrenocorticotropic Hormone)एड्रीनल कॉर्टेक्स के स्राव को नियंत्रित करता है ।
(iv) GTH हॉर्मोन (Gonadotropic Hormone) – यह जनन अंगों के कार्यों का नियंत्रण करता है । यह दो प्रकार का है
(a) FSH हॉर्मोन ( Follicle Stimulating Hormone) – यह वृषण की शुक्रजनन नलिकाओं में शुक्राणु जनन में सहायता करता है। यह अंडाशय में फॉलिकिल की वृद्धि में मदद करता है ।
(b) LH हॉर्मोन (Luteiniging Hormone) – अंतराल कोशिका उत्तेजक हॉर्मोन-नर में इसके अभाव से अंतराली कोशिकाओं में टेस्टोस्टीरोन हॉर्मोन एवं मादा में एस्ट्रोजन (Estrogen) हॉर्मोन स्रावित होता है ।
(v) LTH हॉर्मोन (दुग्धजनक हार्मोन or Lactogenic Hormone) -इसका मुख्य कार्य है, शिशु के लिए स्तनों में दुग्ध स्राव उत्पन्न करना ।
(vi) ADH हार्मोन (Antidiuretic Hormone) – इसके कारण छोटी-छोटी रक्त धमनियों का संकीर्णन होता है एवं रक्तदाब बढ़ जाता है। यह शरीर में जल संतुलन को बनाए रखने में भी सहायक होता है ।
2. अवटु ग्रंथि (Thyroid gland) –
◆ यह मनुष्य के गले में श्वासनली या ट्रेकिया के दोनों ओर लेरिंक्स के नीचे स्थित रहती है।
◆ इससे निकलने वाला हॉर्मोन थाइरॉक्सिन (Thyroxine) एवं ट्रायोडोथाइरोनिन (Triodothyronine) है, इसमें आयोडीन अधिक मात्रा में रहता है।
थइरॉक्सिन (Thyroxine) के कार्य –
(i) यह कोशिकीय श्वसन की गति को तीव्र करता है ।
(ii) यह शरीर की सामान्य वृद्धि विशेषतः हड्डियों, बाल इत्यादि के विकास के लिए अनिवार्य है ।
(iii) जनन अंगों के सामान्य कार्य इन्हीं की सक्रियता पर आधारित रहते हैं।
(iv) पीयूष ग्रंथि के हॉर्मोन के साथ मिलकर शरीर के जल संतुलन का नियंत्रण करते हैं।
थाइरॉक्सिन की कमी से होने वाला रोग –
(i) जड़मानवता (Cretinism)- यह रोग बच्चों में होता है, इसमें बच्चों का मानसिक एवं शारीरकि विकास अवरुद्ध हो जाता है।
(ii) मिक्सिडमा -यौवनावस्था में होने वाले इस रोग में उपापचय भली-भाँति नहीं हो पाता जिससे हृदय स्पंदन तथा रक्त चाप कम हो जाता है ।
(iii) हाइपोथाइरॉयडिज्म (Hypothyroidism) – लम्बे समय तक इस हॉर्मोन की कमी के कारण यह रोग होता है। इस रोग के कारण सामान्य जनन कार्य संभव नहीं हो पाता। कभीकभी इस रोग के कारण मनुष्य गूँगा एवं बहरा हो जाता है ।
(iv) घेंघा (Goitre)-भोजन में आयोडीन की कमी से यह रोग उत्पन्न हो जाता है। इस रोग में थाइरॉयड ग्रंथि के आकार में बहुत वृद्धि हो जाती है।
◆ थाइरॉक्सिन के आधिक्य से होने वाला रोग –
(i) टॉक्सिक ग्वाइटर (Toxic goitre) – इसमें हृदय गति तीव्र हो जाता है, रक्त चाप बढ़ जाता है, श्वसन दर तीव्र हो जाती है ।
(ii) एक्सौप्यैलमिया (Exophthalmia)- इस रोग में आँख फूलकर नेत्रकोटर से बाहर निकल आती है ।
3. पराअबटु ग्रंथि (Parathyroid gland) – यह गला में अबटु ग्रंथि (Thyroid gland) के ठीक पीछे स्थित होता है । इससे दो हॉर्मोन स्रावित होते हैं
(i) पैराथाइरॉइड हार्मोन (Parathyroid hormone)यह हॉर्मोन तब स्रावित होता है। जब रुधिर में कैल्शियम की कमी हो जाती है ।
(ii) कैल्सिटोनिन (Calcitonin) – जब रुधिर में कैल्शियम की मात्रा अधिक होता है तब यह हॉर्मोन मुक्त होता है । अर्थात् पराअबटु ग्रंथि से निकलने वाला हॉर्मोन रुधिर में कैल्शियम की मात्रा के नियंत्रण करता है ।
 4. अधिवृक्क ग्रंथि (Adrenal gland) – इस ग्रंथि के दो भाग होते हैं – (i) बाहरी भाग कॉर्टेक्स (Cortex) तथा (ii) अंदरुनी भाग हेडुला (Medulla)
◆ कॉर्टेक्स से निकलने वाला हॉर्मोन एवं कार्य
(i) ग्लूकोकार्टिक्वइड्स (Glucocorticoids)- ये कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन एवं वसा उपापचय को नियंत्रण करता है ।
(ii) मिनरलोकॉर्टिक्वायड्स  (Mineralocorticoids) – इसका मुख्य कार्य वृक्क नलिकाओं द्वारा लवण में पुनः अवशोषण एवं शरीर में अन्य लवणों की मात्राओं का नियंत्रण करना है ।
(iii) लिंग हॉर्मोन (Sex hormone) – यह वाह्यलिंगी बालों के आने का प्रतिमान एवं यौन आचरण को नियंत्रित करते हैं ।
नोट :- (i) कॉर्टेक्स (Cortex) – जीवन में नितांत आवश्यक है। यदि यह शरीर से बिल्कुल निकाल दिया जाए तो मनुष्य केवल एक या दो सप्ताह ही जीवित रह सकेगा ।
(ii) कॉर्टेक्स के विकृत हो जाने पर उपापचयी प्रक्रमों में गड़बड़ी उत्पन्न हो जाती है, इस रोग को एडीसन रोग (Addison’s disease) कहते हैं ।
मेडूला (Medull) द्वारा स्त्रावित हॉर्मोन एवं कार्य –
(i) एपिनेफ्रीन (Epinephrine) – यह एक एमीनो अम्ल है।
(ii) नॉरएपिनेफ्रीन (Norepinephrine) – यह भी एमीनो अम्ल है।
          इन दोनों हॉर्मोनों का समान कार्य है। ये समान रूप से हृदयपेशियों की उत्तेजनाशीलता एवं संकुचनशीलता में वृद्धि करते हैं । फलस्वरूप रक्तचाप बढ़ जाता है ।
◆ एपिनेफ्रीन हृदय स्पंदन एकाएक रुक जाने पर उसे पुन: चालू करने में सहायक होता है ।
◆ अधिवृक्क ग्रंथि से निकलने वाले हॉर्मोन को लड़ो एवं उड़ो ( fight and flcight) हॉर्मोन कहा जाता है ।
◆ उत्तेजना के समय ऐड्रिनेलिन हॉर्मोन अधिक मात्रा में उत्सर्जित होता है। (क्रोध, भय एवं खतरे के समय सक्रिय होता है । )
5. जनन – ग्रंथि (Gonads) –
1. अंडाशय (Ovary) – इसके द्वारा निम्न हॉर्मोनों का स्राव होता है ।
(i) एस्ट्रोजेन (Estrogen) – यह अंडवाहिनी (Oviduct) के परिवर्द्धन को पूर्ण करता है
(ii) प्रोजेस्टेरॉन (Progesteron) – यह एस्ट्रोजेन से सहयोग कर स्तन वृद्धि करने में सहायता करता है ।
(iii) रिलैक्सिन (Relaxin) – गर्भावस्था में यह अंडाशय, गर्भाशय एवं अपरा में उपस्थित रहता है । यह हॉर्मोन प्यूबिक सिफाइसिस (pubic symphysix) को मुलायम करता है और यह गर्भाशय ग्रीवा (uterine cervix ) को चौड़ा करता है, ताकि बच्चा आसानी से पैदा हो सके ।
2. वृषण ( Testes) – इससे निकलने वाले हॉर्मोन को टेस्टोस्टेरॉन कहते हैं। यह पुरुषोचित लैंगिक लक्षणों के परिवर्द्धन को एवं यौन-आचरण को प्रेरित करता है ।
8. श्वसन तंत्र ( Respiratory System) 
          मनुष्य के श्वसन तंत्र का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग फेफड़ा या फुफ्फुस (Lungs) होता है, जहाँ पर गैसों का आदान-प्रदान होता है। इसलिए इसे फुफ्फुसीय श्वसन भी कहते हैं ।
          श्वसन तंत्र के अन्तर्गत वे सभी अंग आते हैं, जिससे होकर वायु का आदान-प्रदान होता है, जैसे- नासामार्ग, ग्रसनी लैरिंक्स या स्वरयंत्र, ट्रेकिया, ब्रोकाई, ब्रौंकियोल्स तथा फेफड़े आदि ।
         नासामार्ग (Nasal passage)- इसका मुख्य कार्य सूँघने से संबंधित है। यह श्वसन नाल के द्वार का भी कार्य करता है। इसके भीतर की गुहा म्यूकस कला (Mucous membrane) में स्तरित होती है। यह स्तर लगभग 1/2 ली० म्यूकस प्रतिदिन स्रावित करती है । यह स्तर धूल के कण, जीवाणु या अन्य सूक्ष्म जीव को शरीर के अन्दर प्रवेश करने से रोकती है । यह शरीर में प्रवेश करने वाली वायु को नम एवं शरीर के ताप के बराबर बनाती है ।
          ग्रसनी ( Pharynx) – यह नासा गुहा के ठीक पीछे स्थित होता है ।
          लैरिंक्स या स्वर यंत्र (Larynx or voice box) – श्वसन मार्ग का वह भाग जो ग्रसनी को ट्रेकिया से जोड़ता है, लैरिंक्स या स्वर यंत्र कहलाता है। इसका मुख्य कार्य ध्वनि उत्पादन है। लैरिंक्स प्रवेश द्वार पर एक पतला, पत्ती समान कपाट होता है, जिसे इपिग्लॉटिस (epiglottis) कहते हैं । जब कुद भी निगलना होता है तो यह ग्लाटिस द्वार बन्द कर देता है, जिससे भोजन श्वासनली में प्रवेश नहीं कर पाता ।
          ट्रैकिया ( Trachea ) – यह वक्ष गुहा (thoracic cavity) में प्रवेश करती है। ट्रेकिया की दोनों प्रमुख शाखाओं को प्राथमिक ब्रोकियोल कहते हैं। दायाँ ब्रोकियोल तीन शाखाओं में बँट कर दायीं ओर के फेफड़े में प्रवेश करती है। बायाँ ब्रोकियोल केवल दो शाखाओं में बँट कर बायें फेफड़े में प्रवेश करती है।
          फेफड़ा (Lungs) – वक्ष गुहा में एक जोड़ी फेफड़े होते हैं। इनका रंग लाल होता है और इनकी रचना स्पंज के समान होती है। दायाँ फेफड़ें बायें फेफड़ा की तुलना में बड़ा होता है । प्रत्येक फेफड़ा एक झिल्ली द्वारा घिरा रहता है, जिसे प्लूरल मेम्ब्रेन (Pleural membrane) कहते हैं । फेफड़े में रुधिर कोशिकाओं का जाल बिछा रहता है । यहाँ पर O2 रुधिर में चली जाती है १ और CO2 बाहर आ जाती है ।
◆  श्वसन की प्रक्रिया को चार भागों में बाँटा जा सकता है- 1. बाह्य श्वसन (External respiration) 2. गैसों का परिवहन (Transportation of gases) 3. आंतरिक श्वसन ( Internal respiration) 4. कोशिकीय श्वसन (Cellular respiration ) |
1. बाह्य श्वसन – यह निम्न दो पदों में विभक्त होता है- (a) श्वासोच्छवास (Breathing) (b) गैसों का विनिमय (Exchange of gases) ।
श्वासोच्छवास की क्रिया विधि (Mechanism of Breathing) –
 (i) निश्वसन ( Inspiration ) – इस अवस्था में वायु वातावरण से वायु पथ द्वारा फेफड़े में प्रवेश करती है, जिससे वक्ष-गुहा का आयतन बढ़ जाता है एवं फेफड़ों में एक निम्न दाब का निर्माण हो जाता है तथा वायु वातावरण से फेफड़ों में प्रवेश करती है। यह हवा तब तक प्रवेश रहती है, जब तक कि वायु का दाब शरीर के भीतर एवं बाहर बराबर न हो जाय ।
 (ii) उच्छ्श्वसन (Expiration)- इसमें श्वसन के पश्चात् वायु उसी वायु-पथ के द्वारा फेफड़े से बाहर निकलकर वातावरण में पुनः लौट जाती है, जिस पथ से वह फेफड़े में प्रवेश करती है ।
नोट- साँस द्वारा लगभग 400ml पानी प्रतिदिन हमारे शरीर से बाहर निकलता है ।
(b) गैसों का विनिमय-गैसों का विनिमय फेफड़े के अन्दर होता है यह गैसीय विनिमय घुली अवस्था में या विसरण प्रवणता (Diffusion gradient) के आधार पर साधारण विसरण के द्वारा होता है ।
◆ फेफड़े में ऑक्सीजन तथा कार्बन डाई आक्साइड गैसों का विनिमय उनके दाबों के अन्तर के कारण होता है। इन दोनों गैसों की विसरण की दिशा दूसरे के विपरीत होती है ।
2. गैसों का परिवहन-गैसों का (O2 एवं CO2) फेफड़े से शरीर की कोशिकाओं तक पहुँचना तथा पुनः फेफड़े तक वापस जाने की क्रिया को गैसों का परिवहन कहते हैं ।
◆ ऑक्सीजन का परिवहन रुधिर में पाए जाने वाले लाल वर्णक हीमोग्लोबिन के द्वारा होता है।
◆  कार्बन डाई ऑक्साइड का परिवहन कोशिकाओं से फेफड़े तक हीमोग्लोबिन के द्वारा केवल 10 से 20% तक ही हो पाता है।
◆ कार्बन डाई ऑक्साइड का परिवहन रक्त परिसंचरण के द्वारा अन्य प्रकार से भी होता है –
(i) प्लाज्मा में घुलकर – CO2 प्लाज्मा में घुलकर कार्बोनिक अम्ल बनाती है । इस रूप में 7% CO2 का परिवहन होता है।
(ii) बाइकार्बोनेट्स के रूप में – बाइ कार्बोनेट्स के रूप में CO2 का लगभग 70% भाग परिवहन होता है । वह रुधिर के पोटैशियम एवं सोडियम के साथ मिलकर पोटैशियम बाइ कार्बोनेट एवं सोडियम बाइ कार्बोनेट का निर्माण होता है ।
3. आन्तरिक श्वसन – शरीर के अन्दर रुधिर एवं ऊतक द्रव्य के बीच गैसीय विनिमय होता है, उसे आन्तरिक श्वसन कहते हैं ।
नोट :- फेफड़ों में होने वाले गैसीय विनिमय को बाह्य श्वसन कहते हैं । इसमें जब रुधिर (ऑक्सीहीमोग्लोबिन) कोशिकाओं में पहुँचता है, तो ऑक्सीजन विमुक्त होता है एवं खाद्य पदार्थों का ऑक्सीकरण होता है जिससे ऊर्जा विमुक्त होती है ।
4. कोशिकीय श्वसन – खाद्य पदार्थों के पाचन के फलस्वरूप प्राप्त ग्लूकोज का कोशिका में ऑक्सीजन द्वारा ऑक्सीकरण किया जाता है। इस क्रिया को कोशिकीय श्वसन कहते हैं । कोशिकीय श्वसन दो प्रकार के होते हैं – (i) अनॉक्सी श्वसन (ii) ऑक्सी श्वसन ।
(i) अनॉक्सी श्वसन (Anaerobic Respiration) – जो श्वसन ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में होता है, उसे अनॉक्सी श्वसन कहते हैं। इसमें ग्लूकोज, बिना ऑक्सीजन के मांसपेशियों में लैक्टिक अम्ल (Lactic acid) और बैक्टीरिया एवं यीस्ट की कोशिकाओं में इथाइल अल्कोहल में विघटित हो जाता है। इसे शर्करा किण्वन (sugar fermentation) भी कहते हैं । इसके अन्तर्गत होने वाले सम्पूर्ण प्रक्रम को ग्लाइकेलिसिस कहते हैं ।
◆ अनॉक्सी श्वसन के अन्त में पाइरुविक अम्ल बनता है ।
◆ अनॉक्सी श्वसन प्राय: जीवों में गहराई पर स्थित ऊतकों में अंकुरित होते बीजों में एवं फलों में थोड़े समय के लिए होता है। परन्तु यीस्ट एवं जीवाणु में यह प्रायः पाया जाता है ।
(ii) ऑक्सी श्वसन (Aerobic Respiration) – जब ऑक्सीजन की उपस्थिति में होती है । इसमें श्वसनी पदार्थ का पूरा ऑक्सीकरण होता है, जिसके फलस्वरूप CO2 एवं H2O बनते हैं तथा काफी मात्रा में ऊर्जा विमुक्त होती है ।
C6H12O6 + 6O2 → 6CO2 + 6 H2O + 2830 KJ उर्जा
◆ कोशिकीय श्वसन में होने वाली जटिल प्रक्रिया को दो भागों में बाँटा गया है
(a) ग्लाइकोलिसिस (b) क्रेब्स चक्र ।
(a) ग्लाइकोलिसिस (Glycolysis )  –
◆ इसका अध्ययन सर्वप्रथम एम्बडेन मेयरहाफ, पारसन ने किया था। इसलिए इसे EMP पथ भी कहते हैं ।
◆ इसको अनॉक्सी श्वसन (Anaerobic respiration) या शर्करा किण्वन (Sugar fermentation) भी कहा जाता है।
◆ इसमें ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में ऊर्जा मुक्त होती है।
◆ यह अवस्था ऑक्सी (Aerobic) एवं अनॉक्सी (Anaerobic) दोनों प्रकार के श्वसन में उपस्थित रहती है ।
◆ एक ग्लूकोज अणु का ग्लाइकोलिसिस में विघटन के फलस्वरूप पाइरुविक अम्ल (Pyruvic acid) के दो अणु बनते हैं।
◆ इस प्रक्रिया को आरंभ करने में 2- अणु ATP (Adinosin Triphosphate) व्यय होते किन्तु प्रक्रिया के अन्त में 4 अणु ATP प्राप्त होते हैं। अत: ग्लाइकोलिसिस के फलस्वरूप 2 अणु ATP प्राप्त होते हैं अर्थात् 16000 कैलोरी (2 x 8000) ऊर्जा प्राप्त होती है।
◆ ग्लाइकोलिसिस में ऑक्सीजन की आवश्यकता नहीं होती। अतः यह प्रक्रिया अनॉक्सी श्वसन (Anaerobic) एवं ऑक्सी श्वसन (Aerobic) में एक समान होती है ।
◆ इसमें हाइड्रोजन के चार परमाणु बनते हैं, जो NAD को 2NADH2 में बदलने में काम आता है ।
(B) क्रेब्स चक्र (Kreb’s cycle) –
◆ इसका वर्णन हैन्स क्रेब से सन् 1937 ई० में किया ।
◆ इसको साइट्रिक अम्ल चक्र या ट्राइकार्बोक्सिलिक चक्र भी कहा जाता है।
◆ यह माइटोकॉन्ड्रिया के अन्दर विशेष एन्जाइम की उपस्थिति में ही सम्पन्न होती है।
◆ ADP के 2 अणु ATP के दो अणु बनते हैं ।
◆ इस चक्र में हाइड्रोजन के 2-2 परमाणु 5 बार मुक्त होते हैं ।
◆ पूरे चक्र दो अणु पाइरुविक अम्ल के होते हैं, अतः कुल 6 अणु कार्बन डाइऑक्साइड के बनते हैं ।
हमारे तंत्र में अधिकतम ATP अणुओं का निर्माण क्रेब्स चक्र के दौरान होता है।
◆ ऊर्जा का उत्पादन (Production of energy)पाइरुविक अम्ल के अणु के ऑक्सीकरण से ATP का एक अणु, पाँच अणु NADH के व 1 अणु FADH2 का बनता है । NADH के एक अणु से 3 अणु ATP के व FADH2 के अणु से ATP के 2 अणु प्राप्त होते हैं । इस प्रकार पाइरुविक अम्ल के एक अणु से 1+ (3 × 5) + (2 × 1)= 18 अणु ATP के बनते हैं। ग्लूकोज के एक अणु से दो पाइरुविक अम्ल के अणु बनते हैं, जिससे 36 अणु ATP के प्राप्त होते हैं। ग्लाइकोलिसिस के दौरान भी 2 ATP अणुओं का लाभ होता है। अतः ग्लूकोज के एक अणु के श्वसन से कुछ 2+36=38 ATP अणु प्राप्त होते हैं
◆ श्वसनी पदार्थ- कार्बोहाइड्रेट, वसा एवं प्रोटीन प्रमुख श्वसनी पदार्थ है। सबसे पहले कार्बोहाइड्रेट का श्वसन होता है, इसके बाद वसा का। कार्बोहाइड्रेट एवं वसा का भंडार समाप्त होने के बाद ही प्रोटीन का श्वसन होता है ।
नोट :- श्वसन एक अपचयी क्रिया (Catabolic Process ) है । इससे शरीर के भार में कमी होती हैं ।
10. पोषक पदार्थ (Nutrients) 
          वे पदार्थ, जो जीवों में विभिन्न प्रकार के जैविक कार्यों के संचालन एवं संपादन के लिए आवश्यक होते हैं, पोषक पदार्थ (Nutrients) कहलाते हैं। उपयोगिता के आधार पर ये पोषक पदार्थ चार प्रकार के होते हैं
(i) ऊर्जा उत्पादक-वे पोषक पदार्थ, जो ऊर्जा उत्पन्न करते हैं। जैसे- वसा एवं कार्बोहाइड्रेट ।
(ii) उपापचयी नियंत्रक-वे पोषक पदार्थ, जो शरीर की विभिन्न उपापचयी क्रियाओं का नियंत्रण करते हैं। जैसे- विटामिन्स, लवण एवं जल ।
(iii) वृद्धि तथा निर्माण पदार्थ-वे पोषक पदार्थ, जो शरीर की वृद्धि एवं शरी की टूटफूट की मरम्मत का कार्य करते हैं। जैसे- प्रोटीन ।
(iv) आनुवंशिक पदार्थ-वे पोषक पदार्थ, जो आनुवंशिक गुणों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में ले जाते हैं। जैसे-न्यूक्लिक अम्ल ।
◆ मनुष्य के शरीर में विभिन्न कार्यों के लिए निम्नलिखित पोषक पदार्थों की आवश्यकता है-(1) कार्बोहाइड्रेट, (2) प्रोटीन, (3) वसा, (4) विटामिन (5) न्यूक्लिक अम्ल, (6) खनिज लवण और (7) जल |
1. कार्बोहाइड्रेट (Carbohydrates) – कार्बन हाइड्रोजन और ऑक्सीजन के 1:2:1 के अनुपात से मिलकर बने कार्बनिक पदार्थ कार्बोहाइड्रेट कहलाते हैं। शरीर की ऊर्जा की आवश्यकता की 50- 75% मात्रा की पूर्ति इन्हीं पदार्थों द्वारा की जाती है। 1 ग्राम ग्लूकोज के पूर्ण ‘ऑक्सीकरण से 4.2 Kcal ऊर्जा प्राप्त होती है ।
◆ कार्बोहाइड्रेट तीन प्रकार के होते हैं- 1. मोनो सैकराइड 2. डाइ सैकराइड्स 3. पॉली सैकराइड्स ।
1. मोनो सैकराइंड- यह कार्बोहाइड्रेट की सबसे सरल अवस्था है। जैसे- ग्लूकोज, ग्लैक्टोज, मैनोज ट्राइओज आदि ।
2. डाइ सैकराइड्स – समान या भिन्न मोनो सैकराइड्स के दो अणुओं के संयोजन से एक डाइ सैकराइड्स बनता है। जैसे- माल्टोज, सुक्रोज एवं लैक्टोज ।
ग्लूकोज + फ्रुक्टोज → सुक्रोज
ग्लूकोज + ग्लूकोज → माल्टोज़
ग्लूकोज + ग्लैक्टोज → लैक्टोज
3. पॉली सैकराइड्स- मोनो सैकराइड्स के कई अणुओं के मिलने से लम्बी शृंखला वाली अघुलनशील पॉली सैकराइड्स का निर्माण होता है। यह आर्थ्रोपोडा के बाह्य कंकाल एवं सेलूलोज में पाया जाता है । इसके अन्य उदाहरण हैं- स्टांच ग्लाइकोजेन, काइटिन आदि ।
कार्बोहाइड्रेट के प्रमुख कार्य –
(i) ऑक्सीकरण द्वारा शरीर की ऊर्जा की आवश्यकता को पूरा करना ।
(ii) शरीर में भोजन संचय की तरह कार्य करना ।
(iii) विटामिन C का निर्माण करना ।
(iv) न्यूक्लिक अम्लों का निर्माण करना ।
(v) जंतुओं के बाह्य कंकाल का निर्माण करना ।
◆ कार्बोहाइड्रेट के प्रमुख स्रोत-गेहूँ, चावल, मक्का, बाजरा, आलू, शकरकंद, शलजम ।
2. प्रोटीन (Protein) – प्रोटीन शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग जे० बर्जेलियस ने किया था। यह एक जटिल कार्बनिक यौगिक है, जो 20 अमीनो अम्लों से मिलकर बने होते हैं। मानव शरीर का लगभग 15% भाग प्रोटीन से ही निर्मित होता है ।
◆ ऊर्जा उत्पादन एवं शरीर की मरम्मत दोनों कार्यों के लिए प्रोटीन उत्तरदायी होता है ।
◆ मनुष्य के शरीर में 20 प्रकार की प्रोटीन की आवश्यकता होती है, जिनमें से 10 का संश्लेषण उसका शरीर स्वयं करता है तथा शेष 10 भोजन के द्वारा प्राप्त होते हैं ।
◆ प्रोटीन के प्रकार –
(i) सरल प्रोटीन-वे प्रोटीन्स, जो केवल अमीनो अम्लों के बने होते हैं, सरल प्रोटीन कहलाते हैं ।
उदाहरण- एल्ब्यूमिन्स, ग्लोब्यूलिन्स, हिस्टोन इत्यादि ।
(ii) संयुग्मी प्रोटीन-वे प्रोटीन, जिनके अणुओं के साथ समूह भी जुड़े रहते हैं, संगुग्गी प्रोटीन कहलाते हैं । उदाहरण – क्रोमोप्रोटीन, ग्लाइको प्रोटीन आदि ।
(iii) व्युत्पन्न प्रोटीन्स-वे प्रोटीन, जो प्राकृतिक प्रोटीन के जलीय अपघटन से बनते हैं, व्युत्पन्न प्रोटीन कहलाते हैं। उदाहरण- प्रोटिअन्स, पेप्टोन, पेप्टाइड ।
◆ प्रोटीन के महत्त्वपूर्ण कार्य –
(i) ये कोशिकाओं, जीवद्रव्य एवं ऊतकों के निर्माण में भाग लेते हैं ।
(ii) ये शारीरिक वृद्धि के लिए आवश्यक हैं। इनकी कमी से शारीरिक विकास रुक जाता है। बच्चों में प्रोटीन की कमी से क्वाशियोकर (Kwashiorkor) एवं मरास्मस (Marasmus) नामक रोग हो जाता है।
(iii) आवश्यकता पड़ने पर ये शरीर को ऊर्जा देते हैं।
(iv) ये जैव उत्प्रेरक एवं जैविक नियंत्रक के रूप में कार्य करते हैं।
(v) आनुवंशिकी लक्षणों के विकास का नियंत्रण करते हैं ।
(vi) ये संवहन में भी सहायक होते हैं ।
◆ क्वाशियोकर- इस रोग में बच्चों का हाथ-पाँव दुबला-पतला हो जाता है एवं पेट बाहर की ओर निकल जाता है ।
◆ मरास्मस – इस रोग में बच्चों की मांसपेशियाँ ढीली हो जाती हैं ।
3. वसा (Fats) – वसा ग्लिसरॉल एवं वसीय अम्ल का एक एस्टर होती है।
◆ इसमें कार्बन, हाइड्रोजन एवं ऑक्सीजन विभिन्न मात्राओं में उपस्थित रहते हैं।
◆ वसा सामान्यत: 20°C ताप पर ठोस अवस्था में होते हैं, परन्तु यदि वे इस ताप पर द्रव अवस्था में हों तो उन्हें ‘तेल’ कहते हैं ।
वसा अम्ल दो प्रकार के होते हैं- संतृप्त तथा असंतृप्त । असंतृप्त वसा अम्ल मछली के तेल एवं वनस्पति तेलों में मिलते हैं। केवल नारियल का तेल तथा ताड़ का तेल ( Palm oil) संतृप्त तेल के उदाहरण हैं।
◆ 1 ग्राम वसा से 9.3 किलो कैलोरी ऊर्जा वसा से प्राप्त होनी चाहिए ।
◆ शरीर में इनका संश्लेषण माइटोकॉन्ड्रिया में होता है।
वसा का मुख्य कार्य –
(i) यह शरीर को ऊर्जा प्रदान करती है
(ii) यह त्वचा के नीचे जमा होकर शरीर के ताप को बाहर नहीं निकलने देती है।
(iii) यह खाद्य पदार्थों में स्वाद उत्पन्न करती है और आहार को रुचिकर बनाती है ।
(iv) यह शरीर के विभिन्न अंगों को चोटों से बचाती हैं  ।
◆ वसा की कमी से त्वचा रूखी हो जाती है, वजन में कमी आती है एवं शरीर का विकास रुक जाता है ।
◆ वसा की अधिकता से शरीर स्थूल हो जाता है, हृदय की बीमारी होती है एवं रक्तचाप बढ़ जाते हैं।
4. विटामिन-विटामिन का आविष्कार फंक (Funk) ने सन् 1911 ई० में किया था ।
◆ यह एक प्रकार का कार्बनिक यौगिक है। इनसे कोई कैलोरी नहीं प्राप्त होती, परन्तु ये शरीर के उपापचय (Metabolism) में रासायनिक प्रतिक्रियाओं के नियम के लिए अत्यन्त आवश्यक है ।
◆ घुलनशीलता के आधार पर विटामिन दो प्रकार के होते हैं।
(i) जल में घुलनशील विटामिन-विटामिन B एवं विटामिन-C |
(ii) वसा या कार्बनिक घोलकों में घुलनशील विटामिन→ विटामिन A, विटामिन-D, विटामिन E एवं विटामिन-K |
◆ विटामिन B12 में कोबाल्ट पाया जाता है।
◆ विटामिनों का संश्लेषण हमारे शरीर की कोशिकाओं द्वारा नहीं हो सकता एवं इसकी पूर्ति विटामिन युक्त भोजन से होती है । तथापि, विटामिन D एवं K का संश्लेषण हमारे शरीर में होता है ।
◆ विटामिन D का संश्लेषण सूर्य के प्रकाश में उपस्थित पराबैंगनी किरणों द्वारा त्वचा के कोलेस्टेरोल (इर्गेस्टीरॉल) द्वारा होता है ।
◆ विटामिन K जीवाणुओं द्वारा हमारे कोलन में संश्लेषित होता है तथा यहाँ से उसका अवशोषण भी होता है ।
5. न्यूक्लिक अम्ल (Nucleic acid)- ये कार्बन, हाइड्रोजन, नाइट्रोजन, ऑक्सीजन व फॉस्फोरस से बने न्यूक्लियोटाइडों के बहुलक हैं, जो अल्प मात्रा में हमारी कोशिकाओं में DNA व RNA के रूप में पाए जाते हैं ।
इनका प्रमुख कार्य है –
(i) आनुवंशिकी गुणों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में पहुँचाना ।
(ii) एंजाइम्स के निर्माण एवं प्रोटीन संश्लेषण का नियंत्रण करना ।
(iii) ये क्रोमेटिन जाल का निर्माण करते हैं ।
6. खनिज (Minerals) – मनुष्य खनिज भूमि से प्राप्त न करके भोजन के रूप में ग्रहण करता है। ये शरीर की उपापचयी क्रियाओं को नियंत्रित करते हैं ।
नोट : गर्भवती स्त्रियों में प्रायः कैल्सियम और आयरन की कमी हो जाती है।
 7. जल- मनुष्य इसे पीकर प्राप्त करता है । जल हमारे शरीर का प्रमुख अवयव है। शरीर के भार का 65-75% भाग जल है ।
जल के प्रमुख कार्य –
1. जल हमारे शरीर के ताप को स्वेदन ( पसीना) तथा वाष्पन द्वारा नियंत्रित करता  है ।
2. शरीर के अपशिष्ट पदार्थों के उत्सर्जन का महत्त्वपूर्ण माध्यम है ।
3. शरीर में होने वाली अधिकतर जैव रासायनिक अभिक्रियाएँ जलीय माध्यम में सम्पन्न होती हैं ।
◆ संतुलित पोषण (Blance diet) – वह पोषण जिससे जीव के लिए आवश्यक सभी पोषक तत्त्व पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हो, संतुलित पोषण कहलाता है। आजकल दूध को संतुलित आहार नहीं माना जाता है, क्योंकि इसमें आयरन एवं विटामिन-सी का अभाव होता है ।
◆ संतुलित पोषण संतुलित आहार से प्राप्त होता है, जो नीचे के तालिका में दी गयी है-
◆ मैक्कुलाच ने 1827 ई० में सर्वप्रथम मलेरिया शब्द का प्रयोग किया ।
◆ लेबरन (1880 ई०) ने मलेरिया से पीड़ित व्यक्ति के रुधिर में मलेरिया परजीवी प्लाज्मोडियम की खोज की।
◆ रोनाल्ड रास (1887 ई०) ने मलेरिया परजीवी द्वारा मलेरिया होने की पुष्टि की तथा बताया कि मच्छड़ इसका वाहक है ।
नोट :- सन् 1882 ई० में जर्मन वैज्ञानिक रॉबर्ट कोच ने कॉलरा एवं टी० बी० के जीवाणुओं की खोज की।
◆ लूइ पाश्चर ने रेबीज का टीका एवं दूध का पाश्चुराइजेशन की खोज की।
◆ बच्चों को DPT टीका उन्हें डिप्थीरिया, काली खाँसी एवं टिटनेस रोग प्रतिरक्षीकरण (Immunization) के लिए दिया जाता है ।
हैल्पिन्थ (Helminthus) द्वारा होने वाली बीमारी –
(i) अतिसार (Diarrhoea) – इस रोग का कारण आँत में मौजूद एस्केरिस लुम्ब्रीकॉइडीज नामक अंत:परजीवी प्रोटोजोआ (निमेटोड) है, जो घरेलू मक्खी द्वारा प्रसारित होता है। इसमें त में घाव हो जाता है । इसमें प्रोटीन पचाने वाला इन्जाइम ट्रिप्सिन नष्ट हो जाता है । यह रोग बच्चों में अधिक पाया जाता है ।
(ii) फाइलेरिया (Filaria)- यह रोग फाइलेरिया बैन्क्रोफ्टाई नामक कृमि से होता है। इस कृमि का संचारण क्यूलेक्स मच्छरों के दस से होता है। इस रोग में पैरों, वृषणकोषों तथा शरीर के अन्य भागों में सूजन हो जाता है । इस रोग को हाथीपाँव (Elephantiasis) भी कहते हैं ।
फफूँदी (Fungus) द्वारा होने वाली बीमारी –
 (i) दमा (Asthma) – मनुष्य के फेफड़ों में ऐस्पर्जिलस फ्यूमिगेटस नामक कवक के स्पोर पहुँचकर वहाँ जाल बनाकर फेफड़े का काम अवरुद्ध कर देते हैं। यह एक संक्रामक रोग है
(ii) एथलीट फूट (Athlete’s Foot) – यह रोग टीनिया पेडिस नामक कवक से होता है । यह त्वचा का संक्रामक रोग है, जो पैरों की त्वचा के फटने-कटने और मोटे होने से होते हैं।
(iii) खाज (Scabies) – यह रोग एकेरस स्केबीज नामक कवक से होता है। इसमें त्वचा में खुजली होती है तथा सफेद दाग पड़ जाते हैं ।
(iv) गंजापन (Baldness) – टिनिया केपिटिस नामक कवक से होता है। इसमें सिर के बाल गिर जाते हैं ।
(v) दाद (Ringworm) – यह रोग ट्राइकोफायटान लेरूकोसम नामक कवक से फैलता है। यह संक्रामक रोग है। इसमें त्वचा पर लाल रंग के गोले पड़ जाते हैं ।
नोट :- AIDS – Acquired Immuno Deficiency Syndrome
◆ ELISA (Enzyme Linked Immune Solvent Assy) – यह HIV वायरस की जाँच करने की एक प्रणाली है। इससे पता चलता है कि व्यक्ति एड्स पीड़ित है या नहीं। इसे : एलिसा टेस्ट कहते हैं। वर्त्तमान में एड्स के उपचार के लिए एजिडोथाईमिडिन (AZT ) औषधि का प्रयोग किया जा रहा है ।
मनुष्य में होने वाले आनुवंशिक रोग 
(i) वर्णान्धता (Colourblindness) – इसमें रोगी को लाल एवं हरा रंग पहचानने की क्षमता नहीं होती है ।
◆ इस रोग से मुख्यरूप से पुरुष प्रभावित होता है। स्त्रियों में यह तभी होता है जब इसके दोनों गुणसूत्र (XX) प्रभावित हों ।
◆ इस रोग की वाहक स्त्रियाँ होती हैं।
(ii) हीमोफीलिया (Haemophilia) –
◆ इस रोग में व्यक्ति में चोट लगने पर आधा घंटा से 24 घंटे (सामान्य समय० औसतन 2-5 मिनट) तक रक्त का थक्का नहीं बनता हैं 1
◆ यह मुख्यतः पुरुषों में होता है। स्त्रियों में यह रोग तभी होता है, जब इसके दोनों गुणसूत्र (XX) प्रभावित हों।
◆ इस रोग की वाहक स्त्रियाँ हैं।
◆ हेल्डेन का मानना है कि यह रोग ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया से प्रारंभ हुआ।
 (iii) टर्नर सिन्ड्रोम (Turner’s syndrome)–
◆ यह रोग स्त्रियों में होता है । इस रोग से ग्रसित स्त्रियों में गुणसूत्रों की संख्या 45 होती है।
◆ इसमें शरीर अल्पविकसित, कद छोटा तथा वक्ष चपटा होता है। जननांक प्राय: अविकसित होता है, जिससे वे बांझ (Sterile) होती है।
(iv) क्लीनेफेल्डर सिन्ड्रोम (Klinefelte’s syndrome) –
◆ यह रोग पुरुषों में होता है।
◆ इस रोग से ग्रसित पुरुषों में गुणसूत्रों की संख्या 47 होती है ।
◆ इसमें अल्पविकसित एवं स्तन स्त्रियों के समान विकसित हो जाता है
◆ इस रोग से ग्रसित पुरुष नपुंसक होता है ।
(v) डाउन्स सिन्ड्रोम (Down’s syndrome) – इस रोग से ग्रसित रोगी मन्द बुद्धि, आँखें टेढ़ी, जीभ मोटी तथा अनियमित शारीरिक ढाँचा होता है ।
◆ इसे मंगोलिज्म (Mangolism) भी कहते हैं।
(vi) पटाऊ सिन्ड्रोम (Patau’s syndrome) – इसमें रोगी का ऊपर का ओठ बीच से कट जाता है। तालू में दरार (Cleft Plate) होता जाता है।
◆ इस रोग में रोगी मन्द बुद्धि, नेत्ररोग आदि से प्रभावित हो सकता ।
कुछ अन्य रोग –
1. पक्षाघात या लकवा (Paralysis) – इस रोग में कुछ ही मिनटों में शरीर के आधे भाग को लकवा मार जाता है। जहाँ पक्षाघात होता है वहाँ की तंत्रिकाएँ निष्क्रिय हो जाती है। इसका कारण अधिक रक्त-दाब के कारण मस्तिष्क की कोई धमनी का फट जाना अथवा मस्तिष्क को अपर्याप्त रक्त की आपूर्ति होना है।
2. एलर्जी (Allergy) – कुछ वस्तु जैसे धूल, धुआँ, रसायन, कपड़ा, सर्दी किन्हीं, विशेष व्यक्तियों के लिए हानिकारक हो जाते हैं और उनके शरीर में विपरीत क्रिया होने लगती है, जिससे अनेक बीमारियाँ हो जाती हैं। खुजली, फोड़ा, फुन्सी, शरीर में सूजन आ जाना, काला दाग, एक्जिमा आदि एलर्जी के उदाहरण हैं ।
3. साइजोफ्रेनिया (Schizophrenia)- यह मानसिक रोग है, जो प्रायः युवा वर्ग में होता है । ऐसा रोगी कल्पना को ही सत्य समझता है, वास्तविकता को नहीं। ऐसे रोगी आलसी, अलगावहीन, आवेशहीन होते हैं। विद्युत् आक्षेप चिकित्सा इसमें काफी सहायक होती है ।
4. मिर्गी (Epilepsy) इसे अपस्मार रोग कहते हैं । यह मस्तिष्क के आंतरिक रोगों के कारण होती है । इस रोग में जब दौरा पड़ता है, तो मुँह से झाग निकलता है और मल पेशाब भी निकलता है ।
5. डिप्लोपिया (Diplopia) – यह रोग आँख की मांसपेशियों के पक्षाघात (Paralysis) के कारण होती है ।
6. कैंसर (Cancer) – मनुष्य के शरीर के किसी भी अंग में, त्वचा से लेकर अस्थि तक, यदि कोशिका वृद्धि अनियंत्रित हो, तो इसके परिणामस्वरूप कोशिकाओं में अनियमित गुच्छा बन जाता है, इन अनियमित कोशिकाओं के गुच्छे को कैंसर कहते हैं। कैंसर को स्थापित होने में जो समय लगता है, उसे लैटेण्ड पीरियड कहते हैं ।
कैंसर मुख्यतः चार प्रकार के होते हैं-
(i) कार्सीनोमासइसकी उत्पत्ति उपकला ऊतकों से होती है – । –
(ii) सार्कोमास – यह कैंसर संयोजी ऊतकों, अस्थियों, उपास्थियों एवं पेशियों में होता है।
(iii) ल्यूकीमियास – यह ल्यूकोमाइट्स में असामान्य वृद्धि के कारण होता है।
(iv) लिम्फोमास – यह कैंसर लसीका गाँठों एवं प्लीहा में होता है ।
 12. विज्ञान की कुछ प्रमुख शाखाएँ
◆ एनाटोमी (Anatomy) – यह जीव विज्ञान की वह शाखा है, जो शरीर की आंतरिक संरचना से सम्बन्धित है ।
◆ एन्थ्रोपोलोजी (Anthropology)-यह विज्ञान की वह शाखा है जिसमें मानव के विकास, रीति-रिवाज, इतिहास, परम्पराओं से सम्बन्धित विषयों का अध्ययन किया जाता है।
◆ एस्ट्रोलोजी ‘Astrology) -यह विज्ञान मानव के जीवन पर विभिन्न नक्षत्रों के प्रभावों का अध्ययन करता है, इसे ज्योतिषशास्त्र भी कहते हैं।
◆ एस्ट्रोनामी ( Astronomy)- यह खगोलीय पिण्डों का अध्ययन करने वाला विज्ञान है।
◆ सिरेमिक्स (Ceramics) यह टेक्नोलॉजी की वह शाखा है जो चीनी मिट्टी के बर्तन तैयार करने से सम्बन्धित है।
◆ कीमोथिरेपी (Chemotheraphy) – यह चिकित्सा विज्ञान की वह शाखा है जिसमें रासायनिक यौगिकों से उपचार किया जाता है।
◆ कोस्मोलोजी (Cosmology)यह समस्त ब्रह्माण्ड का अध्ययन करने वाली विज्ञान की एक शाखा 1
◆ क्रायोजेनिक्स (Cryogenics)यह निम्न ताप के विभिन्न प्रयोगों तथा नियंत्रणों का अध्ययन करने वाला विज्ञान है।
◆ इकोलोजी (Ecology) – यह विज्ञान वनस्पतियों तथा प्राणियों के पर्यावरण (Environment ) या प्रकृति से सम्बन्धों का अध्ययन करता है।
◆ एन्टोमोलोजी (Entomology ) – जन्तु विज्ञान की वह शाखा कीट-पतंगों का व्यापक अध्ययन करती है ।
◆ एपीडीमियोलोजी (Epidemilogy) – चिकित्सा विज्ञान की वह शाखा कीट-पतंगों का व्यापक अध्ययन करती है ।
◆ एक्स-बायोलॉजी (Ex-biology ) – इस विज्ञान के द्वारा पृथ्वी को छोड़कर अन्य ग्रहों व उपग्रहों पर जीवन की संभावनाओं का अध्ययन किया जाता है।
◆ जियोलॉजी (Geology)- भूगर्भ सम्बन्धी अध्ययन, उसकी बनावट, संरचना आदि का अध्ययन इस विज्ञान के द्वारा किया जाता है ।
◆ जिरोन्टोलॉजी (Gerontology)वृद्धावस्था से सम्बन्धित तथ्यों का अध्ययन इस विज्ञान के द्वारा किया जाता है ।
◆ होर्टीकल्चर (Horticulture ) – फल-फूल व साग-सब्जी उगाने, बाग लगाने, पुष्प उत्पादन का अध्ययन इस विज्ञान के द्वारा किया जाता है 1
◆ हाइड्रोपैथी (Hydropathy) – इस विज्ञान के द्वारा पानी से रोगों की चिकित्सा होती है।
◆ हाईजीन (Hygiene ) – स्वास्थ्य की देखभाल करने वाला यह स्वास्थ्य का विज्ञान है।
◆ होलोग्राफी (Holography) – यह लेसर पुञ्ज की सहायता से त्रिविमीय चित्र बनाने वाली एक विधि है।
◆ होरोलोजी (Horology)- यह समय मापने वाला विज्ञान है ।
◆ मैमोग्राफी (Maemmography) – यह स्त्रियों में पाये जाने वाले ब्रेस्ट केन्सर की जाँच करने वाले चिकित्सा विज्ञान की शाखा है।
◆ मीट्रियोलोजी (Metreology)-मौसम की दशाओं में होने वाले क्रियाओं तथा परिवर्तनों का अध्ययन इस विज्ञान के द्वारा किया जाता है ।
◆ मौरफोलोजी (Morphology)- पृथ्वी पर पाये जाने वाले प्राणियों तथा पौधों की संरचना, रूप, प्रकार आदि का अध्ययन इस विज्ञान के द्वारा किया जाता है।
◆ न्यूरोलॉजी (Neurology)मानव शरीर की नाड़ियों या तंत्रिकाओं का अध्ययन तथा उपचार इस विज्ञान के द्वारा किया जाता है।
◆ ओडोन्टोग्राफी (Odontograhy) – दाँतों का अध्ययन करने वाली चिकित्सा विज्ञान की यह एक शाखा है।
◆ ऑप्टिक्स (Optics) – प्रकाश के प्रकार व गुणों का अध्ययन करने वाले भौतिक शास्त्र की यह एक शाखा है ।
◆ ऑरनीथोलॉजी (Ornithology)–इस विज्ञान में पक्षियों से सम्बन्धित अध्ययन किया जाता है।
◆ ऑस्टियोलॉजी (Osteology)-प्राणिविज्ञान की इस शाखा में हड्डियों का अध्ययन किया जाता है।
◆ पोमोलॉजी (Pomology ) – यह विज्ञान फलों के अध्ययन से सम्बन्धित है।
◆ सिस्मोलॉजी (Seisinology) – विज्ञान की इस शाखा द्वारा भूकम्पों का अध्ययन किया जाता है ।
◆ एरोनौटिक्स (Aeronautics) – इस विज्ञान की शाखा के अन्तर्गत वायुयान सम्बन्धी तथ्यों का अध्ययन होता है ।
◆ एस्थेटिक्स (Asethetics) – इस शाखा के अन्तर्गत सौन्दर्य (ललित कला) शास्त्र का अध्ययन होता है ।
◆ एग्रोस्टोलॉजी (Agrostology)- यह घासों से सम्बन्धित विज्ञान की शाखा है।
◆ अरबोरीकल्चर (Arboriculture ) – यह वृक्ष उत्पादन सम्बन्धी विज्ञान की शाखा है
◆ आरकियोलॉजी (Arechaeology) – यह पुरातत्व सम्बन्धी विज्ञान की शाखा है ।
◆ एस्ट्रोफिजिक्स (Astrophysics) – यह नक्षत्रों के भौतिक रूप से सम्बन्धित खगोलीय अर्थात् खगोल भौतिकी विज्ञान की शाखा है ।
◆ कैलिस्थेनिक्स (Calisthenics) – इस शाखा के अन्तर्गत शारीरिक सौन्दर्य एवं शक्तिवर्धक व्यायामों की विधियों सम्बन्धी ज्ञान का अध्ययन होता है ।
◆ कान्कोलॉजी (Conchology)इस शाखा के अन्तर्गत शंखविज्ञान (मोलस्का विज्ञान) का अध्ययन होता है ।
◆ कास्मोगोनी (Cosmogony) – इस शाखा के अन्तर्गत ब्रह्माण्डोत्पत्ति सिद्धान्त का अध्ययन होता है ।
◆ कास्मोग्राफी (Cosmography ) — इस शाखा के अन्तर्गत विश्व-रचना सम्बन्धी ज्ञान का अध्ययन होता है ।
◆ क्रिप्टोग्राफी (Cryptography)– इस शाखा के अन्तर्गत गूढ़लेखन या बीजलेखन सम्बन्धी ज्ञान का अध्ययन होता है ।
◆ एपीग्राफी ( Epigraphy ) – इस शाखा के अन्तर्गत शिलालेख सम्बन्धी ज्ञान का अध्ययन होता है ।
◆ एथनोग्राफी (Ethnography) – इस शाखा के अन्तर्गत मानव जाति का अध्ययन होता है !
◆ इथेलोजी (Ethology) – इस शाखा के अन्तर्गत प्राणियों के आधार तथा व्यवहार अध्ययन होता है ।
◆ जेनीकोलॉजी (Genecology) – इस शाखा के अन्तर्गत जीवों की जातियों के विभेदों का अध्ययन होता है।
◆ जियोडेसी (Geodesy) – इस शाखा के अन्तर्गत भूगणित ज्ञान का अध्ययन किया जाता है ।
◆ जियोमेडीशिन (Geomedicine) – यह औषधि शास्त्र की वह शाखा है, जो जलवायु तथा वातावरण का स्वास्थ्य पर प्रभाव का अध्ययन करती है
◆ हीलियोथिरेपी (Heliotherapy) – सूर्य के प्रभाव से चिकित्सा करने की प्रक्रिया कहते हैं ।
◆ हाइड्रोपोनिक्स (Hydroponics) – इस शाखा के अन्तर्गत जल संवर्धन का अध्ययन किया जाता है।
◆ हाइड्रोस्टेटिक्स (Hydrostatics) – इस शाखा के अन्तर्गत द्रवस्थैतिक का अध्ययन किया जाता है ।
◆ लेक्सीकोग्राफी (Lexicography) – यह शब्दकोश संकलन तथा लिखने की कला
◆ न्यूमरोलॉजी (Numerology ) – यह विज्ञान की वह शाखा है जिसमें अंकों का अध्ययन किया जाता है । है ।
◆ न्यूमिसमेटिक्स (Numismatics) – इस विज्ञान की शाखा के अन्तर्गत पुराने सिक्कों (Coins) का अध्ययन होता है ।
◆ फिकोलॉजी (Phycology) – इन शाखा के अन्तर्गत शैवालों (Algac) का अध्ययन होता. है
◆ सेलीनोलॉजी (Selinology ) – इस शाखा के अन्तर्गत चन्द्रमा के मूल स्वरूपं तथा गति के
वर्णन का अध्ययन किया जाता है।
◆ सेरीकल्चर (Sericulture ) – इस शाखा के अन्तर्गत रेशम के कीड़े के पालन और उनसे रेशम के उत्पादन का अध्ययन होता है ।
◆ टेलीपेथी ( Telephathy) – इस शाखा के अन्तर्गत मानसिक संक्रमण की प्रक्रिया का अध्ययन होता है ।
◆ हिप्नोलॉजी (Hypnology ) – नींद का अध्ययन ।
◆ टोक्सीकोलॉजी (Toxicology) – इस शाखा के अन्तर्गत विषों के बारे में अध्ययन होता है।
कुछ महत्वपूर्ण तथ्य (Some Important Facts) —
1. स्वप्नों के अध्ययन को औनीरोलॉजी (Oneirology) कहते हैं ।
2. मनुष्य के सौंदर्य के अध्ययन को कैलोलॉजी (Kalology) कहते हैं
3. जीवन की उत्पत्ति के समय ऑक्सीजन नहीं था । ।
4.  शरीर में सबसे दृढ़ (मजबूत) तत्त्व दाँतों का एनामेल होता है ।
5. मनुष्य में लिंग निर्धारण पुरुष के क्रोमोसोम पर निर्भर होता है, न कि स्त्रियों के क्रोमोसोम से
6. सबसे तेज तंत्रिका आवेग 532 किमी / घंटा होती है । –
7. मनुष्य के फेफड़े का आन्तरिक क्षेत्रफल 93 वर्ग मीटर होता है, जो शरीर के बाह्य क्षे का 40 गुना होता है ।
8. हड्डियाँ कंक्रीट जैसी मजबूत और ग्रेनाइट जैसी कठोर होती है ।
9. शरीर के भीतर प्रति सेकेण्ड लगभग 150 लाख कोशिकाएँ नष्ट होती हैं ।
10. स्त्री के गर्भाशय का भार जिसने कभी संतान जन्म न दिया हो 50 ग्राम का होता है तथा संतान को जन्म देने के बाद स्त्री के गर्भाशय का भार 100 ग्राम हो जाता है ।
11. गुर्दे का भार लगभग 150 ग्राम होता है ।
12. एक बार साँस अन्दर लेने में सामान्य वयस्क लगभग 500 मि० लि० हवा अन्दर जाता है।
13. हृदय की रक्त पम्प करने की क्षमता 4.5 लीटर प्रति मिनट होती है ।
14. छोटी आँत लगभग 7 लीटर लम्बी होती है तथा उसका व्यास 2.5 से.मी. होता है ।
15. शरीर के भीतर रक्त- परिभ्रमण (Blood circulation) में लगभग 23 सेकेण्ड का समय लगता है ।
16. पेनीसिलीन नामक प्रति जैविक पेनीसिलियम नामक कवक से प्राप्त किया जाता है।
17. मनुष्य संसार का सबसे बुद्धिमान होमिनिड है ।
18. एल्बाट्रास सबसे बड़ा समुद्री पक्षी हैं, जिसके पंख का फैलाव 10-12 फीट तक है ।
19. मनुष्य के शरीर में लगभग 50 लाख बाल होते हैं । ।
20. प्लेसेन्टा बनने के आरम्भ के समय एच. सी. जी. हॉर्मोन काफी मात्रा में स्रावित होकर मूत्र में उत्सर्जित होने लगता है। इसी समय मूत्र की जाँच में इस हॉर्मोन की उपस्थिति से गर्भाधान की जाँच की जाती है ।
21. बच्चे के हृदय की धड़कन वयस्क व्यक्ति से ज्यादा होती है ।
22. एक बार साँस लेने की क्रिया 5 सेकेण्ड में अर्थात् 2 सेकेण्ड के निश्वसन (Inspiration ) तथा 3 सेकेण्ड के उच्छश्वसन ( Expiration) में पूरी होती है ।
23. मनुष्य के शरीर में रुधिर प्रति दिन लगभग 350 लीटर ऑक्सीजन शरीर की कोशिकाओं तक पहुँचता है । इसमें 97% ऑक्सीजन हीमोग्लोबिन द्वारा ले जाया जाता है तथा शेष 3% भाग का संचारण रुधिर प्लाज्मा करता है ।
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