जीव विज्ञान

जीव विज्ञान

◆ जीव विज्ञान (Biology) – यह विज्ञान की वह शाखा है, जिसके अन्तर्गत जीवधारियों का अध्ययन किया जाता है ।
◆ Biology – Bio का अर्थ है – जीवन (life) और Logos का अर्थ है- अध्ययन (study) अर्थात् जीवन का अध्ययन ही Biology कहलाता है ।
◆ जीव विज्ञान शब्द का प्रयोग सर्व प्रथम लैमार्क (Lamarck) (फ्रांस) एवं ट्रेविरेनस (Treviranus) (जर्मनी) नामक वैज्ञनिकों ने 1801 ई० में किया था ।
◆ जीव विज्ञान का एक क्रमबद्ध ज्ञान के रूप में विकास प्रसिद्ध ग्रीक दार्शनिक अरस्तू (Aristotle 384 – 322 BC) के काल में हुआ । उन्होंने ही सर्वप्रथम पौधों एवं जन्तुओं के जीवन के विभिन्न पक्षों के विषय में अपने विचार प्रकट किए । इसलिए अरस्तू को ‘जीव (Father विज्ञान का जनक’ of Biology) कहते हैं। इन्हें ‘जन्तु विज्ञान के जनक’ (Father of Zoology) भी कहते हैं।
1. जीवधारियों का वर्गीकरण (Classification of Organism)
◆ अरस्तू द्वारा समस्त जीवों को दो समूहों में विभाजित किया गया – जन्तु समूह एवं वनस्पतित-समूह
◆ लीनियम ने भी अपनी पुस्तक Systema Naturae में सम्पूर्ण जीवधारियों को दो जगतों ( Kingdoms ) – पादप जगत (Plant Kingdom) तथा जन्तु जगत (Animal Kingdom) में विभाजित किया ।
◆ लीनियस ने वर्गीकरण की जो प्रणाली शुरू की उसी से आधुनिक वर्गीकरण प्रणाली की नींव पड़ी, इसलिए उन्हें आधुनिक वर्गीकरण का पिता (Father of Modern Taxonomy) कहते हैं।
जीवधारियों का पाँच-जगत वर्गीकरण (Five-Kingdom Classification of Organism)
◆ परम्परागत द्वि-जगत वर्गीकरण का स्थान अन्ततः ह्विटकर (Whittaker) द्वारा सन् 1969 ई० में प्रस्तावित 5 जगत प्रणाली ने ले लिया। इसके अनुसार समस्त जीवों को निम्नलिखित पाँच-जगत (Kingdom) में वर्गीकृत किया गया- 1. मोनेरा (Monera) 2. प्रोटिस्टा (Protista) 3. पादप (Plantae) 4. कवक (Fungi) एवं 5. जन्तु (Animal) ।
1. मोनेरा (Monera) – इस जगत में सभी प्रोकैरियोटिक जीव अर्थात् जीवाणु, सायनोबैक्टीरिया तथा आक बैक्टीरिया सम्मिलित किए जाते हैं। तन्तुमय जीवाणु भी इसी जगत के भाग हैं।
2. प्रोटिस्टा (Protista)- इस जगत में विविध प्रकार के एककोशिकीय, प्रायः जलीय (Aquatic) यूकैरियोटिक जीव सम्मिलित किए गए हैं। पादप एवं जन्तु के बीच स्थित यूग्लीना इसी जगत में है। यह दो प्रकार की जीवन प्रदर्शित कती है सूर्य के प्रकाश में स्वपोषित एवं प्रकाश के अभाव में इतर पोषित इसके अन्तर्गत साधारणतया प्रोटोजोआ आते हैं ।
3. पादप (Plantae ) – इस जगत में प्रायः वे सभी रंगीन, बहुकोशिकीय, प्रकाश संश्लेषी उत्पादक जीव सम्मिलित हैं। शैवाल, माँस, पुष्पीय तथा अपुष्पीय बीजीय पौधे इसी जगत के अंग हैं।
4. कवक (Fungi) – इस जगत में वे यूकैरियोटिक तथा परपोषित जीवधारी सम्मिलित किए जाते हैं जिनमें अवशोषण द्वारा पोषण होता है। ये सभी इतरपोषी होते हैं । ये परजीवी अथवा मृतोपजीवी होते हैं। इसकी कोशिका भित्ति काइटिन की बनी होती है ।
5. जन्तु (Animal) – इस जगत में सभी बहुकोशिकीय जन्तुसमभोजी (Holozoic) यूकैरियोटिक, उपभोक्ता जीव सम्मिलित किए जाते हैं । इनको मेटाजोआ (Metazoa) भी कहते हैं । हाइड्रा, जेलीफिश, कृमि, सितारा, मछली, सरीसृप, उभयचर, पक्षी तथा स्तनधारी जीव इसी जगत के अंग हैं ।
जीवों के नामकरण की द्विनाम पद्धति
◆ सन् 1753 ई० में कैरोलस लीनियस नामक वैज्ञानिक जिन्हें वर्गिको का जन्मदाता (Father of Taxo-nomy) भी कहा जाता है, ने जीवों की द्विनाम पद्धति को प्रचलित किया । इस पद्धति के अनुसार, प्रत्येक जीवधारी का नाम लैटिन भाषा के दो शब्दों से मिलकर बनता है। पहला शब्द वंश नाम (Generic name) तथा दूसरा शब्द जाति नाम ( Species name ) कहलाता है । वंश तथा जाति नामों के बाद उस वर्गिकीविद (वैज्ञानिक) का नाम लिखा जाता है, जिसने सबसे पहले उस जाति को खोजा या जिसने इस जाति को सबसे पहले वर्तमान नाम प्रदान किया । जैसे- मानव का वैज्ञानिक नाम होमो सैपियन्स लिन (Homo Sapiens Linu) है। वास्तव में होमो (Homo) उस वंश का नाम है, जिसकी एक जाति सैपियन्स है। लिन (Linn) वास्तव में लीनियस (Linnaeus) शब्द का संक्षिप्त रूप है। इसका अर्थ यह है कि सबसे पहले लीनियस ने इस जाति को होमो सैपियन्स नाम से पुकारा है ।
2. कोशिका विज्ञान (Cytology)
जीवद्रव्य (Protoplasm )
◆ जीवद्रव्य का नामकरण पुरर्किजे (Purkenje) के द्वारा सन् 1839 ई० में किया गया ।
◆ यह एक तरल गाढ़ा रंगहीन, पारभासी, लसलसा, वजनयुक्त पदार्थ है। जीव की सारी जैविक क्रियाएँ इसी के द्वारा होती हैं ।
◆ हेक्सले (Huxley) के अनुसार जीवद्रव्य जीवन का भौतिक आधार है।
◆ जीवद्रव्य दो भागों में बँटा होता है –
(i) कोशिका द्रव्य (Cytoplasm) – यह कोशिका में केन्द्रक एवं कोशिका झिल्ली के • बीच रहता है ।
(ii) केन्द्रक द्रव्य (Nucleoplasm) – यह कोशिका में केन्द्रक के अन्दर रहता है ।
◆ जीवद्रव्य का 99% भाग निम्न चार तत्त्वों से मिलकर बना होता है
1. ऑक्सीजन (76%) 2. कार्बन ( 10.5% ) 3. हाइड्रोजन (10%) 4. नाइट्रोजन (2.5% )
◆ जीवद्रव्य का लगभग 80% भाग जल होता है ।
◆ जीवद्रव्य में अकार्बनिक एवं कार्बनिक यौगिकों का अनुपात 81 : 19 का होता है ।
कोशिका (Cell)
◆ कोशिका जीवन की सबसे छोटी कार्यात्मक एवं संरचनात्मक इकाई है ।
◆ कोशिका के अध्ययन के विज्ञान को Cytology कहा जाता है ।
◆ कोशिका शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम अंग्रेज वैज्ञानिक रॉबर्ट हुक ने सन् 1665 ई० में किया था ।
◆ सबसे छोटी कोशिका जीवाणु माइकोप्लाज्म गैलिसेप्टिकमा (Mycoplasm gallisepticuma) की है ।
◆ सबसे लम्बी कोशिका तंत्रिका तंत्र की कोशिका है।
◆  सबसे बड़ी कोशिका शुतुरमुर्ग के अंडे (Ostrich egg) की कोशिका है।
◆ कोशिका सिद्धांत का प्रतिपादन 1838-39 ई० में श्लाइडेन और श्वान ने किया।
◆ कोशिका सिद्धान्त की मुख्य बातें इस प्रकार हैं-
(i) प्रत्येक जीव की उत्पत्ति एक कोशिका से होती है।
(ii) प्रत्येक जीव का शरीर एक या अनेक कोशिकाओं का बना होता  ।
(iii) प्रत्येक कोशिका एक स्वाधीन इकाई है, तथापि सभी कोशिकाएँ मिलकर काम करती हैं। फलस्वरूप एक जीव का निर्माण होता है।
(iv) कोशिका का निर्माण जिस क्रिया से होता है, उसमें केन्द्रक मुख्य अभिकर्त्ता (Creator) होता है ।
◆ कोशिका दो प्रकार की होती है –
(i) प्रोकैरियोटिक (Procaryotic) (ii) यूकैरियोटिक (Euocaryotic)
◆ प्रोकैरियोटिक कोशिका-इन कोशिकाओं में हिस्टोन प्रोटीन नहीं होता है जिसके कारण क्रोमैटिन नहीं बन पाता है । केवल DNA का सूत्र ही गुणसूत्र के रूप में पड़ा रहता है; अन्य कोई आवरण इसे घेरे नहीं रहता है। अतः केन्द्रक नाम की कोई विकसित कोशिकांग इसमें नहीं होता है। जीवाणुओं एवं नील हरित शैवालों में ऐसी ही कोशिकाएँ मिलती हैं ।
◆ यूकैरियोटिक कोशिका – इन कोशिकाओं में दोहरी झिल्ली के आवरण, केन्द्रक आवरण से घिरा सुस्पष्ट केन्द्रक पाया जाता है, जिसमें DNA व हिस्टोन प्रोटीन के संयुक्त होने से बनी क्रांमैटिन तथा इसके अलावा केन्द्रिका (Nucleolus) होते हैं  –
कोशिका के मुख्य भाग (Main parts of a cell)
 1. कोशिका भित्ति (Cell wall) – (i) यह केवल पादप कोशिका में पाया जाता है। (ii) यह सेलूलोज का बना होता है । (iii) यह कोशिका को निश्चित आकृति एवं आकार बनाए रखने में सहायक होता है ।
2. कोशिका झिल्ली (Cell membrane)-कोशिका के सभी अवयव एक पतली झिल्ली के द्वारा घिरे रहते हैं, इस झिल्ली को कोशिका झिल्ली कहते हैं । यह अर्द्धपारगम्य झिल्ली (Semipermeable membrane) होती हैं । इसका मुख्य कार्य कोशिका के अन्दर जाने वाले एवं अंदर से बाहर आने वाले पदार्थों का निर्धारण करना है ।
3. तारककाय ( Centrosome) – इसकी खोज बोबेरी ने की थी । यह केवल जन्तु कोशिकाओं में पाया जाता है। तारककाय (Centrosome) के अंदर एक या दो कण जैसी रचना होती है, जिन्हें सेण्ट्रियोल कहते हैं। समसूत्री विभाजन में यह ध्रुव का निर्माण करता है I
4. अन्तः प्रदव्य जालिका (Endoplasmic reticulum) – एक ओर यह केन्द्रक झिल्ली से व दूसरी ओर कोशिका कला सम्बद्ध होता है। इस जालिका के कुछ भागों पर किनारे-किनारे छोटी-छोटी कणिकाएँ लगी रहती हैं, जिन्हें राइबोसोम कहते हैं। E.R. का मुख्य कार्य उन सभी वसाओं व प्रोटीनों का संचरण (Transportation) करना है, जो कि विभिन्न झिल्लियों (Membranes) जैसे-कोशिका झिल्ली, केन्द्रक आदि का निर्माण करते हैं।
5. राइबोसोम (Ribosome) – इसकी खोज पैलेड ने की थी। यह राइबोन्यूक्लिक ऐसिड (Ribonucleic acid-RNA) नामक अम्ल व प्रोटीन की बनी होती है। यह प्रोटीन संश्लेषण के लिए उपर्युक्त स्थान प्रदान करती है अर्थात् यह प्रोटीन का उत्पादन स्थल है। इसीलिए इसे प्रोटीन की फैक्ट्री (Factory of protein) भी कहा जाता है।
6. माइटोकॉण्ड्रिया (Mitochondria)- इसकी खोज अल्टमैन (Altman) ने 1886 ई० में की थी । यह कोशिका का श्वसन स्थल है। कोशिका में इसकी संख्या निश्चित नहीं होती है । ऊर्जायुक्त कार्बनिक पदार्थों का ऑक्सीकरण (Oxidation) माइटोकॉण्ड्रिया में होता है, जिससे काफी मात्रा में ऊर्जा प्राप्त होती है। इसलिए माइटोकॉण्ड्रिया को कोशिका का शक्ति केन्द्र (Power house of cell) कहते हैं ।
नोट : DNA केन्द्रक के अलावे माइटोकॉन्ड्रिया एवं हरित लवक में पाया जाता है T
7. गॉल्जीकाय (Golgi body)- इसकी खोज कैमिलो गॉल्जी (इटली) नामक वैज्ञानिक ने की थी । यह सूक्ष्म नालिकाओं (Tubules) के समूह एवं थैलियों का बना होता है ।
गॉल्जी कॉम्प्लेक्स में कोशिका द्वारा संश्लेषित प्रोटीनों व अन्य पदार्थों की पुटिकाओं के रूप में पैकिंग की जाती है । ये पुटिकाएँ गंतव्य स्थान पर उस पदार्थ को पहुँचा देती हैं । यदि कोई पदार्थ कोशिका से बाहर स्रावित होता है तो उस पदार्थ वाली पुटिकाएँ उसे कोशिका झिल्ली के माध्यम से बाहर निकलता देती हैं। इस प्रकार गॉल्जीकाय को हम कोशिका के अणुओं का यातायात प्रबंधक भी कह सकते हैं। ये कोशिका भित्ति एवं लाइसोसोम का निर्माण भी करते हैं । :
8. लाइसोसोम (Lysosome) – इसकी खोज डी-डूबे (De Duve) नामक वैज्ञानिक ने की थी । यह सूक्ष्म, गोल, इकहरी झिल्ली से घिरी हैं थैली जैसी रचना होती है। इसका सबसे प्रमुख कार्य बाहरी पदार्थों का भक्षण एवं पाचन करना है । इसमें 24 प्रकार के एन्जाइम पाए जाते हैं। यदि पूर्ण क्षतिग्रस्त या मृत कोशिकाओं को नष्ट करने की आवश्यकता हो तो ये अपनी झिल्ली तोड़कर एक ही बार में अपना सारा द्रव्य मुक्त कर देते हैं । चूँकि इस क्रिया में ये स्वयं भी नष्ट हो जाते हैं, इसलिए इनको आत्मघाती थैली (Suicide vesicle) भी कहा जाता है।
9. लवक (Plastid) – यह केवल पादप कोशिका में पाए जाते हैं। यह तीन प्रकार के होते हैं- (i) हरित लवक (Chloroplast), (ii) अवर्णी लवक (Leucoplast), एवं (iii) वर्णी लवक (Chromoplast) 1
(i) हरित लवक (Chloroplast) – यह हरा रंग का होता है, क्योंकि इसके अंदर एक हरे रंग का पदार्थ पर्णहरित (Chlorophyll) होता है। इसी की सहायता से पौधा प्रकाश संश्लेषण करता है और भोजन बनता है, इसलिए हरित लवक को पादप कोशिका की रसोई कहते हैं ।
नोट: पत्तियों का रंग पीला उनमें कैरोटिन के निर्माण होने के कारण होता है।
(ii) अवर्णी लवक (Leucoplast) – यह रंगहीन लवक है। यह पौधे के उन भागों की कोशिकाओं में पाया जाता है, जो सूर्य के प्रकाश से वंचित है, जैसे कि जड़ों में, भूमिगत तनों आदि में ये भोज्य पदार्थों का संग्रह करने वाला लवक है ।
(iii) वर्णी लवक (Chromoplast)- ये रंगीन लवक होते हैं, जो प्रायः लाल, पीले, नारंगी रंग के होते हैं। ये पौधे के रंगीन भाग जैसे पुष्प, फलभित्ति, बीज आदि में पाए जाते हैं। वर्णी लवक के अन्य उदाहरण-टमाटर में लाइकोपेन (Lycopene), गाजर में कैरोटीन (Carotine), चुकन्दर में विटानीन (Betanin)
10. रसघानी (Vacuoles) – यह कोशिका की निर्जीव रचना है। इसमें तरल पदार्थ भरी होती । जन्तु कोशिकाओं में यह अनेक व बहुत छोटी होती है, परंतु पादप कोशिका में प्राय: बहुत बड़ी और केन्द्र में स्थित होती है ।
11. केन्द्रक (Nucleue) – यह कोशिका का सबसे प्रमुख अंग होता है। यह कोशिका के प्रबंधक के समान कार्य करता है। केन्द्रक द्रव्य में धागेनुमा पदार्थ जाल के रूप में बिखरा दिखलाई पड़ता है, इसे क्रोमैटिन कहते हैं, यह प्रोटीन एवं DNA (Deoxy Ribonuclic Acid) का बना होता है। कोशिका विभाजन के समय क्रोमैटिन सिकुड़कर अनेक मोटे व छोटे धागे के रूप में संगठित हो जाते हैं। इन धागों को गुणसूत्र (Chromosome) कहते हैं। प्रत्येक जाति के जीवधारियों में सभी कोशिकाओं के केन्द्रक में गुणसूत्र की संख्या निश्चित होती है, जैसे मानव में 23 जोड़ा, चिम्पाजी में 24 जोड़ा, बंदर में 21 जोड़ा।
प्रत्येक गुणसूत्र में जेली के समान एक गाढ़ा भाग होता है, जिसे मैट्रिक्स (Matrix) कहते हैं। मैट्रिक्स में दो परस्पर लिपटे महीन एवं कुंडलित सूत्र दिखलाई पड़ते हैं, जिन्हें क्रोमोनिमेटा (Chromonemata) कहते हैं, प्रत्येक क्रोमोनिमेय एक अर्द्धगुणसूत्र (Chroınatid) कहलाता है। इस प्रकार प्रत्येक गुणसूत्र दो क्रोमैटिडों का बना होता है। दोनों क्रोमैटिड एक निश्चित स्थान पर एक-दूसरे से जुड़े होते हैं, जिसे सेण्ट्रोमियर (Centrotnere) कहते हैं ।
गुणसूत्रों पर बहुत से जीन स्थित होते हैं, जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक लक्षणों को हस्तान्तरित करते हैं और हमारे आनुवंशिक गुणों के लिए उत्तरदायी होते है । चूँकि ये जीन गुणसूत्रों पर स्थित होते हैं एवं गुणसूत्रों के माध्यम से ही पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित होते हैं, इसलिए गुणसूत्रों को वंशागति का वाहक कहा जाता है।
क्रोमैटिन के अलावा केन्द्रक में एक सघन गोल रचनाएँ दिखलाई पड़ती हैं। इसे केन्द्रिका (Nucleolus) कहते हैं। इसमें राइबोसोम (Ribosome) के लिए RNA (Ribonuclic Acid) का संश्लेषण होता है ।
◆ DNA एवं RNA की संरचना DNA की अधिकांश मात्रा केन्द्रक में होती है, यद्यपि इसकी कुछ मात्रा माइटोकॉण्ड्रिया तथा हरित लवक में भी मिलती है। DNA पॉलिन्यूक्लियोटाई होते हैं ।
◆ क्षार (Base) – DNA में उपस्थित क्षार चार प्रकार के होते हैं-ऐडीनीन (Adenine = A), गुआनीन (Guanine= G), थायमिन (Thymine=T) तथा साइटोसीन (Cytosine = C ) 1 DNA में अणु संख्या के आधार पर एडीनीन सदैव थायमिन से, साइटोसीन सदैव गुआनीन से जुड़ा रहता है। ऐडीनीन व थायमिन के बीच दो हाइड्रोजन आबंध तथा साइटोसीन व गुआनीन के बीच तीन हाइड्रोजन आबंध होते है । [ A=T, G=C ]
◆  सन् 1953 ई० में जे० डी० वाटसन एवं क्रिक ने DNA की द्विकुंडलित संरचना मॉडल (Double Helix Model) प्रतिपादति किया। इस काम के लिए उन्हें सन् 1962 ई० में नोबेल पुरस्कार मिला।
◆ DNA का कार्य – यह सभी आनुवंशिकी क्रियाओं का संचालन करता है। जीन इसकी इकाई है। यह प्रोटीन संश्लेषण को नियंत्रित करता है ।
◆ RNA का निर्माण (Transcription) – DNA से ही RNA का संश्लेषण होता है। इस क्रिया में DNA की एक श्रृंखला पर RNA की न्यूक्लियोटाइड आकर जुड़ जाती है । इस प्रकार एक अस्थाई DNA RNA संकर का निर्माण होता है। इसमें नाइट्रोजन वेस थायमिन के स्थान पर यूरेसिल होता है। कुछ समय बाद RNA की समजात श्रृंखला अलग हो जाती है।
RNA तीन प्रकार के होते हैं-
(i) – RNA (Ribosomal RNA) – ये राइबोसोम पर लगे रहते हैं और प्रोटीन संश्लेषण में सहायता करते हैं ।
(ii) t – RNA (Transfer RNA) – यह प्रोटीन संश्लेषण में विभिन्न प्रकार के अमीनो अम्लों को राइबोसोम पर लाते हैं, जहाँ पर प्रोटीन बनता हैं l
नोट : प्रोटीन बनने की अंतिम क्रिया को ट्रान्सलेशन (Translation) कहते हैं ।
(iii) m RNA (Messenger RNA) – केन्द्रक के बाहर विभिन्न आदेश लेकर अमीनों अम्लों को चुनने में मदद करता है।
कोशिका विभाजन (Cell division)
◆ कोशिका विभाजन को सर्वप्रथम 1855 ई० में विरचाऊ ने देखा ।
◆ कोशिका का विभाजन मुख्यतः तीन प्रकार से होते हैं-
(i) असूत्री विभाजन (Amitosis),
(ii) समसूत्री विभाजन (Mitosis) एवं
(iii) अर्द्धसूत्री विभाजन ( Meiosis) |
(i) असूत्री विभाजन (Amitosis)- यह विभाजन अविकसित कोशिकाओं जैसे-जीवाणु, नील हरित शैवाल, यीस्ट, अमीबा तथा प्रोटोजोआ में होता है ।
(ii) समसूत्री विभाजन (Mitosis) – समसूत्री विभाजन की प्रक्रिया को जन्तु कोशिकाओं में सबसे पहले जर्मनी के जीव वैज्ञानिक वाल्थेर फ्लेमिंग ने 1879 ई० में देखा। उन्होंने ही सन् 1882 में इस प्रक्रिया को माइटोसिस नाम दिया । यह विभाजन कायिक कोशिका (Somatic cell) में होता है।
◆ अध्ययन की सुविधा के लिए समसूत्री विभाजन को पाँच चरणों में बाँटते हैं, जो निम्न हैं(i) अन्तरावस्था (Interphase), (ii) पूर्वावस्था (Prophase), (iii) मध्यावस्था (Metaphase), (iv) पश्चावस्था (Anaphase), (v) अन्त्यावस्था (Telophase) । इस विभाजन के फलस्वरूप एक जनक कोशिका (Parent cell) से दो संतति ( Daughter cell) का निर्माण होता है । प्रत्येक संतति कोशिका में गुणसूत्र की संख्या जनक कोशिका (Parent cell) के बराबर होती है ।
◆ समसूत्री विभाजन की पश्चावस्था (Anaphase) सबसे छोटी होती है, वह केवल 2-3 मिनट में समाप्त हो जाती हैं ।
(iii) अर्द्धसूत्री विभाजन (Meiosis) – फार्मर तथा मूरे (Farmer and Moore, 1905) ने कोशिकाओं में अर्द्धसूत्री विभाजन को Meiosis नाम दिया !
◆ अर्द्धसूत्री विभाजन की खोज सर्वप्रथम वीजमैन (Weismann) ने की थी, लेकिन इसका सर्वप्रथम विस्तृत अध्ययन स्ट्रासवर्गर ने 1888 ई० में किया ।
◆ यह विभाजन जनन कोशिकाओं में होता है
◆ अर्द्धसूत्री कोशिका विभाजन निम्न दो चरणों में पूरा होता है-(i) अर्द्धसूत्री-I (ii) अर्द्धसूत्री-II ।
◆ अर्द्धसूत्री – I में गुणसूत्रों की संख्या आधी रह जाती है, इसलिए इसे न्यूनकोरी विभाजन (Reduction division) भी कहते हैं ।
◆ अर्द्धसूत्री प्रथम विभाजन में चार अवस्थाएँ होती हैं
(i) प्रोफेज-I (ii) मेटाफेज-I (iii) एनाफेन-I एवं (iv) टेलोफेज-I |
◆ प्रोफेज-I सबसे लम्बी प्रावस्था होती है, जो कि पाँच उपअवस्थाओं में पूरी होती है।
(i) लेप्टोटीन (Leptotene) (ii) जाइगोटीन (Zygotene) (iii) पैंकीटीन (Pachytene ) (iv) डिप्लोटीन (Diplotene) एवं (v) डायकाइनेसिस (Diakinesis) |
◆ जाइगोटीन अवस्था में गुणसूत्रों के जोड़े बन जाते हैं । इस क्रिया को अन्तर्ग्रथन (Synapsis) कहते हैं ।
◆ डिप्लोटीन उप अवस्था में गुणसूत्र कुछ बिन्दुओं पर आपस जुड़े होते हैं । इन विन्दुओं को काइएज्मा (Chiasma) कहते हैं । यहाँ पर समजात गुणसूत्रों के बीच क्रोमेंटिक खण्डों का आदान-प्रदान होता है। इस घटना को क्रोसिंग ओवर कहते हैं।
◆ अर्द्धसूत्री विभाजन – II समसूत्री विभाजन के समान होता है ।
◆ अर्द्धसूत्री विभाजन में एक जनक कोशिका (Parent cell) से चार संतति कोशिका (Daughter cell) का निर्माण होता है ।
समसूत्री एवं अर्द्धसूत्री विभाजन में अंतर
समसूत्री विभाजन
1. यह विभाजन कायिक (somatic) कोशिका में होता है ।
2. इस विभाजन में कम समय लगता है ।
3. इस विभाजन के द्वारा एक कोशिका से दो कोशिकाएँ बनती हैं।
4. संतति कोशिका में जनक जैसी ही गुणसूत्र होने के कारण आनुवंशिक विविधता नहीं होती ।
5. इसमें गुणसूत्रों के आनुवंशिक पदार्थों में आदान-प्रदान (Crossing over) नहीं होता है ।
6. इसकी प्रोफेज अवस्था छोटी होती है ।
अर्द्धसूत्री विभाजन
1. यह विभाजन जनन कोशिकाओं में होता है ।
2. इस विभाजन में अधिक समय लगता है
3. इस विभाजन में एक कोशिका से चार कोशिकाओं का निर्माण होता है ।
4. संतति कोशिकाओं में जनकों से भिन्न गुणसूत्र होने के कारण आनुवंशिक विविधता होती है ।
5. इस विभाजन में गुणसूत्रों के बीच आनुवंशिक पदार्थों का आदान-प्रदान होता है ।
6. इसकी प्रोफेज अवस्था लम्बी होती है ।
3. आनुवंशिकी (Genetics)
◆ वे लक्षण जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी संचरित होते हैं, आनुवंशिक लक्षण कहलाते हैं ।
◆ आनुवंशिक लक्षणों के पीढ़ी-दर-पीढ़ी संचरण की विधियों और कारणों के अध्ययन को आनुवंशिकी (Genetics) कहते हैं। आनुवंशिकता के बारे में सर्वप्रथम जानकारी आस्ट्रिया निवासी ग्रिगर जोहान मेंडल (1822-1884 ई०) ने दी । इसी कारण उन्हें आनुवंशिकता का पिता (Father of Genetics) कहा जाता है ।
◆ डब्ल्यू वाटसन ने 1905 ई० में सर्वप्रथम ‘जैनेटिक्स’ (Genetics) नाम का उपयोग किया ।
◆ जोहान्सेन ने 1909 ई० में सर्वप्रथम जीन शब्द का प्रयोग किया ।
◆ फीनोटाइप – जीवधारी के जो लक्षण प्रत्यक्ष रूप से दिखाई पड़ते हैं, उसे फीनोटाइप कहते हैं।
◆ जीनोटाइप – जीवधारी के आनुवंशिक संगठन को उसका जीनोटाइप कहते हैं, जो कि कारकों (जीन) का बना होता है ।
◆ आनुवंशिकी संबंधी प्रयोग के लिए मेंडल ने मटर के पौधे का चुनाव किया था ।
◆ मेंडल ने पहले एक जोड़ीं विपरीत गुणों फिर दो जोड़े विपरीत गुणों की वंशागति का अध्ययन किया, जिन्हें क्रमश: एकसंकरीय तथा द्विसंकरीय क्रॉस कहते हैं ।
◆  एक = संकरीय क्रॉस (Monohybrid cross) – मेंडल ने एक = संकरीय क्रॉस के लिए लम्बे (TT) एवं बौने (tt) पौधों के बीच क्रॉस कराया, तो निम्न परिणाम प्राप्त हुए –
         अत:, F,2 पीढ़ी के पौधों का फीनोटाइप अनुपात 9: 3:3:1 प्राप्त हुए, तथा F, पीढ़ी के पौधों का जीनोटाइप अनुपात 1:2:1:2:42:1:2:1 प्राप्त हुए।
          उपर्युक्त दोनों प्रकार के प्रयोगों के आधार पर मेंडल ने आनुवंशिकता संबंधी कुछ नियम दिये, जिन्हें मेंडल के आनुवंशिकता के नियम के नाम से जाना जाता है। इन नियमों में से पहला एवं नियम एकसंकरीय क्रॉस के आधार पर तथा तीसरा नियम द्विसंकरीय क्रॉस पर आधारित है।
मेंडल के नियम दूसरा
(i) प्रभाविकता का नियम (Law of Dominance) – एक जोड़ा विपर्यायी गुणों वाले शुद्ध पिता या माता में संकरण करने से प्रथम पीढ़ी में प्रभावी गुण प्रकट होते हैं, जबकि अप्रभावी गुण छिप जाते हैं। प्रथम पीढ़ी में केवल प्रभावी गुण ही दिखाई देता है। लेकिन अप्रभावी गुण उपस्थित अवश्य रहता है । यह गुण दूसरी पीढ़ी में प्रकट होता है ।
(ii) पृथक्करण का नियम (Law of segregation) – लक्षण कारकों (जीनों) के जोड़ों के दोनों कारक युग्म बनाते समय पृथक् हो जाते हैं और इनमें से केवल एक कारक ही किसी एक युग्मक में पहुँचता है। इस नियम को युग्मकों की शुद्धता का नियम भी कहते हैं।
(iii) स्वतंत्र अपव्यूहन का नियम (Law of Independent Assortment)जब दो जोड़ी विपरीत लक्षणों वाले पौधों के बीच संकरण कराया जाता है, तो दोनों लक्षणों का पृथक्करण ‘स्वतंत्र रूप से होता है – एक लक्षण की वंशानुगति दूसरे को प्रभावित नहीं करती ।
◆ युग्म विकल्पी (Alleles) – एक ही युग के विभिन्न विपर्यायी रूपों को प्रकट करने वाले लक्षण कारकों को एक-दूसरे का युग्म विकल्पी या एलील कहते हैं।
◆ सहलग्नता (Linkage) – एक ही गुणसूत्र पर स्थित जीनों में एक साथ वंशगत होने की प्रवृत्ति पायी जाती है । जीनों की इस प्रवृत्ति को ‘सहलग्नता’ कहते हैं। जबकि जीन जो एक ही गुणसूत्र पर स्थापित होते हैं और एक साथ वंशानुगत होते हैं, उन्हें सहलग्न जीन (Linked genes) कहते हैं । लिंग सहलग्न जीन ( Sex linked genes) लिंग सहलग्न गुणों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में ले जाते हैं। वास्तव में X गुणसूत्र पर स्थित जीन ही लिंग सहलग्न जीन कहे जाते हैं क्योंकि इसका प्रभाव नर तथा मादा दोनों पर पड़ता है। लिंग सहलग्नता की सर्वप्रथम विस्तृत व्याख्या मार्गन (1910) ने की थी। मनुष्यों में कई लिंग सहलग्न गुण जैसे- रंगवर्णान्धता, गंजापन, हीमोफीलिया, मायोपिया, हाइपरट्राइकोसिस इत्यादि पाये जाते हैं। लिंग सहलग्न गुण स्त्रियों की अपेक्षा पुरुषों में ज्यादा प्रगट होते हैं।
मानव –  आनुवंशिकी (Human genetic)
◆ गुणसूत्र (Chromosomes) का नामकरण डब्ल्यु वाल्डेयर ने 1888 ई० में किया था ।
◆ गुणसूत्रों में पाए जाने वाले आनुवंशिक पदार्थ को जीनोम कहते हैं । जीन इन्हीं गुणसूत्रों पर पाया जाता है ।
◆ गुणसूत्रों के बाहर जीनी यदि कोशिका द्रव्य के कोशिकांगों में होती है, तो उन्हें प्लाज्माजीन कहते हैं।
◆ 1956 में एस. बेंजर द्वारा जीन की आधुनिक विचारधारा दी गई। इनके अनुसार जीन के कार्य की इकाई सिस्ट्रान (cistron), उत्परिवर्तन की इकाई म्यूटॉन (Muton) तथा पुनः संयोजन की इकाई की रेकान (Recon) कहा गया है।
◆ मानव में 20 आवश्यक अमीनो एसिड पाए जाते हैं।
◆ आर्थर कोर्नबर्ग ने 1962 ई० में डी. एन. ए. पालीमेरेज नामक एन्जाइम की खोज की, जिसकी सहायता से डी० एन० ए० का संश्लेषण होता है ।
◆ मनुष्य में लिंग-निर्धारण – मनुष्य में गुणसूत्रों की संख्या 46 होती है । प्रत्येक संतान को समजात गुणसूत्रों की प्रत्येक जोड़ी का एक गुणसूत्र अण्डाणु के द्वारा माता से तथा दूसरा शुक्राणु के द्वारा पिता से प्राप्त होता है। शुक्रजनन (Spermatogenesis ) में अर्धसूत्री विभाजन द्वारा दो प्रकार के शुक्राणु बनते हैं- आधे वे जिनमें 23वीं जोड़ी का X गुणसूत्र आता है, अर्थात् (22 + X) और आधे वे जिनमें 23वीं जोड़ी में Y गुणसूत्र जाता है। (22 + Y) नारियों में एक समान प्रकार का गुणसूत्र अर्थात् (22 + X) तथा (22 + X ) वाले अण्डाणु पाए जाते हैं। निषेचन के समय यदि अण्डाणु X गुणसूत्र वाले शुक्राणु से मिलता है, तो युग्मनज (Zygote) में 23वीं जोड़ी XX होगी और इससे बननेवाली संतान लड़की होगी । इसके विपरीत किसी अण्डाणु से Y गुणसूत्र वाला शुक्राणु निषेचित होगा, तो XY गुणसूत्र वाला युग्मनज बनेगा तथा संतान लड़का होगा । अतः पुरुष का गुणसूत्र संतान में लिंग निर्धारण के लिए उत्तरदायी है ।
नोट: परखनली शिशु के मामले में निषेचन परखनली के अंदर होता है ।
4. जैव-विकास  (Organic evolution )
          प्रारंभिक, निम्नकोटि के जीवों से क्रमिक परिवर्तनों द्वारा अधिकाधिक जीवों की उत्पत्ति को जैव-विकास कहा जाता है । जीव-जन्तुओं की रचना कार्यिकी एवं रासायनी, भ्रूणीय विकास, वितरण आदि में विशेष क्रम व आपसी संबंध के आधार पर सिद्ध किया गया है कि जैव-विकास हुआ है। लैमार्क, डार्विन, वैलेस, डी. व्रीज आदि ने जैव विकास के संबंध में अपनी-अपनी परिकल्पनाओं को सिद्ध करने के लिए इन्हीं संबंधों को दर्शाने वाले निम्नलिखित प्रमाण प्रस्तुत किये हैं –
          समजात अंग (Homologous organ) – ऐसे अंग जो विभिन्न कार्यों के लिए उपयोजित हो जाने के कारण काफी असमान दिखायी दे सकते हैं. परंतु मूल रचना एवं भ्रूणीय परिवर्धन में समान होते हैं, समजात अंग कहलाते हैं। उदाहरण- सील के फ्लीपर, चमगादड़ के पंख, घोड़े की अगली टांग, बिल्ली का पंजा तथा मनुष्य के हाथ की मौलिक रचना एक जैसी होती है । इन सभी में घमेरस, रेडियो अत्ना, कार्पल्स, मेटाकार्यल्स आदि अस्थियाँ होती हैं। इनका भ्रौणिकीय विकास भी एक-सा ही होता है। परंतु इन सभी का कार्य अलग-अलग होता है। सील का फ्लीपर तैरने के लिए, चमगादड़ के पंख उड़ने के लिए, घोड़े की टांग दौड़ने के लिए तथा मनुष्य का हाथ वस्तु को पकड़ने के लिए अनुकूलित होता है।
          समरूप अंग (Analogous organ)ऐसे अंग जो समान कार्य के लिए उपयोजित हो जाने के कारण समान दिखाई देते हैं, परंतु मूल रचना एवं भ्रूणीय परिवर्धन में भिन्न होते हैं, समरूप अंग कहलाते हैं। उदाहरण – तितली, पक्षियों तथा चमगादड़ के पंख उड़ने का कार्य करते हैं और देखने में एकसमान लगते हैं, परंतु इन सभी की उत्पत्ति अलग-अलग ढंग से होती है। तितलियों के पंख की रचना शरीर भित्ति के भंज द्वारा, पक्षियों के पंख की रचना इनकी अग्रपादों पर परों द्वारा, चमगादड़ के पंख की रचना हाथ की चार लम्बी अंगुलियों तथा धड़ के बीच फैली त्वचा से हुई है ।
          अवशेषी अंग (Vestigial organ) – ऐसे अंग जो जीवों के पूर्वजों में पूर्ण विकसित होते हैं, परंतु वातावरणीय परिस्थितियों में बदलाव से इनका महत्त्व समाप्त हो जाने के कारण विकास-क्रम में इनका क्रमिक लोप होने लगता है, अवशेषी अंग कहलाते हैं। उदाहरण-कर्ण-पल्लव (Pinna) त्वचा के बाल, बर्मीफॉर्म एपेन्डिक्स आदि ।
नोट : मनुष्य में लगभग 100 अवशेषी अंग पाए जाते हैं ।
◆  सर्वप्रथम प्रकाश संश्लेषी जीव सायनों बैक्टीरिया थे  ।
◆ पक्षियों का विकास सरीसृपों में हुआ है।
◆ जलस्थलचर जीवों का विकास मत्स्य वर्ग से हुआ है।
◆  स्तनी वर्ग के जन्तुओं का विकास भी सरीसृपों से हुआ है।
          जीवाश्म – अनेक ऐसे प्राचीन कालीन जीवों एवं पादपों के अवशेष, जो हमारी पृथ्वी पर विद्यमान थे, परंतु बाद में समाप्त अर्थात् विलुप्त हो गये, भूपटल की चट्टानों में परिरक्षित मिलते हैं, उन्हें जीवाश्म कहते हैं एवं इनके अध्ययन को जीवाश्म विज्ञान कहा जाता है।
जैव-विकास के सिद्धांत
          जैव विकास के संबंध में अनेक सिद्धांत प्रतिपादित किये गये हैं, जिनमें लैमार्कवाद, डार्विनवाद एवं उत्परिवर्तनवाद प्रमुख हैं ।
(i) लैमार्कवाद (Lamarckism) – लैमार्क का सिद्धांत 1809 ई० में उनकी पुस्तक “फिलॉसफी जुलोजीक” (Philosophic Zoologique) में प्रकाशित हुआ। इस सिद्धांत के अनुसार, जीवों एवं इनके अंगों में सतत् बड़े होते रहने की प्राकृतिक प्रवृत्ति होती है। इन जीवों पर वातावरणीय परिवर्तन का सीधा प्रभाव पड़ता है। इसके कारण जीवों में विभिन्न अंगों का उपयोग घटता-बढ़ता रहता है। अधिक उपयोग में आने वाले अंगों का विकास अधिक एवं कम उपयोग में आने वाले अंगों का विकास कम होने लगता है । इसे ” अंगों के कम या अधिक उपभोग का सिद्धांत” भी कहते हैं। इस प्रकार से जीवों द्वारा उपार्जित लक्षणों की वंशगति होती है, जिसके फलस्वरूप नयी-नयी जातियाँ बन जाती हैं। उदाहरण – जिराफ की गर्दन का लम्बा होना।
(ii) डार्विनवाद (Darwinism) – जैव-विकास के संबंध में डार्विनवाद सर्वाधिक प्रसिद्ध है | डार्विन को पुरावशेष का महानतम अन्वेषक कहा जाता है। चार्ल्स डार्विन (1809-1882 ई०) ने 1831 ई० में बीगल नामक विश्व सर्वेक्षण जहाज पर पूरे विश्व का भ्रमण किया। डार्विनवाद अनुसार सभी जीवों में प्रचुर संतानोत्पत्ति की क्षमता होती है। अत:-अधिक आबादी के कारण प्रत्येक जीवों को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु दूसरे जीवों से जीवनपर्यन्त संघर्ष करना पड़ता हैं। ये संघर्ष सजातीय, अन्तर्जातीय तथा पर्यावरणीय होते हैं। दो सजातीय जीव आपस में बिलकुल समान नहीं होते । ये विभिन्नताएँ इन्हें इनके जनकों से वंशानुक्रम में मिलते हैं। कुछ विभिन्नताएँ जीवन संघर्ष के लिए लाभदायक होती हैं, जबकि कुछ अन्य हानिकारक होती हैं। जीवों में विभिन्नताएँ वातावरणीय दशाओं के अनुकूल होने पर वे बहुमुखी जीवन संघर्ष में सफल होते हैं। उपयोगी विभिन्नताएँ पीढ़ी-दर-पीढ़ी इकट्ठी होती रहती हैं और काफी समय बाद उत्पन्न जीव धारियों के लक्षण मूल जीवधारियों से इतने भिन्न हो जाते हैं कि एक नई जाति बन जाती है। ।
          नव- डार्विनवाद (Neo-Darwinism)डार्विन के पश्चात् इनके समर्थकों द्वारा डार्विनवाद को जीनवाद के ढाँचे में ढाल दिया गया, जिसे नव-डार्विनवाद कहा जाता है । इसके अनुसार, किसी जाति पर कई कारकों का एक साथ प्रभाव पड़ता है, जिससे इस जाति से नई जाति बन जाती है। ये कारक हैं-(i) विविधता (ii) उत्परिवर्तन (iii) प्रकृतिवरण (iv) जनन । इस प्रकार नव – डार्विनवाद के अनुसार जीन में साधारण परिवर्तनों के परिणामस्वरूप जीवों की नई जातियाँ बनती हैं, जिनमें जीन परिवर्तन के कारण भिन्नताएँ बढ़ जाती हैं ।
(iii) उत्परिवर्तनवाद- यह सिद्धांत वस्तुतः ह्यूगो ही व्राइज (Hugo-De-Vries) द्वारा प्रतिपादित किया गया है। इस सिद्धांत के पाँच प्रमुख तथ्य निम्नवत् हैं
(i) नयी जीव-जातियों की उत्पत्ति लक्षणों में छोटी-छोटी एवं स्थिर विभिन्नताओं के प्राकृतिक चयन द्वारा पीढ़ी-दर-पीढ़ी संचय एवं क्रमिक विकास के फलस्वरूप नहीं होती है, बल्कि यह उत्परिवर्तनों के फलस्वरूप होती है ।
(ii) इस प्रकार से उत्पन्न जाति का प्रथम सदस्य उत्परिवर्तक कहलाता है । यह उत्परिवर्तित लक्षण के लिए शुद्ध नस्ल का होता है ।
(iii) उत्परिवर्तन अनिश्चित होते हैं। ये किसी एक अंग विशेष में अथवा अनेक अंगों में एक साथ उत्पन्न हो सकते हैं।
(iv) सभी जीव-जातियों में उत्परिवर्तन की प्राकृतिक प्रवृत्ति होती है ।
 (v) जाति के विभिन्न सदस्यों में उत्परिवर्तन भिन्न-भिन्न हो सकते हैं । के में
(vi) उपर्युक्त उत्परिवर्तनों के फलस्वरूप अचानक ऐसे जीवधारी उत्पन्न हो सकते हैं, जो जनक से इतने अधिक भिन्न हों कि उन्हें एक नई जाति माना जा सके
5. वनस्पति विज्ञान (Botany)
◆ विभिन्न प्रकार के पेड़, पौधों तथा उनके क्रियाकलापों के अध्ययन को वनस्पति विज्ञान (Botany) कहते हैं ।
◆ थियोफ्रेस्ट्स (Theophrastus) को वनस्पति विज्ञान का जनक कहा जाता है. ।
 1. पादपों का वर्गीकरण
◆  एकलर ( Eichler) ने 1883 ई० में वनस्पति जगत का वर्गीकरण निम्न रूप से किया है
पादप जगत (Plant Kingdom)
अपुष्योदभिद् पौधा (Dryptogamus)
◆ इस वर्ग के पौधों में पुष्प तथा बीज नहीं होता है। इन्हें निम्न समूह में बाँटा गया
 थैलोफाइटा (Thalophyta)
◆ यह वनस्पति जगत का सबसे बड़ा समूह है ।
◆ इस समूह के पौधों का शरीर सूकाय (Thalus) होता है, अर्थात् पौधे, जड़, तना एवं पत्ती आदि में विभक्त नहीं होते।
◆ इसमें संवहन ऊतक नहीं होता है ।
शैवाल (Algae)
◆ शैवालों के अध्ययन को फाइकोलॉजी (Phycology) कहते हैं ।
◆ शैवाल प्रायः पर्णहरित युक्त, संवहन ऊतक रहित, आत्मपोषी (Autotrophic) होते हैं ।
◆ इनका शरीर सूकाय सदृश होता है।
लाभदायक शैवाल
1. भोजन के रूप में-फोरफाइरा, अल्बा, सरगासन, लेमिनेरिया, नॉस्टॉक आदि ।
2. आयोडीन बनाने में लेमिनेरिया, फ्यूकस, एकलोनिया आदि ।
3. खाद के रूप में – नॉस्टॉक, एनाबीना, केल्प आदि ।
4. औषधियाँ बनाने में- क्लोरेला से क्लोरेलिन नामक प्रतिजैविक एवं लेमिनेरिया से टिंचर आयोडीन बनाई जाती हैं ।
5. अनुसंधान कार्यों में- क्लोरेला एसीटेबुलेरिया, बेलोनिया आदि ।
नोट : क्लोरेला (Chlorella) नामक शैवाल को अंतरिक्ष यान के केबिन के हौज में उगाकर अंतरिक्ष यात्री को प्रोटीनयुक्त भोजन, जल और ऑक्सीजन प्राप्त हो सकते हैं।
कवक (Fungi)
◆  इसके अध्ययन को कवक विज्ञान (Mycology) कहा जाता है ।
◆  कवक पर्णहरित रहित, संकेन्द्रीय, संवहन ऊतकरहित थैलोफाइट है:
◆  कवक में संचित भोजन ग्लाइकोजन के रूप में रहता है ।
◆  इनकी कोशिकाभित्ति काइटिन (Chitin) की बनी है।
◆  कवक पौधों में गंभीर रोग उत्पन्न करते हैं। सबसे अधिक हानि रस्ट (Rust) और स्मट (Smut) से होती है। पौधों में कवक के द्वारा होने वाला प्रमुख रोग निम्न हैं- सरसों का सफेद्र रस्ट (White rust of crucifer), गेहूँ रोग कवक का ढीला स्मट (Loose smut of wheat), दमा ऐस्पर्जिलस फ्यूमिगेटस एकेरस स्केबीज खाज गंजापन, टीनिया केपिटिस गेहूँ का किट्टू रोग (Rust of wheat), आलू एथलीट फूट टीनिया पेडिस की अंगमारी (Blight of potato), गन्ने का लाल अपक्षय (Red rot of sugarcane), मूँगफली का टिक्का रोग (Tikka diseases of ground nut), आलू का मस्सा रोग (Wart diseases of potato), धान की भूरी अर्ज चित्ति (Brown leaf spot of Rice), आलू की पछेला अंगमारी (Late Blight of Potato), प्रांकुरों का डम्पि रोग (Damping दाद ट्राइकोफायटान लेसकोसय off of seedings)
जीवाणु (Bacteria)
◆ इसकी खोज 1683 ई० में हॉलैंड के एण्टोनीवान ल्यूवेनहॉक ने की ।
विषाणु (Virus)
विषाणु की खोज रूस के वैज्ञानिक इवानविस्की ने 1892 ई० में की । (तम्बाकू के मोजैक रोग पर खोज के समय) इनकी प्रकृति सजीव और निर्जीव दोनों प्रकार की होती है । इसी कारण इन्हें सजीव और निर्जीव की कड़ी भी कहा जाता है।
विषाणु के निर्जीव होने के लक्षण-
1. ये कोशा रूप में नहीं होते हैं ।
2. इनको क्रिस्टल बनाकर निर्जीव पदार्थ की भाँति बोतलों में भरकर वर्षों तक रखा जा सकता है।
सजीव जैसे लक्षण-
1. इनके न्यूक्लिक अम्ल का द्विगुणन होता है ।
2. किसी जीवित कोशिका में पहुँचते ही ये सक्रिय हो जाते हैं, और एन्जाइमों का संश्लेषण करने लगते हैं ।
परपोषी प्रकृति के अनुसार विषाणु तीन प्रकार के होते हैं-
1. पादप विषाणु – इसका न्यूक्लिक अम्ल में आर० एन० ए० (RNA) होता है ।
2. जन्तु विषाणु – इनमें डी० एन० ए० (DNA) या कभी-कभी आर० एन० ए० ( RNA) भी पाया जाता है ।
3. बैंक्ट्रियोफेज (Bacteriophage) या जीवाणुभोजी- ये केवल जीवाणुओं पर आश्रित रहते हैं। ये जीवाणुओं को मार डालते हैं। इनमें डी० एन० ए० (DNA) पाया जाता जैसे-टी-2 फैज । है ।
नोट : जिस विषाणु में (RNA) आनुवंशिक पदार्थ होता है, वे रेट्रोविषाणु कहे जाते हैं ।
◆ जीवाणु विज्ञान का पिता ल्यूवेनहॉक को कहा जाता है ।
◆ एहरेनबर्ग (Ehrenberg) ने सन् 1829 ई० में इन्हें जीवाणु नाम दिया ।
◆ 1843-1910 ई० में रॉबर्ट कोच ने कॉलरा तथा तपेदिक के जीवाणुओं की खोज की तथा रोग का जर्म सिद्धांत बताया ।
◆ 1812-1892 ई० – लुई पाश्चर ने रेबीज का टीका, दूध के पाश्चुराइजेशन की खोज की।
◆ आकृति के आधार पर जीवाणु कई प्रकार के होते हैं.
1. छड़ाकर या बैसिलस (Bacillus) – यह छड़नुमा या बेलनाकार होता है ।
2. गोलाकार या कोकस (Cocus) – ये गोलाकार एवं सबसे छोटे जीवाणु होते हैं ।
3. कोमा आकार ( Comma Shaped) या विब्रियों (Vibrio) – अंग्रेजी के चिह्न कोमा ( , ) के आकार के; उदाहरण विब्रियो कॉलेरी आदि ।
4. सर्पिलाकार ( Spirillum)स्प्रिंग या स्क्रू के आकार के ।
◆ ऐजोटोबैक्टर (Azotobacter), एजोसपाइरिलम (Azospirillum) तथा क्लोस्ट्रीडियम (Clostridium) जीवाणु की कुछ जातियाँ स्वतंत्र रूप से मिट्टी में निवास करती हैं व मिट्टी के कणों के बीच स्थित वायु के नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करती हैं ।
◆ एनाबीना (Anabaena) तथा नॉस्टॉक (Nostoc) नामक सायनोबैक्टीरिया वायुमंडल की N2 का स्थिरीकरण करते हैं ।
◆ राइजोबियम (Rhizobium) तथा ब्रैडीराइजोबियम (Bradyrhizobium) इत्यादि जीवाणु की जातियाँ लैग्यूमिनोसी (मटर कुल) के पौधे की जड़ों में रहती हैं और वायुमंडलीय N2 का स्थिरीकरण करती हैं ।
◆ दूध को अधिक दिनों तक सुरक्षित रखने के लिए इसका पाश्चीकरण (Pasteurization) करते हैं। इसमें दो विधियाँ होती हैं
1. Low temperature holding method (LTH)–दूध को 62.8°C पर 30 मिनट तक गरम करते हैं ।
2 High temperature short time method (HTSt)–दूध को 71.7°C पर 15 सेकेण्ड तक गरम करते हैं ।
◆ चर्म उद्योग में चमड़े से बालों और वसा हटाने का कार्य जीवाणुओं के द्वारा होता है । इसे चमड़ा कमाना (Tanning) कहते हैं ।
◆ आचार, मुरब्बे, शर्बत को शक्कर की गाढ़ी चासनी में या अधिक नमक में रखते हैं ताकि जीवाणुओं का संक्रमण होते ही जीवाणुओं का जीव द्रव्यकुंचन (Plasmolyis) हो जाता है तथा जीवाणु नष्ट हो जाते हैं, इसीलिए आचार, मुरब्बे बहुत अधिक दिनों तक खराब नहीं होते ।
◆ शीत संग्रहागार (Cold storage) में न्यून ताप (-10°C से – 18°C) पर सामग्री का चय करते हैं 1.
ब्रायोफाइटा (Bryophyta )
◆ यह सबसे सरल स्थलीय पौधों का समूह है। इस प्रभाग में लगभग 25000 जातियाँ सम्मिलित की जाती हैं ।
◆ इसमें संवहन ऊतक अर्थात् जाइलम एवं फ्लोएम का पूर्णतः अभाव होता है ।
◆ इस समुदाय को वनस्पति जगत का एम्फीबिया वर्ग भी कहा जाता है ।
◆  इस समुदाय के पौधे मृदा अपरदन को रोकने में सहायता प्रदान करते हैं ।
◆  स्फेगनम (Sphagnum) नामक मॉस अपने स्वयं के भार से 18 गुना की क्षमता रखता है । इसलिए माली इसका उपयोग पौधों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाते समय सूखने से बचाने के लिए करते हैं ।
◆ स्फेगनम मॉस का प्रयोग ईंधन के रूप में किया जाता है ।
◆ स्फेगनम मॉस का प्रयोग ऐन्टिसेप्टिक (Antiseptic) के रूप में भी किया जाता है।
टेरिडोफाइटा (Pteridophyta)
◆ इस समूह के पौधे नमी छायादार स्थानों, जंगलों एवं पहाड़ों पर अधिकता से पाए जाते हैं ।
◆ पौधे का शरीर जड़, शाखा एवं पत्तियों में विभेदित रहता है। तना साधारण राइजोम के रूप में रहता हैं ।
◆ पौधे बीजाणु जनक होते हैं और जनन की क्रिया बीजाणु के द्वारा होती है।
◆ इस समुदाय के पौधों में संवहन ऊतक पूर्ण विकसित होते हैं। परंतु जाइलम में वेसेल (Vessels) एवं फ्लोएम (phloem) में सहकोशाएँ (Companion cells) नहीं होती है।
पुष्पोदभिद् या फूल वाला पौधा (phanerogamus)
◆ इस समूह के पौधे पूर्ण विकसित होते हैं। इस समूह के सभी पौधों में फूल, फल तथा बीज होते हैं । इस समूह के पौधों को दो उपसमूहों में बाँट सकते हैं- नग्न बीजी (Gymuosperm) व आवृत्तबीजी (Angiosperm) |
नग्नबीजी (Gymnosperm)
◆ इनके पौधे वृक्ष, झाड़ी या आरोही के रूप में होते हैं।
◆ पौधे काष्ठीय, बहुवर्षी और लम्बे होते हैं l
◆  इनकी मुसला जड़ें पूर्ण विकसित होती हैं।
◆ परागण की क्रिया वायु द्वारा होती है।
◆  ये मरुद्भिद (Xerophytic) होते हैं ।
◆  वनस्पति जगत का सबसे ऊँचा पौधा सिकोया सेम्परविरेंस इसी के अन्तर्गत आता है। इसकी ऊँचाई 120 मी० है । इसे कोस्ट रेडबुड ऑफ कैलीफोर्निया भी कहते हैं ।
◆ सबसे छोटा अनावृत्तबीजी पौधा जैमिया पिग्मिया है।
◆ जीवित जीवाश्म साइकस (Cycas), जिंगो बाइलोवा (Ginkgo biloba) व मेटासिकोया (Metasequoia) हैं ।
◆ जिंगो बाइलोवा (Ginkgo biloba) को मेडन हेयर ट्री (Maiden hair tree) भी कहते हैं।
◆ साइकस (Cycas) के बीजाण्ड (Ovules) एवं नरयुग्मक (Antherogoids) पादप-जगत में सबसे बड़े होते हैं ।
◆ पाइनस के परागकण इतनी तादाद में होते हैं, कि पीले बादल (Sulpher showers) बन जाते हैं ।
जिम्नोस्पर्म का आर्थिक महत्त्व –
1. भोजन के रूप में साइकस के तनों से मंड निकालकर खाने वाला साबूदाना (Sago )
 बनाया जाता है । इसलिए साइकस को सागो पाम कहते हैं । –
2. लकड़ी – चीड़ (Pine), सिकोया, देवदार, स्प्रूस आदि की लकड़ी से फर्नीचर बनते हैं। –
3. वाष्पीय तेल- चीड़ के पेड़ से तारपीन का तेल, देवदार की लकड़ी से सेड्स तेल (Cedrus oil) तथा जूनीपेरस की लकड़ी से सेडस्काष्ठ तेल मिलता है ।
4. टेनिन- चमड़ा बनाने (Tanning) तथा स्याही बनाने के काम में आता है।
5. रेजिन-कुछ शंकु पौधों से रेजिन निकाला जाता है जिसका प्रयोग वार्निश, पॉलिश, पेंट आदि बनाने में होता है । –
आवत्तबीजी (Angiosperm)
◆ इस उपसमूह के पौधों में बीज फल के अंदर होते हैं।
◆ इनके पौधों में जड़, पत्ती, फूल, फल एवं बीज सभी पूर्ण विकसित होते हैं।
◆ इस उपसमूह के पौधों में बीज में बीजपत्र होते हैं। बीजपत्रों की संख्या के आधार पर पौधों को दो वर्गों में विभाजित किया गया है-
1. एकबीजपत्री पौधे 2. द्विबीजपत्री पौधे
◆ एकबीजपत्री पौधे-उन पौधों को कहते हैं, जिनके बीज में सिर्फ एकबीजपत्र होता है। इनके कुल का नाम एवं प्रमुख पौधों का नाम निम्न सारणी में दी गई है –
◆  द्विबीजपत्री पौधे- इस वर्ग में वे पौधे आते हैं, जिनके पौधों के बीजों में दो पत्र होते हैं । इनके कुल का नाम एवं प्रमुख पौधों का नाम निम्न सारणी में दी गई है –
2. पादप आकारिकी (Plant Morphology)
अकारिकी (Morphology) – विभिन्न पादप भागों जैसे-जड़, तना, पत्ती, पुष्प, फल, आदि के रूपों तथा गुणों के अध्ययन को आकारिकी कहते हैं ।
जड़ (Root)
◆ जड़ पौधों का अवरोही भाग है, जो मूलांकुर से विकसित होता है ।
◆ जड़ सदैव प्रकाश से दूर भूमि  में वृद्धि दूर भूमि में वृद्धि करती है।
जड़ दो प्रकार की होती है –
(i) मूसला जड़ (Tap root) तथा
(ii) अपस्थानिक जड़ (Adventitious root)।
तना (Stem )
◆ यह पौधे का वह भाग है, जो प्रकाश की ओर वृद्धि करता करता है ।
◆ यह प्रांकुर से विकसित होता है। यह पौधे का प्ररोह तंत्र बनता है ।
पत्ती (Leaf)
◆ यह हरे रंग की होती है। इसका मुख्य कार्य प्रकाश संश्लेषण क्रिया के द्वारा भोजन बनाना है ।
पुष्प ( Flower)
◆ यह पौधे का जनन अंग है।
◆ पुष्पं में बाह्य दलपुंज ( Calyx), दलपुंज, (Corolla), पुमंग (Androecium) और जायांग (Gynoecium) पाए जाते हैं। इनमें से पुमंग नर जननांग तथा जायांग मादा जननांग हैं।
◆ पुमंग-पुमंग में एक या एक से अधिक पुंकेसर (Stamens) होते हैं। पुंकेसर में परागकण grains) पाए जाते हैं ।
◆ जायांग- इसमें अण्डप होते हैं। अण्डप के तीन भाग होते हैं- (i) अण्डाशय (ovary), (ii) वर्त्तिका (Style) एवं (iii) वत्तिकाग्र (Stigma)
◆ परागण (Pollination)- परागकोष (Anther) से निकलकर अण्डप के वर्तिकाग्र पर परागकणों के पहुँचने की क्रिया को परागण कहते हैं। पराग पास होने  है।(i) स्व – परागण (Self-pollination), (ii) पर-परागण (Cross-pollination)
◆ निषेचन (Fertilization) – परागनली बीजाण्ड में प्रवेश करके बीजाण्डकाय को भेदती हुई भ्रूणकोष तक पहुँचती है और परागकणों कोविक इसके बाद एक नर युग्मक एक अण्डकोशिका से संयोजन करता है। इसे कहते हैं)। निषेचित अण्ड युग्मनज (Zygote) कहलाता है ।
◆ आवृत्तबीजी (Angiosperm) में निषेचन त्रिक संलयन (tripple fusion) जबकि अन्य वर्ग के पौधों में द्विसंलयन (Double fusion) शीर्षस्थ विभाहक पाश्वे विभज्योतक (Parthenocarpica Meristems (bateral Meristems) (Inte निषेचन 3f9c 4 फल बन जाता है। इस प्रकार बिना निषेचन हुए फल के विकास को
◆ अनिषेक फलन (Parthenocarpy) कहते हैं । साधारणतया इस प्रकार के फल सीन होते हैं ।
जैसे- केला, पपीता, नारंगी, अंगूर एवं अनन्नास आदि । (Simple tissue )
फल का निर्माण
◆ फल का निर्माण अंडाशय से होता है।
◆ सम्पूर्ण फलों को तीन भागों में विभाजित किया (Collenchyma) (Sclerenchyma)
1. सरल फल-जैसे- अमरूद, केला आदि ।
2. पुंज फल (Aggregate fruit)- जैसे- स्ट्राबेरी, रसभरी ।
3. संग्रथित फल (Composite fruit) – कटहल, शहतूत आदि ।
◆ कुछ फलों के निर्माण में बाह्य दलपुंज, दलपुंज या पुष्पासन आदि भाग लेते हैं ऐसे फलों को असत्य फल (False fruit) कहते हैं। जैसे- सेव, कटहल, आदि ।
◆ विभज्योतकी ऊतक (Meristematic tissue)-पौधे के वर्धी क्षेत्रों (Growing regions) को विभज्योतक (Meristem) कहते हैं । इनसे बनी संतति कोशिकाएँ वृद्धि करके पौधे के विभिन्न अंगों का निर्माण करती हैं। यह प्रक्रिया पौधे के जीवनपर्यन्त चलती है।
विभज्योतकी ऊतक के विशिष्ट लक्षण निम्न हैं –
(i) ये गोल अण्डाकार या बहुभुजाकार होती हैं ।
(ii) इनकी भित्तियाँ पतली तथा एकसार (Homogeneous) होती हैं ।
(iii) जीवद्रव्य सघन, केन्द्रक बड़े तथा रसधानी छोटी होती है ।
(iv) कोशिकाओं के बीच अन्तरकोशिकीय स्थानों का अभाव होता है ।
◆ शीर्षस्थ विभज्योतक (Apical Meristeme) – ये ऊतक जड़ों अथवा तनों के शीर्षों पर पाए जाते हैं तथा पौधे की प्राथमिक वृद्धि (विशेषकर लम्बाई में) इन्हीं के कारण होती है।
◆ पाश्र्व विभज्योतक (Lateral Meristems) – इनमें विभाजन होने से जड़ तथा तने के घेरे (girth) में वृद्धि होती है । अर्थात् इससे तना एवं जड़ की मोटाई में वृद्धि होती है ।
◆ अन्तर्वेशी विभज्योतक (Intercalary Meristems) – यह वास्तव में शीर्षस्थ विभज्योतक का अवशेष है, जो बीच में स्थाई ऊतकों के आ जाने से अलग हो गए हैं। इनकी क्रियाशीलता से भी पौधे लम्बाई में वृद्धि करता है । इसकी महत्ता वैसे पौधे के लिए है जिनका शीर्षाग्र को शाकाहारी जानवर खा जाते हैं। शीर्षाग्र खा लिए जाने पर ये पौधे अन्तर्वेशी विभज्योतक की सहायता से ही वृद्धि करते हैं । जैसे-घास ।
◆ स्थायी ऊतक (Permanent Tissue) – स्थायी ऊतक उन परिपक्व कोशिकाओं के बने होते हैं, जो विभाजन की क्षमता खो चुकी हैं तथा विभिन्न कार्यों को करने के लिए विभेदित हो चुकी हैं। ये कोशिकाएँ मृत अथवा जीवित हो सकती हैं।
◆ सरल ऊतक (Simple Tissue) – यदि स्थायी ऊतक एक ही प्रकार की कोशिकाओं के बने होते हैं, तो इन्हें सरल ऊतक (Simple tissue) कहते हैं ।
◆ जटिल ऊतक ( Complex Tissue) – यदि स्थायी ऊतक एक से अधिक प्रकार की कोशिकाओं के बने होते हैं, तो इन्हें जटिल ऊतक कहते हैं ।
◆ जाइलम (Xylem) – इसे प्रायः काष्ठ (Wood) भी कह देते हैं। यह संवहनी ऊतक है । इसके दो मुख्य कार्य हैं
(i) जल एवं खनिज लवणों का संवहन एवं  (ii) यांत्रिक दृढ़ता प्रदान करना ।
◆ पौधे की आयु की गणना जाइलम ऊतक के वार्षिक वलय को गिनकर ही की जाती है। पौधे की आयु के निर्धारण की यह विधि डेन्ड्रोक्रोनोलॉजी (Dendrochronology ) कहलाती है।
◆ फ्लोएम (phloem) – यह भी एक संवहन ऊतक है। इसका मुख्य कार्य पत्तियों द्वारा बनाये गए भोजन को पौधे के अन्य भागों में पहुँचाना है।
4. प्रकाश-संश्लेषण (Photosynthesis)
◆ पौधों में जल, प्रकाश, पर्णहरित तथा कार्बन डाई ऑक्साइड की उपस्थिति में कार्बोहाइड्रेट के निर्माण को प्रकाश-संश्लेषण कहते हैं । –
◆ प्रकाश-संश्लेषण के लिए आवश्यक हैकार्बन डाई ऑक्साइड, पानी, क्लोरोफिल और सूर्य का प्रकाश ।
◆ स्थलीय पौधे वायुमंडल से कार्बन डाई ऑक्साइड लेते हैं, जबकि जलीय पौधे जल में घुली हुई कार्बन डाई ऑक्साइड लेते हैं।
◆ पत्ती को कोशिकाओं में जल शिरा से परासरण (Osmosis) द्वारा एवं CO2 वायुमंडल से विसरण (Diffusion) द्वारा जाता है।
◆ प्रकाश-संश्लेषण के लिए आवश्यक जल पौधों की जड़ों के द्वारा अवशोषित किया जाता है एवं प्रकाश-संश्लेषण के दौरान निकलने वाला ऑक्सीजन इसी जल के अपघटन से प्राप्त होता है ।
◆ क्लोरोफिल पत्तियों में हरे रंग का वर्णक है। इसके चार घटक हैं। क्लोरोफिल एं, क्लोरोफिल बी, कैरोटीन तथा जैथोफिल । इनमें क्लोरोफिक ए एवं बी हरे रंग का होता है और ऊर्जा स्थानांतरित करता है। यह प्रकाश-संश्लेषण का केन्द्र होता है।
◆ क्लोरोफिल के केन्द्र में मैग्नीशियम का एक परमाणु होता है।
◆ क्लोरोफिल प्रकाश में बैंगनी, नीला तथा लाल रंग को ग्रहण करता है।
◆ प्रकाश-संश्लेषण की दर लाल रंग के प्रकाश में सबसे अधिक एवं बैंगनी रंग के प्रकाश में सबसे कम होती है ।
◆ प्रकाश-संश्लेषण की क्रिया एक उपचयन (Oxidation) अपचयन (Reduction) की अभिक्रिया है। इसमें जल का उपचयन ऑक्सीजन के बनने में तथा कार्बन डाई ऑक्साइड । का अपचयन ग्लूकोज के निर्माण में होता है।
◆ प्रकाश-संश्लेषण क्रिया की दो अवस्थाएँ होती हैं –
(i) प्रकाश रासायनिक क्रिया (Photochemical reaction)
(ii) रासायनिक प्रकाशहीन क्रिया (Dark chemical reaction)
(i) प्रकाश रासायनिक क्रिया – यह क्रिया क्लोरोफिल के ग्रेना (Grana) भाग में सम्पन्न होती है । इसे हिल क्रिया (Hill reaction) भी कहते हैं। इस प्रक्रिया में जल का अपघटन होकर हाइड्रोजन आयन तथा इलेक्ट्रॉन बनता है। जल के अपघटन के लिए ऊर्जा प्रकाश से मिलती है। इस प्रक्रिया के अन्त में ऊर्जा के रूप में ए० टी० पी० तथा एन० ए० डी० पी० एच० निकलता है, जो रासायनिक प्रकाशहीन प्रतिक्रिया संचालित करने में मदद करता है ।
(ii) रासायनिक प्रकाशहीन प्रतिक्रिया – यह क्रिया क्लोरोफिल के स्ट्रोमा में होती है। इस क्रिया में कार्बन डाई ऑक्साइड का अपचयन होकर शर्करा, स्टार्च बनता है ।
5. पादप हॉर्मोन (Plant Hormones)
◆ पौधों में निम्न प्रकार के हॉर्मोन्स पाये जाते हैं –
1. ऑक्सिन्स (Auxins)
◆ ऑक्सिन्स की खोज सन् 1880 ई० में में डार्विन ने की थी ।
◆ यह पौधे की वृद्धि को नियंत्रित करने वाला हॉर्मोन है ।
◆ इसका निर्माण पौधे के ऊपरी हिस्सों में होता है ।
◆ इसके प्रमुख कार्य –
(i) इसके कारण पौधों में शीर्ष की प्रमुखता हो जाती है और पाश्र्वय कक्षीय कलिकाओं की वृद्धि रुक जाती है ।
(ii) यह पत्तियों का विलगन रोकता है।
(iii) यह खर-पतवार को नष्ट कर देता है ।
(iv) इसके द्वारा अनिषेक फल प्राप्त किए जाते हैं।
(v) यह फसलों को गिरने से बचाता है।
2. जिबरेलिन्स (Gibberellins)
◆ इसकी खोज जापानी वैज्ञानिक कुरोसावा ने 1926 ई० में की।
◆ यह बौने पौधे को लम्बा कर देता है। यह फूल बनने में मदद करता है ।
◆ यह बीजों की प्रसुप्ति भंग कर उनको अंकुरित होने के लिए प्रेरित करते हैं।
◆ ये काष्ठीय पौधों में एघा (Cambium) की सक्रियता को बढ़ाते हैं।
◆ इसके छिड़काव द्वारा बृहत् आकार के फल तथा फूलों का उत्पादन किया जा सकता है।
3. साइटोकाइनिन (Cytokinins)
◆ इसकी खोज मिलर ने 1955 ई० में की थी, परंतु इसका नामाकरण लिथाम ने किया।
◆ यह प्राकृतिक रूप से ऑक्जिन के साथ मिलकर काम करते हैं ।
◆ यह ऑक्सिन्स की उपस्थिति में कोशिका विभाजन और विकास में मदद करता है ।
◆ यह जीर्णता को रोकता है।
◆ यह RNA एवं प्रोटीन बनाने में सहायक है।
4. एबसिसिक एसिड (Abscisic acid or ABA )
◆ इस हॉर्मोन की खोज पहले 1961-65 ई० में कार्न्स एवं एडिकोट तथा बाद में वेयरिंग ने की ।
◆ यह वृद्धिरोधक हॉर्मोन है।
◆ यह बीजों को सुषुप्तावस्था में रखता है ।
◆ यह पत्तियों के विलगन में मुख्य भूमिका निभाता है ।
◆ यह पुष्पन में बाधक होता है।
5. एथिलीन (Ethylene )
◆ यह एकमात्र ऐसा हॉर्मोन है, जो गैसीय रूप में पाया जाता है ।
◆ हॉर्मोन के रूप में से इसे बर्ग (Burg) ने 1962 ई० में प्रमाणित किया ।
◆ यह फलों को पकाने में सहायता करता है ।
◆ यह मादा पुष्पों की संख्या में वृद्धि करता है. ।
◆ यह पत्तियों, पुष्पों व फलों के विलगन को प्रेरित करता है ।
6. फ्लोरिजेन्स (Florigens) – ये पत्ती में बनते हैं, लेकिन फूलों के खिलने में मदद करते हैं। इसलिए, इन्हें फूल खिलाने वाले हॉर्मोन (flowering hormones) भी कहते हैं ।
7. ट्राउमैटिन (Traumatin) – यह एक प्रकार का डाइकार्बोक्सिलिक अम्ल (dicarboxylic acid) है । इसका निर्माण घायल कोशिका में होता है, जिससे पौधे के जख्म भर जाते हैं ।
6. पादप रोग (Plant diseases) 
1. विषाणुजनित रोग (Viral diseases)–
(i) तम्बाकू का मौजेक रोग-इस रोग में पत्तियाँ सिकुड़ जाती हैं तथा छोटी हो जाती हैं। पत्तियों का क्लोरोफिल नष्ट हो जाता है। इस रोग का कारक टोबेको मोजैक वाइरस (TMV) है।
नियंत्रण – रोग से प्रभावित पौधों को इकट्ठा कर जला देना चाहिए ।
(ii) पोटेटो मोजैक (Potoa Mosaic) – यह रोग पोटेटो वाइरस – x से होता है। इसमें पत्तियों में चितकबरापन तथा बौनापन के लक्षण प्रदर्शित होते हैं ।
(iii) बंको टाफ ऑफ बेनाना (Bunchy top of banana) – यह रोग बेनाना वायरस – 1 द्वारा होता है। इस रोग में पौधे बौने तथा सभी पत्तियाँ शिखा पर गुलाबवत् एकत्रित हो जाती हैं।
(iv) रंग परिवर्तन (Colour change) – हरिमाहीनता एक विषाणुजनित रोग है। इस रोग में पूरी पत्ती का रंग पीला, सफेद या मोजैक पैटर्न का हो जाता है। vein clearing में शिराएँ पीली व अन्य भाग हरे तथा vein banding में शिराएँ हरी व अन्य भाग में हरिमाहीनता होती हैं ।
2. जीवाणुजनित रोग (Bacterial diseases) –
(i) आलू का शैथिल रोग (Wilt diseases of potato) – इसको रिंग रोग के नाम से भी जानते हैं, क्योंकि जाइलम पर भूरा रिंग बन जाता है। इस रोग का कारक स्यूडोमोनास सोलेनेसियेरम नामक जीवाणु है। इस रोग में पौधे का संवहन तंत्र प्रभावित होता है।
(ii) ब्लैक आर्म ऑफ काटन (Black arm of cotton) – इस रोग का कारक जैन्थोमोनास नामक जीवाणु है। इस रोग में पत्ती पर छोटी-सी जलाद्र संरचना (भूरा रंग) हो जाती है।
(iii) धान का अंगमारी रोग (Bacterial Blight of Rice) – यह रोग जैन्थोमोनास ओराइजी नामक जीवाणु से होता है। इसमें पत्तियों की एक या दोनों सतहों पर पीला-हरा स्पाट दिखाई देता है ।
(iv) साइट्स कैंकर (Citrus canker) – इस रोग का कारक जेन्थोमोनस सीट्री नामक जीवाणु है । इसकी उत्पत्ति चीन में हुई थी। नींबू के पत्तियों, शाखाएँ फल सभी इस रोग से प्रभावित होते हैं ।
(v) गेहूँ का टून्डू रोग (Tundu disease of wheat) – इस रोग का कारक ट्रिटिकी नामक जीवाणु तथा एन्जुइना ट्रिटिकी नामक नेमैटोड है। इस रोग में पत्तियों के नीचे का भाग मुरझाकर मुड़ जाता है ।
3. तत्त्वों की कमी से उत्पन्न रोग-
नोट : सामान्य प्रयोग में आने वाला मसाला लौंग, फूल की कली से प्राप्त होती है ।
6. पारिस्थितिकी (Ecology )
◆ जीव विज्ञान की उस शाखा को जिसके अन्तर्गत जीवधारियों और उनके वातावरण के पारस्परिक संबंधों का अध्ययन करते हैं, उसे पारिस्थितिकी कहते हैं ।
◆ एक निश्चित भौगोलिक क्षेत्र या वास स्थान में निवास करने वाली विभिन्न समष्टियों (Population) को जैविक समुदाय (Biotic community) कहते हैं ।
◆ रचना एवं कार्य की दृष्टि से विभिन्न जीवों और वातावरण की मिली-जुली इकाई को पारिस्थितिक तंत्र (Ecosystem) कहते हैं ।
◆ पारिस्थितिक तंत्र या पारितंत्र (Ecosystem or ecological system) शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम टेन्सले नामक वैज्ञानिक ने किया था।
◆ संरचनात्मक दृष्टि से प्रत्येक पारिस्थितिक तंत्र दो घटकों का बना होता है-
(a) जैविक घटक  (b) अजैविक घटक
(a) जैविक घटक (Biotic components) – इसे तीन भागों में विभक्त किया गया है-
1. उत्पादक 2. उपभोक्ता 3. अपघटक
1. उत्पादक – वे घटक जो अपना भोजन स्वयं बनाते हैं, जैसे- हरे पौधे ।
2. उपभोक्ता – वे घटक जो उत्पादक द्वारा बनाए गए भोज्य पदार्थों का उपभोग करते हैं ।
(i) प्राथमिक उपभोक्ता (Primary consumers) – इसमें वे जीव आते हैं, जो हरे पौधों या उनके किसी भाग को खाते हैं। जैसे- गाय, भैंस, बकरी आदि ।
(ii) द्वितीयक उपभोक्ता (Secondary consumers) – इसके अन्तर्गत वे जीव आते हैं, जो प्राथमिक उपभोक्ताओं को अपने भोजन में प्रयुक्त करते हैं। जैसे- लोमड़ी, भेड़िया, मोर इत्यादि ।
(iii) तृतीयक उपभोक्ता (Tertiary consumers) – इसके अन्तर्गत वे जीव आते हैं, जो द्वितीयक उपभोक्ताओं को खाते हैं, जैसे- बाघ, शेर, चीता इत्यादि ।
3. अपघटक (Decomposers) – इस वर्ग में मुख्यतः कवक एवं जीवाणु आते हैं । ये मृत उत्पादक एवं उपभोक्ताओं का अपघटन कर उन्हें भौतिक तत्त्वों में परिवर्तित कर देते हैं ।
(b) अजैविक घटक (Abiotic components) -अजैविक घटक हैं-
(i) कार्बनिक पदार्थ
(ii) अकार्बनिक पदार्थ
(iii) जलवायुवीय कारक
जैसे- जल, प्रकाश, ताप, वायु, आर्द्रता, मृदा एवं खनिज तत्त्व ।
7. प्रदूषण (Pollution )
◆ वायु-जल या भूमि (अर्थात् पर्यावरण) के भौतिक, रासायनिक या जैविक गुणों में होने वाले ऐसे अनचाहे परिवर्तन जो मनुष्य एवं अन्य जीवधारियों, उनकी जीवन परिस्थितियों, औद्योगिक प्रक्रियाओं एवं सांस्कृतिक उपलब्धियों के लिए हानिकारक हों, प्रदूषण कहलाते हैं। प्रदूषण मुख्यतया निम्नलिखित प्रकार के हैं- (i) वायु प्रदूषण, (ii) जल प्रदूषण, (iii) ध्वनि प्रदूषण, (iv) मृदा प्रदूषण, (v) नाभिकीय प्रदूषण अवयवों
◆ (i) वायु प्रदूषण – जब प्रदूषण वायुमंडल में उपस्थित होता है और वायुमंडल के की अनुकूलतम मात्रा में परिवर्तन आ जाता है, तब इसे वायु प्रदूषण कहते हैं ।
◆ प्रमुख वायु प्रदूषक – कार्बन मोनोऑक्साइड (CO), सल्फर डाईऑक्साइड (SO2), हाइड्रोजन सल्फाइड (H2S), हाइड्रोजन फ्लूओराइड (HF), नाइट्रोजन के ऑक्साइड (NO तथा (NO2). हाइड्रोकार्बन, अमोनिया (NH²) तम्बाकू का धुआँ, फ्लूओराइड्स धूल तथा धुएँ के कण, एरोसोल्स इत्यादि ।
◆ सल्फर डाईऑक्साइड (SO2), सल्फर ट्राईऑक्साइड (SO3), नाइट्रोजन ऑक्साइड (NO), वातावरणीय जल के साथ क्रिया करके सल्फ्युरिक अम्ल (Sulphuric acid) या सल्फ्यूरस अम्ल (Sulphurus acid) तथा नाइट्रिक अम्ल ( Nitirc acid) का निर्माण करते हैं । वर्षा जल के साथ ये अम्ल पृथ्वी पर आ जाते हैं, इसे ही अम्ल वर्षा कहते हैं।
◆ 3 दिसम्बर, 1984 ई० में भोपाल की यूनियन कार्बाइड फैक्टरी (जो उर्वरक बनाती थी) में मिथाइल आइसोसायनाइट (MIC) के कारण दुर्घटना हुई थी ।
 (ii) जल प्रदूषण (Water pollution) – जल से अवांछनीय कारकों या पदार्थों के जुड़ जाने को जल – प्रदूषण कहते हैं ।
◆ पृथ्वी उपलब्ध जल की मात्रा का केवल 2.5-3% ही स्वच्छ है ।
◆ जल प्रदूषण के स्रोत-जल प्रदूषण मुख्यत: कार्बोनेट, क्लोराइड, सोडियम और बाई कार्बोनेट, मैग्नीशियम व पोटैशियम के सल्फेट्स, अमोनिया, कार्बन मोनोऑक्साइड, कार्बनडाईऑक्साइड तथा औद्योगिक अपशिष्टों के जल में घुल जाने से होता है। समुद्रजलीय प्रदूषण सल्फरयुक्त भारी धातुओं, हाइड्रोकार्बन, पेट्रोलियम पदार्थों के जल में घुलने से होता है।
◆ आयल स्पिल्स (Oil spills) – ऑयल टैंकरों से रिसा हुआ तेल सागरीय जल की सतह पर शीघ्रता से फैल जाता है । इस तरह जलीय सतह पर फैले तेल को ऑयल स्पिल्स कहते हैं।
◆ पारा युक्त जल पीने से मिनीमाता रोग हो जाता है ।
◆ असबेस्टस के रेशों से युक्त जल के सेवन करने से असबेस्टोसिस नामक जानलेवा रोग हो जाता है।
नोट : नदियों में जल प्रदूषण की माप ऑक्सीजन की घुली हुई मात्रा से करते हैं ।
 (iii) ध्वनि प्रदूषण (Sound pollution) – वातावरण में चारों ओर फैली अनिच्छित या
अवांछनीय ध्वनि को ध्वनि प्रदूषण कहते हैं ।
◆ ध्वनि प्रदूषण के स्रोत- ध्वनि प्रदूषण का स्रोत ऊँची आवाज या शोर है, चाहे वह किसी प्रकार उत्पन्न हुआ हो ।
(iv) मृदा प्रदूषण (Soil pollution) – भूमि का विकृत रूप मृदा प्रदूषण कहलाता है ।
◆ मृदा प्रदूषण के स्रोत-अम्लीय वर्षा, खानों से प्राप्त जल, उर्वरकों तथा कीटनाशक रसायन का अत्यधिक प्रयोग, कूड़ा-करकट, औद्योगिक अपशिष्ट, खुले खेतों में मल-विसर्जन आदि मृदा प्रदूषण के मुख्य स्रोत हैं ।
(v) नाभिकीय प्रदूषण (Nuclear pollution ) – यह प्रदूषण रेडियो एक्टिव किरणों से उत्पन्न होता है ।
◆ रेडियो एक्टिव प्रदूषण के निम्न स्रोत हो सकते हैं –
(i) चिकित्सा में उपयोग होने वाली किरणों से प्राप्त प्रदूषण ।
(ii) परमाणु भट्ठियों में प्रयुक्त होने वाले ईंधन से उत्पन्न प्रदूषण ।
(iii) नाभिकीय शस्त्रों के उपयोग से उत्पन्न प्रदूषण ।
(iv) परमाणु बिजलीघरों से निकलने वाले अपशिष्ट पदार्थों से उत्पन्न प्रदूषण |
(v) शोध कार्यों में प्रयुक्त रेडियोधर्मी पदार्थों से उत्पन्न प्रदूषण ।
(vi) सूर्य की पराबैंगनी किरणों से उत्पन्न प्रदूषण ।
नोट : अमेरिका में 28 मार्च, 1979 ई० को थ्री माइल आइलैण्ड रिएक्टर में भीषण दुर्घटना हुई। रिएक्टर में होने वाली दुर्घटनाओं में सबसे अधिक हानिकारक एवं भीषण दुर्घटना 26 अप्रैल, 1986 ई० को युक्रेन के चेरनोबिल स्थित एक रिएक्टर में घटी जिसमें एक रिएक्टर इकाई की छत गल गई थी ।
8. प्राणी विज्ञान (Zoology)
          प्राणी विज्ञान-इसके अन्तर्गत जन्तुओं तथा उनके कार्यकलापों का अध्ययन किया जाता है।
 1. जन्तु जगत का वर्गीकरण (Classificatio of animal Kingdom)
संसार के समस्त जन्तु जगत को दो उप जगतों में विभक्त किया गया है –
(i) एककोशिकीय प्राणी, (ii) बहुकोशिकीय प्राणी । एककोशिकीय प्राणी एक ही संघ प्रोटोजोआ में रखे गए जबकि बहुकोशिकीय प्राणियों को 9 संघों में विभाजित किया गया ।
◆ स्टोरर व यूसिन्जर के अनुसार जन्तुओं का वर्गीकरण
1. संघ प्रोटोजोआ (Protozoa ) – प्रमुख लक्षण –
(i) इनका शरीर केवल एककांशिकीय होता है ।
(ii) इनके जीवद्रव्य में एक या अनेक केन्द्रक पाए जाते हैं ।
(iii) प्रचलन पदाभों, पक्ष्मों या कशाभों के द्वारा होता हैं ।
(iv) स्वतंत्र जीवी एवं परजीवी दोनों प्रकार के होते हैं ।
(v) सभी जैविक क्रियाएँ (भोजन, पाचन, श्वसन, उत्सर्जन, जनन) एककोशिकीय शरीर के अन्दर होती है ।
(vi) श्वसन एवं उत्सर्जन कोशिका की सतह से विसरण के द्वारा होते हैं, प्रोटोजोआ एण्ट अमीबा हिस्टोलिटिका का संक्रमण मनुष्य में 30-40 वर्षों के लिए बना रहता है ।
 2. संघ पोरिफेरा (Proifera ) – इस संघ के सभी जन्तु खारे जल में पाए जाते हैं ।
प्रमुख लक्षण –
(i) ये बहुकोशिकाय जन्तु हैं, परन्तु कोशिकाएँ नियमित ऊतकों का निर्माण नहीं करती हैं ।
(ii) शरीर पर असंख्य छिद्र (ostia) पाए जाते हैं ।
(iii) शरीर में एक गुहा पायी जाती है, जिसे स्पंज गुहा कहते हैं ।
उदाहरण- साइकन, मायोनिया, स्पंज आदि ।
नोट- घटिया, स्पंज का प्रयोग ध्वनि अवशोषण के लिए होता है। –
3. संघ सीलेण्ट्रेटा (Coelenterata) प्रमुख लक्षण –
(i) प्राणी जलीय द्विस्तरीय होते हैं
(ii) मुख के चारों ओर कुछ धागे की तरह की संरचनाएँ पायी जाती हैं, जो भोजन आदि पकड़ने में मदद करती है ।
उदाहरण – हाइड्रा, जेलीफिश, सी एनीमोन, मूँगा ।
4. संघ प्लैटीहेल्मिन्वीज (Platyhelminthes) प्रमुख लक्षण –
(i) तीन स्तरीय शरीर परन्तु देहगुहा नहीं होती ।
(ii) पृष्ठ आधार तल से चपटा शरीर ।
(iii) पाचन तंत्र विकसित नहीं ।
(iv) उत्सर्जन फ्लेम कोशिकाओं द्वारा होता है।
(v) कंकाल, श्वसन अंग, परिवहन अंग आदि नहीं होते ।
(vi) उभयलिंग जन्तु है ।
उदाहरण- प्लेनेरिया, लिवर फल्यूक, फीता कृमि ।
5. संघ ऐस्केल्मिन्थीज (Ascheleminthes) प्रमुख लक्षण –
(i) लम्बे, बेलनाकार, अखण्डित कृमि ।
(ii) शरीर द्विपार्श्व सममित, त्रिस्तरीय |
(iii) आहारनाल स्पष्ट होती है, जिसमें मुख तथा गुदा दोनों ही होते हैं।
(iv) परिवहन अंग तथा श्वसन अंग नहीं होते, परन्तु तंत्रिका तंत्र विकसित होता है।
(v) उत्सर्जन प्रोटोनफ्रीडिया द्वारा होता है।
(vi) एकलिंगी होते हैं ।
उदाहरण- गोलकृमि जैसे- एस्केरिस, थ्रेडवर्म, वुचरेरिया ।
नोट :- (i) एण्टरोबियस (पिनवर्म / थ्रेडवर्म) मुख्यत: छोटे बच्चों की गुदा में पाए जाते हैं। इससे बच्चों को काफी चुन-चुनाहट होती है, भूख कम लगती है और उल्टियाँ भी होती है। कुछ बच्चें  रात में बिस्तर में पेशाब कर देते हैं l
6. संघ ऐनीलिडा (Annelida) प्रमुख लक्षण –
(i) शरीर लम्बा, पतला, द्विपार्श्व सममित तथा खण्डों में बँटा हुआ होता है ।
(ii) प्रचलन मुख्यत: काइटिन के बने सीटी (Setae) द्वारा होता है ।
(iii) आहारनाल पूर्णत: विकसित होता है ।
(iv) श्वसन प्रायः त्वचा के द्वारा, कुछ जन्तुओं में क्लोम के द्वारा होता है ।
(v) रुधिर लाल होता है एवं तंत्रिका तंत्र साधारण होता है ।
(vi) उत्सर्जी अंग वृक्क के रूप में होते हैं ।
(vii) एकलिंगी एवं उभयलिंगी दोनों प्रकार के होते हैं ।
 उदाहरण-केंचुआ, जोंक, नेरीस आदि ।
नोट :- केंचुए में चार जोड़ी हृदय होते हैं। इसके जीवद्रव्य में हीमोग्लोबिन का विलय हो जाता है ।
7. संघ आर्थोपोडा (Arthropoda) – प्रमुख लक्षण –
(i) शरीर तीन भागों में विभक्त होता है – सिर, वक्ष एवं उदर । –
(ii) इनके पाद संधि-युक्त होते हैं ।
(iii) रुधिर परिसंचारी तंत्र खुले प्रकार का होता है
(iv) इनकी देह गुहा हीमोसील कहलाती है ।
(v) ट्रॅकिया गिल्स, बुक लंग्स, सामान्य सतह आदि श्वसन अंग है।
(vi) यह प्रायः एकलिंगी होते हैं एवं निषेचन शरीर के अंदर होता है।
 उदाहरण- तिलचट्टा, झींगा मछली, केकड़ा, खटमल, मक्खी, मच्छड़, मधुमक्खी, टिड्डी आदि ।
नोट :-(i) कीटों में छह पाद व चार पंख होते हैं । सिप्रिया
(ii) कॉकरोच के हृदय में 13 कक्ष होते हैं 1
(iii) चींटी एक सामाजिक जन्तु है, जो श्रम – विभाजन प्रदर्शित करती है।
(iv) दीमक ( termite) भी एक सामाजिक कीट है, जो निवह (colony) में रहती है ।
 8. संघ मोलस्का (Mollusca) – मुख्य लक्षण–
(i) शरीर तीन भागों में विभक्त होता है- सिर, अन्तरांग तथा पाद ।
(ii) इनमें कवच सदैव उपस्थित रहता है ।
(iii) आहारनाल पूर्ण विकसित होता है ।
(iv) इनमें श्वसन गिल्स या टिनीडिया द्वारा होता है।
(v) रक्त रंगहीन लगता है ।
(vi) उत्सर्जन वृक्कों के द्वारा होता है।
उदाहरण- घोंघा, सीपी, आदि ।
9. संघ इकाइनोइमेटा (Echinodermata) – प्रमुख लक्षण –
(i) इस संघ के सभी जन्तु समुद्री होते हैं ।
(ii) जल संवहन तंत्र पाया जाता है ।
(iii) प्रचलन, भोजन ग्रहण करने हेतु नाल पाद होते हैं जो संवेदी अंग का कार्य करते हैं ।
(iv) तंत्रिका तंत्र में मस्तिष्क विकसित नहीं होता।
(v) पुनरुतदन की विशेष क्षमता होती है 1
उदाहरण – सितारा मछली (star fish) समुद्री अर्चिन, समुद्री खीरा, पंखतारा, ब्रिटिल स्टार आदि ।
नोट :- अरस्तू लालटेन का कार्य भोजन को चबाना है। यह समुद्री अर्चिन में पायी जाती है ।
10. संघ कॉर्डेटा (Chordata) – प्रमुख लक्षण –
(i) इनमें नोटोकॉर्ड उपस्थित होता है।
(ii) इनमें क्लोम छिद्र अवश्य पाए जाते हैं ।
(iii) इनमें नालदार तंत्रिका रज्जु अवश्य पाया जाता है ।
कॉर्डेटा में वर्गीकरण के अनुसार 13 वर्ग हैं ।
संघ कॉर्डेट के कुछ प्रमुख वर्ग
A. मत्स्य वर्ग (Pisces) – प्रमुख लक्षण –
(i) ये सभी असमतापी जन्तु हैं ।
(ii) इनका हृदय द्विवेश्मी होता है और केवल अशुद्ध रक्त ही पम्प करता है
(iii) श्वसन गिल्स के द्वारा होता है ।
उदाहरण – स्कोलियोडन, दरियाई घोड़ा तथा टारपीडो ।
 B. एम्फीबिया वर्ग (Amphibia) प्रमुख लक्षण –
(i) ये सभी प्राणी उभयचर होते हैं ।
(ii) ये असमतापी होते हैं।
(iii) श्वसन क्लोमों, त्वचा एवं फेफड़ों द्वारा होता है।
(iv) हृदय तीन वेश्मी होते हैं – दो आलिद व एक निलय होते हैं । उदाहरण- मेढ़क ।
नोट :- मेढ़कों की टर्राहट वास्तव में मैथुन के लिए पुकार होती है
C. सरीसृप वर्ग (Reptilia) – प्रमुख लक्षण –
(i) वास्तविक स्थलीय कशेरुकी जन्तु है ।
(ii) दो जोड़ी पाद होते हैं।
(iii) कंकाल पूर्णतः अस्थिल होता है।
(iv) श्वसन फेफड़ों के द्वारा होता है ।
(v) इनके अंडे कैल्शियम कार्बोनेट की बनी कवच से ढँके रहते हैं।
 उदाहरण- छिपकली, साँप, घड़ियाल, कछुआ आदि
 नोट :- मीसोजोइक युग को रेप्टाइलों का युग कहते हैं ।
◆ घोंसला बनाने वाला एकमात्र सर्प नागराज है, जिसका भोजन मुख्य रूप से अन्य सर्प है।
◆ हिलोडर्मा विश्व की एकमात्र जहरीली छिपकली है।
◆ समुद्री साँप जिसे हाइड्रोफिश कहते हैं, संसार का सबसे जहरीला साँप है ।
◆ मेबुईया बिल बनाने वाली छिपकली होती है, इसका प्रचलित स्किंक है।
D. पक्षी वर्ग (Aves ) – प्रमुख लक्षण –
(i) इसका अगला पाद उड़ने के लिए पंखों में रूपान्तरित हो जाते हैं ।
 (ii) इसका हृदय चार वेश्मी होता है – दो आलिंद व दो निलय ।
(iii) ये समतापी होते हैं ।
(iv) इनका श्वसन अंग फेफड़ा है ।
(v) मूत्राशय अनुपस्थित रहता हैं ।
 उदाहरण – कौआ, मोर, चिड़िया, तोता ।
नोट :- (i) तीव्रतम पक्षी अवावील है ।
 (ii) उड़ न सकने वाला पक्षी किवि और एमू
(iii) सबसे बड़ा जीवित पक्षी शुतुरमुर्ग है हैं।
(iv) सबसे छोटा पक्षी – हामिंग वर्ड है ।
(v) सबसे बड़ा चिड़ियाघर – अलीपुर (कोलकाता) एवं विश्व का सबसे बड़ा चिड़ियाघर क्रूजर नेशनल पार्क अफ्रीका में है ।
E. स्तनी वर्ग (Mammalia) – प्रमुख लक्षण –
(i) त्वचा पर स्वेद ग्रंथियाँ एवं तैल ग्रंथियाँ पाई जाती हैं ।
(ii) ये सभी जन्तु उच्चतापी एवं नियततापी होते हैं ।
(iii) इनका हृदय चारवेश्मी होता है ।
(iv) इसमें दाँत जीवन में दो बार निकलते हैं इसलिए इन्हें द्विवारदन्ती कहते हैं ।
(v) इनके लाल रुधिराणुओं में केन्द्रक नहीं होता (केवल ऊँट एवं लामा को छोड़कर) ।
(vi) बाह्य कर्ण (Pinna) उपस्थित होता है ।
◆ वर्ग स्तनधारी तीन उपवर्गों में बँटा है।
(i) प्रोटोथीरिया – अंडे देते हैं । उदाहरण एकिडना ।
(ii) मेटाथीरिया – अपरिपक्व बच्चों को जन्म देते हैं । उदाहरण – कंगारू । –
(iii) यूथीरिया- पूर्ण विकसित शिशुओं को जन्म देते हैं, जैसे- मनुष्य |
नोट :- (i) स्तनधारी वर्ग में रक्त का सबसे अधिक तापमान बकरी का होता है । (औसत तापमान 39°C)
2. जन्तु ऊतक (Animal Tissue)
          जन्तुओं के शरीर में पाए जाने वाले ऊतकों को हम निम्न श्रेणियों में बाँट सकते हैं-
1. उपकला ऊतक (Epithelial Tissue) 2. संयोजी ऊतक (Connective Tissue) 3. पेशी ऊतक (Muscle Tissue) 4. तंत्रिका ऊतक (Nerve Tissue).
1. उपकला ऊतक (Epithelial Tissue) – ये ऊतक जन्तु की बाहरी, भीतरी या स्वतंत्र सतहों पर पाए जाते हैं। इसमें रुधिर कोशिकाओं का अभाव होता है, जिसके कारण इस ऊतक की कोशिकाओं का पोषण विसरण के माध्यम के लसिका द्वारा होता है । यह शरीर के कई महत्त्वपूर्ण अंगों में पाया जाता है, जैसे- त्वचा की बाह्य सतह, हृदय, फेफड़ा एवं वृक्क के चारों ओर तथा यकृत एवं जनन ग्रंथियों के दीवार आदि पर । यह ऊतक शरीर के अंतरागों को चोट से बचाता है तथा उन्हें नम बनाए रखता है।
2. संयोजी ऊतक (Connective Tissue) – यह ऊतक शरीर के सभी अन्य अंगों को आपस में जोड़ने का कार्य करता है। तरल संयोजी ऊतक (जैसे रक्त एवं लसिका) संवहन के कार्य में भी सहायक होता है। यह ऊतक शरीर के तापक्रम को नियंत्रित करता है तथा मृत कोशिकाओं को नष्ट करके मृत ऊतकों एवं कोशिकाओं की पूर्ति करता है ।
3. पेशी ऊतक (Muscle Tissue) – इसे संकुचनशील ऊतक (Contractile tissue) के नाम से भी जाना जाता है। शरीर के सभी पेशियाँ इसी ऊतक से मिलकर बनी होती है। पेशी ऊतक तीन प्रकार के होते हैं- (a) अरेखित (Unstriped), (b) रेखित (Striped), (c) हृदयक पेशी (Cardiac )
(a) अरेखित (Unstriped) – यह पेशी ऊतक उन अंगों की दीवारों पर पाया जाता है, अनैच्छिक रूप से गति करते हैं, जैसे आहार नाल, मलाशय, मूत्राशय, रक्त-वाहिनियाँ आदि । अरेखित पेशियाँ उन सभी अंगों की गतियों को नियंत्रण करती हैं, जो स्वयंमेव गति करते हैं ।
(b) रेखित (Striped) – ये पेशियाँ, शरीर के उन भागों में पायी जाती हैं, जो इच्छानुसार गति करती हैं । प्रायः इन पेशियों के एक या दोनों सिरे रूपान्तरित होकर टेण्डन के रूप में अस्थियों से जुड़े होते हैं ।
(c) हृदयक पेशी (Cardiac ) – ये पेशियाँ केवल हृदय की दीवारों में पायी जाती हैं | हृदय की गति इन्हीं पेशियों के कारण होती है, जो बिना रुके जीवनपर्यन्त गति करती है । संरचना की दृष्टि से यह रेखित पेशी ऊतक से मिलती-जुलती है ।
◆ मानव शरीर में मांसपेशियों की संख्या 639 होती है ।
◆ मानव शरीर की सबसे बड़ी मांसपेशी ग्लूटियस मैक्सीमस (कुल्हा की मांसपेशी) है ।
◆ मानव शरीर की सबसे छोटी मांसपेशी स्टैपिडियस है ।
4. तंत्रिका ऊतक (Nerve Tissue) – इसे चेतन ऊतक भी कहते हैं। जीवों का तंत्रिका तंत्र इन्हीं ऊतकों का बना होता है । यह दो विशिष्ट प्रकार की कोशिकाओं का बना होता है-(a) तंत्रिका कोशिका या न्यूरॉन्स और (b) न्यूरोग्लिया । यह ऊतक शरीर में होने वाली सभी अनैच्छिक एवं ऐच्छिक क्रियाओं को नियंत्रित करता है । न्यूरोग्लिया कोशिकाएँ मस्तिक की गुहा को आस्तरित करती है ।
3. मानव रक्त (Human Blood) –
◆ रक्त एक तरल संयोजी ऊतक है ।
◆ मानव शरीर में रक्त की मात्रा शरीर के भार का लगभग 7% होती है ।
◆ रक्त एक क्षारीय विलयन का है, जिसका pH मान 7.4 होता है।
◆ एक वयस्क मनुष्य में औसतन 5-6 ली० रक्त होता है। ली० रक्त कम होता है ।
◆ महिलाओं में पुरुषों क तुलना में 1/2 ली ° रक्त होता है ।
◆ रक्त में दो प्रकार के पदार्थ पाए जाते हैं- (i) प्लाज्मा (plasma) और (ii) रुधिराणु (Blood corpuseles)
◆ प्लाज्मा (Plasma) – यह रक्त का अजीवित तरल भाग होता है। रक्त का लगभग 60% भाग प्लाज्मा होता है। इसका 90% भाग जल, 7% प्रोटीन, 0.9% लवण और 0.1% होता है। शेष पदार्थ बहुत कम मात्रा में होता है।
◆ प्लाज्मा के कार्य-पचे हुए भोजन एवं हॉर्मोन का शरीर में संवहन प्लाज्मा के द्वारा ही होता है ।
◆ सेरम (Serum) – जब प्लाज्मा में से फाइब्रिनोजेन नामक प्रोटीन निकाल लिया जाता है, तो शेष प्लाज्मा को सेरमं (Serum) कहा जाता है।
◆ रुधिराणु (Blood corpuscles) – यह रक्त का शेष 40% भाग होता है । इसे तीन भागों में बाँटते हैं–(a) लाल रक्त कण (RBC), (b) श्वेत रक्त कण (WBC) और (c) रक्त बिम्बाणु (Blood platelets) |
(a) लाल रक्त कण (RBCs-Red Blood Corpuscles or Erythrocytes) –
◆ स्तनधारियों के लाल कण उभयावतल होते हैं ।
◆ इसमें केन्द्रक नहीं होता है । अपवाद ऊँट एवं लामा नामक स्तनधारी की RBCs में केन्द्रक पाया जाता है ।
◆ RBCs का निर्माण अस्थिमज्जा (Bone Marrow) में होता है। प्रोटीन, विटामिन B12 एवं फोलिक अम्ल RBCs के निर्माण में सहायक होते हैं । आयरन,
नोट :- भ्रूण अवस्था में इसका निर्माण यकृत और प्लीहा में होता है ।
◆ इसका जीवनकाल 20 से 120 दिन का होता है।
◆ इसकी मृत्यु यकृत (Liver) और प्लीहा ( Spleen) में होती है, इसलिए यकृत और प्लीहा को RBCs का कब्र कहा जाता है ।
◆ इसमें हीमोग्लोबिन होता है, जिसमें हीम (Haem) नामक रंजक (Dye) होता है, जिसके कारण रक्त का रंग लाल होता है। ग्लोबिन (Globin) लौह युक्त प्रोटीन है, जो ऑक्सीजन एवं कार्बन डाइऑक्साइड से संयोग करने की क्षमता रखता है ।
◆ हीमोग्लोबिन में पाया जाने वाला लौह यौगिक हीमैटिन (Haeamatin) है ।
◆ RBCs का मुख्य कार्य शरीर की हर कोशिका में ऑक्सीजन पहुँचना एवं कार्बन डाइऑक्साइड को वापस लाना है ।
◆ हीमोग्लोबिन की मात्रा कम होने पर रक्तक्षीणता (Anaemia) रोग हो जाता है ।
◆ सोते वक्त RBCs 5% कम हो जाता है एवं जो लोग 4200m की ऊँचाई पर होते उनके RBCs में 30% की वृद्धि हो जाती है ।
RBCs की संख्या हीमोसाइटोमीटर से ज्ञात की जाती है ।
(b) श्वेत रक्त कण (WBC-White Blood Corpuscles or Leucocytes) –
◆ आकार और रचना में यह अमीबा (Amoeba) के समान होता है। इसमें केन्द्रक रहता है।
◆ इसका निर्माण अस्थि मज्जा (Bone marrow), लिम्फ नोड (lymph node) और कभी-कभी यकृत (liver) एवं प्लीहा ( Spleen) में भी होता है।
◆ इसका जीवनकाल 2- 4 दिन का होता है। इसकी मृत्यु रक्त में ही हो जाती है ।
◆ इसका मुख्य कार्य शरीर को रोगों के संक्रमण से बचाना है ।
◆ WBC का सबसे अधिक भाग ( 60-70%) न्यूट्रोफिल्स कणिकाओं का बना होता है।  न्यूट्रोफिल्स कणिकाएँ रोगाणुओं तथा जीवाणुओं का भक्षण करती है ।
◆ RBC एवं WBC का अनुपात है – 600: 1 l
(c) रक्त बिम्बाणु (Blood platelets or Thrombocytes) –
◆ यह केवल मनुष्य एवं अन्य स्तनधारियों के रक्त में पाया जाता है।
◆ इसमें केन्द्रक नहीं होता है। इसका निर्माण अस्थि मज्जा (Bone marrow) में होता है।
◆ इसका जीवनकाल 3 से 5 दिन का होता है। इसकी मृत्यु प्लीहा (Spleen) में होती है।
◆ इसका मुख्य कार्य रक्त के थक्का बनाने में मदद करना है ।
रक्त के कार्य
(i) शरीर के ताप का नियंत्रण तथा शरीर की रोगों से रक्षा करना
(ii) शरीर के वातावरण को स्थायी बनाये रखना तथा घावों को भरना ।
(iii) रक्त का थक्का बनाना ।
(iv) O2, CO2 पचा हुआ भोजन, उत्सर्जी पदार्थ एवं हॉर्मोन का संवहन करना ।
(v) लैंगिक वरण में सहायता करना तथा विभिन्न अंगों में सहयोग स्थापित करना ।
◆ रक्त का थक्का बनना (Clotting of Blood) – रक्त के थक्का बनने के दौरान होने वाली तीन महत्त्वपूर्ण प्रतिक्रिया निम्न है –
◆ रुधिर प्लाज्मा के प्रोथाम्बिन तथा फाइब्रिनोजेन का विटामिन k की सहायता से होता है। वि० k रक्त के थक्का बनाने में सहायक होता है। सामान्यतः रक्त का थक्का 2-5 मिनट में बन जाता है ।
◆ रक्त के थक्का बनाने के लिए अनिवार्य प्रोटीन फाइब्रिनोजेन है ।
मनुष्य के रक्त वर्ग (Blood group) –
◆ रक्त समूह की खोज कार्ल लैंडस्टीनर ने 1900 ई० में किया था। इसके लिए इन्हें सन् 1930 ई० में नोबेल पुरस्कार मिला ।
◆ मनुष्यों के रक्तों की भिन्नता का मुख्य कारण लाल रक्त कण (RBC) में पायी जाने वाली ग्लाइको प्रोटीन है, जिसे एण्टीजन (Antigen) कहते हैं ।
◆ एण्टीजन दो प्रकार के होते हैं-एण्टीजन A एवं एन्टीजन B |
◆ एण्टीजन या ग्लाइको प्रोटीन की उपस्थिति के आधार पर मनुष्य में चार प्रकार के रुधिर वर्ग होते हैं –
(a) जिनमें एण्टीजन A होता है- रुधिर वर्ग A
(b) जिनमें एण्टीजन B होता है-रुधिर वर्ग B
(c) जिनमें एण्टीजन A और B दोनों होते हैं- रुधिर वर्ग AB
(d) जिनमें दोनों में से कोई एण्टीजन नहीं होता है- रुधिर वर्ग 0 –
◆ किसी एण्टीजन की अनुपस्थिति में एक विपरीत प्रकार की प्रोटीन रुधिर प्लाज्मा में पायी जाती है। इसकी एण्टीबॉडी कहते हैं। यह भी दो प्रकार होता है-एण्टीबॉडी a एवं एण्टीबॉडी b |
रक्त का आधान (Blood transfusion ) –
◆ एण्टीजन A एवं एण्टीबॉडी a, एण्टीजन B एवं एण्टीबॉडी b एक साथ नहीं रह सकते हैं। ऐसा होने पर ये आपस में मिलकर अत्यधिक चिपचिपे हो जाते हैं, जिससे रक्त नष्ट हो जाता है। इसे रक्त का अभिश्लेषण (agglutination) कहते हैं। अतः रक्त आधान में एण्टीजन तथा एण्टीबॉडी का ऐसा ताल-मेल करना चाहिए जिससे रक्त का अभिश्लेषण (Agglutination) न हो सके।
◆ रक्त-समूह O को सर्वदाता (Universal donor) रक्त समूह कहते हैं, क्योंकि इसमें कोई एण्टीजन नहीं होता है एवं रक्त समूह AB को सर्वग्रहता (Universal recipitor) रक्तसमूह कहते हैं, क्योंकि इसमें कोई एण्टीबॉडी नहीं होता है ।
◆ Rh – तत्त्व (Rh-factor) – सन् 1940 ई० में लैन्डस्टीनर और वीनर (Landsteiner and Wiener) ने रुधिर में एक अन्य प्रकार के एण्टीजन का पता लगाया । इन्होंने रीसस बन्दर में इस तत्त्व का पता लगाया । इसलिए इसे Rh-factor कहते हैं, जिन व्यक्तियों के रक्त में यह तत्त्व पाया जाता है, उनका रक्त Rh- सहित (Rh-positive) कहलाता है तथा जिनमें नहीं पाया जाता, उनका रक्त Rh-रहित (Rh-negative) कहलाता है।
◆ रक्त आधान के समय Rh-factor की भी जाँच की जाती है । Rh- को Rh+का रक्त एवं Rh को Rh रक्त ही दिया जाता है ।
◆ यदि Rh+ रक्त वर्ग का रक्त Rh- रक्त वर्ग वाले व्यक्ति को दिया जाता हो, तो प्रथम बार कम मात्रा होने के कारण कोई प्रभाव नहीं पड़ता किन्तु अब दूसरी बार इसी प्रकार रक्ताधान किया गया तो अभिश्लेषण (Agglutination) के के कारण Rh वाले व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है।
◆ एरिथ्रोब्लास्टोसिस फोटेलिस (Erythroblastosis Fetalis) – यदि पिता का रक्त Rh+ हो तथा माता का रक्त Rh- हो तो जन्म लेने वाले शिशु की जन्म से पहले गर्भावस्था अथवा जन्म के तुरन्त बाद मृत्यु हो जाती है । ( ऐसा प्रथम संतान के बाद की संतान होने पर होता है ।)
ETC
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