जीव जनन कैसे करते हैं ? How Do Living Beings Reproduce ?
जीव जनन कैसे करते हैं ? How Do Living Beings Reproduce ?
जीवों में जनन
♦ हमें विभिन्न जीव इसीलिए दृष्टिगोचर होते हैं, क्योंकि वे जनन करते हैं। यदि वह जीव एकल होता तथा कोई भी जनन द्वारा अपने सदृश व्यष्टि उत्पन्न नहीं करता, तो सम्भव है कि हमें उनके अस्तित्व का पता भी नहीं चलता।
♦ जीव अपनी जाति का अस्तित्व बनाए रखने के लिए जनन करते हैं।
♦ जीव जनन कर जिसका सृजन करते हैं, उन्हें उनकी सन्तति कहा जाता है, जो बहुत सीमा तक उनके समान दिखते हैं।
♦ जनन की मूल घटना DNA की प्रतिकृति बनाना है। DNA की प्रतिकृति बनाने के लिए कोशिकाएँ विभिन्न रासायनिक क्रियाओं का उपयोग करती हैं। जनन कोशिका में इस प्रकार DNA की दो प्रतिकृतियाँ बनती है तथा उनका एक-दूसरे से अलग होना आवश्यक है, परन्तु DNA की एक प्रतिकृति को मूल कोशिका में रखकर दूसरी प्रतिकृति को उससे बाहर निकाल देने से काम नहीं चलेगा क्योंकि दूसरी प्रतिकृति के पास जैव-प्रक्रमों के अनुरक्षण हेतु संगठित कोशिकीय संरचना तो नहीं होगी। इसलिए DNA की प्रतिकृति बनने के साथ-साथ दूसरी कोशिकीय संरचनाओं का सृजन भी होता रहता है, इसके बाद DNA की प्रतिकृतियाँ विलग हो जाती हैं। परिणामतः एक कोशिका विभाजित होकर दो कोशिकाएँ बनाती है।
♦ सन्तति कोशिकाएँ समान होते हुए भी किसी न किसी रूप में एक-दूसरे से भिन्न होती हैं। जनन में होने वाली यह विभिन्नताएँ जैव-विकास का आधार हैं।
विभिन्नता का महत्त्व
♦ अपनी जनन क्षमता का उपयोग कर जीवों की समष्टि पारितन्त्र में स्थान अथवा आवास ग्रहण करते हैं। जनन के दौरान DNA प्रतिकृति का अविरोध जीव की शारीरिक संरचना एवं डिजाइन के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, जो उसे विशिष्ट आवास के योग्य बनाती है। अतः किसी प्रजाति की समष्टि के स्थायित्व का सम्बन्ध जनन से है।
♦ आवास में अनेक परिवर्तन आ सकते हैं, जो जीवों के नियन्त्रण से बाहर होते हैं, ऐसी स्थितियों में विभिन्नताएँ प्रजातियों की उत्तरजीविता बनाए रखने में उपयोगी होती हैं।
एकल जीवों में प्रजनन की विधि
♦ विखण्डन एककोशिकीय जीवों में कोशिका विभाजन अथवा विखण्डन द्वारा नये जीवों की उत्पत्ति होती है। विखण्डन के अनेक तरीके प्रेक्षित किए गए हैं। अनेक जीवाणु तथा प्रोटोजोआ की कोशिका विभाजन द्वारा सामान्यतया दो बराबर भागों में विभक्त हो जाता है। अमीबा, जैसे जीवों में कोशिका विभाजन किसी भी तल से हो सकता है। परन्तु कुछ एककोशिकीय जीवों में शारीरिक संरचना अधिक संगठित होती है। उदाहरणतया काल-अजार के रोगाणु, लीश्मानिया में कोशिका के एक सिरे पर कोड़े के समान सूक्ष्म संरचना होती है। ऐसे जीवों में द्विखण्डन एक निर्धारित तल से होता है। मलेरिया परजीवी, प्लाज्मोडियम, जैसे अन्य एककोशिकीय जीव एक साथ अनेक सन्तति कोशिकाओं में विभाजित हो जाते हैं, जिसे बहुखण्डन कहते हैं।
बहुकोशिकीय जीवों में प्रजनन की विधि
♦ खण्डन सरल संरचना वाले बहुकोशिकीय जीवों में जनन की सरल विधि कार्य करती हैं। उदाहरणतया स्पाइरोगाइरा सामान्यतया विकसित होकर छोटे-छोटे टुकड़ों में खण्डित हो जाता है। यह टुकड़े अथवा खण्ड वृद्धि कर नये जीव में विकसित हो जाते हैं।
♦ परन्तु खण्डन सभी बहुकोशिकीय जीवों के लिए सत्य नहीं है। वे सरल रूप से कोशिका-दर-कोशिका विभाजित नहीं होते, क्योंकि अधिकतर बहुकोशिकीय जीव विभिन्न कोशिकाओं का समूह मात्र ही नहीं है। विशेष कार्य हेतु विशिष्ट कोशिकाएँ संगठित होकर ऊतक का निर्माण करती हैं तथा ऊतक संगठित होकर अंग बनाते हैं, शरीर में इनकी स्थिति भी निश्चित होती है। ऐसी सजग व्यवस्थित परिस्थिति में कोशिका-दर-कोशिका विभाजन अव्यावहारिक है। अतः बहुकोशिकीय जीवों को जनन के लिए अपेक्षाकृत अधिक जटिल विधि की आवश्यकता होती है।
♦ बहुकोशिकीय जीवों द्वारा प्रयुक्त एक सामान्य युक्ति यह है कि विभिन्न प्रकार की कोशिकाएँ विशिष्ट कार्य के लिए दक्ष होती हैं। इस सामान्य व्यवस्था का परिपालन करते हुए इस प्रकार के जीवों में जनन के लिए विशिष्ट प्रकार की कोशिकाएँ होती हैं।
♦ पुनरुद्भवन (पुनर्जनन) पूर्णरूपेण विभेदित जीवों में अपने कायिक भाग से नये जीव के निर्माण की क्षमता होती है। अर्थात् यदि किसी कारणवश जीव क्षत-विक्षत हो जाता है अथवा कुछ टुकड़ों में टूट जाते हैं, तो इसके अनेक टुकड़े वृद्धि कर नये जीव में विकसित हो जाते हैं। उदाहरणतया हाइड्रा तथा प्लेनेरिया जैसे सरल प्राणियों को यदि कई टुकड़ों में काट दिया जाए तो प्रत्येक टुकड़ा विकसित होकर पूर्णजीव का निर्माण कर देता है। यह पुनरुद्भवन कहलाता है। पुनरुद्भवन ( पुनर्जनन) विशिष्ट कोशिकाओं द्वारा सम्पादित होता है। इन कोशिकाओं के क्रमप्रसरण से अनेक कोशिकाएँ बन जाती हैं। कोशिकाओं के इस समूह से परिवर्तन के दौरान विभिन्न प्रकार की कोशिकाएँ एवं ऊतक बनते हैं। यह परिवर्तन बहुत व्यवस्थित रूप एवं क्रम से होता है जिसे परिवर्धन कहते हैं। परन्तु पुनरुद्भवन जनन के समान नहीं है इसका मुख्य कारण यह है कि प्रत्येक जीव के किसी भी भाग को काट कर सामान्यतया नया जीव उत्पन्न नहीं होता।
♦ मुकुलन हाइड्रा जैसे कुछ प्राणी पुनर्जनन की क्षमता वाली कोशिकाओं का उपयोग मुकुलन के लिए करते हैं। हाइड्रा में कोशिकाओं के नियमित विभाजन के कारण एक स्थान पर उभार विकसित हो जाता है। यह उभार (मुकुल) वृद्धि करता हुआ छोटे जीव में बदल जाता है तथा पूर्ण विकसित होकर जनक से अलग होकर स्वतन्त्र जीव बन जाता है।
♦ कायिक प्रवर्धन ऐसे बहुत से पौधे हैं जिनमें कुछ भाग जैसे जड़, तना तथा पत्तियाँ उपयुक्त परिस्थितियों में विकसित होकर नया पौधा उत्पन्न करते हैं। अधिकतर जन्तुओं के विपरीत, एकल पौधे इस क्षमता का उपयोग जनन की विधि के रूप में करते हैं। परतन, कलम अथवा रोपण जैसी कायिक प्रवर्धन की तकनीक का उपयोग कृषि में भी किया जाता है। गन्ना, गुलाब अथवा अंगूर इसके कुछ उदाहरण हैं। कायिक प्रवर्धन द्वारा उगाए गए पौधों में बीज द्वारा उगाए पौधों की अपेक्षा पुष्प एवं फल कम समय में लगने लगते हैं। यह पद्धति केला, सन्तरा, गुलाब एवं चमेली जैसे उन पौधों को उगाने के लिए उपयोगी है, जो बीज उत्पन्न करने की क्षमता खो चुके हैं। कायिक प्रवर्धन का दूसरा लाभ यह भी है कि इस प्रकार उत्पन्न सभी पौधे आनुवंशिक रूप से जनक पौधे के समान होते हैं।
ऊतक संबर्धन
ऊतक संवर्धन तकनीक में पौधे के ऊतक अथवा उसकी कोशिकाओं को पौधे के शीर्ष के वृद्धिमान भाग से पृथक कर नए पौधे उगाए जाते हैं। इन कोशिकाओं को कृत्रिम पोषक माध्यम में रखा जाता है जिससे कोशिकाएँ विभाजित होकर अनेक कोशिकाओं का छोटा समूह बनाती हैं जिसे कैलस कहते हैं। कैलस को वृद्धि एवं विभेदन को हॉर्मोन युक्त एक अन्य माध्यम में स्थानान्तरित करते हैं। पौधे को फिर मिट्टी में रोप देते हैं जिससे कि वे वृद्धि कर विकसित पौधे बन जाते हैं। ऊतक संवर्धन तकनीक द्वारा किसी एकल पौधे से अनेक पौधे संक्रमण मुक्त परिस्थितियों में उत्पन्न किए जा सकते हैं। इस तकनीक का उपयोग सामान्यतया सजावटी पौधों के संवर्धन में किया जाता है।
♦ बीजाणु समासंघ अनेक सरल बहुकोशिकीय जीवों में भी विशिष्ट जनन संरचनाएँ पाई जाती हैं। ब्रेड को कुछ दिनों तक छोड़ने पर इस पर धागे के समान कुछ संरचनाएँ विकसित हो जाती हैं, यह राइजोपस का कवक जाल होता है। ये जनन के भाग नहीं है, परन्तु ऊर्ध्व तन्तुओं पर सूक्ष्म गुच्छ संरचनाएँ जनन में भाग लेती हैं। ये गुच्छ बीजाणुधानी हैं जिनमें विशेष कोशिकाएँ अथवा बीजाणु पाए जाते हैं। यह बीजाणु वृद्धि करके राइजोपस के नए जीव उत्पन्न करते हैं। बीजाणु के चारों ओर एक मोटी भित्ति होती है, जो प्रतिकूल परिस्थितियों में उसकी रक्षा करती है, नम सतह के सम्पर्क में आने पर वह वृद्धि करने लगते हैं।
♦ उपरोक्त वर्णित जनन की सभी विधियों में नई पीढ़ी का सृजन केवल एकल जीव द्वारा होता है। इसे अलैंगिक जनन कहते हैं।
लैंगिक जनन
♦ जनन की वह विधि, जिसमें नई सन्तति उत्पन्न करने हेतु दो व्यष्टि (एकल जीवों) की भागीदारी होती है, उसे लैंगिक जनन कहते हैं। इस विधि में जीवों को नवीन सन्तति उत्पन्न करने हेतु नर एवं मादा दोनों लिंगों की आवश्यकता होती है।
♦ लैंगिक जनन प्रणाली क्यों? प्रत्येक DNA प्रतिकृति में नई विभिन्नता के साथ-साथ पूर्व पीढ़ियों की विभिन्नताएँ भी संग्रहित होती रहती हैं। अतः समष्टि के दो जीवों में संग्रहित विभिन्नताओं के पैटर्न भी काफी भिन्न होंगे, क्योंकि यह सभी विभिन्नताएँ जीवित व्यष्टि में पाई जा रही हैं, अतः यह सुनिश्चित ही है कि यह विभिन्नताएँ हानिकारक नहीं हैं। दो अथवा अधिक एकल जीवों की विभिन्नताओं के संयोजन से विभिन्नताओं के नये संयोजन उत्पन्न होंगे। क्योंकि इस प्रक्रम में दो विभिन्न जीव भाग लेते हैं अतः प्रत्येक संयोजन अपने आप में अनोखा होगा।
♦ लैंगिक जनन में दो भिन्न जीवों से प्राप्त DNA को समाहित किया जाता है, परन्तु इससे एक और समस्या पैदा हो सकती है। यदि सन्तति पीढ़ी में जनक जीवों के DNA का युग्मन होता रहे, तो प्रत्येक पीढ़ी में DNA की मात्रा पूर्व पीढ़ी की अपेक्षा दोगुनी होती जाएगी। इससे DNA द्वारा कोशिकीय संगठन पर नियन्त्रण टूटने की अत्यधिक सम्भावना है। इसके अतिरिक्त यदि प्रत्येक पीढ़ी में DNA की मात्रा दोगुनी होती गई तो कुछ समय बाद इस धरती पर केवल DNA ही मिलेगा तथा किसी अन्य वस्तु के लिए कोई स्थान ही नहीं बचेगा। इस समस्या का समाधान जीवों ने इस प्रकार खोजा ने जिसमें विशिष्ट अंगों में कुछ विशेष प्रकार की कोशिकाओं की परत होती है जिनमें जीव की कायिक कोशिकाओं की अपेक्षा गुणसूत्रों की संख्या आधी होती है तथा DNA की मात्रा भी आधी होती है। अतः दो भिन्न जीवों की यह युग्मक कोशिकाएँ लैंगिक जनन में युग्मन द्वारा युग्मनज (जाइगोट) बनाती हैं, तो सन्तति में गुणसूत्रों की संख्या एवं DNA की मात्रा पुनर्स्थापित हो जाती है।
♦ यदि युग्मनज वृद्धि एवं परिवर्धन द्वारा नए जीव में विकसित होता है तो इसमें ऊर्जा का भण्डार भी पर्याप्त होना चाहिए। अति सरल संरचना वाले जीवों में प्राय: दो जनन कोशिकाओं (युग्मकों) की आकृति एवं आकार में विशेष अन्तर नहीं होता अथवा वे समाकृति भी हो सकते हैं, परन्तु जैसे ही शारीरिक डिजाइन अधिक जटिल होता है, जनन कोशिकाएँ भी विशिष्ट हो जाती हैं। एक जनन-कोशिका अपेक्षाकृत बड़ी होती है एवं उसमें भोजन का पर्याप्त भण्डार भी होता है जबकि दूसरी अपेक्षाकृत छोटी एवं अधिक गतिशील होती है।
♦ गतिशील जनन-कोशिका को नर युग्मक तथा जिस जनन कोशिका में भोजन का भण्डार संचित होता है उसे मादा युग्मक कहते हैं। इन दो प्रकार के युग्मकों के सृजन की आवश्यकता ने नर एवं मादा व्यष्टियों में विभेद उत्पन्न किए हैं तथा कुछ जीवों में नर एवं मादा में शारीरिक अन्तर भी स्पष्ट दृष्टिगोचर होते हैं।
पुष्पी पौधों में लैंगिक जनन
♦ आवृतबीजी (एंजियोस्पर्म) के जननांग पुष्प में अवस्थित होते हैं।
♦ पुष्प के विभिन्न भाग होते हैं— बाह्यदल, दल ( पंखुड़ी), पुंकेसर एवं स्त्रीकेसर। पुंकेसर एवं स्त्रीकेसर पुष्प के जनन भाग हैं, जिनमें -कोशिकाएँ होती हैं। जनन
♦ जब पुष्प में पुंकेसर अथवा स्त्रीकेसर में से कोई एक जननांग उपस्थित होता है, तो पुष्प एकलिंगी कहलाते हैं (पपीता, तरबूज) ।
♦ जब पुष्प में पुंकेसर एवं स्त्रीकेसर दोनों उपस्थित होते हैं, (गुड़हल, सरसों) तो उन्हें उभयलिंगी पुष्प कहते हैं।
♦ पुंकेसर नर जननांग है, जो परागकण बनाते हैं। परागकण सामान्यतया पीले हो सकते हैं।
♦ स्त्रीकेसर पुष्प के केन्द्र में अवस्थित होता है तथा यह पुष्प का मादा जननांग है। यह तीन भागों से बना होता हैं।
♦ आधार पर उभरा या फूला हुआ भाग अण्डाशय है, मध्य में लम्बा भाग वर्तिका है तथा शीर्ष भाग वर्तिकाग्र है, जो प्रायः चिपचिपा होता है।
♦ अण्डाशय में बीजाण्ड होते हैं तथा प्रत्येक बीजाण्ड में एक अण्ड-कोशिका होती है। परागकण द्वारा उत्पादित नर युग्मक अण्डाशय की अण्डकोशिका (मादा युग्मक) से संलयित हो जाता है।
♦ जनन कोशिकाओं के इस युग्मन अथवा निषेचन से युग्मनज बनता है जिसमें नए पौधों में विकसित होने की क्षमता होती है।
♦ अतः परागकणों को पुंकेसर से वर्तिकाग्र तक स्थानान्तरण की आवश्यकता होती है।
♦ यदि परागकणों का यह स्थानान्तरण उसी पुष्प के वर्तिकाग्र पर होता है तो यह स्वपरागण कहलाता है, परन्तु एक पुष्प के परागकण दूसरे पुष्प पर स्थानान्तरित होते हैं तो उसे पर-परागण कहते हैं। एक पुष्प से दूसरे पुष्प तक परागकणों का यह स्थानान्तरण वायु, जल अथवा प्राणी जैसे वाहक द्वारा सम्पन्न होता है।
♦ परागकणों के उपयुक्त, वर्तिकाग्र पर पहुँचने के पश्चात् नर युग्मक को अण्डाशय में स्थित मादा-युग्मक तक पहुँचना होता है। इसके लिए परागकण से एक नलिका विकसित होती है तथा वर्तिका से होती हुई बीजाण्ड तक पहुँचती है। निषेचन के पश्चात युग्मनज में अनेक विभाजन होते हैं तथा बीजाण्ड में भ्रूण विकसित होता है।
♦ बीजाण्ड से एक कठोर आवरण विकसित होता है तथा यह बीज में परिवर्तित हो जाता है। अण्डाशय तीव्रता से वृद्धि करता है तथा परिपक्व होकर फल बनाता है। इस अन्तराल में बाह्यदल, पंखुड़ी, पुंकेसर, वर्तिका एवं वर्तिकाग्र प्रायः मुरझाकर गिर जाते हैं।
♦ बीज में भावी पौधा अथवा भ्रूण होता है, जो उपयुक्त परिस्थितियों में नवोद्भिद में विकसित हो जाता है। इस प्रक्रम को अंकुरण कहते हैं।
मानव में लैंगिक जनन
♦ मानव में किशोरावस्था के प्रारम्भिक वर्षों में कुछ ऐसे परिवर्तन होते हैं जिन्हें मात्र शारीरिक वृद्धि नहीं कहा जा सकता। इस अवस्था में, शारीरिक सौष्ठव बदल जाता है। शारीरिक अनुपात बदलता है, नये लक्षण आते हैं तथा संवेदना में भी परिवर्तन आते हैं। इनमें से कुछ परिवर्तन तो लड़के एवं लड़कियों में एक समान होते हैं जैसे, शरीर के कुछ नए भागों जैसे कि काँख एवं जाँघों के मध्य जननांगी क्षेत्र में बाल-गुच्छ निकल आते हैं तथा उनका रंग भी गहरा हो जाता है। पैर, हाथ एवं चेहरे पर भी महीन रोम आ जाते हैं। त्वचा अक्सर तैलीय हो जाती है तथा कभी-कभी मुँहासे भी निकल आते हैं हम अपने और दूसरों के प्रति अधिक सजग हो जाते हैं।
♦ किशोरावस्था में कुछ ऐसे भी परिवर्तन हैं, जो लड़कों एवं लड़कियों में भिन्न होते हैं। लड़कियों में स्तन के आकार में वृद्धि होने लगती है तथा स्तनाग्र की त्वचा का रंग भी गहरा होने लगता है। इस समय लड़कियों में रजोधर्म होने लगता है। लड़कों के चेहरे पर दाढ़ी-मूँछ निकल आती है तथा उनकी आवाज फटने लगती है। साथ ही दिवास्वप्न अथवा रात्रि में शिश्न भी अक्सर विवर्धन के कारण उर्ध्व हो जाता है। ये सभी परिवर्तन महीनों एवं वर्षों की अवधि में मन्द गति से होते हैं। ये परिवर्तन सभी व्यक्तियों में एक ही समय अथवा एक निश्चित आयु में नहीं होते। कुछ व्यक्तियों में ये परिवर्तन कम आयु में एवं तीव्रता से होते हैं जबकि अन्य में अत्यन्त मन्द गति से होते है। प्रत्येक परिवर्तन तीव्रता से पूर्ण भी नहीं होता।
♦ उपरोक्त सभी परिवर्तन शरीर की लैंगिक परिपक्वता के पहलू हैं।
♦ जैसे-जैसे शरीर की सामान्य वृद्धि दर धीमी होनी शुरू होती है, जनन- ऊतक परिपक्व होना प्रारम्भ करते हैं। किशोरावस्था की इस अवधि को यौवनारम्भ (Puberty) कहा जाता है।
♦ लैंगिक जनन प्रणाली का अर्थ है कि दो भिन्न व्यक्तियों की जनन कोशिकाओं का परस्पर संलयन। यह जनन कोशिकाओं के बाह्य – मोचन द्वारा हो सकता है जैसे कि पुष्पी पौधे में होता है। अथवा दो जीवों के परस्पर सम्बन्ध द्वारा जनन कोशिकाओं के आन्तरिक स्थानान्तरण द्वारा भी हो सकता है, जैसे कि अनके प्राणियों में होता है।
♦ यदि जन्तुओं को संगम के इस प्रक्रम में भाग लेना हो, तो यह आवश्यक है कि दूसरे जीव उनकी लैंगिक परिपक्वता की पहचान कर सके। यौवनारम्भ की अवधि में अनके परिवर्तन जैसे कि बालों का नवीन पैटर्न इस बात का संकेत है कि लैंगिक परिपक्वता आ रही है।
♦ दो व्यक्तियों के बीच जनन कोशिकाओं के वास्तविक स्थानान्तरण हेतु विशिष्ट अंग / संरचना की आवश्यकता होती है उदाहरण के लिए, शिश्न के ऊर्ध्व होने की क्षमता । स्तनधारियों जैसे कि मानव में शिशु माँ के शरीर में लम्बी अवधि तक गर्भस्थ रहता है तथा जन्मोपरान्त स्तनपान करता है। इन सभी स्थितियों के लिए मादा के जननांगों एवं स्तन का परिपक्व होना आवश्यक है।
नर जनन तन्त्र
♦ जनन कोशिका उत्पादित करने वाले अंग एवं जनन कोशिकाओं को निषेचन के स्थान तक पहुँचाने वाले अंग, संयुक्त रूप से, नर जनन तन्त्र बनाते हैं।
♦ नर जनन-कोशिका अथवा शुक्राणु का निर्माण वृषण में होता है। यह उदर गुहा के बाहर वृषण कोष में स्थित होते हैं। इसका कारण यह है कि शुक्राणु उत्पादन के लिए आवश्यक ताप शरीर के ताप से कम होता है। टेस्टोस्टेरॉन हॉर्मोन पुरुषों में शु के उत्पादन को नियन्त्रित करता है।
♦ शुक्राणु उत्पादन के नियन्त्रण के अतिरिक्त टेस्टोस्टेरॉन लड़कों में यौवनावस्था के लक्षणों का भी नियन्त्रण करता है।
♦ उत्पादित शुक्राणुओं का मोचन शुक्रवाहिकाओं द्वारा होता हैं। ये शुकवाहिकाएँ मूत्राशय से आने वाली नली से जुड़ कर एक संयुक्त नली बनाती हैं। अत: मूत्रमार्ग (Urethra) शुक्राणुओं एवं मूत्र के प्रवाह का उभय मार्ग है। प्रोस्टेंट तथा शुक्राशय अपने स्राव शुक्रवाहिका में डालते हैं जिससे शुक्राणु एक तरल माध्यम में आ जाते हैं। इसके कारण इनका स्थानान्तरण सरलता से होता है साथ ही यह स्राव उन्हें पोषण भी प्रदान करता है।
♦ शुक्राणु सूक्ष्म संरचनाएँ हैं जिसमें मुख्यतया आनुवंशिक पदार्थ होते हैं तथा एक लम्बी पूँछ होती है, जो उन्हें मादा जनन-कोशिका की ओर तैरने में सहायता करती है ।
मादा जनन तन्त्र
♦ मादा जनन-कोशिकाओं अथवा अण्ड-कोशिका का निर्माण अण्डाशय में होता है। वे कुछ हॉर्मोन भी उत्पादित करती हैं।
♦ लड़की के जन्म के समय ही अण्डाशय में हजारों अपरिपक्व अण्ड होते हैं। यौवनारम्भ में इनमें से कुछ परिपक्व होने लगते हैं।
♦ दो में से एक अण्डाशय द्वारा प्रत्येक माह एक अण्ड परिपक्व होता है।
♦ यदि अण्ड कोशिका का निषेचन नहीं है। तो यह लगभग एक दिन तक जीवित रहती है। क्योंकि अण्डाशय प्रत्येक माह एक अण्ड का मोचन करता है, अतः निषेचित अण्ड की प्राप्ति हेतु गर्भाशय भी प्रति माह तैयारी करता है। अतः इसकी अन्तःभित्ति मांसल एवं स्पंजी हो जाती है। यह अण्ड के निषेचन होने की अवस्था में उसके पोषण के लिए आवश्यक है, परन्तु निषेचन न होने की अवस्था में इस पर्त की भो आवश्यकता नहीं रहती। अतः यह पर्त धीर-धीरे टूट कर योनि मार्ग से रुधिर एवं म्यूकस के रूप में निष्कासित होती है। इस चक्र में लगभग एक मास का समय लगता है तथा इसे ऋतुस्राव अथवा रजोधर्म कहते हैं। इसकी अवधि लगभग 2 से 8 दिनों की होती है।
♦ महीन अण्ड वाहिका अथवा फेलोपियन ट्यूब द्वारा अण्ड कोशिका गर्भाशय तक ले जाई जाती हैं। दोनों अण्ड वाहिकाएँ संयुक्त होकर एक लचीली थैलेनुमा संरचना का निर्माण करती हैं जिसे गर्भाशय. कहते हैं। गर्भाशय ग्रीवा द्वारा योनि खुलता है।
♦ मैथुन के समय शुक्राणु योनि मार्ग में स्थापित होते हैं जहाँ से ऊपर की ओर यात्रा करके वे अण्ड वाहिक तक पहुँच जाते हैं, जहाँ अण्ड कोशिका से मिल सकते हैं। निषेचन के पश्चात निषेचित अण्ड अथवा युग्मनज गर्भाशय में स्थापित हो जाता है तथा विभाजित होने लगता है।
♦ माँ का शरीर गर्भधारण एवं उसके विकास के लिए विशेष रूप से अनुकूलित होता है। अत: गर्भाशय प्रत्येक माह भ्रूण को ग्रहण करने एवं उसके पोषण हेतु तैयारी करता है। इसकी आन्तरिक पर्त मोटो होती जाती है तथा भ्रूण के पोषण हेतु रुधिर प्रवाह भी बढ़ जाता है।
♦ भ्रूण को माँ के रुधिर से ही पोषण मिलता है, इसके लिए एक विशेष संरचना होती है जिसे प्लेसेन्टा कहते हैं। यह एक तश्तरीनुमा संरचना है, जो गर्भाशय की भित्ति में धँसी होती है। इसमें भ्रूण को ओर के ऊतक में प्रवर्ध होते हैं। माँ के ऊतकों में रिक्तस्थान होते हैं, जो प्रवर्ध को आच्छादित करते हैं। यह माँ से भ्रूण को ग्लूकोस, ऑक्सीजन एवं अन्य पदार्थों के स्थानान्तरण हेतु एक वृहद् क्षेत्र प्रदान करते हैं।
♦ विकासशील भ्रूण द्वारा अपशिष्ट पदार्थ उत्पन्न होते हैं जिनका निपटान उनमें प्लेसेन्टा के माध्यम से माँ के रुधिर में स्थानान्तरण द्वारा होता है। माँ के शरीर में गर्भ को विकसित होने में लगभग 9 माह का समय लगता है। गर्भाशय के पेशियों के लयबद्ध संकुचन से शिशु का जन्म होता है।
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