जीवों में विविधता Diversity in Living Organisms
जीवों में विविधता Diversity in Living Organisms
जीव जगत में विविधता
♦ हमारे आस-पास जीवों की बहुत सी किस्में होती हैं, ये किस्में, गमले में उगने वाले पौधे, कीट, पक्षी, पालतू अथवा अन्य प्राणी व पौधे हो सकती हैं। बहुत से ऐसे जीव भी होते हैं जिन्हें हम आँखों की सहायता से नहीं देख सकते, लेकिन वे हमारे आस-पास ही होते हैं।
♦ प्रत्येक प्रकार के पौधे, जन्तु अथवा जीव जिन्हें हम देखते हैं किसी एक जाति (स्पीशीज) का प्रतीक हैं।
♦ अब तक की ज्ञात तथा वर्णित जाति की संख्या लगभग 1.7 मिलियन से लेकर 1.8 मिलियन तक हो सकती है। जीवन की इसी विविधता को हम जैविक विविधता अथवा पृथ्वी पर स्थित जीवों की संख्या तथा प्रकार कहते हैं।
♦ प्रत्येक जीव का एक मानक नाम होता है, जिससे वह उसी नाम से सारे विश्व में जाना जाता है। इस प्रक्रिया को नाम पद्धति कहते हैं। स्पष्टतः नाम-पद्धति तभी सम्भव है जब जीवों का वर्णन सही हो और हम यह जानते हैं कि यह नाम किस जीव का है। इसे पहचानना कहते हैं।
प्राणियों का नामकरण
♦ प्राणी वर्गिकीविदों ने इन्टरनेशनल कोड ऑफ जूलोजिकल नोमेनक्लेचर (ICZN) बनाया है। वैज्ञानिक नाम की यह गारन्टी है कि प्रत्येक जीव का एक ही नाम रहे। किसी भी जीव के वर्णन से विश्व में किसी भी भाग में लोग एक ही नाम बता सकें। वे यह भी सुनिश्चित करते हैं कि एक ही नाम किसी दूसरे ज्ञात जीव का न हो।
♦ जीव विज्ञानी ज्ञात जीवों के वैज्ञानिक नाम देने के लिए सार्वजनिक मान्य नियमों का पालन करते हैं। प्रत्येक नाम के दो घटक होते हैं: वंशनाम तथा जाति संकेत पद । इस प्रणाली को जिसमें दो नाम के दो घटक होते हैं, उसे द्विपदनाम पद्धति कहते हैं। इस नामकरण प्रणाली को कैरोलस लिनियस ने सुझाया था। इसका उपयोग सारे विश्व के जीवविज्ञानी करते हैं। दो शब्दों वाली नामकरण प्रण बहुत सुविधाजनक है।
जीवों के वर्गीकरण से सम्बन्धित पद
♦ यद्यपि सभी जीवों का अध्ययन करना लगभग असम्भव है, इसलिए ऐसी युक्ति बनाने की आवश्यकता है, जो इसे सम्भव कर सके। इस प्रक्रिया को वर्गीकरण कहते हैं।
♦ वर्गीकरण वह प्रक्रिया है जिसमें कुछ सरलता से दृश्य गुणों के आधार पर सुविधाजनक वर्ग में वर्गीकृत किया जा सके। गुण के अन्तर्गत प्रकार, रचना, कोशिका की रचना, विकासीय प्रक्रम तथा जीव की पारिस्थितिक सूचनाएँ आवश्यक हैं और ये आधुनिक वर्गीकरण अध्ययन के आधार हैं।
♦ स्पीशीज (प्रजाति) वर्गिकी अध्ययन में जीवों के वर्ग, जिसमें मौलिक समानता होती है, उसे स्पीशीज कहते हैं। हम किसी भो प्रजाति को उसमें समीपस्थ सम्बन्धित प्रजाति से उनके आकारिकीय विभिन्नता के आधार पर उन्हें एक-दूसरे से अलग कर सकते हैं। मानव की जाति सेपियन्स है, जो होमो वंश में आता है। इसलिए मानव का वैज्ञानिक नाम होमो सेपियन्स है।
♦ वंश वंश में सम्बन्धित प्रजाति का एक वर्ग आता है जिसमें प्रजाति के गुण अन्य वंश में स्थित प्रजाति की तुलना में समान होते हैं। हम कह सकते हैं कि वंश समीपस्थ सम्बन्धित प्रजाति का एक समूह है। उदाहरणार्थ आलू, टमाटर तथा बैगन ये तीन अलग-अलग प्रजाति हैं, लेकिन ये सभी सोलेनम वंश में आती हैं। शेर ( पेन्थर? लिओ), चीता (पेन्थर पारडस) तथा ( पेन्थर टिगरिस) जिनमें बहुत से गुण हैं, वे सभी पेन्थरा वंश में आते हैं। यह वंश दूसरे वंश फेलिस, जिसमें बिल्ली आती है, से भिन्न है।
♦ कुल अगला संवर्ग कुल है जिसमें सम्बन्धित वंश आते हैं। वंश प्रजाति की तुलना में कम समानता प्रदर्शित करते हैं। कुल के वर्गीकरण का आधार पौधे के कानिक तथा जनन गुण है। उदाहरणार्थ पौधे में तीन विभिन्न वंश सोलेनम पेिटूनिआ तथा धतूरा को सोलेनेसी कुल में रखते हैं। जबकि प्राणी वंश पेन्थरा जिसमें शेर, बाघ, चीता आते हैं को फलिस (बिल्ली) के साथ फेलिडी कुल में रखे जाते हैं।
♦ गण संवर्ग, जैसे स्पीशीज, वंश तथा कुल समान तीनों लक्षणों पर आधारित है। प्राय: गण तथा अन्य उच्चतर वर्गिकी सवर्ग को पहचान लक्षणों के समूहन के आधार पर करते हैं। गण में उच्चतर वर्ग होने के कारण कुलों के समूह होते हैं, जिनके कुछ लक्षण एक समान होते हैं। इसमें एक जैसे लक्षण कुल में शामिल विभिन्न वंश की अपेक्षा कम होते हैं।
♦ वर्ग इस संवर्ग में सम्बन्धित गण आते हैं। उदाहरणार्थ प्राइमेटा गण जिसमें बन्दर, गोरिला तथा गिब्बॉन आते हैं, और कारनीवोरा गण जिसमें बाघ, बिल्ली तथा कुत्ता आते हैं, को मैमेलिया वर्ग में रखा गया है। इसके अतिरिक्त मैमेलिया वर्ग में अन्य गण भी आते हैं।
♦ संघ वर्ग जिसमें जन्तु जैसे मछली, उभयचर, सरीसृप, पक्षी तथा स्तनधारी आते हैं, अगले उच्चतर संवर्ग, जिसे संघ कहते हैं, का निर्माण करते हैं। इन सभी को एक समान गुणों जैसे पृष्ठरज्जु तथा पृष्ठीय खोखला तन्त्रिका तन्त्र के होने के आधार पर कॉर्डेटा संघ में रखा गया है। पौधे में इन वर्गों, जिसमें कुछ ही में एक समान लक्षण होते हैं, को उच्चतर संवर्ग भाग (डिविजन) में रखा जाता है।
♦ जगत जन्तु के वर्गिकी तन्त्र में विभिन्न संघों के सभी प्राणियों को उच्चतम संवर्ग जगत में रखा गया है। जबकि पादप जगत में विभिन्न भाग (डिविजन) के सभी पौधों को रखा गया है। विभिन्न संघों के सभी प्राणियों को एक अलग जगत एनिमेलिया में रखा गया है जिससे कि उन्हें पौधों से अलग किया जा सके। पौधों को प्लाण्टी जगत में रखा गया है ।
जीव जगत का वर्गीकरण
♦ सन् 1969 में आर.एच. व्हिटेकर द्वारा एक पाँच जगत वर्गीकरण की पद्धति प्रस्तावित की गई थी। इस पद्धति के अन्तर्गत सम्मिलित किए जाने वाले जगतों के नाम मॉनेरा, प्रोटिस्टा, फंजाई, प्लाण्टी एवं एनिमैलिया हैं।
♦ कोशिका संरचना, थैलस संरचना, पोषण की प्रक्रिया, प्रजनन एवं जातिवृत्तीय सम्बन्ध उनके वर्गीकरण की पद्धति के प्रमुख मानदण्ड थे।
मॉनेरा जगत
♦ सभी बैक्टीरिया मॉनेरा जगत अन्तर्गत आते हैं।
♦ ये सूक्ष्मजीवियों में सर्वाधिक संख्या में होते हैं और लगभग सभी स्थानों पर पाए जाते हैं।
♦ मुट्ठी भर मिट्टी में सैकड़ों प्रकार के बैक्टीरिया देखे गए हैं। ये गर्म जल के झरनों, मरुस्थल, बर्फ एवं गहरे समुद्र, जैसे-विषम एवं प्रतिकूल वास स्थानों, जहाँ दूसरे जीव मुश्किल से ही जीवित रह पाते हैं, में भी पाए जाते हैं।
♦ कई बैक्टीरिया तो अन्य जीवों पर या उनके भीतर परजीवी के रूप में रहते हैं।
♦ बैक्टीरिया को उनके आकार के आधार पर चार समूहों गोलाकार कोकस (बहुवचन-कोकाई), छड़ाकार बैसिलस
(बहुवचन-बैसिलाई), कॉमा-आकार के, विब्रियम (बहुवचन – विब्रियाँ) तथा सर्पिलाकार स्पाइरिलम (बहुवचन स्पाइरिला) में बाँटा गया है।
प्रोटिस्टा जगत
♦ सभी एककोशिकीय यूकैफरियोटिक को प्रोटिस्टा के अन्तर्गत रखा गया है, परन्तु इस जगत की सीमाएँ ठीक तरह से निर्धारित नहीं हो पाई हैं।
♦ एक जीव वैज्ञानिक के लिए जो ‘प्रकाश-संश्लेषी प्रोटिस्टा’ है, वही दूसरे के लिए ‘एक पादप’ हो सकता है।
♦ क्राइसाफाइट, डायनोफलैजिलेट, युग्लीनॉइड, अवपंक कवक एवं प्रोटोजोआ सभी को प्रोटिस्टा के अन्तर्गत रखा गया है। प्राथमिक रूप से प्रोटिस्टा के सदस्य जलीय होते हैं।
♦ यूकैरियोटिक होने के कारण इनकी कोशिका में एक सुसंगठित केन्द्रक एवं अन्य झिल्लीबद्ध कोशिकांग पाए जाते हैं। कुछ प्रोटिस्टा में कशाभ एवं पक्षाभ भी पाए जाते हैं। ये अलैंगिक तथा कोशिका संलयन एवं युग्मनज (जाइगोट) बनने की विधि द्वारा लैंगिक प्रजनन करते हैं।
कवक (फंजाई) जगत
♦ परपोषी जीवों में कवक का जीव जगत में विशेष अद्भुत स्थान है। इनकी आकारिकी तथा वास स्थानों में बहुत भिन्नता होती है।
♦ रोटी अथवा सन्तरे का सड़ना कवक के कारण होता है।
♦ सामान्य छत्रक (मशरूम) तथा कुकुरमुत्ता (टोडस्टूल) भी कवक हैं।
♦ कवक की कोशिका भित्ति काइटिन तथा पॉलिसैकेराइड की बनी होती है।
♦ अधिकांश कवक परपोषित होती हैं। वे मृत बस्ट्रेट्स से घुलनशील कार्बनिक पदार्थों को अवशोषित कर लेती हैं, अतः इन्हें मृतजीवी कहते हैं।
♦ जो कवक सजीव पौधों तथा जन्तुओं पर निर्भर करती हैं, उन्हें परजीवी कहते हैं।
♦ जो शैवाल तथा लाइकेन के साथ तथा उच्चवर्गीय पौधों के साथ कवक मूल बना कर भी रह सकते हैं, ऐसी कवक सहजीवी कहलाती हैं।
♦ कवक में जनन कायिक खण्डन, विखण्डन, तथा मुकुलन विधि द्वारा होता है।
पादप जगत
♦ (प्लाण्टी किंगडम) पादप जगत में वे सभी जीव आते हैं, जो यूकैरियोटिक हैं और जिनमें पर्णहरति होते हैं। ऐसे जीवों को पादप कहते हैं।
♦ इनमें से कुछ पादप जैसे कीटभक्षी पौधे तथा परजीवी आंशिक रूप से विषमपोषी होते हैं।
♦ ब्लेडरवर्ट तथा वीनस फ्लाईट्रेप कीटभक्षी पौधे के और अमरबेल (कसकुटा) परजीवी का उदाहरण है।
♦ पादप कोशिका में कोशिका भित्ति होती है, जो सेलुलोज की बनी होती है।
♦ पादप जगत में शैवाल, ब्रायोफाइट, टैरिडोफाइट, अनावृतबीजी तथा आवृतबीजी आते हैं।
♦ पादप के जीवन चक्र में दो सुस्पष्ट अवस्थाएँ द्विगुणित बीजाणुद्भिद् तथा अगुणित युग्मकोद्भिद् होती हैं। इन दोनों में पीढ़ी एकान्तरण होता है।
♦ पादप जगत का वर्गीकरण दो वर्गों में किया गया है – अपुष्पोद्भिद् (क्रिप्टोगेम्स) एवं पुष्पोद्भिद (फेनेरोगेम्स) ।
♦ अपुष्पोद्भिद् पौधों में बीजधारण की क्षमता नहीं होती, जबकि पुष्पोद्भिद् पौधों में बीजधारण की क्षमता होती है।
♦ अपुष्पोद्भिद् पौधों के अन्तर्गत थैलोफाइटा ब्रायोफाइटा एवं टेरिडोफाइटा आते हैं।
♦ पुष्पोद्भिद् पौधों के अन्तर्गत नग्नबीजी (अनावृतबीजी) एवं अनग्नबीजी (आवृतबीजी) आते हैं।
♦ थैलोफाइट
♦ यह वनस्पति जगत का सबसे बड़ा समूह है।
♦ इन पौधों की शारीरिक संरचना में विभेदीकरण नहीं पाया जाता है।
♦ इस समूह के पौधों का शरीर सूकाय (थैलस) होता है, अर्थात् पौधे जड़, तना एवं पत्ती में विभक्त नहीं होते।
♦ इस वर्ग के पौधों को सामान्यतया शैवाल कहा जाता है।
♦ ये मुख्य रूप से जल में पाए जाते हैं।
♦ यूलोथ्रिक्स, स्पाइरोगाइरा, कारा आदि थैलोफाइटा वर्ग के पौधों के उदाहरण हैं।
♦ ब्रायोफाइटा
♦ इस वर्ग के पौधों को पादप वर्ग का उभयचर (एम्फीबिया) भी कहा जाता है।
♦ यह पादप, तना और पत्ती जैसी संरचना में विभाजित नहीं होता।
♦ इनमें संवहन के लिए जाइलम एवं फ्लोएम ऊतकों का अभाव होता है।
♦ इस समुदाय के पौधे मृदा अपरदन रोकने में सहायक होते हैं।
♦ मॉस, मार्केशिया आदि ब्रायोफाइटा के उदाहरण हैं।
♦ टेरिडोफाइटा
♦ इस वर्ग के पौधों का शरीर जड़, तना तथा पत्ती में विभाजित होता है।
♦ इनमें संवहन ऊतक पाए जाते हैं।
♦ ये पौधे बीजाणुजनक होते हैं और जनन की क्रिया बीजाणु के द्वारा होती है।
♦ अनावृतबीजी
♦ नग्न बीज उत्पन्न करने वाले पौधों को अनावृतबीजी वर्ग के अन्तर्गत रखा जाता है।
♦ ये पौधे काष्ठीय, बहुवर्षीय तथा लम्बे होते हैं।
♦ इनमें परागण की क्रिया वायु के द्वारा होती है।
♦ पाइनस एवं साइकस अनावृतबीजी के उदाहरण हैं।
♦ आवृतबीजी
♦ इस वर्ग के पौधों में फल के भीतर बीज उत्पन्न होते हैं। इसलिए इन्हें एन्जियोस्पर्म अर्थात् आवृतबीजी कहा जाता है।
♦ इस वर्ग के पौधों में जड़, पत्ती, फूल, फल एवं बीज सभी पूर्ण विकसित होते हैं।
♦ बीजपत्रों की संख्या के आधार पर इस वर्ग के पौधों को दो उपवर्गों एकबीजपत्री एवं द्विबीजपत्री में विभाजित किया गया है।
♦ एकबीजपत्री पौधों के बीजों में एक पत्र होते हैं। नारियल, गेहूँ, मक्का, लहसुन, प्याज, चावल आदि एकबीजपत्री पौधों के उदाहरण हैं।
♦ द्विबीजपत्री पौधों के बीजों में दो पत्र होते हैं। मूली, कपास, सभी दलहन फसल, नींबू, मिर्च आदि द्विबीजपत्री पौधों के उदाहरण हैं।
जन्तु जगत (एनिमेलिया किंगडम)
♦ जन्तु जगत को दो उप-समूहों में विभाजित किया गया है – एककोशिकीय प्राणी एवं बहुकोशिकीय प्राणी।
♦ इस जगत के जीव भोजन के लिए परोक्ष तथा अपरोक्ष रूप से पौधों पर निर्भर रहते हैं। ये अपने भोजन को एक आन्तरिक गुहिका में पचाते हैं और भोजन को ग्लाइकोजन अथवा वसा के रूप में संग्रहण करते हैं।
♦ इनमें प्राणी समपोषण अर्थात् भोजन, का अन्तर्ग्रहण करना होता है। उनमें वृद्धि का एक निर्दिष्ट पैटर्न होता है और वे एक पूर्ण वयस्क जीव बन जाते हैं जिसकी सुस्पष्ट आकृति तथा माप होती है।
♦ उच्चकोटि के जीवों में विस्तृत संवेदी तथा तन्त्रिका प्रेरक क्रियाविधि विकसित होती है। इनमें से अधिकांश चलन करने में सक्षम होते हैं।
♦ लैंगिक जनन नर तथा मादा के संगम से होता है और बाद में उसमें भ्रूण का विकास होता है।
♦ बहुकोशिकीय जन्तुओं को 10 संघों में विभाजित किया गया है—पोरीफेरा, सीलेन्ट्रेटा, प्लेटीहेल्मिन्थीज, निमेटोडा, एनीलिडा, आर्थ्रोपोडा, मोलस्का, इकाइनोडर्मेटा, प्रोटोकॉडेंटा और कॉडेंटा।
पोरीफेरा
♦ पोरीफेरा का अर्थ-छिद्र युक्त जीवधारी है।
♦ ये अचल जीव हैं, जो किसी आधार से चिपके रहते हैं। इनके पूरे शरीर में अनेक छिद्र पाए जाते हैं। ये छिद्र शरीर में उपस्थित नाल प्रणाली से जुड़े होते हैं, जिसके माध्यम से शरीर में जल, ऑक्सीजन और भोज्य पदार्थों का संचरण होता है।
♦ इनका शरीर कठोर आवरण अथवा बाह्य कंकाल से ढका होता है।
♦ इनकी शारीरिक संरचना अत्यन्त सरल होती है, जिनमें ऊतकों का विभेदन नहीं होता है। इन्हें सामान्यतया स्पंज के नाम से जाना जाता है, जो बहुधा समुद्री आवास में पाए जाते हैं। उदाहरणार्थसाइकॉन, यूप्लेक्टेला, स्पांजिला इत्यादि।
सीलेन्ट्रेटा
♦ ये जलीय जन्तु हैं।
♦ इनका शारीरिक संगठन ऊतकीय स्तर का होता है।
♦ इनमें एक देहगुहा पाई जाती है।
♦ इनका शरीर कोशिकाओं की दो परतों (आन्तरिक एवं बाह्य परत) का बना होता है।
♦ इनकी कुछ जातियाँ समूह में रहती हैं, (जैसे- कोरल) और कुछ एकाकी होती है (जैसे- हाइड्रा ) | हाइड्रा, समुद्री एनीमोन, जेलीफिश इत्यादि सीलेन्ट्रेटा के उदाहरण हैं।
प्लेटीहेल्मिन्थीज
♦ इस वर्ग के जन्तुओं की शारीरिक संरचना अधिक जटिल होती है।
♦ इनका शरीर द्विपार्श्वसममित होता है अर्थात् शरीर के दाएँ और बाएँ भाग की संरचना समान होती है।
♦ इनका शरीर त्रिकोरक (triploblastic) होता है अर्थात् इनका ऊतक विभेदन तीन कोशिकीय स्तरों से हुआ है। इससे शरीर में बाह्य तथा आन्तरिक दोनों प्रकार के अस्तर बनते हैं तथा इनमें कुछ अंग भी बनते हैं।
♦ इनमें वास्तविक देहगुहा का अभाव होता है जिसमें सुविकसित अंग व्यवस्थित हो सकें।
♦ इनका शरीर पृष्ठधारीय एवं चपटा होता है। इसलिए इन्हें चपटे कृमि भी कहा जाता है।
♦ इसके अन्तर्गत प्लेनेरिया, जैसे कुछ स्वछन्द जन्तु तथा लिवरफ्लूक, जैसे परजीवी आते हैं।
निमेटोडा
♦ ये भी त्रिकोरक जन्तु हैं तथा इनमें भी द्विपार्श्व सममिति पाई जाती है, लेकिन इनका शरीर चपटा ना होकर बेलनाकार होता है।
♦ इनकी देहगुहा को कूटसीलोम कहते हैं।
♦ इसमें ऊतक पाए जाते हैं परन्तु अंगतन्त्र पूर्ण विकसित नहीं होते हैं।
♦ ये अधिकांशतया परजीवी होते हैं। परजीवी के तौर पर ये दूसरे जन्तुओं में रोग उत्पन्न करते हैं। उदाहरणार्थ- गोल कृमि, फाइलेरिया कृमि, पिन कृमि इत्यादि।
एनीलिडा
♦ एनीलिडा जन्तु द्विपार्श्वसममित एवं त्रिकोरिक होते हैं।
♦ इनमें वास्तविक देहगुहा भी पाई जाती है। इससे वास्तविक अंग शारीरिक संरचना में निहित रहते हैं। अतः अंगों में व्यापक भिन्नता होती है। यह भिन्नता इनके शरीर के सिर से पूँछ तक एक के बाद एक खण्डित रूप में उपस्थित होती है।
♦ जलीय एनीलिड अलवण एवं लवणीय जल दोनों में पाए जाते
♦ इनमें संवहन, पाचन, उत्सर्जन और तन्त्रिका तन्त्र पाए जाते हैं।
♦ ये जलीय और स्थलीय दोनों होते हैं। उदाहरणार्थ- केंचुआ, नेरीस, जोंक इत्यादि।
आर्थ्रोपोडा
♦ यह जन्तु जगत का सबसे बड़ा संघ है।
♦ इनमें द्विपार्श्व सममिति पाई जाती है और शरीर खण्डयुक्त होता है।
♦ इनमें खुला परिसंचरण तन्त्र पाया जाता है। अतः रुधिर वाहिकाओं में नहीं बहता। देहगुहा रुधिर से भरी होती है। इनमें जुड़े हुए पैर पाए जाते हैं।
♦ इस वर्ग के कुछ सामान्य उदाहरण हैं – झींगा, तितली, मक्खी, मकड़ी, बिच्छू, केंकड़े इत्यादि ।
मोलस्का
♦ इनमें भी द्विपार्श्वसममिति पाई जाती है।
♦ इनकी देहगुहा बहुत कम होती है तथा शरीर में थोड़ा विखण्डन होता है।
♦ अधिकांश मोलस्का जन्तुओं में कवच पाया जाता है।
♦ इनमें खुला संवहनी तन्त्र तथा उत्सर्जन के लिए गुर्दे जैसी संरचना पाई जाती है। उदाहरणार्थ- घोंघा, सीप इत्यादि ।
इकाइनोडर्मेटा
♦ इन जन्तुओं की त्वचा काँटों से आच्छादित होती है।
♦ ये मुक्तजीवी समुद्री जन्तु हैं।
♦ ये देहगुहायुक्त त्रिकोरिक जन्तु हैं।
♦ इनमें विशिष्ट जल संवहन नाल तन्त्र पाया जाता है, जो उनके चलन में सहायक हैं। इनमें कैल्शियम कार्बोनेट का कंकाल एवं काँटे पाए जाते हैं। उदाहरणार्थ- स्टारफिश, समुद्री अचिन, इत्यादि।
प्रोटोकॉर्डेटा
♦ ये द्विपार्श्वसममित, त्रिकोरिक एवं देहगुहा युक्त जन्तु हैं। इसके अतिरिक्त ये शारीरिक संरचनाओं के कुछ नये लक्षण दर्शाते हैं, जैसे- नोटोकॉर्ड। ये नये लक्षण इनके जीवन की कुछ अवस्थाओं में निश्चित रूप से उपस्थित होते हैं। नोटोकॉर्ड छड़ की तरह की एक लम्बी संरचना है, जो जन्तुओं के पृष्ठ भाग पर पाई जाती है। यह तन्त्रिका ऊतक को आहार नाल से अलग करती है।
♦ प्रोटोकॉडेंट जन्तुओं में जीवन की सभी अवस्थाओं में नोटोकॉर्ड उपस्थित नहीं रह सकता है।
♦ ये समुद्री जन्तु हैं। उदाहरणार्थ- बैलैनाग्लोसस, हर्डमानिया, एम्फियोक्सस, इत्यादि।
वर्टीब्रेटा (कशेरुकी)
♦ इन जन्तुओं में वास्तविक मेरुदण्ड एवं अन्तःकंकाल पाया जाता है। इस कारण जन्तुओं में पेशियों का वितरण अलग होता है एवं पेशियाँ कंकाल से जुड़ी होती हैं, जो इन्हें चलने में सहायता करती हैं।
♦ कशेरुकी द्विपार्श्वसममित, त्रिकोरिक, देहगुहा वाले जन्तु हैं। इनमें ऊतकों एवं अंगों का जटिल विभेदन पाया जाता है।
♦ कशेरुकी को पाँच वर्गों में विभाजित किया गया है मत्स्य, उभयचर, सरीसृप, पक्षी एवं स्तनधारी ।
मत्स्य
♦ ये मछलियाँ हैं, जो समुद्र और मीठे जल दोनों जगहों पर पाई जाती हैं।
♦ इनकी त्वचा शल्क (scales) अथवा प्लेटों से ढकी होती है तथा ये अपनी मांसल पूँछ का प्रयोग तैरने के लिए करती हैं ।
♦ इनका शरीर धारा रेखीय होता है ।
♦ इनमें श्वसन क्रिया के लिए क्लोम पाए जाते हैं, जो जल में विलीन ऑक्सीजन का उपयोग करते हैं।
♦ ये असमतापी होते हैं तथा इनका हृदय द्विकक्षीय होता है।
♦ ये अण्डे देती हैं। कुछ मछलियों में कंकाल केवल उपास्थि का बना होता है जैसे- शार्क। अन्य प्रकार की मछलियों में कंकाल अस्थि का बना होता है, जैसे- ट्युना, रोहू । –
जल-स्थलचर
♦ ये मत्स्यों से भिन्न होते हैं क्योंकि इनमें शल्क नहीं पाए जाते ।
♦ इनकी त्वचा पर श्लेष्म ग्रन्थियाँ पाई जाती हैं तथा हृदय त्रिकक्षीय होता है।
♦ इनमें बाह्य कंकाल नहीं होता है ।
♦ इनमें वृक्क पाए जाते हैं।
♦ श्वसन क्लोम अथवा फेफड़ों द्वारा होता है।
♦ ये अण्डे देने वाले जन्तु हैं।
♦ ये जल तथा स्थल दोनों पर रह सकते उदाहरणार्थ- मेंढक, सैलामेण्डर, टोड इत्यादि ।
सरीसृप
♦ ये असमतापी जन्तु हैं।
♦ इनका शरीर शल्कों द्वारा ढका होता है।
♦ इनमें श्वसन फेफड़ों द्वारा होता है।
♦ इनका हृदय सामान्यतया त्रिकक्षीय होता है, लेकिन मगरमच्छ का हृदय चार कक्षीय होता है।
♦ इनमें वृक्क पाया जाता है।
♦ ये भी अण्डे देने वाले प्राणी हैं। इनके अण्डे कठोर कवच से ढके होते हैं तथा जल-स्थलचर की तरह इन्हें जल में अण्डे देने की आवश्यकता नहीं पड़ती है। उदाहरणार्थ- कछुआ, साँप, छिपकली, मगरमच्छ ।
पक्षी
♦ ये समतापी प्राणी हैं।
♦ इनका हृदय चार कक्षीय होता है।
♦ इनके दो जोड़ी पैर होते हैं। इनमें आगे वाले दो पैर उड़ने के लिए पंखों में परिवर्तित हो जाते हैं।
♦ शरीर परों से ढका होता है। श्वसन फेंफड़ों द्वारा होता है।
♦ इस वर्ग में सभी पक्षियों को रखा गया है। उदाहरणार्थ- कौआ, कबूतर, गोरैया, हंस, इत्यादि ।
स्तनधारी
♦ ये समतापी प्राणी हैं।
♦ इनमें हृदय चार कक्षीय होता है।
♦ इस वर्ग के सभी जन्तुओं में नवजात के पोषण के लिए दुग्ध ग्रन्थियाँ पाई जाती हैं।
♦ इनकी त्वचा पर बाल, स्वेद और तेल ग्रन्थियाँ पाई जाती हैं।
♦ इस वर्ग के जन्तु शिशुओं को जन्म देने वाले होते हैं। हालाँकि कुछ जन्तु अपवाद स्वरूप अण्डे भी देते हैं जैसे – इकिड्ना, प्लेटिप्सा
♦ कंगारू, जैसे कुछ स्तनधारी में अविकसित बच्चे मासूपियम नामक थैली में तब तक लटके रहते हैं जब तक कि उनका पूर्ण विकास नहीं हो जाता है।
♦ चमगादड़, मनुष्य, बिल्ली, चूहा आदि इस संघ के प्राणियों के उदाहरण हैं।
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