जाति, धर्म और लैंगिक मुद्दे Caste, Religion and Gender Issues
जाति, धर्म और लैंगिक मुद्दे Caste, Religion and Gender Issues
लैंगिक मुद्दे और राजनीति
♦ लैंगिक असमानता का आधार स्त्री और पुरुष की जैविक बनावट नहीं बल्कि इन दोनों के बारे में प्रचलित रूढ़ छवियाँ और तयशुदा सामाजिक भूमिकाएँ हैं।
♦ लड़के और लड़कियों के पालन-पोषण के क्रम में यह मान्यता उनके मन में बैठा दी जाती है कि औरतों की मुख्य जिम्मेदारी गृहस्थी चलाने और बच्चों का पालन-पोषण करने की है। यह चीज अधिकतर परिवारों के श्रम के लैंगिक विभाजन से झलकती है। औरतें घर के अन्दर का सारा कामकाज, जैसे–खाना बनाना, सफाई करना, कपड़े धोना और बच्चों की देखरेख करना आदि करती हैं जबकि मर्द घर के बाहर का काम करते हैं। ऐसा नहीं है कि मर्द ये सारे काम नहीं कर सकते। जबकि वे सोचते हैं कि ऐसे कामों को करना औरतों के जिम्मे है।
♦ श्रम का लैंगिक विभाजन यह काम के बँटवारे का वह तरीका है, जिसमें घर के अन्दर के सारे काम परिवार की औरतें करती हैं या अपनी देखरेख में घरेलू नौकरों/नौकरानियों से कराती हैं।
♦ श्रम के लैंगिक विभाजन का नतीजा यह हुआ है कि औरत तो घर की चारदीवारी में सिमट के रह गई है और बाहर का सार्वजनिक जीवन पुरुषों के कब्जे में आ गया है। मनुष्य जाति की आबादी में औरतों का हिस्सा आधा है पर सार्वजनिक जीवन में, खासकर राजनीति में उनकी भूमिका नगण्य ही है।
♦ पहले औरतों को सार्वजनिक जीवन के बहुत से अधिकार हासिल – नहीं थे। दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में औरतों ने अपने संगठन बनाए और बराबरी के अधिकार हासिल करने के लिए आन्दोलन किए। विभिन्न देशों में महिलाओं को वोट का अधिकार प्रदान करने के लिए आन्दोलन हुए। इन आन्दोलनों में महिलाओं के राजनीतिक और वैधनिक दर्जे को ऊँचा उठाने और उनके लिए शिक्षा तथा रोजगार के अवसर बढ़ाने की माँग की गई मूलगामी बदलाव की माँग करने वाले महिला आन्दोलनों ने औरतों के व्यक्तिगत और पारिवारिक जीवन में भी बराबरी की माँग उठाई। इन आन्दोलनों को नारीवादी आन्दोलन कहा जाता है।
♦ लैंगिक विभाजन की राजनीतिक अभिव्यक्ति और इस सवाल पर राजनीतिक गोलबन्दी ने सार्वजनिक जीवन में औरत की भूमिका को बढ़ाने में मदद की। आज हम वैज्ञानिक, डॉक्टर, इन्जीनियर, प्रबन्धक, कॉलेज और विश्वविद्यालयी शिक्षक जैसे पेशों में बहुत-सी औरतों को पाते हैं जबकि पहले इन कामों को महिलाओं के लायक नहीं माना जाता था। दुनिया के कुछ हिस्सों, जैसे स्वीडन, नार्वे और फिनलैण्ड जैसे स्कैण्डिनेवियाई देशों में सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की भागीदारी का स्तर काफी ऊँचा है।
♦ हमारे देश में आजादी के बाद से महिलाओं की स्थिति में कुछ सुधार हुआ है पर वे अभी भी पुरुषों से काफी पीछे हैं। हमारा समाज अभी भी पितृ-प्रधान है। औरतों के साथ अभी भी कई तरह के भेदभाव होते हैं, उनका दमन होता है।
♦ महिलाओं में साक्षरता दर अब भी मात्र 64.6% है जबकि पुरुषों में 80.9% । इसी प्रकार स्कूल पास करने वाली लड़कियों की एक सीमित संख्या ही उच्च शिक्षा की ओर कदम बढ़ा पाती है।
♦ जब हम स्कूली परीक्षाओं के परिणाम पर गौर करते हैं तो देखते हैं कि कई जगह लड़कियों ने बाजी मार ली है और कई जगहों पर उनका प्रदर्शन लड़कों से बेहतर नहीं तो कमतर भी नहीं है। लेकिन आगे की पढ़ाई के दरवाजे उनके लिए बन्द हो जाते हैं क्योंकि माँ-बाप अपने संसाधनों को लड़के-लड़की दोनों पर बराबर खर्च करने की जगह लड़कों पर ज्यादा खर्च करना पसन्द करते हैं।
♦ समान मजदूरी से सम्बन्धित अधिनियम में कहा गया है कि समान – काम के लिए समान मजदूरी दी जाएगी। किन्तु, काम के हर क्षेत्र में यानी खेल कूद की दुनिया से लेकर सिनेमा के संसार तक और कल-कारखानों से लेकर खेत-खलिहान तक महिलाओं को पुरुषों की तुलना में कम मजदूरी मिलती है, भले ही दोनों ने समान काम किया हो।
♦ भारत के अनेक हिस्सों में माँ-बाप को सिर्फ लड़के की चाह होती है। लड़की को जन्म लेने से पहले ही खत्म कर देने के तरीके इसी मानसिकता से पनपते हैं। इससे देश का लिंग अनुपात प्रति हजार लड़कों पर लड़कियों की संख्या गिरकर 943 रह गई है। कई जगहों पर यह अनुपात गिरकर 850 और कहीं-कहीं तो 800 से भी नीचे चला गया है।
महिलाओं का राजनीतिक प्रतिनिधित्व
♦ औरतों की भलाई या उनके साथ समान व्यवहार वाले मुद्दों पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जाता। इसी के चलते विभिन्न नारीवादी समूह और महिला आन्दोलन इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि जब तक औरतों का सत्ता पर नियन्त्रण नहीं होगा तब तक इस समस्या का निपटारा नहीं हो सकता। इस लक्ष्य को हासिल करने का एक तरीका यह है कि जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों में महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ाई जाए।
♦ भारत की विधायिका में महिला प्रतिनिधियों का अनुपात बहुत ही कम है। जैसे, लोकसभा में महिला सांसदों की संख्या कभी कुल सदस्यों की 10% फीसदी तक भी नहीं पहुँची है। राज्यों की विधान सभाओं में उनका प्रतिनधित्व 5% से भी कम है।
♦ इस समस्या को सुलझाने का एक तरीका तो निर्वाचित संस्थाओं में महिलाओं के लिए कानूनी रूप से एक उचित हिस्सा तय कर देना है। भारत में पंचायती राज के अन्तर्गत कुछ ऐसी ही व्यवस्था की गई है। स्थानीय सरकारों यानी पंचायतों और नगरपालिकाओं में एक-तिहाई पद महिलाओं के लिए आरक्षित कर दिए गए हैं। आज भारत के ग्रामीण और शहरी स्थानीय निकायों में निर्वाचित महिलाओं की संख्या 10 लाख से ज्यादा है।
♦ महिला संगठनों और कार्यकर्ताओं की माँग है कि लोकसभा और राज्य विधानसभाओं की भी एक-तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित कर देनी चाहिए। संसद में इस आशय का एक विधेयक पेश भी किया गया था पर दस वर्षों से ज्यादा अवधि से वह लटका पड़ा है। सभी राजनीतिक पार्टियाँ इस विधेयक को लेकर एक मत नहीं हैं और यह पास नहीं हो सका है।
♦ लैंगिक विभाजन इस बात की एक कहावत है कि कुछ खास किस्म के सामाजिक विभाजनों को राजनीतिक रूप देने की जरूरत है। इससे यह भी पता चलता है कि जब सामाजिक विभाजन एक राजनीतिक मुद्दा बन जाता है तो वंचित समूहों को किस तरह लाभ होता है।
धर्म, साम्प्रदायिकता और राजनीति
♦ लैंगिक विभाजन के विपरीत धार्मिक विभाजन अक्सर राजनीति के मैदान में अभिव्यक्त होता है।
इस सन्दर्भ में निम्नलिखित बातें महत्त्वपूर्ण हैं
♦ गाँधी जी कहा करते थे कि धर्म को कभी भी राजनीति से अलग नहीं किया जा सकता। धर्म से उनका मतलब हिन्दू या इस्लाम जैसे धर्म से न होकर नैतिक मूल्यों से था जो सभी धर्मों से जुड़े हैं। उनका मानना था कि मैं धार्मिक नहीं हूँ, मुझे साम्प्रदायिकता और धर्म निरपेक्षता की परवाह क्यों करनी चाहिए? राजनीति, धर्म द्वारा स्थापित मूल्यों से निर्देशित होनी चाहिए।
♦ अपने देश के मानवाधिकार समूहों का कहना है कि इस देश में साम्प्रदायिक दंगों में मरने वाले ज्यादातर लोग अल्पसंख्यक समुदायों के है। उनकी माँग है कि सरकार अल्पसंख्यकों को रक्षा के लिए विशेष कदम उठाए ।
♦ महिला आन्दोलन का कहना है कि सभी धर्मों में वर्णित पारिवारिक कानून महिलाओं से भेदभाव करते हैं। इस आन्दोलन की माँग है कि सरकार को इन कानूनों को समतामूलक बनाने के लिए उनमें बदलाव करने चाहिए।
उपरोक्त सभी मामले धर्म और राजनीति से जुड़े हैं पर ये बहुत गलत या खतरनाक भी नहीं लगते। विभिन्न धर्मों से निकले विचार, आदर्श और मूल्य राजनीति में एक भूमिका निभा सकते हैं। लोगों को एक धार्मिक समुदाय के तौर पर अपनी जरूरतों, हितों और भाँगों को राजनीति में उठाने का अधिकार होना चाहिए। जो लोग राजनीतिक सत्ता में हों उन्हें धर्म के कामकाज पर नजर रखनी चाहिए और अगर वह किसी के साथ भेदभाव करता है या किसी के दमन में सहयोगी की भूमिका निभाता है तो उसे रोकना चाहिए। अगर शासन सभी धर्मों के साथ समान व्यवहार करता है तो उसके; ऐसे कामों में कोई बुराई नहीं है।
साम्प्रदायिकता
♦ समस्या तब शुरू होती है जब धर्म को राष्ट्र का आधार मान लिया जाता है। समस्या तब और विकराल हो जाती है जब राजनीति में धर्म की अभिव्यक्ति एक समुदाय की विशिष्टता के दावे और पक्षपोषण का रूप लेने लगती है तथा इसके अनुयायी दूसरे धर्मावलम्बियो के खिलाफ मोर्चा खोलने लगते हैं। ऐसा तब होता है जब एक धर्म के विचारों को दूसरे से श्रेष्ठ माना जाने लगता है और कोई एक धार्मिक समूह अपनी माँगों को दूसरे समूह के विरोध में खड़ा करने लगता है। इस प्रक्रिया में जब राज्य अपनी सत्ता का इस्तेमाल किसी एक धर्म के पक्ष में करने लगता है तो स्थिति और विकट होने लगती है। राजनीति से धर्म को इस तरह जोड़ना ही साम्प्रदायिकता है।
♦ साम्प्रदायिकता राजनीति में अनेक रूप धारण कर सकती है
♦ साम्प्रदायिकता की सबसे सामान्य अभिव्यक्ति दैनिक जीवन में ही दिखती है। इनमें धार्मिक पूर्वाग्रह, धार्मिक समुदायों के बारे में बनी बनाई धारणाएँ और एक धर्म को दूसरे धर्म से श्रेष्ठ मानने की मान्यताएँ शामिल हैं।
♦ साम्प्रदायिक सोच अकसर अपने धार्मिक समुदाय का राजनीतिक प्रभुत्व स्थापित करने के फिराक में रहती है। जो लोग बहुसंख्यक समुदाय के होते हैं उनकी यह कोशिश बहुसंख्यकवाद का रूप ले लेती है। जो अल्पसंख्यक समुदाय के होते हैं उनमें यह विश्वास अलग राजनीतिक इकाई बनाने की इच्छा का रूप ले लेता है।
♦ साम्प्रदायिक आधार पर राजनीतिक गोलबन्दी साम्प्रदायिकता का दूसरा रूप है। इसमें धर्म के पवित्र प्रतीकां, धर्मगुरुओं, भावनात्मक अपील और अपने ही लोगों के मन में डर बैठाने जैसे तरीकों का उपयोग बहुत सामान्य है। चुनावी राजनीति में एक धर्म के मतदाताओं की भावनाओं या हितों की बात उठाने जैसे तरीके अक्सर अपनाए जाते हैं।
♦ कई बार साम्प्रदायिकता सबसे गन्दा रूप लेकर सम्प्रदाय के आधार पर हिंसा, दंगा और नरसंहार कराती है।
धर्मनिरपेक्ष शासन
♦ साम्प्रदायिकता हमारे देश के लोकतन्त्र के लिए एक बड़ी चुनौती रही है। हमारे संविधान निर्माता इस चुनौती के प्रति सचेत थे। इसी कारण उन्होंने धर्मनिरपेक्ष शासन का मॉडल चुना और इसी आधार पर संविधान में अनेक प्रावधान किए गए हैं
♦ भारतीय राज्य ने किसी भी धर्म को राजकीय धर्म के रूप में अंगीकार नहीं किया है।
♦ संविधान धर्म के आधार पर किए जाने वाले किसी तरह के भेदभाव को अवैधानिक घोषित करता है।
♦ इसके साथ ही संविधान धार्मिक समुदायों में समानता सुनिश्चित करने के लिए शासन को धार्मिक मामलों में दखल देने का अधिकार देता है। जैसे, यह छुआछूत की इजाजत नहीं देता।
जाति और राजनीति
♦ लिंग और धर्म पर आधारित विभाजन तो दुनिया भर में हैं पर जाति पर आधारित विभाजन सिर्फ भारतीय समाज में ही देखने को मिलता है।
♦ जाति व्यवस्था में पेशों के वंशानुगत विभाजन को रीति-रिवाजों की मान्यता प्राप्त है। एक जाति समूह के लोग एक या मिलते-जुलते पेशों के तो होते ही हैं साथ ही उन्हें एक अलग सामाजिक समुदाय के रूप में भी देखा जाता है। उनमें आपस में ही बेटी-रोटी अर्थात् शादी और खान-पान का सम्बन्ध रहता है। अन्य जाति समूहों में उनके बच्चों की न तो शादी हो सकती है न महत्त्वपूर्ण पारिवारिक और सामुदायिक आयोजनों में उनके प्रान्त में बैठकर दूसरी जाति के लोग भोजन कर सकते हैं।
♦ वर्ण व्यवस्था अन्य जाति-समूहों से भेदभाव और उन्हें अपने से अलग मानने की धारणा पर आधारित है। इसमें ‘अन्त्यज’ जातियों के साथ छुआछूत का व्यवहार किया जाता था।
♦ आर्थिक विकास, शहरीकरण, साक्षरता और शिक्षा के विकास, पेशा चुनने की आजादी और गाँवों में जमींदारी व्यवस्था के कमजोर पड़ने से जाति व्यवस्था के पुराने स्वरूप और वर्ण व्यवस्था पर टिकी मानसिकता में बदलाव आ रहा है।
♦ शहरी इलाकों में तो अब ज्यादातर इस बात का कोई हिसाब नहीं रखा जाता कि ट्रेन या बस में किसके साथ कौन बैठा है या रेस्तरां में किसकी मेज पर बैठकर खाना खा रहे आदमी की जाति क्या है? संविधान में किसी भी तरह के जातिगत भेदभाव का निषेध किया गया है। फिर भी, समकालीन भारत से जाति प्रथा विदा नहीं हुई है। जाति व्यवस्था के कुछ पुराने पहलू अभी भी बरकरार हैं। अभी भी ज्यादातर लोग अपनी जाति या कबीले में ही शादी करते हैं।
राजनीति में जाति
♦ साम्प्रदायिकता की तरह जातिवाद भी इस मान्यता पर आधारित है कि जाति ही सामाजिक समुदाय के गठन का एकमात्र आधार है।
♦ राजनीति में जाति अनेक रूप ले सकती है। जैसे, जब पार्टियाँ चुनाव के लिए उम्मीदवारों के नाम तय करती हैं तो चुनाव क्षेत्र के मतदाताओं की जातियों का हिसाब ध्यान में रखती हैं ताकि उन्हें चुनाव जीतने के लिए जरूरी वोट मिल जाए। जब सरकार का गठन किया जाता है तो राजनीतिक दल इस बात का ध्यान रखते हैं कि उसमें विभिन्न जातियों और कबीलों के लोगों को उचित जगह दी जाए।
♦ राजनीतिक पार्टियाँ और उम्मीदवार समर्थन हासिल करने के लिए जातिगत भावनाओं को उकसाते हैं। कुछ दलों को कुछ जातियों के मददगार और प्रतिनिधि के रूप में देखा जाता है।
♦ सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार और एक व्यक्ति – एक वोट की व्यवस्था ने राजनीतिक दलों को विवश किया कि वे राजनीतिक समर्थन पाने और लोगों को गोलबन्द करने के लिए सक्रिय हों। इससे उन जातियों के लोगों में नई चेतना पैदा हुई जिन्हें अभी तक छोटा और नीच माना जाता था।
जातिगत समानता
♦ आर्थिक असमानता का एक महत्त्वपूर्ण आधार जाति भी है क्योंकि इससे विभिन्न संसाधनों तक लोगों की पहुँच निर्धारित होती है। उदाहरण के लिए पहले ‘अछूत’ कही जाने वाली जातियों के लोगों को जमीन रखने का अधिकार नहीं था जबकि कथित ‘द्विज’ जातियों को ही शिक्षा पाने का अधिकार था। आज जाति पर आधारित इस किस्म की औपचारिक और प्रकट असमानताएँ तो गैर-कानूनी हो गई हैं पर सदियों से जिस व्यवस्था ने कुछ समूहों को लाभ या घाटे की स्थिति में बनाए रखा है उसका संचित असर अभी महसूस किया जा सकता है।
♦ निश्चित रूप से जाति और आर्थिक हैसियत की पुरानी स्थिति में काफी बदलाव आया है। आज ‘ऊँची’ या ‘नीची’ किसी भी जाति में बहुत अमीर और बहुत गरीब लोग देखे जा सकते हैं। पर, आज भी जाति आर्थिक हैसियत के निर्धारण में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। आज सभी जातियों में अमीर लोग हैं पर यहाँ भी ऊँची जाति वालों का अनुपात बहुत ज्यादा है और निचली जातियों का बहुत कम।
♦ जातिगत पहचान पर आधारित राजनीति लोकतन्त्र के लिए शुभ नहीं होती। इससे अक्सर गरीबी, विकास, भ्रष्टाचार जैसे ज्यादा बड़े मुद्दों से लोगों का ध्यान भी भटकता है। कई बार जातिवाद तनाव, टकराव और हिंसा को भी बढ़ावा देता है।
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