जल संसाधन Water Resources
जल संसाधन Water Resources
जल : कुछ तथ्य और आँकड़े
♦ विश्व में जल के कुल आयतन का 96.5% भाग महासागरों में पाया जाता है और केवल 2.5% अलवणीय जल है।
♦ विश्व में अलवणीय जल का लगभग 70% भाग अण्टार्कटिका, ग्रीनलैण्ड और पर्वतीय क्षेत्रों में बर्फ की चादरों और हिमनदों के रूप में मिलता है, जबकि 30% से थोड़ा-सा कम भौमजल के जलभृत (Aquifer) के रूप में पाया जाता है।
♦ भारत विश्व की वृष्टि का 4% हिस्सा प्राप्त करता है और प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष जल उपलब्धता के सन्दर्भ में विश्व में इसका 133वां स्थान है।
♦ भारत में कुल नवीकरण योग्य जल संसाधन 1897 वर्ग किमी प्रति वर्ष अनुमानित है।
♦ भविष्यवाणी है कि सन् 2025 तक भारत का एक बड़ा हिस्सा विश्व के अन्य देशों और क्षेत्रों की तरह जल की नितान्त कमी महसूस करेगा।
जल दुर्लभता और जल संरक्षण एवं प्रबन्धन की आवश्यकता
♦ अधिकतया जल की कमी इसके अतिशोषण, अत्यधिक प्रयोग और समाज के विभिन्न वर्गों में जल के असमान वितरण के कारण होती है।
♦ जल की दुर्लभता अत्यधिक और बढ़ती जनसंख्या और उसके परिणामस्वरूप जल की बढ़ती माँग और उसके असमान वितरण का परिणाम हो सकता है।
♦ जल, अधिक जनसंख्या के लिए घरेलू उपयोग में ही नहीं बल्कि अधिक अनाज उगाने के लिए भी चाहिए।
♦ बहुत से किसानों के खेतों पर अपने निजी कुएँ और नलकूप हैं जिनसे सिंचाई करके वे उत्पादन बढ़ा रहे हैं। परन्तु इसके कारण भौम जलस्तर नीचे गिर सकता है और लोगों के लिए जल की उपलब्धता में कमी हो सकती है और भोजन सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है।
♦ उद्योगों की बढ़ती हुई संख्या के कारण अलवणीय जल संसाधनों पर दबाव बढ़ रहा है।
♦ उद्योगों को अत्यधिक जल के अलावा उनको चलाने के लिए ऊर्जा की भी आवश्यकता होती है और इसकी काफी हद तक पूर्ति जल विद्युत से होती है। वर्तमान समय में भारत में कुल विद्युत का लगभग 22% भाग जल विद्युत से प्राप्त होता है।
♦ शहरों की बढ़ती संख्या और जनसंख्या तथा शहरी जीवन शैली के कारण न केवल जल और ऊर्जा की आवश्यकता में बढ़ोत्तरी हुई है अपितु इनसे सम्बन्धित समस्याएँ और भी गहरी हुई हैं। शहरों में जल संसाधनों का अति शोषण हो रहा है और इनकी कमी होती जा रही है।
बहुउद्देशीय नदी परियोजनाएँ और समन्वित जल संसाधन प्रबन्धन
♦ पुरातत्व वैज्ञानिक और ऐतिहासिक अभिलेख / दस्तावेज बताते हैं कि हमने प्राचीन काल से सिंचाई के लिए पत्थरों और मलबे से बाँध, जलाशय अथवा झीलों के तटबंध और नहरों जैसी उत्कृष्ट जलीय कृतियाँ बनाई हैं। हमने यह परिपाटी आधुनिक भारत में भी जारी रखी है और अधिकतर नदियों के बेसिनों में बाँध बनाए हैं।
♦ परम्परागत बाँध, नदियों और वर्षा के जल को इकट्ठा करके बाद में उसे खेतों की सिंचाई के लिए उपलब्ध करवाते थे। आजकल बाँध सिर्फ सिंचाई के लिए नहीं बनाए जाते अपितु उनका उद्देश्य विद्युत उत्पादन, घरेलू और औद्योगिक उपयोग, जल आपूर्ति, बाढ़ नियन्त्रण, मनोरंजन, आन्तरिक नौचालन और मछली पालन भी है। इसलिए बाधों को बहुद्देशीय परियोजनाएँ भी कहा जाता है जहाँ एकत्रित जल के अनेकों उपयोग समन्वित होते हैं। उदाहरण के तौर पर सतलुज-व्यास बेसिन में भाखड़ा-नांगल परियोजना जल विद्युत उत्पादन और सिंचाई दोनों के काम में आती है। इसी प्रकार महानदी बेसिन में हीराकुड परियोजना जल संरक्षण और बाढ़ नियन्त्रण का समन्वय है।
♦ बाँध बहते जल को रोकने, दिशा देने या बहाव कम करने के लिए खड़ी की गई बाधा है जो आमतौर पर जलाशय, झील अथवा जलभरण बनाती हैं।
♦ संरचना और उनमें प्रयुक्त पदार्थों के आधार पर बाँधों को लकड़ी के बाँध, तटबन्ध बाँध या पक्का बाँध के अलावा कई उपवर्गों में बाँटा जा सकता है।
♦ ऊंचाई के अनुसार बाँधों को बड़े बाँधों और मुख्य बाँध या नीचे बाँध, मध्यम बाँध और उच्च बाँधों में वर्गीकृत किया जा सकता है।
♦ जवाहरलाल नेहरू गर्व में बाँधों को ‘आधुनिक भारत के मन्दिर’ कहा करते थे। उनका मानना था कि इन परियोजनाओं के चलते कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था औद्योगीकरण और नगरीय अर्थव्यवस्था समन्वित रूप से विकास करेंगी।
♦ पिछले कुछ वर्षों में बहुउद्देशीय परियोजनाएँ और बड़े बाँध कई कारणों से परिनिरीक्षण और विरोध के विषय बन गए हैं।
♦ बहुउद्देशीय परियोजनाएँ और बड़े बाँध नये सामाजिक आन्दोलनों जैसे-‘नर्मदा बचाओ आन्दोलन’ और ‘टिहरी बाँध आन्दोलन’ के कारण भी बन गए हैं। इन परियोजनाओं का विरोध मुख्य रूप से स्थानीय समुदायों के वृहद स्तर पर विस्थापन के कारण है।
वर्षा जल संग्रहण
♦ बहुत से लोगों का मानना है कि बहुद्देशीय परियोजनाओं के अलाभप्रद असर और उन पर उठे विवादों के चलते वर्षा जल संग्रहण तन्त्र इनके सामाजिक-आर्थिक और पारिस्थितिक तौर पर व्यवहार्थ विकल्प हो सकते हैं।
♦ प्राचीन भारत में उत्कृष्ट जलीय निर्माणों के साथ-साथ जल संग्रहण ढाँचे भी पाए जाते थे। लोगों को वर्षा पद्धति और मृदा के गुणों के बारे में गहरा ज्ञान था। उन्होंने स्थानीय पारिस्थितिकीय परिस्थितियों और उनकी जल आवश्यकतानुसार वर्षा जल, भौमजल, नदी जल और बाढ़ जल संग्रहण के अनेक तरीके विकसित कर लिए थे।
♦ पहाड़ी और पर्वतीय क्षेत्रों में लोगों ने ‘गुल’ अथवा ‘कुल’ (पश्चिमी हिमालय) जैसी वाहिकाएँ, नदी की धारा का रास्ता बदलकर खेतों में सिंचाई के लिए बनाई हैं।
♦ पश्चिमी भारत, विशेषकर राजस्थान में पीने का जल एकत्रित करने के लिए ‘छत वर्षा जल संग्रहण का तरीका मुख्य था।
♦ पश्चिम बंग में बाढ़ के मैदान में लोग अपने खेतों की सिंचाई के लिए बाढ़ जल वाहिकाएँ बनाते थे।
♦ शुष्क और अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में खेतों में वर्षा जल एकत्रित करने के लिए गड्ढे बनाए जाते थे ताकि मृदा को सिचित किया जा सके और संरक्षित जल को खेती के लिए उपयोग में लाया जा सके। राजस्थान के जिले जैसलमेर में ‘खादीन’ और अन्य क्षेत्रों में ‘जोहड़’ इसके उदाहरण हैं।
♦ राजस्थान के अर्द्ध-शुष्क और शुष्क क्षेत्रों विशेषकर बीकानेर, फलोदी और बाड़मेर में लगभग हर घर में पीने का पानी संग्रहित करने के लिए भूमिगत टैंक अथवा ‘टांका’ हुआ करते थे। टाँका यहाँ सुविकसित छत वर्षा जल संग्रहण तन्त्र का अभिन्न हिस्सा होता है जिसे मुख्य घर या आँगन में बनाया जाता था। वे घरों की ढलवाँ छतों से पाइप द्वारा जुड़े हुए थे। छत से वर्षा का पानी इन नलों से होकर भूमिगत टाँका तक पहुँचता था जहाँ इसे एकत्रित किया जाता था।
♦ तमिलनाडु देश का एक मात्र राज्य है जहाँ पूरे राज्य में हर घर में छत वर्षा जल संग्रहण ढाँचों का बनाना आवश्यक कर दिया गया है। इस सन्दर्भ में दोषी व्यक्तियों पर कानूनी कार्यवाही हो सकती है।
बाँस डिंप सिंचाई प्रणाली
♦ मेघालय में नदियों व झरनों के जल को बाँस द्वारा बने पाइप द्वारा एकत्रित करके 200 वर्ष पुरानी विधि प्रचलित है। लगभग 18 से 20 लीटर सिंचाई पानी बाँस पाइप में आ जाता है तथा उसे सैकड़ों मीटर की दूरी तक ले जाया जाता है। अन्त में पानी का बहाव 20 से 80 बूँद प्रति मिनट तक घटाकर पौधे पर छोड़ दिया जाता है।
♦ बाँस से निर्मित चैनल से पौधों के स्थान तक जल का बहाव परिवर्तित किया जाता है। पौधे तक बाँस पाइप से बनाई व बिछाई गई विभिन्न जल शाखाओं में जल वितरित किया जाता है। पाइपों में जल प्रवाह इनकी स्थितियों में परिवर्तन करके नियन्त्रित किया जाता है।
♦ पहाड़ी शिखरों पर सदानीरा झरनों की दिशा परिवर्तित करने के लिए बाँस के पाइपों का उपयोग किया जाता है। इन पाइपों के माध्यम से गुरुत्वाकर्षण द्वारा जल पहाड़ के निचले स्थानों तक पहुँचाया जाता है।
♦ संकुचित किए हुए चैनल सेक्शन और पथान्तरण इकाई जल सिंचाई के अन्तिम चरण में प्रयुक्त की जाती है। अन्तिम चैनल सेक्शन से पौधे की जड़ों के निकट जल गिराया जाता है।
♦ यदि पाइपों को सड़क पार ले जाना हो तो उन्हें भूमि पर ऊँचाई से ले जाया जाता है।
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