जनमानस की अमूल्य निधि- पण्डित जवाहरलाल नेहरू और उनका महाप्रयाण

जनमानस की अमूल्य निधि- पण्डित जवाहरलाल नेहरू और उनका महाप्रयाण

          देश में छिहत्तर करोड़ नर-नारियों की आँखें आज भी डबडबाई हुई हैं। जब चाहती हैं, , तब बरस पड़ती हैं, शोकाकुल हृदय की वेदना जब चाहती है, कराह उठती है। हाथ, पैर, मन और मस्तिष्क शक्तिहीन से प्रतीत होते हैं | हृदय शून्य है और शून्य हृदय की आह अपने हृदय सम्राट के स्मरण में आज भी उत्तरोत्तर भयानकता उत्पन्न करती जा रही है। महलों से लेकर फँस की झोंपड़ियों तक में वही सिसकियाँ, वही कराहट और वही आह । साधारण व्यक्ति से लेकर महान् विचारक तक, वही देश की एक चिन्ता, अपने हृदय मन्दिर के देवता का नाम, उसी जनमानस की अमूल्य निधि के असंख्य गुणों का संकीर्तन और उसके अनन्त अभाव के विचार से रुदन और चीख-चीत्कार। शत-शत जातियों और उपजातियों में, धर्मों और उपधर्मों में विभक्त इस विशाल देश का अब क्या होगा? किसकी भुजाओं में शक्ति है, जो प्रबल झंझावतों और भयानक थपेड़ों से बचाते हुए भारत की नौका की पतवार अपने हाथ में लेकर उसे सुरक्षित तट पर पहुँचा दे। असहाय और अनाथ बालक की भाँति वह आज परमुखापेक्षी है। उसका दिव्यतम प्रकाश पुञ्ज, उसकी अद्वितीय कलानिधि, उसका समर्थ प्रहरी, उसका अमूल्य रत्नजटित मुकुट, विधाता के क्रूर करों ने सदा-सदा के लिये छीन लिया । अपने रक्त और स्वेद से अथक और अनवरत सिंचन में व्यस्त, भारत के हरे-भरे, हँसते और मुस्कराते उद्यान का वह कर्मठ और तपस्वी, माली आज अनन्त निंद्रा में शयन कर चुका है। वह हिमालय जिसने उत्तर में ही नहीं, पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण चारों दिशाओं में भारत के लिये ललकारा, वह कैसे गतिशील हो गया, भारत की जनता को विश्वास नहीं आता। जिसके संकेतों पर असंख्य भारतीयों ने अपनी आत्माहुति दी, क्या उसने भी स्वयम् अपनी पूर्णाहुति दे दी ? अब क्या होगा ?
          चार दिन के विश्राम के लिये २३ मई, १९६४ को भारत के हृदय सम्राट नेहरू, इन्दिरा जी के साथ देहरादून गये थे। बड़े आनन्द के साथ वे वहाँ सर्किट हाउस में रहे। अपने पुराने साथी,, महाराष्ट्र के भूतपूर्व राज्यपाल श्रीप्रकाश जी को अपने यहाँ बुलाया और स्वयम् उनको पहुँचाने उनके घर तक गए, उनके नये बनते हुए कुटीर को देखा, प्रशंसा की और बहुत से प्रश्नों में एक प्रश्न यह भी पूछा कि ‘आजकल कौन-कौन सी किताबें पढ़ रहे हो ?” २६ मई तक छुट्टियाँ समाप्त हो रही थीं, उस महान् कर्मयोगी को अपने कार्य पर आना था फौजी पोलो ग्राउण्ड पर उमड़ी हुई जनता ने अपने प्रिय नेता को विदाई दी। नेहरू पहिले जब कभी, देहरादून सर्किट हाउस में ठहरते थे, चलते समय वहाँ की विजिटर्स बुक में देहरादून की जनता की खुशहाली और उन्नति के लिए कुछ न कुछ सम्मति लिख आते थे परन्तु अब की बार उन्होंने कोई सम्मति नहीं लिखी, केवल इतना लिखा कि “मैं उन लोगों के प्रति आभार प्रकट करता हूँ जिन्होंने मुझे हर प्रकार से आराम पहुँचाने की कोशिश की । ” शाम को प्रधानमन्त्री दिल्ली आ गये। रात्री का भोजन किया फिर काम पर जुट गये । रात्रि को तत्कालीन स्वराष्ट्र मन्त्री श्री नन्दा से भेंट के समय कहा कि “मैंने अपनी समस्त फाइलें और कागज़ निबटा दिये हैं।” प्रातःकाल प्रधानमन्त्री प्रसन्न मुद्रा में उठे, हजामत बनाई और स्नान किया। ६ बजकर २० मिनट पर उन्हें हमसे छीनकर दूर ले जाने वाला दिल का दौरा पड़ा । इससे पूर्व उन्होंने पीठ में दर्द की शिकायत की थी। तुरन्त डाक्टर बुलाये गये। दिल के दौरे ने प्रधानमन्त्री को मूर्च्छित कर दिया था। जीवन रक्षा के सभी सम्भव उपाय किये गये, ऑक्सीजन की व्यवस्था की गई, पर कुछ लाभ न हुआ । उनकी एकमात्र पुत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने अपने पिता की प्राण रक्षा के लिए एक बोतल खून भी दिया, उन्होंने कहा—पापा के लिए मुझसे अच्छां खून किसी का नहीं हो सकता, इसलिए मेरा ही खून लिया जाए परन्तु राष्ट्रनायक पर विधाता की क्रूर दृष्टि थी, वह तो उसी दिन व्यंग्य से मुस्करा दिया था, जब देहरादून जाने से पाँच दिन पूर्व प्रेस कॉन्फ्रेंस में अपने उत्तराधिकारी के सम्बन्ध में प्रश्न का उत्तर देते हुए नेहरू ने कहा था ” मेरे जीवन का अन्त इतनी जल्दी नहीं होगा।” मूर्छा के तुरन्त बाद राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति को सूचना दी गई, केन्द्रीय मन्त्रियों को सूचना मिली । प्रधानमन्त्री की बीमारी की सूचना बैठक शुरू होते ही ११ बजे दोनों सदनों को दी गई। संसद सदस्य हृदय थामे हुए अपने प्रिय प्रधानमंत्री को देखने के लिए आने लगे। पौने बारह बजे उनकी हालत तेजी से बिगड़ने लगी, डेढ़ बजे डाक्टरों ने उनके जीवन की आशा छोड़ दी। दो बजे इस बिखरे हुये देश को एकता के सूत्र में बाँधने वाला सूत्रधार,जिसने कहा था “अगर मेरे बाद कुछ लोग मेरे बारे में सोचें तो मैं चाहूँगा कि वे कहें-वह एक ऐसा आदमी था, जो अपने पूरे दिल और दिमाग से हिन्दुस्तानियों से मुहब्बत करता था और हिन्दुस्तानी भी उसकी कमियों को भुलाकर उसको बेहद अजहद मुहब्बत करते थे।” भारतीय को असहाय और एवम् अनाथ बनाकर पूर्ण ब्रह्म में विलीन हो गया। कुछ ही क्षण में आकाशवाणी द्वारा यह दुःखद समाचार समस्त विश्व में फैल गया। भारत में जिसने भी सुना वह आह भरकर पड़ा, टप-टप आँसू टपकने लगे, लोग एक हाथ से अपने सीने दबाते और दूसरे से आँसू पोंछते हुए आपस में कहते—विश्वास नहीं होता इस खबर पर, क्या आपने भी सुना है? अब क्या होगा इस देश का। किसान, मजदूर, व्यापारी, नौकर, अध्यापक, वकील, राजे-रईस, यहाँ तक कि द्वार-द्वार माँगने वाले भिखारी भी दहाड़ मारकर रो उठे, आँख पोंछते हुए वृद्ध लोग आपस में चर्चा करते क्या आज वास्तव में सबका प्यारा जवाहर चल बसा और उसकी सांसें जोर से चलने लगतीं। तीव्र वायु की भाँति भारत की झोंपड़ी-झोंपडी में यह समाचार कुछ ही समय में फैल गया। असीम दुःख के कारण जनता विह्वल हो उठी, कारोबार एकदम बिना किसी घोषणा के बन्द कर दिए। भारत का प्रत्येक नगर, प्रत्येक कस्बा और प्रत्येक गाँव शोकाकुल था। समस्त भारत पर कोल की कालिमापर्ण छाया छायी हुई थी। सूर्य लज्जा, ग्लानि और दुःख से आकाश में छिपा हुआ था। भूकम्प आया, धरती हिली और भयानक तूफान, मानो प्रकृति भी अपनी असहाय वेदना प्रकट कर रही हो। वह दिल्ली, जिसमें जवाहर एक दिन दूल्हा बनकर आए थे, आज अपने प्यारे जवाहर के अन्तिम दर्शनों के लिए तीनमूर्ति स्थित प्रधानमन्त्री निवास की ओर उमड़ चली। सड़कें भरी हुई चल रही थीं पर शोकाकुल, मौन और आँखों में आँसू संजोयें। घरों में स्त्रियाँ, बच्चे, वृद्ध सभी शोकाग्रस्त थे। भारत के लाखों प्रधानमन्त्री भवन के बाहर हो जायें । चढ़ाने के लिये किसी के घरों लाखों, में लोग इस छोड़ दिया। अन्तिम दर्शन शाम को चूल्हे तक न जले, लोगों ने भोजन प्रतीक्षा में खड़े थे कि राष्ट्र के देवता के अ के हाथ में फूल थे, तो किसी के हाथ में सूत की माला, किसी के हाथों में चन्दन था तो कोई केवल हाथ जोड़े आह भर रहा था। हजारों लोग महात्मा गाँधी का प्रिय भजन ‘रघुपति राघव राजा राम गा रहे थे । भवन के भीतर गीता, रामायण आदि धार्मिक ग्रन्थों का पाठ हो रहा था । वेदपाठी ऋचाओं का उच्चारण कर रहे थे। समस्त देश और समस्त विश्व के राष्ट्रध्वज झुका दिए गये थे । सन्ध्या का अन्धकार बढ़ता जा रहा था, उसी के के साथ-साथ शोक की गहनता भी बढ़ती जा रही थी, पेड़ों के पत्ते गिर रहे थे और आकाश से तारे । आँ आँसू और आँधी ने जन-जन की नेत्र गति अवरुद्ध कर दी थी। एक अजीब भयानक वातावरण देश पर छाया हुआ था। क्यों न छाता, आज एक महान् दिव्य आत्मा जो यहाँ से चल बसी थी ।
          २७ मई, १९६४ की संध्या के आठ बजे से लेकर २८ मई के मध्याह्न १ बजे तक भारत के करोड़ों व्यक्तियों ने दूर-दूर से दिल्ली आकर अपने प्रिय नेता के दर्शन किए, उन्हें अन्तिम श्रद्धांजलि अर्पित की। प्यारे जवाहर का देहावसान यद्यपि उनके निवास की प्रथम मंजिल के उनके शयनकक्ष में हुआ था, परन्तु उमड़ी हुई जनता की आकांक्षापूर्ति के लिए उनका शव तिरंगे राष्ट्रीय ध्वज में लपेट कर उनकी कोठी के दरवाजे पर विराजमान किया गया था। उनके शव पर संसार भर के राष्ट्राध्यक्षों की ओर से फूल चढ़ाये गये । शव यात्रा में सम्मिलित होने के लिए ब्रिटेन के प्रधानमन्त्री सर एलेन डगलस ह्यूम, श्रीलंका की तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती भण्डारनायके, रूस के प्रथम उप-प्रधानमन्त्री श्री अलेक्सी कोसीगिन, ईरान के स्वराष्ट्र मन्त्री, नैपाल के मन्त्री परिषद् के अध्यक्ष डा० तुलसीगिरी, फ्रांस के राज्य वित्तमन्त्री श्री लुई, यूगोस्लाविया के प्रधान मन्त्री श्री सम्बोलिख, ब्रिटिश महारानी के प्रतिनिधि लार्ड माउन्टबेटन, पाकिस्तान के पर-राष्ट्र मन्त्री श्री भुट्टो, अमेरिका के विदेशमन्त्री श्री डीन रस्क आदि अनेक राष्ट्रों के प्रतिनिधि आए हुए थे। त्रिमूर्ति के प्रधानमन्त्री निवास स्थान से शव यात्रा सवा बजे प्रारम्भ हुई। लाखों व्याकुल नर-नारियों की भीड़ से होता हुआ शवयात्रा का जुलूस ६ मील लम्बे मार्ग को तय करके दाह-संस्कार के लिए नियत स्थान पर ठीक सवा चार बजे पहुँचा। श्री नेहरू का तिरंगे झण्डे से ढका हुआ शरीर गेंदा, गुलाब और मोतिया के रंग-बिरंगे फूलों से लदी तोपगाड़ी पर था। तोपगाड़ी को तीनों सेनाओं के आठ सैनिक खींच रहे थे। अर्थी के पीछे राष्ट्रपति के अंगरक्षक, तीनों सेनाओं के अध्यक्ष, इसके बाद नेहरू परिवार के शोक-संतृप्त सदस्य तथा नेतागण थे । जुलूस का नेतृत्व दिल्ली और राजस्थान के क्षेत्रीय सेनापति श्री भगवतीसिंह ने किया। श्री नेहरू का मुख अन्तिम दर्शनों के लिये खुला हुआ था I ठीक सवा चार बजे अन्तिम यात्रा शान्तिघाट पहुँची। यह ३०० गज उत्तर में है। राजघाट पर महात्मा गाँधी की लकड़ी से चिता बनाई गई थी, ३५ सेर शुद्ध घी तथा सामग्री का प्रबन्ध था। पैंतीस मिनट पर प्रधानमन्त्री का शव चिता पर रख दिया गया, असंख्य जनता चीत्कार कर उठी, सैकड़ों मूर्च्छित हुये और कई मर गये । ४ बजकर ३७ मिनट पर तीनों सेनाध्यक्षों ने पूरे सम्मान के साथ राष्ट्रध्वज हटा लिया, मन्त्रोच्चारण के साथ शव पर गंगा-जल छिड़का गया और श्री नेहरू के दूसरे दौहित्र श्री संजय ने पुरोहितों के मन्त्रोच्चारण के साथ कपूर जलाकर चिता प्रज्वलित कर दी। अग्नि धाँय-धाँय कर जलने लगी और लोग “जवाहर लाल नेहरू अमर हो” “चाचा नेहरू जिन्दाबाद” के नारे लगाकर फूट-फूट कर रोते रहे।
          श्री नेहरू की अस्थियाँ, भारत के समस्त प्रान्तों को अपने यहाँ की नदियों में प्रवाहित करने के लिये जिससे कि समस्त देश की जनता अपने प्रिय नेता को अपनी अन्तिम श्रद्धांजलि समर्पित कर सके, प्रदान की गई। समस्त मुख्य मन्त्रियों ने अपने-अपने प्रान्तों में पूर्ण सैनिक सम्मान के साथ, भाव और आँसू भरे लाखों जनसमूह के बीच, अपने पं० नेहरू की अस्थियों और पवित्र भस्म को विसर्जित किया। अस्थि-विसर्जन कार्यक्रम से पूर्व प्रधानमन्त्री की अस्थियों का एक कलश उनके निवास स्थान पर अशोक वृक्ष के नीचे ३० मई से ७ जून तक उनके प्रिय सोफे ” पर रखा रहा। प्रातः से संध्या तक श्रद्धालु जनता का ताँता बँधा रहता, लोग आते और पण्डित जी को श्रद्धा सहित अन्तिम प्रणाम करते और मौन हो चले जाते । यह वही वृक्ष और पण्डित जी का प्रिय सोफा था, जिसके नीचे बैठकर विश्व का यह महान् राजनीतिज्ञ दार्शनिक देश-विदेश की गहनतम समस्याओं पर एकान्त में विचार किया करता था। अस्थि-विसर्जन का मुख्य संस्कार पण्डित नेहरू की इच्छानुसार इलाहाबाद में गंगा-यमुना और सरस्वती के पवित्र संगम पर हुआ । ७ जून को नई दिल्ली से एक स्पेशल ट्रेन द्वारा ये अस्थियाँ प्रयाग ले जायी गईं । यह ट्रेन विशेष रूप से फूलों से सजाई गई थी, अस्थि कलश को रखने का विशेष प्रबन्ध था जिससे प्रत्येक स्टेशन पर दर्शनों के लिये उत्सुक जनता सरलता से अपनी श्रद्धांजलि भेंट कर सके। प्रातः ६ बजकर २५ मिनट पर अस्थि कलश लेकर तोपगाड़ी प्रधानमन्त्री के निवास से नई दिल्ली स्टेशन के लिये रवाना हुई। मार्ग के दोनों ओर खड़े व्यक्तियों ने पण्डित नेहरू का जय-जयकार किया। जुलूस का नेतृत्व सेना के तीनों अंगों के प्रधान कर रहे थे। तोपगाड़ी तीनमूर्ति, विजय चौक, राजपथ, जनपथ और कनाट प्लेस होती हुई नई दिल्ली स्टेशन पर पहुँची। हजारों व्यक्तियों ने स्टेशन पर अपने प्रिय नेता के अन्तिम दर्शन किये। नई दिल्ली से प्रयाग तक के बीच के सभी स्टेशनों पर गाड़ी आधा-आधा घण्टा रुकी, कानपुर में दो घण्टे रुकी। गाड़ी जहाँ भी रुकी अपार जन-समूह वहीं खड़ा मिला, अपने प्रिय नेता की अस्थियों के ही दर्शन करने के लिये । प्रत्येक स्टेशन पर दर्शनार्थियों ने आवेश में रेलवे की समस्त सीमाओं का उल्लंघन कर दिया।
          ८ जून को प्रातः पाँच बजे अस्थि-कलश लेकर जब विशेष रेल प्रयाग पहुँची तो शोक-विह्वल जतना अपने प्यारे नेता को इस रूप में देखकर बरबस रो पड़ी। कलश को रास्ते में आनन्द भवन ले जाया गया, यह अत्यन्त करुणाजनक दृश्य था । आनन्द भवन ने, जो श्री नेहरू के परिवार के राजनीतिक जीवन का महत्वपूर्ण साथी रहा है, आज अपने स्वामी का इस रूप में स्वागत किया। कलश को वहाँ भवन के बरामदे में परिक्रमा करके एक गुलमोहर वृक्ष की छाया में रखा गया, जहाँ समस्त परिवार के व्यक्तियों ने प्रार्थना की। इसके पश्चात् जुलूस संगम के पवित्र तट पर पहुँचा । श्री नेहरू के दोहित्र राजीव और संजय ने जैसे ही पुण्यसलिला गंगा में अपने नाना की भस्मी प्रवाहित को, वैसे ही इलाहाबाद के ऐतिहासिक किले की प्राचीर से द्विवंगत प्रिय नेता के सम्मान में दागी गई तोप का घोष दिशाओं में गूंज उठा। साथ ही मान, श्रद्धानत खड़े दस लाख शोकार्त नर-नारियों के कण्ठ से ‘जवाहरलाल अमर रहे’ की ध्वनि गूंज उठी। श्री नेहरू ने अपनी वसीयत में गंगा को भारत की सभ्यता और संस्कृति का प्रतीक बताया है। एक भावुक और पत्नीनिष्ठ की भाँति श्री नेहरू ने अपनी धर्मपत्नी श्रीमती कमला नेहरू की भस्म जिनका देहावसान १९३६ में हुआ था, एक मंजूषा (डिबिया) में युगों से संजोकर रखी थी और दूसरी में मातृ भक्त पुत्र ने अपनी माँ स्वरूप रानी की । उनकी अन्तिम स्मृति, पण्डित जी के साथ-साथ गंगा में विसर्जित की गई, प्रयागराज के संगम पर यह भी अपूर्व संगम था ।
          स्वर्गीय नेहरू को भारत कितना प्रिय था और वे भारतवासियों से कितना स्नेह करते थे, यह उनकी लिखी हुई अद्वितीय एवं आदर्श वसीयत से स्पष्ट हो जाता है। वे जब तक जीवित रहे, उन्होंने प्रत्येक क्षण भारत की सेवा और उन्नति के अथक प्रयासों में ही व्यतीत किया। मृत्यु के बाद भी वे इसकी मिट्टी के कण-कण में मिल जाना चाहते थे। उनकी इच्छा थी कि उनके शरीर की राख भी व्यर्थ न जाये, उसका भी भारत के खेतों में खाद रूप में उपयोग हो और उसी का अंग बन जाये ।
          १२ जून, ६४ को पण्डित नेहरू की भस्म उनकी अन्तिम इच्छानुसार उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक खेतों, खलिहानों, पहाड़ियों और घाटियों पर बिखेर दी गई और वह भारत के कण-कण का अभिन्न अंग बन गई । यह कार्य भारतीय वायु सेना को सौंपा गया । भस्म बिखेरने के लिये २० स्थान निश्चित किये गये थे । इन स्थानों पर विमानों और हैलीकोप्टरों द्वारा प्रधानमंत्री का पवित्र भस्म बिखेर दिया गया। उनकी भस्म को कश्मीर से पहलगाँव ले जाने वाले वायुयान में श्रीमती इन्दिरा गाँधी थीं और अहमदनगर के किले के पास बिखेरने वाले विमान में श्रीमती विजयालक्ष्मी पण्डित ।
          पण्डित नेहरू के निधन से भारत को कितना दुःख हुआ यह अवर्णनातीत है। कोई समाज, कोई संस्था, कोई संघ, कोई सभा, कोई अधिष्ठान, कोई पंथी, कोई नेता और यहाँ तक कि पैंतालीस करोड़ व्यक्तियों में कोई ऐसा नहीं था, जिसका हृदय फूटकर शतशः विदीर्ण न हुआ हो, जिसने सिसकियाँ न भरी हों और जिसकी आँखों ने आँसू न बहाए हों। बड़े से बड़े राजनीतिज्ञ, महान् से महान् आलोचक, गम्भीर से गम्भीर विचारक दहाड़ मार कर रो उठे अपने प्यारे नेहरू के निधन को सुनकर । भारत का गाँव-गाँव, निःशब्द चीत्कार कर उठा । बारह दिनों का राजकीय शोक तो नियमानुकूल मनाया ही गया, परन्तु वास्तव में देखा जाए तो वह शोक अनन्त था, आज भी है और युगों तक रहेगा। प्रत्येक व्यक्ति चाहे गरीब हो या अमीर, आज भी यही अनुभव कर रहा है, जैसे उसके घर का ही कोई परमप्रिय चल बसा हो । आज भी वह मुँह छिपाकर अपने देश के कर्णधार की याद करके रो लेता है। महात्मा गाँधी के निधन पर जनता इतनी हताश और सन्तप्त नहीं हुई थी वह अपने प्रिय जवाहर को देखकर गाँधी को भी भूल गई, पर आज उसे गाँधी और जवाहर जैसे कर्णधार कोसों दूर तक दिखाई नहीं देते ।
          पं० नेहरू का जन्म प्रयाग में १४ नवम्बर, १८८९ में हुआ था। इनके पिता पं० मोतीलाल नेहरू इलाहाबाद के उच्च कोटि के वकीलों में से थे । यद्यपि वे ब्राह्मण कुल में पैदा हुए थे, फिर भी उनके कठोर कार्यों से क्षत्रियता प्रकट होती थी । वे पाश्चात्य और पौर्वात्य सभ्यता के अद्भुत सम्मिश्रण थे। वे बुद्धिवादी विधि-विशेषज्ञ थे । भावुकता और कल्पना उनसे बहुत दूर थी । वे एक अदम्य, स्वाभिमानी और सनम्र बुद्धिवादी थे । वे अपने साहस और बुद्धिबल के अडिग विश्वासी थे । भारतवर्ष के प्रमुख कानून- विशेषज्ञों में उनकी गणना थी । पं० मोतीलाल नेहरू को मानसिक और भौतिक समृद्धि के समस्त साधन उपलब्ध थे। पिता और परिवार की इस उन्नतम पृष्ठभूमि में जवाहरलाल के व्यक्तित्व का निर्माण हुआ था। पं० जवाहरलाल जी ने अपने पिता के विषय में स्वयं लिखा है कि “वे किसी ऐसे आन्दोलन में भाग नहीं लेना चाहते थे, जिसमें उन्हें किसी दूसरे के इशारों पर नाचना पड़ता हो। मैं उनसे डरता भी बहुत था, नौकरचाकरों पर और दूसरे पर बिगड़ते हुए उन्हें मैंने देखा था, उस समय वे बहुत भयंकर मालूम होते थे और मैं मारे डर के काँपने लगता था।” जवाहरलाल की देख-रेख का सारा प्रबन्ध एक शिक्षित अंग्रेजी महिला पर था। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा एक अंग्रेज मास्टर द्वारा घर पर ही हुई थी। जब जवाहरलाल चौहद वर्ष के हुए, तब पं० मोतीलाल जी का झुकाव अपने योग्य पुत्र की ओर हुआ। सन् १९०५ में ये जवाहरलाल को इंगलैंड में ले गये और वहाँ हैरो के विख्यात विद्यालय में इनका नाम लिखा दिया गया। राजा महाराजाओं के बच्चों के साथ जवाहरलाल की प्रारम्भिक शिक्षा हुई, इसके पश्चात् ये कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में प्रविष्ट हो गए । सात वर्ष तक विलायत में शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात् सन् १९१२ में बैरिस्ट्री पास करके जवाहरलाल भारतवर्ष लौटे।
          देश की राजनीति में उस समय गोपालकृष्ण गोखले तथा लोकमान्य तिलक का नाम विशेष आदर से लिया जाता था । विलायत से लौटकर जवाहरलाल भी देश की राजनीति में भाग लेने लगे। प्रारम्भ में जवाहरलाल जी के विचार अत्यन्त उम्र थे । प्रथम महायुद्ध समाप्त होते ही भारतीय राजनीति ने एक नवीन दिशा बदली । १९१९ के रोलट एक्ट और पंजाब के जलियाँवाला बाग काण्ड ने जवाहरलाल जी को राजनीति में प्रवेश करने का आमन्त्रण दिया। आपने गाँधी जी द्वारा संचालित असहयोग आन्दोलन में भाग लेना शुरू कर दिया। उस समय से अपने जीवन के अन्तिम क्षणों तक पं० नेहरू ने अनेक बार जेल यात्रायें कीं, असह्य यातनायें सहीं । परन्तु वे निर्भीकतापूर्वक अपने स्थान पर अडिग रहे । देश के भाग्य पर अनेक बार भयंकर आपत्तियाँ आयीं, परन्तु उन्होंने सबका बड़े साहस और धैर्य से तथा शान्तिपूर्ण प्रयत्नों से सामना किया।
          लाहौर में पवित्र-सलिला रावी के पुनीत तट पर १९२९ में अखिल भारतीय कांग्रेस के अधिवेशन में पं० नेहरू को सर्वसम्मति से प्रथम बार अध्यक्ष बनाया गया था। उन्हीं की अध्यक्षता में भारतवर्ष की स्वतन्त्रता का प्रस्ताव पास हुआ । इसके पश्चात् नेहरू जी की लोकप्रियता और मान-मर्यादा उत्तरोत्तर बढ़ती गई और उन्होंने समस्त भारतीयों के हृदय-राज्य पर अधिकार कर लिया चाहे वह किसी धर्म और किसी सम्प्रदाय का क्यों न हो।
          जब १९२० में देश में असहयोग आन्दोलन प्रारम्भ हुआ, पं० नेहरू बड़े प्रसन्न हो उठे, उन्होंने इसमें भाग लिया। इस आन्दोलन में अवध के किसानों ने बड़ा भाग लिया । तभी से ये जनता के निकट सम्पर्क में आए । जनता की संगठन शक्ति से परिचित हुए, इसी आन्दोलन में इन्हें सर्वप्रथम जेल जाना पड़ा । पं० नेहरू के ही आग्रह से सन् १९२८ में कलकत्ते वाले कांग्रेस अधिवेशन में अंग्रेजों को एक वर्ष के भीतर औपनिपेशिक स्वराज्य देने की चुनौती दी गई । परन्तु अंग्रेजी सरकार ने कोई ध्यान नहीं दिया। अगले वर्ष १९२९ में लाहौर में पं० नेहरू कांग्रेस के अध्यक्ष निर्वाचित हुए । पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव पास किया गया । सम्पूर्ण देश में स्वाधीनता दिवस मनाया गया | १९३० में नमक सत्याग्रह में भाग लेने के कारण उन्हें फिर जेल में बन्द कर दिया गया। देश में आन्दोलन उग्र रूप धारण कर चुका था। जब ये जेल से मुक्त हुए, उसके आठवें दिन इन्हें अट्ठारह महीने के कारावास की आज्ञा हुई । “गाँधी इरविन समझौता” होने पर इन्हें छोड़ दिया गया । अब पं० नेहरू शांत होने वाले नहीं थे। जेल से आते ही उत्तर प्रदेश में किसान आन्दोलन का नेतृत्व आरम्भ कर दिया । परिणामस्वरूप इन्हें फिर जेल जाना पड़ा । इस बार छः महीने की सजा मिली। इसके पश्चात् कलकत्ते में राजद्रोहात्मक भाषण देने के अपराध में इन्हें दो वर्ष की जेल यात्रा फिर मिल गई । अब की बार जब जेल से बाहर आए, तो इनकी पत्नी श्रीमती कमला नेहरू का दीर्घकालीन अस्वस्थता के उपरान्त स्वर्गवास हो चुका था । १९३६ और ३७ में क्रमश: लखनऊ और फैजपुर कांग्रेस अधिवेशनों में उन्होंने अध्यक्ष पद सुशोभित किया। सन् १९३९ में द्वितीय विश्वयुद्ध प्रारम्भ हुआ। भारतीयों की सलाह के बिना ही अंग्रेजों ने भारतवर्ष को युद्ध के लिए सम्मिलित राष्ट्र घोषित कर दिया। सरकार की इस नीति की पं० नेहरू ने बड़ी कटु आलोचना की और समस्त देश में इसके विरुद्ध आन्दोलन प्रारम्भ हो गया। जनता ने जवाहर के स्वर में स्वर मिलाया। फलस्वरूप अंग्रेजों ने इन्हें पुनः राजद्रोह के अपराध में चार वर्ष के लिए कारावास का दण्ड दे दिया। सारा देश क्षुब्ध हो उठा, चारों ओर विद्रोह, लूट, आग लगाने को घटनायें होने लगीं। रेल की पटरियाँ उखाड़ कर फेंक दी गई, थाने और डाकखाने जलाकर भस्म कर दिये गए, तार टेलीफोन का कोई पता नहीं रहा । लाल पगड़ियाँ आसमान में उछलने लगीं। अंग्रेजों ने भी बड़ी कठोरता से सन् ४२ के आन्दोलन का दमन करना प्रारम्भ किया, परन्तु यह दमन, अग्नि में आहुति का काम करने लगा। भीषण हाहाकार के पश्चात् १५ जून सन् ४५ को पं० नेहरू को छोड़ दिया गया । वह इनकी नवीं जेल यात्रा थी। आते ही उन्होंने आजाद हिन्द फौज के सिपाहियों को छुड़ाने का महान् प्रयत्न किया, सरकार को उन्हें छोड़ना पड़ा क्योंकि नेहरू और भारतीय जनता में कोई भेद नहीं था । अंग्रेजों ने घबराकर २ सितम्बर, १९४६ को भारत में एक अन्तरिम सरकार की स्थापना की, जिसके पं० नेहरू प्रधानमन्त्री नियुक्त हुए। इसके पश्चात् देश में अंग्रेजों ने साम्प्रदायिक उपद्रव प्रारम्भ कर दिये। चारों ओर भयानक अराजकता छा गई, • मनुष्य-मनुष्य के प्राणों से खेलने लगा। देश का विभाजन हुआ। पं० नेहरू ने बड़ी से बड़ी कठिनाई और समस्याओं को अपने मजबूत कन्धों पर सहा। नेहरू जी गणतन्त्र भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री हुए, गहन से गहन समस्याओं को बड़ी बुद्धिमानी से सुलझाते हुए भारत को पूर्ण समृद्धिशाली बनाने में लगे रहे । सन् १९४७ में ही उन्होंने अन्तर एशियाई सम्मेलन किया, जिसका सभापतित्व आपको ही दिया गया।
          पं० नेहरू अद्वितीय राजनीतिज्ञ होने के साथ-साथ एक उच्च कोटि के लेखक भी थे। विश्व साहित्य आपकी रचनाओं से अपने को गौरवान्वित समझता है। आपके कई ग्रन्थ, जैसे डिस्कवरी ऑफ इण्डिया या पंडित जी की स्वयं की जीवनी, संसार के सभी भागों में बड़ी रुचि और श्रद्धा के साथ पढ़ी जाती है। बड़े-बड़े विद्वान उनकी लिखी हुई पंक्तियों पर मनन करते हैं। वे मौलिक शैली के लेखक होने के अतिरिक्त करोड़ों जनता को मन्त्र मुग्ध कर देने वाले वक्ता भी थे । सिद्धान्त भेद रखने वाले व्यक्ति भी आपके भाषण के बाद आपकी हाँ में हाँ बिना मिलाए नहीं रह सकते थे।
          पं० नेहरू एक अन्तर्राष्ट्रीय महापुरुष थे। विश्व राजनीति के रंगमंच पर उन्होंने जहाँ एशिया के दस देशों के मुक्तिदाता का कार्य किया, वहाँ अपनी तटस्थता की नीति, मानवता और विश्वशान्ति के स्वर से उन देशों को भी विनाश के गर्त से बचा लिया, जो पारस्परिक सन्देह और भय के वशीभूत होकर युद्ध के कगार तक पहुँच गये थे। विश्व भर में वे शान्ति दूत के नाम से विख्यात थे । पुर्तगाल को छोड़कर विश्व का शायद ही कोई ऐसा देश हो, जहाँ इस महामानव के निधन पर शोक प्रकट न किया गया हो। संसार के समस्त राष्ट्राध्यक्षों ने श्रीमती गाँधी तथा राष्ट्रपति को संवेदना संदेश भेजे। विश्व के राष्ट्रों के प्रतिनिधियों ने उनकी शव यात्रा में भाग लिया, उनके अन्तिम दर्शन करके पुष्पांजलि समर्पित की।
          नेहरू जी एशिया के प्रेरणा स्त्रोत थे। उन्होंने एशिया को नई दिशा दी, नई रोशनी में नया सन्देश दिया। एशियाई देशों की संस्कृति, सभ्यता और परम्पराओं की रक्षा करने के लिए नेहरू जी उतने ही चिन्तित रहते थे, जितने भारत के लिए। उन्होंने समस्त एशिया और यूरोप के देशों ने मिलकर एक स्वर से के लिए एक ऐसा अस्तित्व प्रदान किया, जिसे यह महाद्वीप, यूरोप की प्रभुसत्ता के कारण भूल गया था। आज नेहरू के अभाव में समस्त एशिया शोक से चींख उठा, मानो उसका शक्ति-स्त्रोत सूख गया हो। नेहरू के चले जाने से एशिया के लोगों ने एक ऐसे नेता को खो दिया, जिसने उनके दुख दर्द को समझा और समय पड़ने पर सही सम्मति दी। समस्त एशिया और यूरोप के देशों ने मिलकर एक स्वर से यही कहा कि अब शान्ति का विश्व दूत और दासता का मुक्तिदाता संसार में नहीं रहा।
          श्री नेहरू के निधन से राष्ट्र को जो क्षति हुई है, उसकी पूर्ति युगों तक न हो सकेगी। ऐसे युग पुरुष संसार में मानव कल्याण के लिए यदा-कदा ही उत्पन्न होते हैं। श्री नेहरू आधी शताब्दी से भी अधिक भारतीय जन-जीवन समाज और राष्ट्रों पर छाए रहे, उनका कुछ भी अपने लिए न था। सब कुछ समाज और राष्ट्र के लिए अर्पित था। श्री नेहरू ने अनेक रूपों में जनता की सेवा की। वे सफल साहित्यकार थे, दूरदर्शी कूटनीतिज्ञ थे, तत्वदर्शी साधक थे, मर्मज्ञ राष्ट्रचिन्तक थे, युग-पुरुष दासता के मुक्तिदाता थे और ये युग – निर्माता, युग सृष्टा। उनके जीवन के प्रमुख साथी थे अभय और साहस। वे चाहते तो सफल बैरिस्टर बनकर सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश बन सकते थे, वे चाहते तो संसार के महान् प्रसिद्ध लेखक हो सकते थे। वे चाहते तो धनी पिता के उत्तराधिकारी के रूप में आनन्द भवन में विलास और विनोद कर सकते थे वे चाहते तो तत्कालीन ब्रिटिश सरकार से समझौता करके उच्च पद प्राप्त कर सकते थे, परन्तु उन्होंने सभी सुख एवं सुविधाओं को लात मार दी। तन, मन, धन से जनता जनार्दन की सेवा को ही अपना जीवन-धर्म बनाया। निरन्तर तीस वर्षों तक वे ब्रिटिश शासन से जूझते रहे भारत को मुक्ति प्रदान कराने के लिये1 जेलों में अनन्त यातनायें और ताड़नायें सहीं, अपनी आँखों के आगे अपने घर और वैभव को बरबाद होते देखा, परन्तु अपने पुनीत पथ का परित्याग नहीं किया, तभी तो देश का बच्चा-बच्चा भी “जवाहरलाल की जय” बोलने लगा था। यह था “दासता के मुक्तिदाता” नेहरू का प्रथम स्वरूप । उनका द्वितीय महान् स्वरूप इस भारत की डगमगाती नौका को मजबूती से साधे हुये, तूफानों से बचाते हुये किनारे पर लाने का था, जिसे “आधुनिक भारत का निर्माता” कहा जाता है। नेहरू ने अपने १७ वर्ष के प्रधानमन्त्रित्व काल में अपनी शक्ति और सामर्थ्य से भी अधिक भारत की सर्वांगीण उन्नति के लिये कार्य किया । इतिहास इसे कभी नहीं भुला सकता। नेहरू कहा करते थे –
          “मुझे इसकी कतई चिन्ता नहीं है कि मेरे दूसरे लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे। मेरे लिए तो बस इतना ही काफी है कि मैंने अपने को, में खपा दिया।
          कुछ दिनों से सम्भवतः उन्हें अपने जीवन के अन्त का कुछ अनुभव लगा था, इसी कारण से उन्होंने और भी अधिक कार्य करना प्रारम्भ कर दिया था। पिछले एक वर्ष से उन्होंने अपनी मेज पर, अपने हाथ से, पैड़ पर अमेरिकी कवि रोबर्ट फ्रास्ट की निम्नलिखित कविता लिख रखी थी। यह पैड एक साल से उनकी मेज पर रखा रहता था जिस पर वे काम करते थे। इन पंक्तियों से उन्हें प्रेरणा मिलती थी। पंक्तियों का अनुवाद इस प्रकार हैं
“जंगल प्यारे हैं, घनेरे और अंधेरे I
लेकिन मैने वायदे किये थे, जो पूरे करने हैं I 
और अभी मीलों दूर का सफर  सफर करना है।
दूर जाना है, सोने से पहले, दूर, मीलों दूर ॥ “
          उनका तीसरा महान् स्वरूप “एशिया का प्रेरणा स्त्रोत एवं जागरण का महान् उद्घोषक” ह, सान से पहले, दूरदूर ॥” था। आज समस्त एशिया के राष्ट्र अपने को असहाय-सा पा रहे हैं, ऐसा अनुभव करते हैं, मानो उनकी वाणी ही समाप्त हो गई हो। चौथा श्री नेहरू का महानतम स्वरूप ‘विश्व-नेता’ का था। वे समस्त विश्व में शान्ति दूत कहे जाते थे, विश्व की समस्त जनता उनके सामने झुकती थी, विश्व के बड़े से बड़े राष्ट्राध्यक्ष नेहरू के मुख से निकले एक-एक वाक्य पर घण्टों विचार करते थे और कान लगाकर सुनते थे कि अब क्या कहेगा वह महामानव, वह युग पुरुष, जिसमें शान्ति, सहअस्तित्व, मानवता, स्वतन्त्रता, न्यायप्रियता, तटस्थता, सत्यता, प्रेम और अहिंसा आदि सिद्धान्त केन्द्रीभूत थे। उस विराट व्यक्तित्व के प्रति विश्व एक कोने से दूसरे कोने तक श्रद्धायुक्त नमन कर रहा है ।
          विश्व से किसी का मित्र गया, किसी का साथी गया और किसी का सलाहकार गया, परन्तु भारत से क्या गया? उसका सब कुछ चला गया, आज उसकी कमर टूट चुकी है। श्री नेहरू का अनोखा आकर्षक व्यक्तित्व था । उसके सामने किसका साहस था, जो सिर उठा सके, चाहे वह देश का हो या विदेश का । पैंतालीस करोड़ नर-नारी, अपने जवाहर के हाथों अपनी बागडोर सौंपकर आराम से सोते थे और कह देते थे जो करेंगे ठीक है। उन्होंने इस राष्ट्र को अन्य राष्ट्रों की श्रेणी में स्पृहणीय स्थान प्रदान कराने के लिये राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक क्षेत्र में नवीन मापदण्ड स्थापित किये। अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में भारत का सर्वसम्माननीय तटस्थ रूप और राष्ट्रीय क्षेत्र में लोकतन्त्र, सामाजिक न्याय और स्मृद्धि की ओर बढ़ते चरण उन्हीं के अथक प्रयासों का परिणाम है। उनकी सहिष्णुता और विवेक ने देश की अनेक बार संकट से रक्षा की। उन्होंने व्यवहार के ऐसे मापदण्ड स्थापित किये, जो चिरकाल तक इस देश के लिए आदर्श बने रहेंगे ! आज नेहरू-युग समाप्त हो चुका है, देश के नागरिकों ने और नये नेताओं ने नेहरू के पद-चिन्हों पर चलने की शपथ ली है। यदि देश के कर्णधार उसी पर चलते रहे, तो देश सदैव आगे बढ़ता रहेगा, अन्यथा देश की सुरक्षा और स्वतन्त्रता संकट में पड़ जायेगी क्योंकि गाँधी जी का उत्तराधिकारी अब नहीं रहा –
          “जवाहरलाल मेरा उत्तराधिकारी होगा। उसका कहना है कि मेरी जुबान नहीं समझता और वह एक ऐसी भाषा बोलता है, जो मेरे लिए विदेशी है। यह बात ठीक भी हो सकती है। लेकिन दो दिलों के मिलाप में भाषा बाधा नहीं बन सकती। मैं इतना जानता हूँ कि मैं नहीं रहूँगा, तो वह मेरी भाषा बोलेगा |” – महात्मा गाँधी 
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