जननी जन्मभूमिश्च

जननी जन्मभूमिश्च

          किसी कवि की यह उक्ति बड़ी ही सारगर्भित है कि –
जन्मदात्री माँ अपरिमित प्रेम में विख्यात है। 
किन्तु वह भी मातृभूमि के सामने बस मात है ।।
          जननी और जन्मभूमि दोनों ही महान हैं। जननी को ईश्वर के सदृश और प्रथम गुरु कहा गया है – ईश्वर को सर्वप्रथम ‘त्वमेव माता’ कहा गया है और ‘माता गुरुणां गुरु’ कह करके माता की सर्वोपरि महिमा बताई गयी है। माता का महत्त्व हमारे धर्मग्रन्थों में बार-बार विविध रूपों के द्वारा प्रदर्शित किया गया है। माता की ममता और उसका प्यार भरा वात्सल्य और उसकी अपार स्नेह आदर का उमड़ता समुद्र भला और कहाँ है । इसीलिए महाकवि तुलसी ने कहा भी है कि –
माता बिनु आदर कौन करे, वर्षा बिनु लागर कौन करे । 
राम बिनु दुःख कौन हरे, तुलसी बिनु भक्ति कौन करे ।। 
          माँ का स्वरूप सहज और विशिष्ट होता है। माता धरती है। धरती की तरह वह जन्मदात्री, रक्षक, पालन-पोषण की अद्भुत शक्ति और उपकार स्वरूप है । इसलिए अपनी संतान के अनापेक्षित और अनुचित व्यवहार को सहन करती हुई उसे पल्लवित और पुष्पित करने से पीछे नहीं हटती है । इसीलिए माँ को देवता और ईश्वर के रूप में समझते हुए माँ के प्रति अपनी श्रद्धा और विश्वास को व्यक्त करने के लिए कहा गया –
‘मातृ देवो भवः ।’
          माँ की महिंमा-गान न केवल नर समाज और असुर समाज में किया जाता है अपितु देव समाज भी इसे अपनी पूरी निष्ठा सहित माना जाता है। देवी का माँ के प्रति मानव की ही तरह सामान्य रूप में विश्वास – श्रद्धा समर्पित नहीं है। अपितु यह कहीं अधिक विशिष्ट और प्रभावशाली रूप में है। सभी देवों की आपदा – विपदा का निवारण माँ भगवती दुर्गा-काली आदि सब माँ की ही अपरंपार शक्ति है। इसके अभाव में किसी समय सारी देव कोटियाँ पराभव का मुँह देखती हुई किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो रही थीं ।
          जन्म भूमि की गरिमा और गौरव जन्मदात्री के समान ही है। जन्मभूमि है क्या ? माता ही तो है । वह माता के ही समान हमारा पालन-पोषण करती है । उसके आँचल में लोट-पोट कर हम बड़े होते हैं। मातृभूमि के सुखद वातावरण में हम अपना जीवन विकसित करते हैं। हमारी आत्मा का निर्माण इसकी संस्कृति और परम्पराएँ करती हैं। इसलिए हमें अपने देश के महत्त्व और महिमा को हर कीमत पर बनाए रखने के लिए कमर कसकर तैयार रहना चाहिए; हमें सच्चा देशप्रेमी बनना चाहिए क्योंकि इसी से मनुष्यता का पूर्ण विकास होता है-
“स्वदेश प्रेम वह पुण्य क्षेत्र है, अमल असीम त्याग से विलसित । 
जिनकी दीव्य रश्मियाँ पाकर मनुष्यता होती है विकसित । 
          तथापि
जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं ।
वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं ।।
          देश प्रेम की कसौटी पर कौन खरा उतर सकता है, इसे स्पष्ट करते हुए आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कहा है कि–
          “जो हृदय संसार की जातियों के बीच अपनी जाति की स्वतंत्र सत्ता का अनुभव नहीं कर सकता; वह देश – प्रेम का दावा नहीं कर सकता। इस स्वतंत्र सत्ता से अभिप्राय स्वरूप की स्वतंत्र सत्ता है। केवल अन्न-धन संचित करने और अधिकार भोगने की स्वतंत्रता से नहीं ।” इसी अभिप्राय को प्रस्तुत करते हुए राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा है-
“जिसको न निज जाति, निज देश का अभिमान है। 
वह नर नहीं है, पशु निरा है और मृतक समान है।।
          वास्तव में देश-प्रेम से ही जीवन की सार्थकता सिद्ध होती है; अन्यथा निरर्थकता के सिवाय और किसकी कल्पना की जा सकती है।
          जन्मभूमि और जन्मदात्री दोनों का महत्त्व एक आदर्श, सपूत और स्वाभिमानी के द्वारा ही बढ़ सकता है। अन्य देशों की तरह हमारे भारत में ऐसे युग – पुरुषों की कमी नहीं है, जिन्होंने न केवल अपनी जननी की कोख को वीर प्रसविनी अपितु अपनी मातृभूमि को भी अमर सेनानी का वक्षस्थल प्रस्तुत करते हुए इसे स्वर्णाक्षरांकित इतिहास से सिद्ध किया है। गौतम बुद्ध, विक्रमादित्य, महावीर स्वामी, युधिष्ठिर, सुभाषचन्द्र बोस, भगत सिंह, वीर सावरकर, बाल गंगाधर तिलक, महात्मा गाँधी सरीखे ने ज्ञान कितने ही महापुरुषों ने जननी और जन्मभूमि की मर्यादा की रक्षा के लिए अपने प्राणों को तिल-तिल विनष्ट होने देने में अपने जीवन की सार्थकता को स्वीकार किया। इसी के लिए अपने को तन-मन से समर्पित कर एक अद्भुत अनुकरणीय मार्ग प्रदर्शित किया। ऐसे महापुरुषों के लिए ही जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी श्रेष्ठतर और महानतर है। –
“जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी I”
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