चाँदनी रात में नौका-विहार
चाँदनी रात में नौका-विहार
प्रकृति की सुषमा सबको अपनी ओर आकर्षित कर लेती है। इस आकर्षण का मुख्य कारण है- प्रकृति का परिवर्तनशील स्वरूप । प्रकृति कभी भी एक दशा में नहीं रहती है। दिन में उसकी शोभा कुछ और है, तो रात को कुछ और, सुबह-शाम कुछ और। चाँदनी का प्रकाश जिस आकर्षण के साथ दिखाई पड़ता है। इससे सूर्य का आकर्षण भिन्न है।
एक बार हम कई मित्र मिलकर यही सोच ही बैठे कि कहीं घूमने-फिरने चला जाए। कुछ मित्रों का यह विचार हुआ कि क्यों न हम लोग वहाँ घूमने चलें जहाँ पहले कभी न गए हों। इतने में ही एक मित्र ने कहा छोड़ो भी रात की इस अनुपम छटा को देख रहे हो। कैसा है चाँदनी का प्रकाश और कैसी है यह मनमोहिनी रात । इतना सुनते हुए तीसरे मित्र ने कहा तो ठीक है । कल हम लोग इस चाँदनी रात में नौका-विहार का आनन्द लेंगे। इस प्रस्ताव पर हम लोग सहमत हो गए ।
दूसरे दिन हम सब मिलकर पूरी तैयारी के साथ गंगा तट पर आ गए। मल्लाह से नाव तय की। रात के समय नौकायान करने के लिए मल्लाह पहले तैयार नहीं हो रहा था लेकिन हम लोगों की बढ़ी हुई उमंग को देखकर वह तैयार हो गए। हम लोग बहुत ही खुश थे। खुशी के गीत गुनगुना रहे थे ।
गर्मी का समय था। रात के आठ बज रहे थे । प्राकृतिक वातावरण नीरव और निर्जन हो चला था । धीरे-धीरे हवा बह रही थी। गंगा की लहरों में उछाल नाममात्र को था । आकाश से चाँदनी धीरे-धीरे उतर रही थी। पूरा वातावरण दूधिया प्रकाश से नहा रहा था । हम सब नाव पर बैठते ही एक साथ बोल उठे-‘जय गंगे ! जय माँ, जय जय माँ !’ मल्लाह ने हम लोगों से नाव खोलने से पहले पूछ लिया था कि ‘नाव बढ़ाऊँ’ ? हम लोग एक ही साथ बोल पड़े थे- ‘भाई अब किसका इन्तजार करना है ? मल्लाह ने नाव खोल दी और नाव धीरे-धीरे चल पड़ी ।
नाव के चलते-चलते हम लोगों ने करतल ध्वनि से कुछ मिश्रित गीत गाना शुरू कर दिया। नाव अब तेज धरा से होकर मनमाते ढंग से बहने लगी । वह इतनी तेज जा रही थी कि हम लोग वैसे ही अनुभव कर रहे थे कि मानो चलती ट्रेन में बैठे हों । किनारे के पेड़-पौधे विपरीत दिशा की ओर भागते दिखाई दे रहे थे । आकाश के तारे भागते हुए नजर आ रहे थे। आगे के दृश्य के पास आने से तनिक भी देर नहीं लगती थी। हम सब कभी-कभी इधर-उधर ध्यान दे रहे थे। इससे अधिक तो केवल मस्ती की धुन में रमे जा रहे थे ।
जब हमारी नाव नदी की मध्य धारा और उसके भंवर में प्रवेश कर गयी, तब उस समय का दृश्य हमारे लिए सचमुच एक अभूतपूर्व शोभा के समान हमारे तन-मन को आकर्षित करने लगा था। उस समय हम लोग कुछ देर तक प्रकृति की इस अनुपम शोभा को देख-देखकर आत्म-विभोर होकर धन्य धन्य हो रहे थे।
चाँदनी के पूरे प्रकाश में हमें यह प्रकृति-रूप कुछ वैसे ही दिखाई दे रहा था; जैसे कविवर पंत ने ‘नौका-विहार’ शीर्षक अपनी कविता में चित्रित किया है –
शान्त स्निग्ध, ज्योत्स्ना धवल ।
अपलक अनंत नीरव भूतल ।
सैकत शैय्या पर दुग्ध- धवल,
तन्वंगी ग्रीष्म विरूल ।
लेटी है श्रान्त, क्लान्त, निश्चल
तापस बाला गंगा, निर्मल,
शशि-मुख से दीपित मृदु-करतल ।
लहरें उर पर कोमल कुन्तल ।
सचमुच में उस समय उस समस्त वातावरण स्निग्ध था; जिस पर चन्द्रमा की धवल रूपरेखा साफ-साफ दिखाई दे रही थी। बालू की शय्या पर पड़ी गंगा की तरल तरंगें कोमलांगी के दुग्ध धवलता को प्रमाणित कर रही थींउस समय गंगा का स्वरूप शान्त, दुबली-पतली बाल तपस्वीनी की तरह दिखाई पड़ रहा था । इसका चन्द्रमुख चन्द्र-किरणों से शोभित होता हुआ मन को आकर्षित कर रहा था। इस समय गंगा की लोल लहर हमारे तन-मन को एक निश्चल और गहरे चिन्तन में उतार रही थीं। सचमुच में उस समय हम सांसारिकता को भूलकर एक अलौकिक और अद्भुत आनन्द का लाभ प्राप्त कर रहे थे
इस धारा-सा ही जग का क्रम,
शाश्वत इस जीवन का उद्गम
शाश्वत है गति, शाश्वत संगम ।
शाश्वत नभ का नीला विकास,
शाश्वत शशि का यह रजत हाथ।
शाश्वत लघु लहरों का विलास !
हे जग-जीवन के कर्णधार !
चिर जन्म-मरण के आर-पार,
शाश्वत जीवन-नौका विहार !
धीरे-धीरे हमारी नाव किनारे पर आ लगीं। परलोक और अलोक से हम लोग एकदम इस लोक में आ गए। अचानक हम लोगों का ध्यान भंग हो गया। जैसे नींद से हमारी आँखें खुल गयीं। हमने धीरे-धीरे अनुभव किया कि यह संसार-चक्र जो प्रकृति से संचालित होता है, शाश्वत है। और अटूट एवं अखण्डित है । आकाश का नीला विस्तार, चन्द्र की चाँदनी मुस्कान, गंगा की शाश्वत लहरें आदि अभी कुछ शाश्वत हैं। हे संसार का निर्माण करने वाले प्रभु ! आप सचमुच में चिर नवीन हैं और जन्म-मृत्यु से परे हैं। नौका-विहार भी इसी संदर्भ में शाश्वत और चिर नवीन है जिसे हम बार-बार अनुभव कर रहे थे। इस प्रकार से हमने चाँदनी रात में नौका विहार करके अद्भुत आनन्द को प्राप्त कर लिया।
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