कृषि Agriculture
कृषि Agriculture
♦ भारत की दो-तिहाई जनसंख्या कृषि कार्यों में संलग्न है।
♦ कृषि हमारे देश की प्राचीन आर्थिक क्रिया है। पिछले हजारों वर्षों के दौरान भौतिक पर्यावरण, प्रौद्योगिकी और सामाजिक सांस्कृतिक रीति-रिवाजों के अनुसार खेती करने की विधियों में सार्थक परिवर्तन हुआ है।
कृषि के प्रकार
♦ जीवन निर्वाह खेती से लेकर वाणिज्य खेती तक कृषि के अनेक प्रकार हैं।
♦ वर्तमान समय में भारत के विभिन्न भागों में कई प्रकार के कृषि तन्त्र अपनाए गए हैं।
प्रारम्भिक जीविका निर्वाह कृषि
♦ प्रारम्भिक जीवन निर्वाह कृषि भूमि के छोटे टुकड़ों पर आदिम कृषि औजारों जैसे लकड़ी के हल, डाओ (dao) और खुदाई करने वाली छड़ी तथा परिवार अथवा समुदाय श्रम की मदद से की जाती है।
♦ इस प्रकार की कृषि प्रायः मानसून, मृदा की प्राकृतिक उर्वरता और फसल उगाने के लिए अन्य पर्यावरणीय परिस्थितियों की उपयुक्तता पर निर्भर करती है।
♦ यह ‘कर्तन दहन प्रणाली’ (Slash and burn) कृषि है। किसान जमीन के टुकड़े साफ करके उन पर अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए अनाज व अन्य खाद्य फसलें उगाते हैं। जब मृदा की उर्वरता कम हो जाती है तो किसान उस भूमि के टुकड़े से स्थानान्तरित हो जाते हैं और कृषि के लिए भूमि का दूसरा टुकड़ा साफ करते हैं।
♦ देश के विभिन्न भागों में इस प्रकार की कृषि को विभिन्न नामों से जाना जाता है। उत्तर पूर्वी राज्यों असोम, मेघालय, मिजोरम और नागालैण्ड में इसे ‘झूम’ कहा जाता है मणिपुर में पामलू (Pamlou) और छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले और अण्डमान निकोबार द्वीप समूह में इसे ‘दीपा’ कहा जाता है।
♦ ‘झूम’ ‘कर्तन दहन प्रणाली’ कृषि को मैक्सिको और मध्य ‘रोका’,अमेरिका में ‘मिल्पा’, वेनेजुएला में कोनुको’, ब्राजील में मध्य अफ्रीका में ‘मसोले’, इंडोनेशिया में ‘लदांग’ और वियतनाम में ‘रे’ के नाम से जाना जाता है।
गहन जीविका कृषि
♦ इस प्रकार की कृषि उन क्षेत्रों में की जाती है जहाँ भूमि पर जनसंख्या का दबाव अधिक होता है।
♦ यह श्रम – गहन खेती है जहाँ अधिक उत्पादन के लिए अधिक मात्रा में जैव-रासायनिक निवेशों और सिंचाई का प्रयोग किया जाता है।
वाणिज्यिक कृषि
♦ इस प्रकार की कृषि के मुख्य लक्षण आणविक निवेशों जैसे अधिक पैदावार देने वाले बीजों, रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के प्रयोग से उच्च पैदावार प्राप्त करना है।
♦ कृषि के वाणिज्यिकरण का स्तर विभिन्न प्रदेशों में अलग-अलग है। उदाहरण के लिए हरियाणा और पंजाब में चावल वाणिज्य की एक फसल है परन्तु ओडिशा में यह एक जीविका फसल है।
♦ रोपण कृषि भी एक प्रकार की वाणिज्यिक खेती है। इस प्रकार की खेती में लम्बे-चौड़े क्षेत्र में एकल फसल बोई जाती है।
♦ रोपण कृषि, उद्योग और कृषि के बीच एक अन्तरापृष्ठ (Interface) है।
♦ रोपण कृषि व्यापक क्षेत्र में की जाती है जो अत्यधिक पूँजी और श्रमिकों की सहायता से की जाती है। इससे प्राप्त सारा उत्पादन उद्योग में कच्चे माल के रूप में प्रयोग होता है।
♦ भारत में चाय, कॉफी, रबड़, गन्ना, केला इत्यादि महत्त्वपूर्ण रोपण फसलें हैं।
♦ इसके विकास में परिवहन और संचार सामान से सम्बन्धित उद्योग और बाजार महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं।
शस्य प्रारूप
♦ देश में बोई जाने वाली फसलों में अनेक प्रकार के खाद्यान्न और रेशे वाली फसलें, सब्जियाँ, फल, मसाले इत्यादि शामिल हैं।
♦ भारत में तीन शस्य ऋतुएँ हैं जो इस प्रकार हैं- रबी, खरीफ और – जायद।
♦ रबी की फसल को शीत ऋतु में अक्टूबर से दिसम्बर के मध्य बोया जाता है और ग्रीष्म ऋतु में अप्रैल से जून के मध्य काटा जाता है। गेहूँ, जौ, मटर, चना और सरसों कुछ मुख्य रबी की फसलें हैं। यद्यपि ये फसलें देश के विस्तृत भाग में बोई जाती हैं। उत्तर और उत्तरी पश्चिमी राज्य जैसे- पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, उत्तराखण्ड और उत्तर प्रदेश- गेहूँ और अन्य रबी फसलों के उत्पादन के लिए महत्त्वपूर्ण राज्य हैं।
♦ खरीफ की फसलें देश के विभिन्न क्षेत्रों में मानसून के आगमन के साथ बोई जाती हैं और सितम्बर अक्टूबर में काट ली जाती हैं। इस ऋतु में बोई जाने वाली मुख्य फसलों में चावल, मक्का, ज्वार, बाजरा, तुर (अरहर), मूँग, उड़द, कपास, जूट, मूँगफली और सोयाबीन शामिल हैं।
♦ चावल की खेती मुख्य रूप से असोम, पश्चिमी बंग, ओडिशा आन्ध्र प्रदेश, तमिलनाडु, केरल और महाराष्ट्र विशेषकर कोंकण तटीय क्षेत्रों, उत्तर प्रदेश और बिहार में की जाती है।
♦ असोम, पश्चिमी बंग और ओडिशा में धान की तीन फसलें-ऑस, अमन और बोरो बोई जाती हैं।
♦ रबी और खरीफ की फसल ऋतुओं के बीच ग्रीष्म ऋतु में बोई जाने वाली फसल को जायद कहा जाता है।
♦ जायद के अन्तर्गत मुख्यतः तरबूज, खरबूजे, खीरे, सब्जियों और चारे की फसलों की खेती की जाती है।
मुख्य फसलें
♦ भारत में उगाई जाने वाली मुख्य फसलें-चावल, गेहूँ, मोटे अनाज, दालें, चाय, कॉफी, गन्ना, तिलहन, कपास और जूट इत्यादि हैं।
चावल
♦ भारत में अधिकांश लोगों का खाद्यान्न चावल है।
♦ हमारा देश चीन के बाद दूसरा सबसे बड़ा चावल उत्पादक देश है। यह एक खरीफ की फसल है जिसे उगाने के लिए उच्च तापमान (25° C से ऊपर) और अधिक आर्द्रता (100 सेमी से अधिक वर्षा) की आवश्यकता होती है।
♦ कम वर्षा वाले क्षेत्रों में इसे सिंचाई करके उगाया जाता है।
गेहूँ
♦ गेहूँ भारत की दूसरी सबसे महत्त्वपूर्ण खाद्यान्न फसल है, जो देश के उत्तर और उत्तर-पश्चिमी भागों में पैदा की जाती है।
♦ यह रबी की फसल है, इसलिए इसे उगाने के लिए शीत ऋतु और पकने के समय खिली धूप तथा समान रूप से वितरित 50 से 75 सेमी वार्षिक वर्षा की आवश्यकता होती है।
♦ देश में गेहूँ उगाने वाले दो मुख्य क्षेत्र हैं— उत्तर-पश्चिम में गंगा – सतलज का मैदान और दक्कन का काली मिट्टी वाला प्रदेश। पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान और मध्य प्रदेश के कुछ भाग गेहूँ पैदा करने वाले मुख्य राज्य हैं।
मोटे अनाज
♦ ज्वार, बाजरा और रागी भारत में उगाए जाने वाले मुख्य मोटे अनाज हैं। यद्यपि इन्हें मोटा अनाज कहा जाता है परन्तु इनमें पोषक तत्त्वों की मात्रा अत्यधिक होती है। उदाहरणतया, रागी में प्रचुर मात्रा में लोहा, कैल्शियम, सूक्ष्म पोषक और भूसी मिलती है।
♦ क्षेत्रफल और उत्पादन की दृष्टि से ज्वार देश की तीसरी महत्त्वपूर्ण खाद्यान्न फसल है। यह फसल वर्षा पर निर्भर होती है। अधिकतर आर्द्र क्षेत्रों में उगाए जाने के कारण इसके लिए सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है। महाराष्ट्र राज्य इस फसल का सबसे बड़ा उत्पादक है तथा कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश और मध्य प्रदेश इसके अन्य मुख्य उत्पादक राज्य हैं।
♦ बाजरा बलुआ और उथली काली मिट्टी पर उगाया जाता है। राजस्थान बाजरा का सबसे बड़ा उत्पादक राज्य है और उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात और हरियाणा इसके अन्य मुख्य उत्पादक राज्य हैं।
♦ रागी शुष्क प्रदेशों की फसल है और यह लाल, काली, बलुआ, दोमट और उथली काली मिट्टी पर अच्छी तरह उगायी जाती है। कर्नाटक रागी का सबसे बड़ा उत्पादक राज्य है और इसके बाद तमिलनाडु दूसरा प्रमुख उत्पादक राज्य है। इन राज्यों के अलावा हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड, सिक्किम, झारखण्ड और अरुणाचल प्रदेश में भी रागी उगाई जाती है।
मक्का
♦ यह एक ऐसी फसल है जो खाद्यान्न व चारा दोनों रूप में प्रयोग होती है।
♦ यह एक खरीफ फसल है जो 21°C से 27°C तापमान में और पुरानी जलोढ़ मिट्टी पर अच्छी प्रकार से उगाई जाती है। बिहार जैसे कुछ राज्यों में मक्का रबी की ऋतु में भी उगाई जाती है।
♦ आधुनिक प्रौद्योगिक निवेशों जैसे उच्च पैदावार देने वाले बीजों, उर्वरकों और सिंचाई के उपयोग से मक्का का उत्पादन बढ़ा है। कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, बिहार, आन्ध्र प्रदेश और मध्य प्रदेश मक्का के मुख्य उत्पादक राज्य हैं।
दालें
♦ भारत विश्व में दालों का सबसे बड़ा उत्पादक तथा उपभोक्ता देश है। शाकाहारी खाने में दालें सबसे अधिक प्रोटीन दायक होती हैं।
♦ तुर (अरहर), उड़द, मूँग, मसूर, मटर और चना भारत की मुख्य दलहनी फसलें हैं।
♦ दालों को कम नमी की आवश्यकता होती है और इन्हें शुष्क परिस्थितियों में भी उगाया जा सकता है।
♦ फलीदार फसलें होने के नाते अरहर को छोड़कर अन्य सभी दालें वायु से नाइट्रोजन लेकर भूमि की उर्वरता को बनाए रखती हैं। अतः इन फसलों को आमतौर पर अन्य फसलों के आवर्तन (Rotating) में बोया जाता है।
♦ भारत में मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र और कर्नाटक दाल के मुख्य उत्पादक राज्य हैं।
खाद्यान्नों के अलावा अन्य खाद्य फसलें गन्ना
♦ गन्ना एक उष्ण और शीतोष्ण कटिबन्धीय फसल है।
♦ यह फसल 21°C से 27°C तापमान और 75 सेमी से 100 सेमी वार्षिक वर्षा वाली उष्ण और आर्द्र जलवायु में बोई जाती है।
♦ इसकी खेती के लिए कम वर्षा वाले प्रदेशों में सिंचाई की आवश्यकता होती है।
♦ इसे अनेक मिट्टियों में उगाया जा सकता है तथा इसके लिए बुआई से लेकर कटाई तक काफी शारीरिक श्रम की आवश्यकता होती है।
♦ ब्राजील के बाद भारत गन्ने का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश है। यह झारखण्ड और अरुणाचल प्रदेश में भी रागी महत्त्वपूर्ण फसल है।
♦ चीनी, गुड़, खाण्डसारी और शीरा बनाने के काम आता है। उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश, बिहार, पंजाब और हरियाणा गन्ने के मुख्य उत्पादक राज्य हैं।
तिलहन
♦ भारत विश्व में सबसे बड़ा तिलहन उत्पादक देश है।
♦ देश में कुल बोए गए क्षेत्र के 12% भाग पर कई तिलहन की फसलें उगाई जाती हैं।
♦ मूँगफली, सरसों, नारियल, तिल, सोयाबीन, अरण्डी, बिनौला, अलसी और सूरजमुखी भारत में उगाई जाने वाली मुख्य तिलहन फसलें हैं। इनमें से अधिकतर खाद्य हैं और खाना बनाने में प्रयोग किए जाते हैं। परन्तु इनमें से कुछ तेल के बीजों को साबुन, प्रसाधन (शृंगार का सामान) और उबटन उद्योग में कच्चे माल के रूप में भी प्रयोग किया जाता है।
♦ मूँगफली खरीफ की फसल है तथा देश में मुख्य तिलहनों के कुल उत्पादन का आधा भाग इसी फसल से प्राप्त होता है। आन्ध्र प्रदेश मूँगफली का सबसे बड़ा उत्पादक राज्य है और इसके बाद तमिलनाडु, कर्नाटक, गुजरात और महाराष्ट्र दूसरे मुख्य उत्पादक राज्य हैं।
♦ अलसी और सरसों रबी की फसलें हैं। तिल उत्तरी भारत में खरीफ की फसल है और दक्षिणी भारत में रबी की। अरण्डी, खरीफ और रबी दोनों की फसल ऋतुओं में बोया जाता है।
चाय
♦ यह एक महत्त्वपूर्ण पेय पदार्थ की फसल है जिसे शुरुआत में अंग्रेज भारत में लाए थे।
♦ चाय का पौधा उष्ण और उपोष्ण कटिबन्धीय जलवायु, ह्यूमस और जीवांश युक्त गहरी मिट्टी तथा सुगम जल निकास वाले ढलवाँ क्षेत्रों में भली भाँति उगाया जाता है।
♦ चाय की झाड़ियों को उगाने के लिए वर्ष भर ऊष्ण, नम और पालारहित जलवायु की आवश्यकता होती है।
♦ वर्ष भर समान रूप से होने वाली वर्षा की बौछारें इसकी कोमल पत्तियों के विकास में सहायक होती हैं।
♦ चाय एक श्रम-सघन उद्योग है। इसके लिए प्रचुर मात्रा में सस्ता और कुशल श्रम चाहिए।
♦ इसकी ताजगी बनाए रखने के लिए चाय की पत्तियों बागान में ही संसाधित की जाती हैं।
♦ चाय के मुख्य उत्पादक क्षेत्रों में असोम पश्चिमी बंग में दार्जिलिंग और जलपाईगुड़ी जिलों की पहाड़ियाँ, तमिलनाडु और केरल हैं। इनके अलावा हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड, मेघालय, आन्ध्र प्रदेश और त्रिपुरा आदि राज्यों में भी चाय उगाई जाती है।
♦ भारत विश्व का दूसरा चाय उत्पादक और निर्यातक देश है।
कॉफी
♦ भारत विश्व की लगभग 4% कॉफी का उत्पादन करता है।
♦ भारतीय कॉफी अपनी गुणवत्ता के लिए विश्वविख्यात है।
♦ हमारे देश में अरेबिका किस्म की कफी पैदा की जाती है जो आरम्भ में यमन से लाई गई थी। इस किस्म की कोफी की विश्व भर में अधिक माँग है।
♦ इसकी कृषि की शुरुआत बाबा बूदन पहाड़ियों से हुई और आज भी इसकी खेती नीलगिरि की पहाड़ियां के आस-पास कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु में की जाती है।
बागवानी फसलें
♦ भारत बागवानी फसलें विश्व में सबसे अधिक फलों और सब्जियो का उत्पादन करता है। भारत उष्ण और शीतोष्ण कटिबन्धीय दोनों ही प्रकार के फलों का उत्पादक है।
♦ भारतीय फलों जिनमें महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश और पश्चिमी बंग के आम, नागपुर और चेरा पूँजी (मेघालय) के सन्तरे, केरल, मिजोरभ, महाराष्ट्र, और तमिलनाडु के केले, उत्तर प्रदेश और बिहार की लीची, मेघालय के अन्नानास, आन्ध्र प्रदेश और महाराष्ट्र के अँगूर तथा हिमाचल प्रदेश और जम्मू व कश्मीर के सेब नाशपाती, खूबानी और अखरोट की विश्वभर में बहुत माँग है।
♦ भारत विश्व की लगभग 13% सब्जियां का उत्पादन करता है।
♦ भारत का मटर फूलगोभी, प्याज, बन्द गोभी, टमाटर, बैंगन और आलू उत्पादन में प्रमुख स्थान है।
अखाद्य फसलें रबड़
♦ रबड़ भूमध्यरेखीय क्षेत्र की फसल है परन्तु विशेष परिस्थितियों में उष्ण और उपोष्ण क्षेत्रों में भी उगाई जाती है।
♦ इसको 200 सेमी से अधिक वर्षा और 25°C से अधिक तापमान वाली नम और आर्द्र जलवायु की आवश्यकता होतो है।
♦ रबड़ एक महत्त्वपूर्ण कच्चा माल है जो उद्योगों में प्रयुक्त होता है। इसे मुख्य रूप से केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, अण्डमान निकोबार द्वीप समूह और मेघालय में गारों पहाड़ियों में उगाया जाता है।
♦ प्राकृतिक रबड़ के उत्पादन में भारत को विश्व में पाँचवाँ स्थान प्राप्त है।
रेशेदार फसलें
♦ कपास, जूट, सन और प्राकृतिक रेशम भारत में उगाई जाने वाली चार मुख्य रेशेदार फसलें हैं। इनमें से पहली तीन मिट्टी में फसल उगाने से प्राप्त होती हैं और चौथी रेशम के कीड़े के कोकून से प्राप्त होती है जो मलबरी पेड़ की हरी पत्तियों पर पलता है।
♦ रेशम उत्पादन के लिए रेशम के कीड़ों का पालन रेशम उत्पादन’ (Sericulture) कहलाता है।
कपास
♦ भारत को कपास के पौधे का मूल स्थान माना जाता है। सूती कपड़ा उद्योग में कपास एक मुख्य कच्चा माल है।
♦ कपास उत्पादन में भारत का विश्व में तृतीय स्थान है। दक्कन पठार के शुष्कतर भागों में काली मिट्टी कपास उत्पादन के लिए उपयुक्त मानी जाती है। इस सफल को उगाने के लिए उच्च तापमान, हल्की वर्षा या सिंचाई, 210 पाला रहित दिन और खिली धूप की आवश्यकता होती है।
♦ यह खरीफ की फसल है और इसे पककर तैयार होने में 6 से 8 महीने लगते हैं।
♦ महाराष्ट्र, गुजरात, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश, तमिलनाडु, पंजाब, हरियाणा ओर उत्तर प्रदेश कपास के मुख्य उत्पादक राज्य हैं।
जूट
♦ जूट को सुनहरा रेशा कहा जाता है। जूट की फसल बाढ़ के मैदानों में जल निकास वाली उर्वरक मिट्टी में उगाई जाती है। जहाँ हर वर्ष बाढ़ से आई नई मिट्टी जमा होती रहती है। इसके बढ़ने के समय उच्च तापमान की आवश्यकता होती है।
♦ पश्चिम बंग, बिहार, असोम और ओडिशा तथा मेघालय जूट के मुख्य उत्पादक राज्य हैं।
♦ इसका प्रयोग बोरियाँ, चटाई, रस्सी, तन्तु व धागे, गलीचे और दूसरी दस्तकारी की वस्तुएँ बनाने में किया जाता है।
♦ इसकी उच्च लागत के कारण और कृत्रिम रेशों और पैकिंग सामग्री, विशेषकर नायलॉन की कीमत कम होने के कारण, बाजार में इसकी माँग कम हो रही है।
प्रौद्योगिकीय और संस्थागत सुमार
♦ प्रौद्योगिकी और संस्थागत परिवर्तन के अभाव में लगातार भूमि संसाधन के प्रयोग से कृषि का विकास अवरुद्ध हो जाता है तथा इसकी गति मन्द हो जाती है।
♦ सिंचाई के सामानों का विकास होने के उपरान्त भी देश के एक बहुत बड़े भाग में अभी भी किसान खेती-बाड़ी के लिए मानसून और भूमि की प्राकृतिक उर्वरता पर निर्भर हैं। बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए यह एक महत्त्वपूर्ण चुनौती है।
♦ स्वतन्त्रता के पश्चात देश के संस्थागत सुमार करने के लिए जोतों की चकबन्दी सहकारिता तथा जमींदार आदि समाप्त करने को प्राथमिकता दी गई।
♦ प्रथम पंचवर्षीय योजना में भूमि सुधार मुख्य लक्ष्य था।
♦ सन् 1960 और 1970 के दशक में पैकेज टेक्नोलॉजी पर आधारित हरित क्रान्ति तथा श्वेत क्रान्ति (ऑपरेशन फ्लड) जैसी कृषि सुधार के लिए कुछ रणनीतियाँ आरम्भ की गई थी, परन्तु इसके कारण विकास कुछ क्षेत्रों तक ही सीमित रह गया । इसलिए सन् 1980 तथा 1990 के दर्शकों में व्यापक भूमि विकास कार्यक्रम शुरू किया गया जो संस्थागत और तकनीकी सुधारों पर आधारित था। इस दिशा में उठाए गए कुछ महत्त्वपूर्ण कदमों में सूखा, बाढ़, चक्रवात, आग तथा बीमारी के लिए फसल बीमा के प्रावधान और किसानों को कम दर पर ऋण सुविधाएँ प्रदान करने के लिए ग्रामीण बैंकों, सहकारी समितियों और बैंकों की स्थापना सम्मिलित थे।
♦ किसानों के लाभ के लिए भारत सरकार ने ‘किसान क्रेडिट कार्ड और व्यक्तिगत दुर्घटना बीमा योजना (पीएआईएस) भी शुरू की है। इसके अलावा आकाशवाणी और दूरदर्शन पर किसानों के लिए मौसम की जानकारी के बुलेटिन और कृषि कार्यक्रम प्रसारित किए जाते हैं।
♦ किसानों को बिचौलियों और दलालों के शोषण से बचाने के लिए न्यूनतम सहायता मूल्य और कुछ महत्त्वपूर्ण फसलों के लाभदायक खरीद मूल्यों की सरकार घोषणा करती है।
कृषि की राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था, रोजगार और उत्पादन में योगदान
♦ कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ ही हड्डी रही है।
♦ सकल घरेलू उत्पाद में कृषि के योगदान का अनुपात सन् 1951 से लगातार घटने के उपरान्त भी यह सन् 2001 में देश की लगभग 63% जनसंख्या के लिए रोजगार और आजीविका का साधन थी।
♦ कृषि के महत्त्व को समझते हुए भारत सरकार ने इसके आधुनिकीकरण के लिए भरसक प्रयास किए हैं।
♦ भारतीय कृषि में सुधार के लिए भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद् व कृषि विश्वविद्यालयों की स्थापना, पशु चिकित्सा सेवाएँ और पशु प्रजनन केन्द्रों की स्थापना, बागवानी विकास, मौसम विज्ञान और मौसम के पूर्वानुमान के क्षेत्र में अनुसन्धान और विकास को वरीयता दी गई ।
वैश्वीकरण का कृषि पर प्रभाव
♦ वैश्वीकरण कोई नई घटना नहीं है। उपनिवेश काल में भी यही स्थिति मौजूद थी।
♦ उन्नीसवीं शताब्दी में जब यूरोपीय व्यापारी भारत आए तो उस समय भी भारतीय मसाले विश्व के विभिन्न देशों में निर्यात किए जाते थे और दक्षिण भारत में किसानों को इन फसलों को उगाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता था।
♦ आज भी गर्म मसाले भारत से निर्यात किए जाने वाली मुख्य वस्तुओं में शामिल हैं।
♦ ब्रिटिश काल में अंग्रेज व्यापारी भारत के कपास क्षेत्र की ओर आकर्षित हुए और भारतीय कपास को ब्रिटेन में सूती वस्त्र उद्योग के लिए कच्चे माल के रूप में निर्यात किया गया।
♦ मैनचेस्टर और लिवरपूल में सूती वस्त्र उद्योग भारत में पैदा होने वाली उत्तम किस्म की कपास की उपलब्धता पर फली – फूली । सन् 1990 के बाद, वैश्वीकरण के तहत् भारतीय किसानों को कई नई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है।
♦ चावल, कपास, रबड़, चाय, कॉफी, जूट और मसालों का मुख्य उत्पादक होने के बावजूद भारतीय कृषि विश्व के विकसित देशों से स्पर्धा करने में असमर्थ है क्योंकि उन देशों में कृषि को अत्यधिक सहायिकी दी जाती है।
♦ आज भारतीय कृषि दोराहे पर है। भारतीय कृषि को सक्षम और लाभदायक बनाना है तो सीमान्त और छोटे किसानों की स्थिति सुधारने पर जोर देना होगा।
♦ कार्बनिक (Organic) कृषि का आज अधिक प्रचलन है क्योंकि यह उर्वरकों तथा कीटनाशकों जैसे—कारखानों में निर्मित रसायनों के बिना की जाती है इसलिए पर्यावरण पर इसका नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ता है।
♦ कुछ अर्थशास्त्रियों का यह भी मानना है कि बढ़ती जनसंख्या के कारण घटते आकार के जोतों पर यदि खाद्यानों की खेती ही होती रही तो भारतीय किसानों का भविष्य अन्धकारमय है।
♦ भारतीय किसानों को शस्यावर्तन करना चाहिए और खाद्यान्नों के स्थान पर कीमती फसलें उगानी चाहिए। इससे आमदनी अधिक होगी और इसके साथ पर्यावरण निम्नीकरण में कमी आएगी।
♦ फलों, औषधीय पौधों, बायो-डीजल फसलों (जटरोफा और जोजोबा), फूलों और सब्जियों को उगाने के लिए चावल या गन्ने से बहुत कम सिंचाई की आवश्यकता है।
♦ भारत में जलवायु विविधता का विभिन्न प्रकार की कीमती फसलें उगाकार उपयोग किया जा सकता है।
♦ जननिक इन्जीनियरी बीजों की नई संकर किस्मों का आविष्कार करने में शक्तिशाली पूरक के रूप में जानी जाती है।
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