किसान और काश्तकार Farmers and Peasants

किसान और काश्तकार    Farmers and Peasants

 

इंग्लैण्ड में आधुनिक खेती की शुरुआत
♦ अठारहवीं सदी के अन्तिम वर्षों और उन्नीसवीं सदी के शुरुआती दौर में इंग्लैण्ड के देहाती इलाकों में नाटकीय बदलाव हुए। पहले इंग्लैण्ड का ग्रामीण क्षेत्र काफी खुला खुला हुआ करता था। न तो जमीन भूस्वामियों की निजी सम्पत्ति थी और न ही उसकी बाड़ाबन्दी की गई थी।
♦ इंग्लैण्ड के कुछ हिस्सों में खुले खेतों और मुक्त और साझी जमीन की यह अर्थव्यवस्था सोलहवीं शताब्दी से ही बदलने लगी थी। सोलहवीं सदी में जब ऊन के दाम विश्व बाजार में चढ़ने लगे तो सम्पन्न किसान लाभ कमाने के लिए ऊन का उत्पादन बढ़ाने की कोशिश करने लगे।
♦ अनाज की बढ़ती माँग अठारहवीं शताब्दी के अन्तिम वर्षों में बाड़ाबन्दी का उद्देश्य अनाज उत्पादन बढ़ाना हो गया, क्योंकि अब अधिक आबादी का पेट भरने के लिए ज्यादा अनाज की जरूरत थी। इसी दौर में इंग्लैण्ड का औद्योगीकरण भी होने लगा था। बहुत सारे लोग रहने और काम करने के लिए गाँव से शहरों का रुख करने लगे थे। खाद्यान्नों के लिए वह बाजार पर निर्भर होते गए। इस तरह जैसे-जैसे शहरी आबादी बढ़ी वैसे-वैसे खाद्यान्नों का बाजार भी फैलता गया और खाद्यान्नों की माँग के साथ उनके दाम भी बढ़ने लगे।
♦ इंग्लैण्ड के इतिहास में सन् 1780 का दशक पहले के किसी भी दौर से ज्यादा नाटकीय दिखाई देता है। इससे पहले अकसर यह होता था कि आबादी बढ़ने से खाद्यान्न का संकट गहरा जाता था। लेकिन उन्नीसवीं शताब्दी में इंग्लैण्ड में ऐसा नहीं हुआ। जिस तेजी से आबादी बढ़ी, उसी हिसाब से खाद्यान्न उत्पादन भी बढ़ा।
♦ बाड़ाबन्दी ने भूस्वामियों की तिजोरियाँ भर दीं। बाड़ लगने से बाड़े के भीतर की जमीन भूस्वामी की निजी सम्पत्ति बन जाती थी। गरीब अब न तो जंगल से जलाने के लिए लकड़ी बटोर सकते थे और न ही साझा जमीन पर अपने पशु चरा सकते थे। वे न तो सेब या कन्द-मूल बीन सकते थे और न ही गोश्त के लिए शिकार कर सकते थे। अब उनके पास फसल कटाई के बाद बची ढूंठों को बटोरने का विकल्प भी नहीं रह गया था। हर चीज पर जमींदारों का कब्जा हो गया, हर चीज बिकने लगी और वह भी ऐसी कीमतों पर कि जिन्हें अदा करने की सामर्थ्य गरीबों के पास नहीं थी।
थ्रेशिंग मशीन का आगमन
♦ जिन दिनों नेपोलियन इंग्लैण्ड के विरुद्ध युद्ध छेड़े हुए था, उन दिनों खाद्यान्न के भाव काफी ऊँचे थे और काश्तकारों ने जमकर अपना उत्पादन बढ़ाया।
♦ मजदूरों की कमी के डर से उन्होंने बाजार में नई-नई आई थ्रेशिंग मशीनों को खरीदना शुरू कर दिया। का रतकार अकसर मजदूरों के आलस, शराबखोरी और मेहनत से जी चुराने की शिकायत किया करते थे। उन्हें लगा कि मशीनों से मजदूरों पर उनकी निर्भरता कम हो जाएगी।
♦ युद्ध समाप्त होने के बाद बहुत सारे सैनिक अपने गाँव और खेत-खलिहान में वापस लौट आए। अब उन्हें नये रोजगार की जरूरत थी। लेकिन उसी समय यूरोप से अनाज का आयात बढ़ने लगा, उसके दाम कम हो गए और कृषि मन्दी छा गई। बेचैन होकर भूस्वामियों ने खेती की जमीन को कम करना शुरू कर दिया और माँग करने लगे कि अनाज का मायात रोका जाए। उन्होंने मजदूरों की दिहाड़ी और संख्या कम करनी शुरू कर दी।
♦ गरीब और बेरोजगार लोग काम की तलाश में गाँव-गाँव भटकते थे और जिनके पास अस्थायी-सा कोई काम था, उन्हें भी आजीविका खो जाने की आशंका रहती थी।
♦ गरीबों की नजर में थ्रेशिंग मशीन बुरे वक्त की निशानी बन कर आई।
♦ इंग्लैण्ड में आधुनिक खेती के आगमन से कई तरह के बदलाव आए। मुक्त खेत समाप्त हो गए और किसानों के पारम्परिक अधिकार भो जाते रहे। अमीर किसानों ने पैदावार में वृद्धि और अनाज को बाजार में बेच कर मोटा मुनाफा कमाया और ताकतवर हो गए। गाँव के गरीब बड़ी संख्या में शहरों की ओर पलायन करने लगे।
♦ कुछ लोग मध्यवर्ती क्षेत्रों को छोड़कर दक्षिणी प्रान्तों का रुख करने लगे जहाँ रोजगार की सम्भावना बेहतर थी तो कुछ अन्य शहरों को ओर चल पड़े।
♦ मजदूरों की आय का ठिकाना न रहा, रोजगार असुरक्षित और आजीविका के स्रोत अस्थिर हो गए।
‘रोटी की टोकरी’ और रेतीला बंजर
♦ सन् 1780 के दशक तक श्वेत अमेरिकी बसावट पूर्वी तट की एक छोटी संकीर्ण पट्टी तक सीमित थी।
♦ उस समय अमेरिका में जगह-जगह अमेरिका के मूल निवासियों के बड़े-बड़े समूह थे, इनमें से कुछ घुमन्तू थे और कुछ स्थायी रूप से रहने वाले थे। बहुत सारे समूह सिर्फ शिकार करके, खाद्य पदार्थ बीन कर और मछलियाँ पकड़ कर गुजारा करते थे जबकि कुछ मक्का, फलियों, तम्बाकू और कुम्हड़े की खेती करते थे।
♦ अन्य समूह जंगली पशुओं को पकड़ने में माहिर थे और सोलहवीं सदी से ही वनबिलाव का फर यूरोपीय व्यापारियों को बेचते रहे थे।
♦ बीसवीं सदी आते-आते यह भूदृश्य पूरी तरह बदल चुका था। श्वेत अमेरिकी पश्चिम की ओर फैल गए थे और उन्होंने वहाँ की जमीन को कृषि योग्य बना लिया था। इस प्रक्रिया में उन्होंने मूल कबीलों को उनकी जगहों से विस्थापित करके अलग-अलग खेतिहर इलाके बना लिए थे।
पश्चिम की ओर प्रसार तथा गेहूँ की खेती
♦ अमेरिका में कृषि विस्तार का सम्बन्ध श्वेतों के पश्चिमी क्षेत्र में जाकर बसने से गहरे रूप से जुड़ा है।
♦ सन् 1775 से सन् 1783 तक चले अमेरिकी स्वतन्त्रता संग्राम और संयुक्त राज्य अमेरिका के गठन के बाद श्वेत अमेरिकी पश्चिमी इलाकों की तरफ बढ़ने लगे।
♦ टॉमस जेफर्सन के सन् 1800 में अमेरिका का राष्ट्रपति बनने तक लगभग सात लाख श्वेत, दरों के रास्ते अप्लेशियन पठारी क्षेत्र में जाकर बस चुके थे। पूर्वी तट से देखने पर अमेरिका सम्भावनाओं से भरा दिखता था। वहाँ के बियाबानों को कृषि योग्य भूमि में बदला जा सकता था, जंगल से इमारती लकड़ी का निर्यात किया जा सकता था, खाल के लिए पशुओं का शिकार किया जा सकता था और पहाड़ियों से सोने जैसे खनिज पदार्थों का दोहन किया जा सकता था।
♦ संयुक्त राज्य अमेरिका की सरकार ने सन् 1800 के बाद के दशकों में औपचारिक नीति बना कर अमेरिकी इण्डियनों को पहले मिसीसिपी नदी के पार और बाद में और भी पश्चिम की तरफ खदेड़ना शुरू किया। इस प्रक्रिया में कई लड़ाइयाँ लड़ी गईं, मूल निवासियों का जनसंहार किया गया और उनके गाँव जला दिए गए। इण्डियनों ने प्रतिरोध किया, कई लड़ाइयों में जीते भी, लेकिन अन्ततः उन्हें समझौता-सन्धियाँ करनी पड़ीं और अपना घर – बार छोड़कर पश्चिम की ओर कूच करना पड़ा।
♦ मूल निवासियों की जगहों पर नये प्रवासी बसने लगे। प्रवासियों की लहर पर लहर आती गई। अठारहवीं शताब्दी के पहले दशक तक ये प्रवासी अप्लेशियन पठार में बस चुके थे और सन् 1820-1850 के बीच उन्होंने मिसीसिपी की घाटी में भी पैर जमा लिए। उन्होंने जंगलों को काट जलाकर, दूँठ उखाड़कर, खेत और घर बना लिए। फिर उन्होंने बाकी जंगलों का सफाया करके बाड़ें लगा दीं। इस जमीन पर वह मक्का और गेहूँ की खेती करने लगे।
♦ बाद के दशकों में यह समूचा क्षेत्र अमेरिका के गेहूँ उत्पादन का एक बड़ा क्षेत्र बन गया।
गेहूँ उत्पादक किसान
♦ उन्नीसवीं सदी के आखिरी में अमेरिका के गेहूँ उत्पादन में जबरदस्त वृद्धि हुई। इस दौरान अमेरिका की शहरी आबादी बढ़ती जा रही थी और निर्यात बाजार भी दिनोंदिन फैलता जा रहा था। माँग बढ़ने के साथ गेहूँ के दामों में भी उछाल आ रहा था। इससे उत्साहित होकर किसान गेहूँ उगाने की तरफ झुकने लगे।
♦ रेलवे के प्रसार से खाद्यान्नों को गेहूँ उत्पादक क्षेत्रों से निर्यात के लिए पूर्वी तट पर ले जाना आसान हो गया था।
♦ बीसवीं शताब्दी की शुरुआत तक गेहूँ की माँग में और भी वृद्धि हुई तथा प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान गेहूँ के विश्व बाजार में भारी उछाल आया।
‘रोटी की टोकरी’ से ‘रेत के कटोरे’ तक
♦ विशाल मैदानों में गेहूँ की सघन खेती से कई समस्याएँ पैदा हुईं। सन् 1930 के दशक में दक्षिण के मैदानों में रेतीले तूफान आने शुरू हुए। गन्दले कीचड़ की शक्ल में आने वाले इन तूफानों से चौतरफा तबाही फैल जाती थी। सन् 1930 का पूरा दशक इन तूफानों से आक्रान्त रहा।
♦ सन् 1920 के दशक में गेहूँ के उत्पादन में क्रान्ति लाने वाले ट्रैक्टर और मशीनें अब रेत के ढेरों में फँस कर बेकार हो गए थे। ये मशीनें इस हद तक खराब हो चुकी थीं कि उनकी मरम्मत भी नहीं की जा सकती थी।
चाय का शौक : चीन के साथ व्यापार
♦ भारत में अफीम के उत्पादन का इतिहास चीन और इंग्लैण्ड के पारस्परिक व्यापार से गहरे रूप से जुड़ा है। अठारहवीं शताब्दी के आखिरी वर्षों के दौरान ईस्ट इण्डिया कम्पनी चीन से चाय और रेशम खरीदकर इंग्लैण्ड में बेचा करती थी। चाय की लोकप्रियता बढ़ने के साथ-साथ चाय का व्यापार दिनोंदिन महत्त्वपूर्ण होता गया।
♦ सन् 1785 के आसपास इंग्लैण्ड में 1.5 करोड़ पौण्ड चाय का आयात किया जा रहा था। सन् 1830 तक आते-आते यह आँकड़ा 3 करोड़ पौण्ड को पार कर चुका था। वास्तव इस समय तक ईस्ट इण्डिया कम्पनी के मुनाफे का एक बहुत बड़ा हिस्सा चाय के व्यापार से पैदा होने लगा था।
हमसे जुड़ें, हमें फॉलो करे ..
  • Telegram ग्रुप ज्वाइन करे – Click Here
  • Facebook पर फॉलो करे – Click Here
  • Facebook ग्रुप ज्वाइन करे – Click Here
  • Google News ज्वाइन करे – Click Here

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *