काम, आराम और जीवन : समकालीन विश्व में शहर Work, Leisure and Life : Contemporary Cities in the World

काम, आराम और जीवन : समकालीन विश्व में शहर   Work, Leisure and Life : Contemporary Cities in the World

शहर की विशेषताएँ
♦ शहरी इलाके कई तरह के हो सकते हैं। कहीं समय-समय पर लगने वाले बाजार होते हैं, तो कहीं स्थायी बाजार होते हैं, तो दूसरी ओर ऐसे छोटे कस्बे भी होते हैं, जो बाजार के साथ-साथ कानून, प्रशासन और धार्मिक गतिविधियों के केन्द्र भी होते हैं।
♦ शहरों के आकार और जटिलता में भी बहुत फर्क होता है। राजनीतिक प्राधिकार का केन्द्र प्रायः शहर ही होते हैं। वे दस्तकारों, व्यापारियों और धार्मिक अधिकारियों को भी प्रश्रय ॐ देते हैं।
♦ शहर घनी आबादी वाले आधुनिक किस्म के महानगर भी हो सकते हैं जहाँ से एक पूरे क्षेत्र के राजनीतिक व आर्थिक कार्यों को देखा जाता है।
इंग्लैण्ड में औद्योगीकरण और आधुनिक शहर का उदय
♦ आधुनिक काल में औद्योगीकरण ने शहरीकरण के स्वरूप पर गहरा असर डाला है। इसके बावजूद, सन् 1850 के दशक तक भी, यानी औद्योगिक क्रान्ति की शुरुआत होने के कई दशक बाद तक भी ज्यादातर पश्चिमी शहर मोटे तौर पर ग्रामीण किस्म के शहर ही थे।
♦ सन् 1851 में मैनचेस्टर में रहने वाले तीन चौथाई से ज्यादा लोग ग्रामीण इलाकों से आए प्रवासी मजदूर थे।
♦ सन् 1750 तक इंग्लैण्ड और वेल्स का हर नौ में से एक आदमी लन्दन में रहता था। यह एक महाकाय शहर था जिसकी आबादी 675000 तक पहुँच चुकी थी। उन्नीसवीं शताब्दी में भी लन्दन इसी तरह फैलता रहा। सन् 1810 से सन् 1880 के बीच सत्तर वर्षों में उसकी आबादी 10 लाख से बढ़कर 40 लाख यानी चार गुना हो चुकी थी।
आवास
♦ औद्योगिक क्रान्ति के बाद लोग बड़ी संख्या में शहरों की तरफ रुख करने लगे तो लन्दन जैसे पुराने शहर नाटकीय रूप से बदलने लगे। फैक्ट्री या वर्कशॉप मालिक प्रवासी कामगारों को रहने की जगह नहीं देते थे। फलस्वरूप, जिनके पास जमीन थी ऐसे अन्य लोग ही इन नवागंतुकों के लिए सस्ते और सामान्यतः असुरक्षित टेनेमेंट्स बनाने लगे।
♦ लन्दन को साफ-सुथरा बनाने के लिए तरह-तरह से प्रयास किए गए। भीड़ भरी बस्तियों की भीड़ कम करने, खुले स्थानों को हरा-भरा बनाने, आबादी कम करने और शहर को योजनानुसार बसाने के लिए कोशिशें शुरू कर दी गई। इसी तरह की आवासीय समस्याओं से जूझ रहे बर्लिन और न्यूयॉर्क जैसे शहरों की तर्ज पर अपार्टमेंट्स के विशाल ब्लॉक बनाए गए।
♦ विश्वयुद्धों के दौरान (1919-39) मजदूर वर्ग के लिए आवास का इन्तजाम करने की जिम्मेदारी ब्रिटिश राज्य ने अपने ऊपर ले ली और स्थानीय शासन के जरिए 10 लाख मकान बनाए गए। इनमें से ज्यादातर एक परिवार के रहने लायक छोटे मकान थे।
शहर में आवागमन
♦ लन्दन के भूमिगत रेलवे ने आवास की समस्या को एक हद तक हल कर दिया था। इसके जरिए भारी संख्या में लोग शहर के भीतर – बाहर आ-जा सकते थे। दुनिया की सबसे पहली भूमिगत रेल के पहले खण्ड का उद्घाटन 10 जनवरी, 1863 को किया गया। यह लाइन लन्दन की पैडिंग्टन और फैरिंग्टन स्ट्रीट के बीच स्थित थी। पहले ही दिन 10000 यात्रियों ने इस रेल में यात्रा की । इस लाइन पर हर दस मिनट में अगली गाड़ी आती थी। सन् 1880 तक भूमिगत रेल नेटवर्क का विस्तार हो चुका था और उसमें सालाना चार करोड़ लोग यात्रा करने लगे थे।
शहर में सामाजिक बदलाव
♦ अठारहवीं सदी में परिवार उत्पादन और उपभोग के साथ-साथ राजनीतिक निर्णय लेने के लिहाज से भी एक महत्त्वपूर्ण इकाई था।
♦ औद्योगिक शहर में जीवन के रूप रंग ने परिवार की उपादेयता और स्वरूप को पूरी तरह बदल डाला।
♦ परिवार के सदस्यों के बीच अब तक जो बन्धन थे वे ढीले पड़ने लगे। मजदूर वर्ग में विवाह संस्था टूटने की कगार पर पहुँच गई। दूसरी ओर ब्रिटेन के उच्च एवं मध्य वर्ग की औरतें अकेलापन महसूस करने लगी थीं हालाँकि नौकरानियों के आ जाने से उनकी जिन्दगी काफी आसान हो गई थी।
♦ शहर पुरुषों और महिलाओं, दोनों में व्यक्तिवाद की एक नई भावना पैदा कर रहा था। वे सामूहिक मूल्य मान्यताओं से दूर जाने लगे थे जोकि छोटे ग्रामीण समुदायों की खासियत थी। परन्तु इस नई शहरी परिधि में पुरुषों व महिलाओं की पहुँच एक समान नहीं थी। जैसे-जैसे औरतों के औद्योगिक रोजगार खत्म होने लगे और रूढ़िवादी तत्त्व सार्वजनिक स्थानों पर उनकी उपस्थिति के बारे में अपना असन्तोष व्यक्त करने लगे, औरतों के पास वापस अपने घरों में लौटने के अलावा कोई चारा नहीं रहा।
♦ बीसवीं शताब्दी तक शहरी परिवार एक बार फिर बदलने लगा था। इसके पीछे आंशिक रूप से युद्ध के दौरान औरतों के बहुमूल्य योगदान का भी हाथ था। युद्ध की जरूरतों को पूरा करने के लिए महिलाओं को बड़ी संख्या में काम पर रखा जाने लगा था। इन परिस्थितियों में परिवार काफी छोटा हो गया था।
♦ अठारहवीं सदी के आखिरी दशकों में 300-400 संभ्रान्त परिवारों के समूह के लिए ऑपेरा, रंगमंच और शास्त्रीय संगीत आदि कई प्रकार के सांस्कृतिक आयोजन किए जाते थे। मेहनतकश अपना खाली समय पब या शराब घरों में बिताते थे। इस मौके पर वे खबरों का आदान-प्रदान भी करते थे और कभी-कभी राजनीतिक कार्यवाहियों के लिए गोलबन्दी भी करते थे। धीरे-धीरे आम लोगों के लिए भी मन बहलाव के तरीके निकलने लगे। निचले वर्ग के लोगों में संगीत सभा काफी लोकप्रिय थी और बीसवीं सदी आते-आते तो विभिन्न पृष्ठभूमि के लोगों के लिए सिनेमा भी मनोरंजन का जबरदस्त साधन बन गया।
♦ शहरों के विकास के साथ ही ये राजनीति गतिविधियों के केन्द्र के रूप में उभरने लगे।
बम्बई: भारत का एक महत्त्वपूर्ण शहर
♦ सत्रहवीं शताब्दी में बम्बई सात टापुओं का समूह था और उस पर पुर्तगालियों का नियन्त्रण था।
♦ सन् 1661 में ब्रिटेन के राजा चार्ल्स द्वितीय का विवाह पुर्तगाल की राजकुमारी से हुआ तो ये टापू अंग्रेजों के हाथों में चले गए। इसके बाद ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने भी पश्चिमी भारत के अपने सबसे मुख्य बन्दरगाह सूरत से अपना मुख्यालय बम्बई में कायम कर लिया।
♦ शुरू-शुरू में बम्बई का महत्त्व गुजरात से आने वाले कपड़े के निर्यात के लिए ही ज्यादा था। उन्नीसवीं सदी में बाद के सालों के दौरान बम्बई एक बन्दरगाह के रूप में विकसित होने लगा जहाँ से कपास और अफीम जैसे कच्चे माल बड़ी तादाद में रवाना किए जा सकते थे। धीरे-धीरे यह पश्चिमी भारत का एक महत्त्वपूर्ण प्रशासकीय केन्द्र भी बन गया। सदी के आखिर तक आते-आते बम्बई देश का एक बड़ा औद्योगिक केन्द्र बन चुका था।
♦ अंग्रेज-मराठा युद्ध में मराठों की हार के बाद सन् 1819 में बम्बई को बम्बई प्रेसीडेन्सी की राजधानी घोषित कर दिया गया। इसके बाद शहर तेजी से फैलने लगा।
♦ कपास और अफीम के बढ़ते व्यापार के चलते न केवल बहुत सारे व्यापारी और महाजन बल्कि तरह-तरह के कारीगर और दुकानदार भी बम्बई में आकर बसने लगे। कपड़ा मिलें खुलने के बाद और भी ज्यादा संख्या में लोग शहर की तरफ रुख करने लगे।
♦ बम्बई में पहली सूती कपड़ा मिल सन् 1854 में स्थापित की गई थी। सन् 1921 में वहाँ ऐसी 85 कपड़ा मिलें खुल चुकी थीं जिनमें 146000 मजदूर काम करते थे।
♦ सन् 1881 से सन् 1931 के बीच बम्बई में रहने वालों में से लगभग एक चौथाई ही ऐसे थे जिनका जन्म बम्बई में हुआ था। बाकी निवासी बाहर से आकर वहाँ बसे थे। पास में ही स्थित रत्नागिरी जिले के बहुत सारे लोग कपड़ा मिलों में काम करने के लिए बम्बई आ रहे थे।
♦ सन् 1898 में प्लेग की महामारी के कारण जब लोगों के रेले बम्बई में आने लगे तो जिला प्रशासन ने लोगों को वापस भेजना शुरू कर दिया। सन् 1901 तक लगभग 30000 लोगों को उनके मूल स्थानों पर वापस भेजा जा चुका था।
♦ सन् 1840 के दशक में लन्दन का क्षेत्रफल प्रति व्यक्ति 155 वर्ग गज था जबकि बम्बई का प्रति व्यक्ति क्षेत्रफल केवल 9.5 वर्ग गज था। सन् 1872 में लन्दन में प्रति मकान औसतन 8 आदमी रहते थे जबकि बम्बई में प्रति मकान 20 आदमी थे।
♦ मजदूरों न चॉल में रहना प्रारम्भ किया। बम्बई की चॉल बहुमंजिला इमारतें होती थी। शहर के ‘नेटिव’ हिस्से में इस तरह की इमारतें कम से कम सन् 1860 के दशक से तो बनने ही लगी थीं। लन्दन के टेनेमेंट्स की तरह ये मकान भी मोटे तौर पर निजी सम्पत्ति होते थे। बाहर से आने वालों की आवासीय जरूरतों को पूरा करने के लिए व्यापारी, महाजन और भवन निर्माता ठेकेदार इस तरह की इमारतें बनवाते थे। प्रत्येक चॉल में कमरों की कतारें होती थी। कमरों के लिए अलग-अलग शौचालय नहीं बनाए जाते थे।
♦ आर्थर वॅफर्ड को सन् 1865 में बम्बई का पहला नगर निगम आयुक्त नियुक्त किया गया था। उन्होंने कई ‘खतरनाक पेशों’ को दक्षिणी बम्बई से बाहर रखने का प्रयास किया।
♦ अगर लन्दन में नगर योजना का काम सामाजिक क्रान्ति के भय से शुरू किया गया था तो बम्बई में यह काम प्लेग की महामारी के डर से हाथों में लिया गया। सन् 1898 में सिटी ऑफ बॉम्बे इम्प्रूवमेन्ट ट्रस्ट की स्थापना की गई और उसे शहर के बीचो बीच बसे गरीबों के मकानों को हटाने का काम सौंपा गया। इस ट्रस्ट की योजनाओं के कारण 64000 लोगों को आवासीय सुविधाओं से हाथ धोना पड़ा। उनमें से केवल 14000 लोगों को ही मकान दिए गए।
♦ सन् 1918 में भाड़ों को तर्कसंगत सीमा में रखने के लिए किराया कानून पारित किया गया लेकिन इसका उल्टा असर हुआ। किरायों पर अंकुश लगने के कारण मकान मालिकों ने मकान किराए पर देना कम कर दिया जिसके कारण मकानों की भारी किल्लत पैदा हो गई।
♦ हरीशचन्द्र सखाराम भाटवाड़ेकर ने सन् 1896 में बम्बई के हैंगिंग गार्डन्स में हुए कुश्ती के एक मुकाबले के एक दृश्य को कैमरे में उतारा था। यही भारत की पहली मूवी यानी चलचित्र था। कुछ समय बाद दादा साहेब फाल्के ने राजा हरिशचन्द्र (1913) फिल्म बनाई। इसके बाद तो बम्बई का फिल्म उद्योग आगे ही बढ़ता गया।
♦ सन् 1925 तक बम्बई भारत की फिल्म राजधानी बन चुका था। वहाँ पूरे देश के दर्शकों के लिए फिल्मों का निर्माण होता था। सन् 1947 में लगभग 50 फिल्में बनीं जिन पर ₹75.6 करोड़ की लागत आई थी। सन् 1987 तक आते-आते फिल्म उद्योग में काम करने वालों की संख्या 520000 तक जा चुकी थी।
शहर और पर्यावरण की चुनौती
♦ जहाँ भी शहर फैले हैं, पारिस्थितिकी और पर्यावरण को नुकसान पहुँचा है। कारखानों, मकानों और अन्य संस्थानों के लिए जमीन की जरूरत को पूरा करने के लिए प्राकृतिक आयामों को काट-छाँट कर समतल किया गया है। शहरों में पैदा होने वाले बेहिसाब कचरे और गन्दगी से पानी और हवा प्रदूषित हुई है।
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