कवि शिरोमणि तुलसीदास

कवि शिरोमणि तुलसीदास

          हिन्दी-साहित्याकाश में तुलसीदास चमकते हुए सूर्य के समान हैं जबकि सूरदास ॐ चन्द्रमा के समान हैं। इन दोनों कवियों के बाद स्थान प्राप्त करने वाले केशवदास जी तारे के समान हैं। शेष कवि तो जुगनु के समान हैं, जो कहीं-कहीं थोड़ा-बहुत काव्य – प्रकाश करते हैं। इस सूक्ति को किसी कवि ने बड़े ही सुन्दर रूप में प्रस्तुत करते हुए लिखा है –
सूर ससि, तुलसी रवि, उड्गन केशवदास ।
अब के कवि खद्योत सम, जहँ-तहँ करत प्रकाश ।।
          कविवर तुलसीदास के जन्म और मृत्यु के सम्बन्ध में एक मत नहीं है। इस बात से सभी सहमत हैं कि आप जन्म से मृत्यु तक अद्भुत बने रहे। आप जब उत्पन्न हुए, तब आप पाँच वर्ष के एक स्वस्थ बालक के समान थे । जन्म के उपरान्त माता-पिता सहित अन्य सम्बन्धियों का वियोग-विछोह आपको सहना पड़ा था। तत्कालीन संत-महात्मा नरहर्यानन्द के सम्पर्क में आकर आपने शिक्षा-दीक्षा प्राप्त की। बहुत दिनों तक तीर्थाटन करते रहे और साधु-संतों के समागम में रहने के बाद आपने रामचरितमानस, विनय पत्रिका, कवितावली, दोहावली, गीतावली, वरवै रामायण, पार्वती – मंगल, जानकी-मंगल, रामाशाप्रश्न, हनुमान बाहुक, रामललानहहू आदि ग्रन्थों की रचना की।
          कविवर तुलसीदास द्वारा लिखित महाकाव्य ग्रन्थ ‘रामचरितमानस’ न केवल हमारे देश का सर्वोत्कृष्ट काव्य-ग्रन्थ हैं, अपितु विश्व के अन्य महाकाव्य ग्रन्थों में भी यह महान् काव्य-ग्रन्थ हैं। इसमें तत्कालीन सामाजिक, राष्ट्रीय और मानव जीवन से सम्बन्धित परिस्थितियों पर बड़ी ही गंम्भीरतापूर्वक प्रकाश डाला गया है। इसमें कवि ने भारतीय संस्कृति और जीवन-दर्शों को अत्यन्त प्राचीन बतलाते हुए इसे सर्वश्रेष्ठ कहा है। मनुष्य के जीवन में सदाचार, गुरु-महत्त्व, सामाजिक-कल्याण और देशभक्ति का क्या महत्त्व है, इस पर विस्तारपूर्वक कवि ने प्रकाश डाला है। रामचरितमानस का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए कवि ने इसके अनुसार जीवन धारण करने वालों का जीवन सार्थक माना है ।
          कवि शिरोमणि तुलसीदास के सभी काव्य-ग्रन्थों से धर्म निरपेक्षता और मानवीयता का दिव्य-सन्देश सुनाई पड़ता है। कर्म की प्रधानता कवि तुलसी ने सर्वोपरि बतलाते हुए कहा है कि-
          कर्म प्रधान विश्वकरि राखा। जो जसकरहिं सोइ फल चाखा । कवि तुलसी ने अपने सभी ग्रन्थों में भक्ति की महिमा को बतलाते हुए इसे ज्ञान से अधिक श्रेष्ठतर कहा है –
ज्ञान-पंथ कृपान कै धारा । परत खवोस होइ नहिं पारा ।। 
          भक्ति के विभिन्न स्वरूपों और मतों को सर्व समन्वय का संदेश देते हुए  मानवता का सन्देश दिया। अपने समय में प्रचलित शैव-वैष्णव मतों को करने के विचार से राम के द्वारा यह कहलवाया –
शंकर प्रिय मम द्रोही, सिवप्रिय ममदास ।
सो नर मरहिंकलपतरि, घोर नरक महुवास ।।
          तथापि तुलसी ने अपनी रामभक्ति की पुष्टि बार-बार की है –
सिया राममय सब जगजानी । करौ प्रनाम जोरि जुगपानी । 
रामहिं मोहिं केवल पियारा | जानलेहूँ जो जाननिहारा ।। 
          तुलसीदास रचित काव्य-रचनाओं में साहित्य की सम्पूर्ण दिशाओं को अनूठा चित्रांकन प्रस्तुत हुआ है। काव्य की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति तुलसीदास ने बड़ा ही प्रभावशाली रूप में किया है। रस, छन्द, अलंकार बिम्ब, प्रतीक, भाव-विभाव सहित सभी अनुकूल भावों का प्रवेश तुलसी की रचनाओं में जिस तरह से दिखाई पड़ता है, वैसा कहीं नहीं है। इस विषय में किसी कवि की ये सूक्तियाँ अत्यन्त सुन्दर और यथार्थ लगती हैं ।
तत्त्व तत्त्व सूरा कही, तुलसी कही अनूठि ।
बची खूची कबिरा कही, और कही सब झूठ ।। 
          वास्तव में कवि तुलसी शिरोमणि कवि हैं जिनकी काव्य प्रतिभा को पाकर काव्यकला खिल उठी । धन्य और कृतार्थ हो गई। किसी कवि का यह कहना बहुत ही सचल गता है कि कवि तुलसी कविता करके उतना अधिक शोभायमान नहीं हुए, जितना कि कविता तुलसी की कला को पाकर सुशोभित हो उठी–
“कविता करकै तुलसी न लसै, कविता लसि पा तुलसी की कला I”
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