ऐसा क्यों और कैसे होता है -27
ऐसा क्यों और कैसे होता है -27
ओस क्या है और कैसे बनती है ?
हवा में पानी जल-वाष्प के रूप में पाया जाता है। जब यह जल वाष्प किसी ठंडी वस्तु या सतह के संपर्क में आती है तो पुनः तरल रूप में परावर्तित हो जाती है और पानी की बूंदों के रूप में आ जाती है। अतः ओस एक तरह से वह पानी होता है जो हवा की जल-वाष्प के ठंडे हो जाने पर बूंदों का रूप ले लेता है।
सुबह जब किसी घास के मैदान अथवा पार्क में टहलने जाते हैं तो घास पर मोतियों की तरह पानी की बूंदें देखी जाती हैं, जो धूप निकलने पर पुनः जल वाष्प बनकर हवा में चली जाती हैं और रात्रि के समय पुनः घास-पात के संपर्क में आकर ठंडी होकर पानी की बूंदों में बदल जाती हैं और ओस कहलाती हैं। ओस की बूंदें बहुत छोटी-छोटी होती हैं और घास-पात तथा फसलों आदि पर बहुत हलकी परत के रूप में दिखाई देती हैं। इसीलिए जब सुबह घास पर नंगे पैर टहलते हैं तो ओस की ठंडी बुंदकियों के कारण पैरों के तलवों को ठंडक अनुभव होती है, जो शरीर की फालतू गरमी को खींचकर शरीर को हलका-फुलका बना देती है।
टांसिल क्यों होते हैं?
हमारे गले में जीभ के पीछे दोनों ओर टांसिल के तीन जोड़े होते हैं। इन्हें पेलाटाइन, फारंगील तथा लिंगुअल टांसिल के नाम से पुकारते हैं। टांसिल एंटीबाडीज पैदा करते हैं जो पाचन और श्वसन संस्थान में रोग फैलाने वाले कीटाणुओं का विनाश करते रहते हैं। इनमें पेलाटाइन टांसिलों का जोड़ा सबसे बड़ा है। जैसे-जैसे आदमी की उम्र बढ़ती है, इनका आकार छोटा होता जाता है। फारंगिल टांसिलें नासिका गुहिका जहां खुलती है, वहां पर होते हैं तथा लिंगुअल टांसिलें जीभ के आधार के पास होते हैं। टांसिल लिंफेटिक नामक ऊतकों से बने छोटे-छोटे टुकड़े हैं। ये निरंतर लिंफोसाइट बनाते रहते हैं। लिंफोसाइट एक प्रकार की श्वेत रक्त कोशिकाएं हैं, जो रोग फैलाने वाले कीटाणुओं से शरीर की सुरक्षा के लिए संघर्ष करते रहते हैं। ये टांसिल एक विशेष प्रकार की झिल्ली से ढंके रहते हैं। यह झिल्ली टांसिलों पर चारों ओर छोटे-छोटे गड्ढे बनाए रहती है। जैसे ही हमारी नाक या मुंह से हानिकारक रोगाणु प्रवेश करते हैं, वैसे ही वे इन गड्ढों में फंस जाते हैं और श्वेत रक्त कोशिकाएं घेरा डालकर उनके विनाश का काम शुरू कर देती हैं।
सी – वास्प सबसे खतरनाक जीव क्यों माना जाता है?
सी-वास्प (जिसका वैज्ञानिक नाम है शिरानेक्स “फ्लेकेरी) मुख्यत: उत्तरी आस्ट्रेलिया, अमेरिका, पश्चिमी अफ्रीका के तटवर्ती समुद्र और हिंद महासागर में पाया जाता है। इसे दुनिया का सबसे खतरनाक जीव कहा जाता है। आइए, देखें कि सी-वास्प दुनिया का सबसे घातक जीव क्यों है? सी-वास्प जैलीफिश प्रजाति का जीव है। चूंकि यह रंगहीन होता है, इसलिए समुद्री पानी में आसानी से दिखाई नहीं देता है। इसकी चौड़ाई 4 से 20 सेमी तक और लंबाई 10 सेमी तक होती है। इसके शरीर में 95 प्रतिशत मात्रा पानी की ही होती है। इसके शरीर में स्पर्शिका या डंक होते हैं, जिनकी पहुंच 120 सेमी तक होती है। सी-वास्प के शरीर में 50 स्पर्शिका या डंक होते हैं। इसकी एक स्पर्शिका पर लगभग 750000 दंश कोशिकाएं होती हैं, जिनमें कोबरा के समान घातक जहर भरा होता है। जैसे ही कोई जीव इसकी स्पर्शिका या डंक के सपंर्क में आता है, दंश कोशिकाएं जहर को उसके शरीर में इंजेक्ट कर देती हैं। जहर इतना तेज होता है कि असहनीय जलन और दर्द होता है एवं कुछ ही क्षणों में उस प्राणी की मौत हो जाती है। सी-वास्प के जहर का कोई इलाज अभी तक नहीं खोजा जा सका है।
घड़ियों में ज्वैल्स क्यों लगाए जाते हैं?
ज्वैल्स एक तरह के कीमती पत्थर होते हैं जैसे नीलम तथा माणिक आदि। ये बहुत सख्त होते हैं लेकिन हीरे की तुलना में कम सख्त। ये चिकने होने के साथ-साथ घिसते बहुत कम हैं। इनका यही गुण घड़ियों के लिए उपयोगी है। इसका कारण बहुत सरल है। हम घड़ियों में घंटा, मिनट और सेकंड की सुइयां चलते देखते हैं। इन सुइयों को चलाने के लिए घड़ी के अंदर बहुत छोटे-छोटे पुरजे लगे होते हैं। इनमें कमानी की ऊर्जा से चलने वाले एक-दूसरे से जुड़े अनेक पहिए लगे होते हैं, जो धुरियों के सहारे चूलों पर टिके होते हैं। जब पहिए चलते हैं तो धुरियां चूलों पर घूमती हैं इससे इनके बीच घर्षण पैदा होता है। इस घर्षण या रगड़ से धुरियां और चूलें घिसने लगती हैं, जिससे इनकी चाल में अंतर आने लगता है और ऐसा होने पर घड़ियां ठीक समय नहीं दे पातीं, इसलिए इनकी विश्वसनीयता ही समाप्त हो जाती है। इस कठिनाई को दूर करने के लिए चूलों के स्थान पर ज्वैल पत्थरों के छोटे-छोटे टुकड़े लगाए जाते हैं, जो सख्त और चिकने होने के कारण आसानी से घिसते नहीं हैं और इन पर पहियों की धुरियां बिना घर्षण के सरलता से घूमती रहती हैं। तभी तो अनंतकाल तक ज्वैलवाली घड़ियां सही समय देती रहती हैं। इसीलिए अधिक ज्वैलोंवाली घड़ियां अच्छी मानी जाती हैं। क्योंकि वे ठीक समय देने के साथ बिना किसी झंझट के अधिक दिनों तक चलती हैं।
हाइड्रोजन बम विनाशक क्यों होता है ?
परमाणु बम बन जाने के बाद वैज्ञानिक एक ऐसे बम के निर्माण की कल्पना करने लगे जो उससे भी अधिक शक्तिशाली हो । आखिर 1952 में अमेरिकी वैज्ञानिक एडवर्ड टेलर और उनके साथियों ने सबसे पहला हाइड्रोजन बम बनाने में सफलता प्राप्त की। जो 10 मेगाटन का था और 700 गुना अधिक शक्तिशाली था । हाइड्रोजन बम न्यूक्लियर फ्यूजन (नाभिकीय संलयन) की क्रिया पर आधारित है, जिसमें हाइड्रोजन के चार परमाणुओं को मिलाया जाता है, जिससे हीलियम का एक परमाणु बनता है। इस क्रिया में बहुत अधिक ताप पैदा होता है। हाइड्रोजन बम का खोल एक बहुत ही मजबूत मिश्र धातु से बनाया जाता है। इस खोल के अंदर हाइड्रोजन के दो आइसोटोप ड्यूटीरियम और ट्राइटियम रखे जाते हैं। इसी खोल के अंदर फ्यूजन क्रिया शुरू करने के लिए एक परमाणु बम रखा जाता है। हाइड्रोजन बम का विस्फोट करने से पहले उसके अंदर रखे परमाणु बम का विस्फोट कराया जाता है तो लाखों डिग्री सेंटीग्रेड का तापमान पैदा हो जाता है। इस उच्च तापमान पर ड्यूटीरियम और ट्राइटियम का फ्यूजन शुरू हो जाता है।
दलदल जानलेवा कैसे बन जाते हैं?
दलदल में फंस जाने पर उससे निकल पाना प्रायः आसान नहीं होता। इसमें फंसे लोग अकसर इसमें धंसकर डूब जाते हैं और मर जाते हैं । दलदल उन स्थानों पर बनते हैं जहां की मिट्टी चिकनी और रेतीली होती है। जब इन स्थानों पर पानी जमा हो जाता है और निकल नहीं पाता तो वहां कीचड़ बनने लगती है। चिकनी मिट्टी पानी को नीचे जमीन में भी नहीं जाने देती और नीची जमीन के कारण वर्षा आदि का पानी आकर जमा तो हो जाता है परंतु निकल नहीं पाता। अब धीरे-धीरे पानी और मिट्टी मिलकर लपसी की तरह गहरे कीचड़ में बदल जाते हैं। देखने पर यह सूखी भूमि की तरह लगते हैं लेकिन वास्तव में गहरे कीचड़ होते हैं। इसमें जो भी वस्तु या प्राणी किसी तरह आ जाते हैं वे ढीली कीचड़ में धंसने लगते हैं और बाहर निकलने के लिए जितने हाथ-पैर चलाते हैं, उतने ही इसमें धंसकर डूबते जाते हैं।
पानी के स्रोतों, नदियों के किनारों तथा समुद्र – तटों के आसपास की भूमियों में लहरों का पानी आकर भर तो जाता है लेकिन वापस नहीं जा पाता। यदि वहां की मिट्टी चिकनी हो और उसमें रेत की मात्रा अधिक हो, जो प्रायः समुद्र तथा नदियों आदि के किनारे होती है, तो पानी और मिट्टी के सड़ते रहने से कालांतर में ये स्थान दलदल बन जाते हैं। अतः ऐसे स्थानों पर सावधानीपूर्वक जाना चाहिए, अन्यथा दलदल में फंसकर जानलेवा विपत्ति की चपेट में आ सकते हैं।
रेडियो पर कुछ स्टेशन दिन के बजाय रात में ठीक से सुनाई क्यों देते हैं?
रेडियो स्टेशन से प्रसारित होनेवाले कार्यक्रम रेडियो तरंगों के रूप में प्रसारित किए जाते हैं, जिन्हें रेडियो सैट ग्रहण कर ध्वनि तरंगों में बदल लेता है और हम कार्यक्रम सुन लेते हैं। यह तो रही सीधी-सी बात, लेकिन यहां यह जान लेना जरूरी है कि रेडियो स्टेशन से रेडियो तरंगें सीधी भूमि के साथ ‘भौम तरंगों’ के रूप में और आकाश की ओर ‘आकाश तरंगों’ के रूप में दो दिशाओं में यात्रा करती हैं। मीडियम वेव की तरंगें, जिनका प्रसारण मेमं पर्याप्त उपयोग होता है, भौम तरंगों के माध्यम से रेडियो सैट तक पहुंच जाती हैं। लेकिन रास्ते में आए पहाड़ों, शुष्क भूमि परिस्थितियों, पहाड़ियों तथा अन्य अवरोधों में ये तरंगें अवशोषित हो जाती हैं, अत: अधिक दूरी पर सीधी नहीं पहुंच पातीं। ये तरंगें तब पहुंच पाती हैं जब वे धरती से 100 और 200 किलोमीटर की ऊंचाई पर ‘ई’ और ‘एफ’ आइनोस्फीयर परतों से परावर्तित होकर धरती पर वापस आती हैं। दिन के समय धरती से लगभग 60 किलोमीटर ऊपर तथा ‘ई’ और ‘एफ’ परतों के नीचे सूर्य से आ रहे विकिरण के कारण आइनोस्फीयर की ‘डी’ परत बन जाती है। यह ‘डी’ परत मीडियम तरंगों को अवशोषित और प्रकीर्णित करके उन्हें ‘ई’ और ‘एफ’ परतों तक नहीं पहुंचने देती और परिणामस्वरूप रेडियो तरंगें परावर्तित होकर रेडियो सैट तक नहीं पहुंच पाती हैं। इसलिए दिन में रेडियो कार्यक्रम ठीक से सुनाई नहीं देते। लेकिन रात के समय यह ‘डी’ परत लुप्त हो जाती है, अतः रेडियो तरंगें ‘ई’ और ‘एफ’ परतों से परावर्तित होकर दूर के रेडियो सैटों तक पहुंचने लगती हैं और कार्यक्रम ठीक से सुनाई देने लगते हैं।
शॉर्ट वेव रेडियो तरंगें तो ‘आकाश तरंगों के आइनोस्फीयर परतों से परावर्तित होकर ही आती हैं इसलिए वे रेडियो स्टेशन से अधिक दूरी पर रखे रेडियो सैटों पर आसानी से पहुंच जाती हैं और आवाज ठीक सुनाई पड़ती है। हां, दिन के समय इनका कुछ अंश अवशोषित होने से आवाज की गुणता कुछ कम अवश्य हो जाती है।
मधुमक्खियां शहद क्यों बनाती हैं?
शहद की मक्खियों की भी हमारी ही तरह बस्तियां होती हैं। ये बस्तियां शहद के छत्तों की बनी होती हैं, जहां ये रहती हैं और अपने बच्चों को जन्म दे उनका पालन-पोषण करती हैं। इसके बाद ये भोजन के लिए फूलों के पराग से शहद बनाने में जुट जाती हैं। क्या आप जानते हैं ये मक्खियां शहद क्यों और कैसे बनाती हैं। वास्तव में इनके द्वारा शहद बनाना एक प्रकार से अपनी बस्ती की मक्खियों के लिए भोजन जुटाने का काम है। शहद जुटाने के लिए ये फूलों पर जाती हैं। फूलों में एक प्रकार का रस (नेक्टर) होता है जिसे मक्खियां चूसकर अपनी शहद की थैली में जमाकर छत्ते तक ले जाती हैं। शहद की थैली मक्खी के पेट के पास होती है। पेट पर इस थैली को अलग करने के लिए बीच में एक वाल्व होता है। नेक्टर में उपस्थित चीनी में एक रासायनिक परिवर्तन होता है। नेक्टर में जो पानी होता है वह छत्ते से वाष्पीकरण के द्वारा उड़ जाता है। पानी निकलने के बाद यह रस शहद बन जाता है जो लंबे अरसे तक खराब नहीं होता है। यही शहद छत्ते में भोजन के रूप में भविष्य के लिए जमा रहता है। इसी को निकाल कर आदमी इसका उपयोग स्वाद और दवा आदि के लिए करता है।
पक्षी अपने पंखों में चोंच क्यों मारते रहते हैं?
पक्षियों के अध्ययन से मालूम हुआ है कि जिसे हम पंखों में चोंच मारना कहते हैं वह वास्तव में पक्षियों द्वारा अपने पंखों को वैसे ही संवारने की क्रिया है जैसे हम सब कंघी से अपने बालों को संवारते हैं। यूं तो पक्षी अपने पंखों को संवारने के लिए धूल-मिट्टी और पानी का भी उपयोग करते हैं। जैसे कुछ पक्षी रेत में पंखों को फड़फड़ाते हैं, तो कुछ पानी में डुबकी लगाकर पंखों की सफाई करते हैं। लेकिन पंखों में चोंच मारकर सफाई करने से पक्षियों के पंख मुलायम रहते हैं। सामान्यतः प्रत्येक पक्षी की पीठ पर पूंछ के आसपास तेल की ग्रंथियां होती हैं। इन ग्रंथियों से निकलनेवाला तेल पंखों को साफ-सुथरा और चमकदार बनाने का कार्य करता है। जब पक्षी अपनी चोंच पंखों में मारते हैं तो वह इन ग्रंथियों से टकराती है, जिससे ग्रंथियों का तेल निकलकर बाहर आ जाता है और पंखों पर फैल जाता है। इस तरह पंखों में चोंच मारकर पक्षी उनमें तेल लगाकर सजाने-संवारने का कार्य करते हैं। इस क्रिया में तेल का कुछ अंश पक्षियों की चोंच के द्वारा उनके मुंह में भी चला जाता है, जो उनके शरीर में विटामिन ‘डी’ की भरपाई करने में भी सहायक होता है।
बुलबुल क्यों गाती है?
बुलबुल एक अप्रवासी चिड़िया है। यूरोप के दक्षिणी भाग में यह भारी संख्या में पाई जाती है। ईरान, भारत, अरेबिया, अबीसीनिया, अल्जीरिया और गोल्ड कोस्ट ऑफ अफ्रीका में भी यह मिलती है। इस चिड़िया के विषय में यह मनोरंजक तथ्य तो सर्वविदित है कि इसमें केवल नर ही गाता है, मादा बिल्कुल नहीं गाती । महत्वपूर्ण बात यह है कि यह गाना पास की किसी झाड़ी या पेड़ से मादा चिड़िया को पुकारने या रिझाने के लिए गाया जाता है। नर बुलबुल दिन में भी गाता है और रात में भी। इसका गाना और सभी पक्षियों की चहचहाहट से अलग पहचाना जा सकता है। नर बुलबुल का गाना तब तक चलता रहता है, जब तक मादा अंडे सेती है। इसके बाद यह गाना बंद कर देता है कि कहीं दुश्मनों का ध्यान घोसले की तरफ न चला जाए। वह चौकन्ना रहता है मादा को यह बताने के लिए कि सब ठीकठाक है या उसे किसी खतरे से सतर्क रहने के लिए संकेत देता है। नर और मादा बुलबुल दोनों देखने में एक जैसे ही लगते हैं। इसका घोसला भी दूसरे पक्षियों के घोसलों से अलग तरह का बना होता है। यह जमीन पर या जमीन के पास बना होता है।
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