ऐसा क्यों और कैसे होता है -18
ऐसा क्यों और कैसे होता है -18
चमकती टी.वी. स्क्रीन के आगे किसी के कई चित्र क्यों वस्तु दिखते हैं?
ऐसा ‘स्ट्रोबोस्कोपी प्रभाव’ के कारण होता है। जब किसी जलती-बुझती रोशनी के सामने कोई वस्तु चलती है, तो उसके कई चित्र दिखाई देने लगते हैं। हमें कई प्रकाश देखने में ऐसे लगते हैं, जैसे वे लगातार प्रकाशित हो रहे हों, लेकिन वास्तव में वे बहुत जल्दी-जल्दी जलते-बुझते रहते हुए भी हमें लगातार प्रकाशित लगते हैं; जैसेकि ट्यूबलाइट| इसी श्रेणी में टी.वी. की पिक्चरट्यूब का प्रकाश भी है। टी. वी. स्क्रीन पर प्रकाश लगभग प्रति सैकंड 30 बार टिमटिमाता है; लेकिन यह टिमटिमाना हमें लगातार देखने के कारण मालूम नहीं पड़ता है। लेकिन जब हम चमकती टी.वी. स्क्रीन के सामने से किसी वस्तु को चलाते हैं, तो टिमटिमाहट के कारण वह वस्तु अनेक चित्रों में बंट जाती है और टिमटिमाहट के साथ-साथ चित्र भी आने-जाने लगते हैं। लेकिन वस्तु के चल होने तथा लगातार देखते रहने पर वस्तु की अनेक तस्वीरें या चित्र दिखाई देने लगते हैं। यही स्ट्रोबोस्कोपी प्रभाव कहलाता है और इसी के कारण चकमती टी.वी. स्क्रीन के आगे कोई वस्तु घुमाने पर उसके कई चित्र दिखाई देने लगते हैं।
गीली रेत पर चलना आसान क्यों होता है ?
किसी वस्तु के अणुओं के बीच जो आकर्षणबल होता है, उसे ‘संसंजकबल’ कहते हैं । इसी तरह दो भिन्न वस्तुओं के अणुओं के बीच होने वाला बल ‘आसंजकबल’ कहलाता है। जब हम सूखी रेत पर चलते हैं, तो वह केवल रेत ही होती है; उसके अणुओं के बीच ‘संसंजकबल’ होता है, और जब हम गीली रेत पर चलते हैं तो वह केवल रेत ही न होकर रेत और पानी दोनों मिले होते हैं। अतः रेत और पानी के अणुओं के बीच पाए जानेवाला बल ‘आसंजकबल’ होता है। रेत के ‘संसंजक बल’ की तुलना में रेत- पानी का ‘आसंजकबल’ अधिक होता है। इसलिए रेत जो भुरभुरी होती है, उसके दाने अलग-अलग रहते हैं और जब इस पर चलते हैं, तो उसमें पैर धसने लगते हैं, जिससे रेत पर आसानी से नहीं चला जा सकता है। लेकिन रेत- पानी के ‘आसंजकबल’ के कारण रेत और पानी आपस में चिपककर एक कठोर – सी परत बन जाते हैं। जिस पर चलने से उसमें पैर धंस नहीं पाते हैं। यही कारण है कि हम सूखी रेत की अपेक्षा गीली रेत पर आसानी से चल देते हैं।
कुछ पक्षी भोजन के साथ कंकड़-पत्थर क्यों चुगते हैं?
हां, यह सच है कि कुछ पक्षी जब अपना भोजन चुग रहे होते हैं, तो उसके साथ वे कंकड़-पत्थर के छोटे-छोटे टुकड़े भी चुग लेते हैं। बात लगती अटपटी-सी है लेकिन कंकड़-पत्थर के टुकड़े उनकी पाचन क्रिया में बहुत सहायक होते हैं। । कुछ पक्षियों की चोंच कमजोर होती है, अतः वह अपने भोजन को चबाकर छोटा नहीं कर पाते हैं। पक्षियों के दांत तो होते ही नहीं हैं। अतः वे जो भी दाना चुगते हैं, वह सीधा उनके पाचन तंत्र में पहुंच जाता है। बीजों को तोड़ा या पीसा न जाए, तो वे सीधे ही बिना पचे उनके मल के साथ निकल जाते हैं। इस कठिनाई के समाधान के लिए पक्षी अपने पाचन तंत्र के उपांग ‘गिजार्ड’ का उपयोग करते हैं। चुगा गया भोजन कंकड़-पत्थर के साथ गिजार्ड में एकत्र हो जाता है। यहां जो मंथन-क्रिया होती है उसके परिणामस्वरूप पत्थरों के बीच में पिसकर चुगे गए दाने तथा अन्य भोजन सामग्री बारीक हो जाती है। इससे पक्षियों को भोजन पचाने में सहूलियत होती है। इसीलिए कुछ पक्षी अपने भोजन के साथ कंकड़-पत्थर भी चुगा करते हैं।
फोटोक्रोमी चश्मों के शीशे धूप में गहरे काले क्यों हो जाते हैं?
धूप के चश्मों में धूप से बचने के लिए रंगीन शीशे उपयोग किए जाते हैं। प्रायः ये शीशे स्थायी तौर पर रंगीन होते हैं, अतः धूप में तो ये आंखों को कुछ राहत देते हैं लेकिन धूप से छाया में आने पर अनुपयोगी हो जाते हैं। इस समस्या के समाधान हेतु चश्मों में फोटोक्रोमी शीशे उपयोग में लाए जाते हैं। ये शीशे धूप में आने पर अपने आप गहरे काले होकर धूप से बचाते हैं और छाया तथा अंधेरे में आने पर पुनः सफेद होकर कम प्रकाश में भी देखने में सहायता करते हैं।
ऐसा इसलिए होता है क्योंकि फोटोक्रोमी शीशों में सिलवर आयोडाइड अथवा ब्रोमाइड के बारीक क्रिस्टल होते हैं। जब ये शीशे धूप में आते हैं, तो ये में क्रिस्टल बिखर जाते हैं, जिससे चश्मे के शीशे गहरे काले होकर आंखों को धूप से बचाते हैं। क्रिस्टलों का यह बिखराव अस्थायी होता है, अतः धूप से छाया अथवा अंधेरे में आने पर यह बिखराव समाप्त हो जाता है, क्योंकि क्रिस्टल अपनी पूर्व अवस्था में वापस आ जाते हैं और चश्मे के शीशे सफेद हो जाते हैं। यह क्रिया प्रकाश तथा छाया की स्थिति के अनुसार स्वतः होती रहती है। इसीलिए फोटोक्रोमी शीशेवाले चश्मों के शीशे धूप में आने पर गहरे काले और छाया में आने पर सफेद हो जाते हैं।
गरम सब्ज़ी अधिक स्वादिष्ट क्यों लगती है ?
जैसा कि आप जान चुके हैं, हमारी जीभ से हमें केवल खट्टा मीठा, नमकीन और चटपटा स्वाद ही मालूम पड़ता है। लेकिन, किसी वस्तु के संपूर्ण स्वाद में इन स्वादों के अलावा कुछ अन्य स्वाद भी सम्मिलित होते हैं, जो हमें जीभ के बजाय अन्य साधनों से प्राप्त होते हैं। जैसे- गंध की अनुभूति नाक के द्वारा होती है। इसी तरह हमें दर्द की अनुभूति तंत्रिकाओं के द्वारा और भोजन की स्पर्श अनुभूति स्पर्श तंत्रिकाओं से मालूम पड़ती है। यह सभी सूचना जब मस्तिष्क को पहुंचती है, तभी मिला-जुला स्वाद मालूम पड़ता है और हम कह उठते हैं कि आज सब्ज़ी बहुत स्वादिष्ट है। अब देखना यह है कि ठंडी और गरम सब्ज़ी होने पर स्वाद में अंतर क्यों आता है? इसका कारण यह है कि ठंडी सब्ज़ी केवल खट्टा, मीठा, नमकीन और चटपटा स्वाद ही दे पाती है। उससे गंध-भरी वाष्प भी नहीं निकलती और वह ठंडी होने से जीभ की दर्द- तंत्रिकाओं को भी उत्तेजित नहीं करती है। जबकि सब्ज़ी के गरम होने पर उसमें पड़े मसालों आदि की गंध वाष्पीकृत होकर नाक के द्वारा गंधस्वाद भी पहुंचाती है और सब्जी की गरमाहट से जीभ की स्वाद कलिकाओं के नीचे दर्द की तंत्रिकाएं उत्तेजित होकर आनंदित चुभन पैदा करती हैं। इस तरह गरम सब्ज़ी होने पर खट्टा, मीठा, नमकीन और चटपटा स्वाद तो मिलता ही है; सब्ज़ी की स्वाद, गंध और आनंदित चुभन भी मिलती है। इन सभी के मिले-जुले प्रभाव के कारण गरम सब्ज़ी, ठंडी सब्ज़ी की तुलना में अधिक स्वादिष्ट लगती है।
घूमता हुआ लट्टू गिरता क्यों नहीं?
कोई भी वस्तु यदि घूम रही तब तक घूमती रहती है, जब तक उसे कोई अन्य बल अवरोध पैदा कर उसका घूमना रोक न दे। इस गुण को ‘जड़त्व’ के नाम से जाना जाता है। जब कोई लट्टू घूम रहा होता है, तो उसमें यह ‘जड़त्व’ विद्यमान होता है। घूमते लट्टू में घूर्णाक्षस्थापीय आचरण के कारण यह ‘जड़त्व’ अपने आप पनप जाता है। इसीलिए कोई भी घूमती वस्तु अपने अक्ष पर अपनी अवस्था में घूमती रहती है। इसी नियम के अनुसार लट्टू सीधा खड़ा हुआ घूमता रहता है। लेकिन हवा में घर्षण आदि के कारण लट्टू के घूमने की गति कम होने लगती है। इसके परिणामस्वरूप उसके ‘जड़त्व’ में भी कमी आने लगती है और धीरे-धीरे इतनी कम हो जाती है कि ‘जड़त्व’ का प्रभाव समाप्त हो जाता है तथा ‘गुरुत्व’ प्रभाव कार्य करने लगते हैं। ऐसा होने पर घूमता हुआ लट्टू स्थिर अवस्था की ओर आकर गिर पड़ता है। लेकिन बिना घूमते लट्टू को खड़ा करें तो उसमें ‘जड़त्व’ होता ही नहीं है, अतः वह तुरंत गिर जाता है। इसीलिए ‘जड़त्व’ के कारण घूमता लट्टू घूमता रहता है और जब तक ‘जड़त्व’ बना रहता है, वह गिरता नहीं है।
शंख को कान पर रखने से उसमें गूंज क्यों सुनाई देती है?
शंख की बनावट कुछ इस तरह की होती है कि उसमें चक्करदार खोखलापन होता है। अतः शंख के आसपास की हवा और आवाजें उसके खुले भाग में एकत्र हो जाती हैं और कान की ओर इंगित होने लगती हैं। इस तरह शंख के आकार प्रकार के कारण ध्वनि-विज्ञान का गूंजतंत्र पनप जाता है।
अतः शंख को कान पर रखने से उसमें गूंज की आवाज सुनाई देने लगती है।
गैस मास्क हमें जहरीली गैसों से कैसे बचाते हैं?
‘मास्क’ एक तरह का मुखौटा होता है जिसे व्यक्ति मुंह पर पहनकर दूषित हवा में रह सकते हैं। यह मास्क सांस लेने पर शुद्ध हवा उपलब्ध कराता है। इस कार्य के लिए इसमें एक उपकरण लगा होता है; जिसके माध्यम से दूषित या जहरीली गैसों भरी हवा इसमें प्रवेश करती है और शुद्ध होकर व्यक्ति द्वारा सांस लेने के लिए मिलती रहती है। ठीक इसी तरह शरीर से सांस द्वारा निकलनेवाली गंदी हवा एक वाल्व द्वारा बाहर निकल जाती है और यह क्रम चलता रहता है ।
हवा को शुद्ध करने के लिए उपकरण में कुछ अवशोषक होते हैं, जो हवा की गंदगी और जहरीलेपन को सांस में जाने से पहले ही सोख लेते हैं। इनमें से लकड़ी का कोयला, कुछ रसायन; जैसे चांदी, तांबा और क्रोमियम धातुओं के लवण प्रमुख रूप से होते हैं। इन्हीं के कारण मास्क पहननेवाले व्यक्ति को सांस लेने हेतु साफ हवा मिलती रहती है।
शराब प्यास क्यों नहीं बुझाती ?
प्यास लगने का मतलब होता है कि शरीर में पानी की कमी हो रही है। यह क्रिया दिमाग के द्वारा नियंत्रित होती है। शरीर में पानी कम होने से रक्त में पानी की कमी होने लगती है। जिससे रक्तदाब की समस्या भी सामने आती है। पेशाब और पसीने से पानी तो शरीर में कम होता ही रहता है। पानी की कमी से रक्त में अन्य पदार्थो की सांद्रता बढ़ जाती है या यों कहें कि रक्त गाढ़ा होने लगता है। जब ऐसा होने लगता है तो विशेष प्रकार की कोशिकाओं द्वारा, जो कि मस्तिष्क क्षेत्र में स्थित होती हैं और ‘ओसमोरिसेप्टर’ कहलाती हैं, सामान्य स्थिति लाने की दिशा में प्रयास किया जाता है। इससे लार ग्रंथियां आदि अपना स्राव निकालना बंद कर देती हैं; जिससे मुंह सूखने लगता है और हमें प्यास लगने लगती है। जब हम पानी पी लेते हैं, तो इस अवस्था में यही क्रिया विपरीत दिशा में कार्य करने लगती है और हमारी प्यास बुझ जाती है।
लेकिन शराब तो अपने आप में ही ऐसा द्रव है, जो पानी को सोखती है, अतः शराब से पानी की पूर्ति के बजाय पानी की कमी और होने लगती है। इस स्थिति में शराब से प्यास बुझने की आशा नहीं की जा सकती। हां, कुछ एलकोहल ऐसे जरुर होते हैं, जिनमें एलकोहल कम और पानी अधिक होता है; जैसेकि बीयर । अतः इनसे एक सीमा तक प्यास बुझने में सहायता मिल सकती है, परंतु वास्तविकता यही है कि प्यास बुझाने का साधन पानी ही है; एलकोहल नहीं। अतः प्यास पानी पीकर ही बुझाई जा सकती है।
कुछ पौधों की पत्तियां हरी के बजाय रंगीन क्यों होती हैं?
सामान्यतः पत्तियां हरे रंग की होती हैं। उनका यह रंग पत्तियों में पाए जानेवाले क्लोरोफिल के कारण होता है। क्लोरोफिल प्रायः प्रकाश के सभी रंगों को अवशोषित कर लेता है लेकिन हरा रंग अवशोषित नहीं कर पाता है, अतः यह परावर्तित होकर पत्तियों को हरे रंग की आभा देता रहता है। इसके अतिरिक्त भी अन्य रंजक पदार्थ पत्तियों में पाए जाते हैं; जैसे एंथोसाइनिन नामक रंजक नीला या लाल रंग देता है। कैरोटीन से लालाभ से नारंगी रंग मिलता है; जबकि जैंथोफिल नामक रंजक पत्तियों को पीले रंग की आभा प्रदान करते हैं।
पत्तियों में इन रंजकों में से जिस भी रंजक की मात्रा अधिक हो जाती है; पत्तियां उसी रंग की दिखाई देने लगती हैं। प्रायः क्लोरोफिल की अधिकता से वे हरी दिखाई देती हैं। लेकिन आप ध्यान से देखें, तो पाएंगे कि जब नई पत्तियां निकलती हैं, तो उनका रंग हरा न होकर कुछ गुलाबी जैसी आभा लिये होता है और बाद में वे हरी हो जाती हैं। इसका कारण यही है कि क्लोरोफिल बाद में ही पर्याप्त विकसित हो पाता है, अतः वे गुलाबी से हरी हो जाती हैं। शोभाकारी पौधों में अन्य रंजकों की मात्रा अधिक होती है; इसलिए कुछ पौधों की पत्तियां हरे रंग के बजाय अनेक मोहक रंगों की आभा लिये होती हैं।
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