एक भयानक अग्निकाण्ड
एक भयानक अग्निकाण्ड
मानव अपने जीवन में अनेक दुर्घटनाओं को देखता है, सुनता है, क्योंकि संसार में आये दिन कोई न कोई दुःख की घटना होती ही रहती है। कभी हम आँखों से देख लेते हैं और कभी समाचार पत्रों में पढ़ लेते हैं। परन्तु एक बार मैंने ऐसा रोमांचकारी दृश्य देखा था, जो इतना विनाशकारी एवं विध्वंसात्मक था कि आज भी उसकी समृति मुझे कम्पित कर देती है। सम्भवतः वह घटना मेरे लिये ही नहीं अपितु समस्त नगरवासियों के लिये अविस्मरणीय है।
स्वतन्त्रता मिलने से पहले की बात है। देश साम्प्रदायिकता की भयानक जवाला में जल रहा था। मनुष्य मनुष्य को खा जाने के लिये भूखे शेर की तरह घात लगाये बैठे रहते थे । मानवता समाप्त हो चुकी थी, उसका स्थान बर्बर दानवता ने ग्रहण कर लिया था। भारत की दो संतानें एक-दूसरे को अपना शत्रु समझती थीं । नेत्रों पर स्वार्थ और हिंसा का चश्मा चढ़ा हुआ था। जिसने जितने ज्यादा खून कर दिए हों वह उतना ही अधिक धर्मज्ञ समझा जाता था । ऐसा कोई नगर नहीं था, जहाँ छुरा भोंकने की, बम फटने की, तथा आग लगाने की दुर्घटनायें न होती हों। लोग बल्लमों से गोदकर डाल दिये जाते थे, नदियों में बहा दिये जाते थे, पता भी नहीं चलता था कि कौन कहाँ का रहने वाला है। दिन दहाड़े सामूहिक उपद्रव होते । एक मुहल्ले के रहने वाले दूसरे मुहल्ले पर बर्धी और बल्लभ लेकर चढ़ जाते, भले ही उन पर छतों से ईंटें बरसाई जातीं । एक अजीब अराजकता देश के एक कोने से दूसरे कोने तक छाई हुई थी । जिसे देखिये उसी के हृदय में हिंसा की भावना, जहाँ सुनिए वहीं झगड़े की बात, यह देखकर और सुनकर पुरानी बातों पर विश्वास नहीं होता था कि कभी हम प्यार से भी रह चुके हैं।
अलीगढ़ दो विभिन्न संस्कृतियों का नगर है जहाँ दोनों ही संस्कृतियों के अनुयायी अपनी-अपनी पहिचान अलग रखते हुए साथ-साथ फल फूल रहे हैं ।
कलियानगंज के नाम से अलीगढ़ से एक अनाज की मण्डी है। चारों ओर गोल बाजार की तरह दुकानें हैं। दुकानें भी वैसी ही जैसी आड़तियों की होती हैं। भीतर गोदाम, बाहर लालाजी की तिजोरी, उसके बाद छप्पर और उसके बाद लम्बा-चौडा फड़, जिस पर अनाज पड़ा रहता है और बैलगाडियाँ खड़ी रहती हैं। कुछ तो एक मंजिली दुकानें हैं और कुछ दुमंजिली। दुकानों के ऊपर वाले हिस्से में किसी-किसी में गृहस्थी किरायेदार रहते हैं और किसी में मकान मालिक स्वयं । अलीगढ़ के अधिकांश मुहल्ले अहिन्दू जनता से घिरे हैं, अतः शहर में कहीं भी कोई झगड़ा हो जाये तो लाला लोग दुकानें बन्द करके अपने-अपने घरों की रक्षा के लिये भागते हैं और इस तरह से वे रास्ते में पिट-पिटा दिये जाते हैं। कलियानगंज के बीच में दो लाइनों में गुड़ बेचने वाले बैठते हैं। एक दिन किसी साधारण-सी बात पर लालाजी की किसी विश्वविद्यालय के छात्र से गर्मा-गर्मी हो गई। वे चार-पाँच थे और बाजार वाले बहुत से कहाँ तक रुकते। पहले गाली-गलोंच हुई। फिर धौल-धप्पा हुआ। बाजार बन्द होने लगा, खटाखट ताले लगने लगे, लोगों में भी भग्गी मच गई। सारे शहर में हल्ला हो गया कि यूनिवर्सिटी के लड़कों से झगड़ा हो गया है। कलियानगंज के लोग दुकानों में ताले लगाकर अपने बाल-बच्चों और महिलाओं की सुरक्षा के लिये घर भाग गये। गंज में अब केवल बाहर के गाँवों के किसान ही शेष थे, जो अपना माल बेचने आये थे। उन्हीं की बैलगाड़ियाँ वहाँ थीं। कुछ गाड़ियों में माल भरा हुआ था और कुछ खाली खड़ी थीं, और माल भीतर दुकानों में था। कुछ वृद्ध, जो दुकानों पर सोते थे, दुकानों पर ही खाते थे, वे भी अब अपने फड़ों पर खाट बिछाये बैठे थे | दुमंजिले पर रहने वाली गृहस्थी अब भी वहीं थीं। आधे घण्टे बाद पचास-साठ लड़कों का एक झुण्ड कलियानगंज में घुसा। उस गंज के दो दरवाजे हैं, जिस दरवाजे से वे घुसे उसे बन्द कर आये । जिससे झगड़ा हुआ था, पहले तो उन्होंने उसकी तलाश की, उसके न मिलने पर उन्होंने प्रत्येक दुकान के छप्पर व किवाड़ों पर फास्फोरस छिड़कना शुरू कर दिया। उन सारे लड़कों ने कुछ ही मिनटों में दो-ढ़ाई सौ दुकानों पर फ़ास्फोरस छिड़क दिया और आप दूसरे दरवाजे से भाग निकले। सारे कलियानगंज में आग भड़क उठी । दो गोलाकार दुकानें जब एक साथ जल उठी होंगी तब आप कल्पना कीजिए क्या दृश्य रहा होगा । पूरे का पूरा बाजार अनाथ नगर की भाँति जलने लगा । दियासलाई वगैरा से यदि आग लगाई जाती तो लकड़ियों व छप्परों में धीरे-धीरे प्रवेश करती । वह तो फास्फोरस था, जहाँ-जहाँ छिड़का गया वहीं-वहीं आग भड़क उठी। जो जहाँ था वहीं घिर गया और जलकर भस्म हो गया, आग धूं-धूं करके सब कुछ स्वाहा करती जा रही थी । उसकी भयानक लाल लपटें मनुष्यों और पशुओं की चर्बी और खून के कारण हरी-पीली दिखाई पड़ रही थीं । जो शुरू में भाग सके वे तो भाग गये और जिन्होंने एक क्षण की देर की वे घिर गये और फिर निकल न सके । गाड़ियों में बन्धे हुए बैल और भैंसे जैसे-जैसे आग की लपटें नजदीक आती-जाती कूदते और जोर-जोर से आवाजें करते। कुछ तो आग से झुलस कर रस्सा तोड़ भाग निकले और जिनसे गले का रस्सा नहीं टूटा वे वहीं गिर गये । जो लोग अपनी-अपनी अटारियों में सो रहे थे वे तब जागे जबकि आग की लपटें उनके पास पहुँच गई थीं। जब नीचे आग जल रही हो तो ऊपर वाला कहाँ जाये ?
गर्मी की दुपहरी थी, सारे शहर में शोर मच गया कि कलियानगंज में आग लग गई । घर-घर और मुहल्ले-मुहल्ले में चर्चा होने लगी। लोगों के झुण्ड के झुण्ड भागे आ रहे थे । किसी की उस गंज में रिश्तेदार की दुकान थी और किसी की स्वयं की, किसी के परिचय की, तो किसी के मित्र की। पड़ौसी के द्वारा जैसे ही यह सूचना मिली मैं भी झुण्ड के साथ हो लिया, क्योंकि उस समय अकेले-दुकेले जाना खतरे से खाली नहीं था । अभी दो-तीन दिन ही हुए थे, हमारे मुहल्ले के सर्राफ लाला मथुरा प्रसाद को बल्लम से गोदे हुए। मैंने जाकर देखा तो दमकलें आग बुझा रही थीं। मोटे-मोटे पाइपों से धड़ाधड़ पानी बरसाया जा रहा था, फिर भी आग काबू में नहीं आ रही थी । जहाँ आग बुझ चुकी थी वहाँ से भुना हुआ और जला हुआ आनाज बाहर निकाला जा रहा था । मकानों की छतें जलते-जलते गिर चुकी थीं। चारों ओर एक भीषण हाहाकार मचा हुआ था। कहीं पुत्र पिता को रो रहा था, तो कहीं माँ बेटे को। पचासों बैलगाड़ियाँ जली हुई थीं। जली हुई लाश खींच-खींच कर बाहर निकाली जा रही थीं। धीरे-धीरे दमकलों ने आग पर नियन्त्रण पा लिया। कहीं किसान रो रहा था, तो कहीं मजदूर ।
जनता में एक भयानक आतंक फैला हुआ था। हजारों की भीड़ कलियानगंज के विनाश को खड़ी खड़ी देख रही थी। कुछ व्यक्तियों की आँखों में आँसू थे और कुछ की आँखों में प्रतिक्रिया के लाल डोरे। लोग खड़े धन और जन की क्षति का अनुमान लगा रहे थे, कोई ढाई लाख का बताता, तो कोई चार लाख का । पर यह सब अन्दाज धन की राशि के थे, जन क्षति तो और भी भयानक थी, चारों ओर पानी ही पानी फैल रहा था। दुकानों का अधिकांश सामान जल कर राख हो गया था और अधजला इधर-उधर बिखरा हुआ पड़ा था। चार घण्टे पहले का सुहावना बाजार शमशान मालूम पड़ रहा था। पीछे की दीवारें धुएँ से काली पड़ गई थीं। लोग आँसू भरी आँखों से उस विनाशकारी दृश्य को देखते और भगवान का नाम लेकर ठण्डी और लम्बी निःश्वास खींचते । यह शहर के इतिहास में सबसे भयानक अग्नि काण्ड था। इस हृदय विदारक दृश्य को देखकर मैं खड़ा-खड़ा सोच रहा था कि वास्तव में आग की लपटें सब कुछ स्वाहा कर देती हैं ।
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