ऊर्जा के स्रोत Sources of Energy

ऊर्जा के स्रोत  Sources of Energy

 

ऊर्जा के उत्तम स्रोत
•  शारीरिक कार्यों को करने के लिए पेशीय ऊर्जा, विविध विद्युत साधित्रों को चलाने के लिए विद्युत ऊर्जा, भोजन पकाने अथवा वाहनों को दौड़ने के लिए रासायनिक ऊर्जा, ये सभी ऊर्जाएँ किसी न किसी ऊर्जा स्रोत से प्राप्त होती हैं।
• एक उत्तम ऊर्जा का स्रोत वह है, जो
• प्रति एकांक आयतन अथवा प्रति एकांक द्रव्यमान अधिक कार्य करे।
• सरलता से सुलभ हो सके।
• भण्डारण तथा परिवहन में आसान हो ।
• कदाचित् सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण यह है कि वह सस्ता भी हो ।
ऊर्जा के पारम्परिक स्रोत
• जीवाश्म ईंधन कोयला, पेट्रोलियम आदि जीवाश्मी ईंधन के अन्तर्गत आते हैं। ये ईंधन करोड़ों वर्षों में बने हैं तथा अब केवल इनके सीमित भण्डार ही शेष हैं। ये ऊर्जा के अनवीकरणीय स्रोत हैं, अतः इन्हें संरक्षित करने की आवश्यकता है। यदि हम इन ऊर्जा स्रोतों का उपयोग इसी चिन्ताजनक दर से करते रहेंगे तो हमारे ये भण्डार शीघ्र ही रिक्त हो जाएँगे। ऐसी स्थिति को टालने के उद्देश्य से ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों की खोज की गई। परन्तु आज भी हम अपनी ऊर्जा की अधिकांश आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जीवाश्मी ईंधनों पर बहुत कुछ निर्भरता कुछ बनाए हुए हैं।
• जीवाश्मी ईंधन को जलाने की अन्य हानियाँ भी हैं। जीवाश्मी ईंधन के जलने पर मुक्त होने वाले कार्बन, नाइट्रोजन तथा सल्फर के ऑक्साइड, अम्लीय ऑक्साइड होते हैं। इनसे अम्लीय वर्षा होती है जो हमारे जल तथा मृदा के संसाधनों को प्रभावित करती है।
• जीवाश्मी ईंधन के अत्यधिक प्रयोग से वायु प्रदूषण की समस्या के अतिरिक्त कार्बन डाइऑक्साइड जैसी गैसों के ग्रीन हाउस (पौध घर) प्रभाव में भी वृद्धि होती है।
• तापीय विद्युत संयन्त्र विद्युत संयन्त्र में प्रतिदिन विशाल मात्रा में जीवाश्मी ईंधन का दहन करके जल उबालकर भाप बनाई जाती है जो टरबाइनों को घुमाकर विद्युत उत्पन्न करती है। समान दूरियों तक कोयले तथा पेट्रोलियम के परिवहन की तुलना में विद्युत संचरण अधिक दक्ष होता है। यही कारण है कि बहुत से तापीय विद्युत संयन्त्र कोयले तथा तेल के क्षेत्रों के निकट स्थापित किए गए हैं। इन संयन्त्रों को तापीय विद्युत संयन्त्र कहने का कारण यह है कि इन संयन्त्रों में ईंधन के दहन द्वारा ऊष्मीय ऊर्जा उत्पन्न की जाती है जिसे विद्युत ऊर्जा में रूपान्तरित किया जाता है।
• जल विद्युत संयन्त्र ऊर्जा का एक अन्य पारम्परिक स्रोत बहते जल की गतिज ऊर्जा अथवा अधिक ऊँचाई पर स्थित जल की स्थितिज ऊर्जा है। जल विद्युत संयन्त्रों में गिरते जल की स्थितिज ऊर्जा को विद्युत में रूपान्तरित किया जाता है। चूँकि ऐसे जल-प्रपातों की संख्या बहुत कम है जिनका उपयोग स्थितिज ऊर्जा के स्रोत के रूप में किया जा सके, अतः जल विद्युत संयन्त्रों को बाँधों से सम्बद्ध किया गया है।
• पिछली शताब्दी में सारे विश्व में बहुत बड़ी संख्या में बाँध बनाए गए हैं।
• भारत में हमारी ऊर्जा की माँग के चौथाई भाग की पूर्ति जल विद्युत संयन्त्रों द्वारा होती है।
• जल विद्युत उत्पन्न करने के लिए नदियों के बहाव को रोककर बड़े जलाशयों (कृत्रिम झीलों) में जल एकत्र करने के लिए ऊँचे-ऊँचे बाँध बनाए जाते हैं। इन जलाशयों में जल संचित होता रहता है जिसके फलस्वरूप इनमें भरे जल का तल ऊँचा हो जाता है। बाँध के ऊपरी भाग में पाइपों द्वारा जल, बाँध के आधार के पास स्थापित टरबाइन के ब्लेडों पर मुक्त रूप से गिरता है फलस्वरूप टरबाइन के ब्लेड घूर्णन गति करते हैं और जनित्र द्वारा विद्युत उत्पादन होता है।
स्रोतों के पारम्परिक के उपयोग के लिए प्रौद्योगिकी में सुधार
•  जैव-मात्रा (बायो-मास ) भारत में पशुधन की विशाल संख्या भी हमें ईंधन के स्थायी स्रोत की उपब्लधता के बारे में आश्वस्त कर सकती है। चूँकि ये ईंधन पादप एवं जन्तु उत्पाद हैं, अत: इन ईंधनों के स्रोत को हम जैव-मात्रा कहते हैं। परन्तु ये ईंधन अधिक ऊष्मा उत्पन्न नहीं करते तथा इन्हें जलाने पर अत्यधिक धुआँ निकलता है इसीलिए, इन ईंधनों की दक्षता में वृद्धि के लिए प्रौद्योगिकी का सहारा आवश्यक है।
• जब लकड़ी को वायु की सीमित आपूर्ति में जलाते हैं तो उसमें उपस्थित जल तथा वाष्पशील पदार्थ बाहर निकल जाते हैं तथा अवशेष के रूप में चारकोल रह जाता है। चारकोल बिना ज्वाला के जलता है, इससे अपेक्षाकृत कम धुआँ निकलता है तथा इसकी ऊष्मा उत्पन्न करने की दक्षता भी अधिक होती है।
• जैव गैस एक उत्तम ईंधन है क्योंकि इसमें 75% तक मेथेन गैस होती है। यह धुआँ उत्पन्न किए बिना जलती है, लकड़ी, चारकोल तथा कोयले के विपरीत जैव गैस के जलने के पश्चात राख जैसा कोई अपशिष्ट शेष नहीं बचता। इसकी तापन क्षमता उच्च होती है। जैव गैस का उपयोग प्रकाश के स्रोत के रूप में भी किया जाता है। जैव गैस संयन्त्र में शेष बची स्लरी को समय-समय पर संयन्त्र से बाहर निकालते हैं। इस स्लरी में नाइट्रोजन तथा फॉस्फोरस प्रचुर मात्रा में होते हैं, अत: यह एक उत्तम खाद के रूप में काम आती है। इस प्रकार जैव अपशिष्टों व वाहित मल के उपयोग द्वारा जैव गैस निर्मित करने से हमारे कई उद्देश्यों की पूर्ति हो जाती है। इससे हमें ऊर्जा का सुविधाजनक दक्ष स्रोत मिलता है, उत्तम खाद मिलती है और साथ ही अपशिष्ट पदार्थों के निपटारे का सुरक्षित उपाय भी मिल जाता है।
• पवन ऊर्जा पवनों की गतिज ऊर्जा का उपयोग कार्यों को करने में किया जा सकता है। पवन ऊर्जा का उपयोग शताब्दियों से पवन-चक्कियों द्वारा यान्त्रिक कार्यों को करने में होता रहा है। उदाहरण के लिए, किसी पवन-चक्की द्वारा प्रचलित जलपम्प (पानी को ऊपर उठने वाले पम्पों) में पवन-चक्की की पँखुड़ियों की घूर्णी गति का उपयोग कुओं से जल खींचने के लिए होता है। आजकल पवन ऊर्जा का उपयोग विद्युत उत्पन्न करने में भी किया जाता है।
• पवन-चक्की की संरचना वस्तुतः किसी ऐसे विशाल विद्युत पंखे के समान होती है जिसे किसी दृढ़ आधार पर कुछ ऊँचाई पर खड़ा कर दिया जाता है।
• पवन-चक्की की घूर्णी गति का उपयोग विद्युत उत्पन्न करने के लिए विद्युत जनित्र के टरबाइन को घुमाने के लिए किया जाता है। किसी चक्की निर्गत (अर्थात् उत्पन्न विद्युत) बहुत कम होता है जिसका व्यापारिक एकल पवन का उपयोग सम्भव नहीं होता। अत: किसी विशाल क्षेत्र में बहुत-सी पवन चक्कियाँ लगाई जाती हैं तथा इस क्षेत्र को पवन ऊर्जा फार्म कहते हैं। व्यापारिक स्तर पर विद्युत प्राप्त करने के लिए किसी ऊर्जा फार्म की सभी पवन चक्कियों को परस्पर युग्मित कर लिया जाता है जिसके फलस्वरूप प्राप्त नेट ऊर्जा सभी पवन चक्कियों द्वारा उत्पन्न विद्युत ऊर्जाओं के योग के बराबर होती है।
• डेनमार्क को ‘पवनों का देश’ कहते हैं। इस देश की 25% से भी अधिक विद्युत की पूर्ति पवन चक्कियों के विशाल नेटवर्क द्वारा विद्युत उत्पन्न करके की जाती है।
• जर्मनी भी इस क्षेत्र में अग्रणी है जबकि भारत का पवन ऊर्जा द्वारा विद्युत उत्पादन करने वाले देशों में पाँचवाँ स्थान है। यदि हम पवनों द्वारा विद्युत उत्पादन की अपनी क्षमता का पूरा उपयोग करें तो अनुमानों के अनुसार लगभग 45000 मेगावाट विद्युत शक्ति का उत्पादन कर सकते हैं।
• तमिलनाडु में कन्याकुमारी के समीप भारत का विशालतम पवन ऊर्जा फार्म स्थापित किया गया है। यह 380 मेगावाट विद्युत उत्पन्न करता है।
• पवन ऊर्जा नवीकरणीय ऊर्जा का एक पर्यावरणीय हितैषी एवं दक्ष स्रोत है। इसके द्वारा विद्युत उत्पादन के लिए बार-बार धन खर्च करने की आवश्यकता नहीं होती।
• परन्तु पवन ऊर्जा के उपयोग करने की बहुत सी सीमाएँ हैं। पहली सीमा यह है कि पवन ऊर्जा फार्म केवल उन्हीं क्षेत्रों में स्थापित किए जा सकते हैं जहाँ वर्ष के अधिकांश दिनों में तीव्र पवन चलती हों।
• टरबाइन की आवश्यक चाल को बनाए रखने के लिए पवन की चाल भी 15 किमी/घण्टा से अधिक होनी चाहिए। इसके साथ ही संचायक सेलों जैसी कई पूर्तिकर सुविधा भी होनी चाहिए जिसका उपयोग ऊर्जा की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उस समय किया जा सके जब पवन नहीं चलती हों। ऊर्जा फार्म स्थापित करने के लिए एक विशाल भूखण्ड की आवश्यकता होती है।
• 1 मेगावाट के जनित्र के लिए पवन फार्म को लगभग 2 हेक्टेयर भूमि चाहिए।
• पवन ऊर्जा फार्म स्थापित करने की आरम्भिक लागत अत्यधिक है। इसके अतिरिक्त पवन चक्कियों के दृढ़ आधार तथा पँखुड़ियाँ वायुमण्डल में खुले होने के कारण अंधड़, चक्रवात, धूप, वर्षा आदि प्राकृतिक थपेड़ों को सहन करते हैं, अतः उनके लिए उच्च स्तर के रख-रखाव की आवश्यकता होती है।
वैकल्पित अथवा गैर-परम्परागत ऊर्जा स्रोत
• प्रौद्योगिकी में उन्नति के साथ ही हमारी ऊर्जा की माँग में दिन-प्रतिदिन वृद्धि हो रही है। हमारी जीवन शैली में भी निरन्तर परिवर्तन हो रहा है। हम अपने कार्यों को करने के लिए अधिकाधिक मशीनों का उपयोग करते हैं। जैसे-जैसे औद्योगीकरण से हमारा जीवन स्तर उन्नत हो रहा है हमारी मूल आवश्यकताओं में भी निरन्तर वृद्धि हो रही है। जैसे-जैसे हमारी ऊर्जा की माँग में वृद्धि होती जाती है, वैसे-वैसे ही हमें अधिक ऊर्जा स्रोतों की आवश्यकता होती है। हम उपलब्ध एवं ज्ञात ऊर्जा स्रोतों के अधिक दक्ष उपयोग के लिए प्रौद्योगिकी विकसित करते हैं तथा ऊर्जा के नये स्रोतों की खोज करते हैं।
• सौर ऊर्जा सूर्य लगभग 5 करोड़ वर्ष से निरन्तर वर्तमान दर पर विशाल मात्रा में ऊर्जा विकसित कर रहा है तथा इस दर से भविष्य में भी लगभग 5 करोड़ वर्ष तक ऊर्जा विकसित करता रहेगा। सौर ऊर्जा का केवल एक लघु भाग ही पृथ्वी के वायुमण्डल की बाह्य परतों पर पहुँच पाता है। इसका लगभग आधा भाग वायुमण्डल से गुजरते समय अवशोषित हो जाता है तथा शेष भाग पृथ्वी के पृष्ठ पर पहुँचता है।
• सौर सेल के जरिए सौर ऊर्जा का सदुपयोग किया जाता है।
• सौर सेलों के साथ सम्बद्ध प्रमुख लाभ यह है कि इनमें कोई भी गतिमान पुरजा नहीं होता, इनका रख-रखाव सस्ता है तथा ये बिना किसी फोकसन युक्ति के काफी सन्तोषजनक कार्य करते हैं। सौर सेलों के उपयोग करने का एक अन्य लाभ यह है कि इन्हें सुदूर तथा अगम्य स्थानों में स्थापित किया जा सकता है। इन्हें ऐसे छितरे बसे हुए क्षेत्रों में भी स्थापित किया जा सकता है जहाँ शक्ति संचरण के लिए केबल बिछाना अत्यन्त खर्चीला तथा व्यापारिक दृष्टि से व्यावहारिक नहीं होता।
• सौर सेल बनाने के लिए सिलिकॉन का उपयोग किया जाता है जो प्रकृति में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है, परन्तु सौर सेलों को बनाने में उपयोग होने वाले विशिष्ट श्रेणी के सिलिकॉन की उपलब्धता सीमित है।
• सौर सेलों के उत्पादन की समस्त प्रक्रिया अभी भी बहुत महँगी है। सौर सेलों को परस्पर संयोजित करके सौर पैनल बनाने में सिल्वर (चाँदी) का उपयोग होता है जिसके कारण लगात में और वृद्धि हो जाती है। उच्च लागत तथा कम दक्षता होने पर भी सौर सेलों का उपयोग बहुत से वैज्ञानिक तथा प्रौद्योगिक अनुप्रयोगों के लिए किया जाता है।
• मानव निर्मित उपग्रहों तथा अन्तरिक्ष अन्वेषक युक्तियों जैसे मार्स ऑर्बिटरों में सौर सेलों का उपयोग प्रमुख ऊर्जा स्रोत के रूप में किया जाता है।
• रेडियो अथवा बेतार संचार तन्त्रों अथवा सुदूर क्षेत्रों के टी वी रिले केद्रों में सौर सेल पैनल उपयोग किए जाते हैं।
• ट्रैफिक सिग्लनों, परिकलकों तथा बहुत से खिलौनों में सौर सेल से Deha लगे होते हैं। सौर सेल पैनल विशिष्ट रूप से डिजाइन की गई आनत छतों पर स्थापित किए जाते हैं ताकि इन पर अधिक से अधिक सौर ऊर्जा आपतित हो। तथापि अत्यधिक महँगा होने के उसकारण सौर सेलों का घरेलू उपयोग अभी तक सीमित है।
समुद्रों से ऊर्जा
• ज्वारीय ऊर्जा घूर्णन गति करती पृथ्वी पर मुख्य रूप से चन्द्रमा के गुरुत्वीय खिंचाव के कारण सागरों में जल का स्तर चढ़ता व गिरता रहता है। इस परिघटना को ज्वार-भाटा कहते हैं।
• ज्वार-भाटे में जल के स्तर के चढ़ने तथा गिरने से हमें ज्वारीय ऊर्जा प्राप्त होती है।
• ज्वारीय ऊर्जा का दोहन सागर के किसी संकीर्ण क्षेत्र पर बाँध का निर्माण करके किया जाता है। बाँध के द्वार पर स्थापित टरबाइन ज्वारीय ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा में रूपान्तरित कर देती है।
• तरंग ऊर्जा समुद्र तट के निकट विशाल तरंगों को गतिज ऊर्जा को भी विद्युत उत्पन्न करने के लिए इसी ढंग से ट्रेप किया जा सकता है। महासागरों के पृष्ठ पर आर-पार बहने वाली प्रबल पवन तरंगें उत्पन्न करती है । तरंग ऊर्जा का वहीं पर व्यावहारिक उपयोग हो सकता है जहाँ तरंगें अत्यन्त प्रबल हों। तरंग ऊर्जा को ट्रेप करने के लिए विविध युक्तियाँ विकसित की गई हैं ताकि टरबाइन को घुमाकर विद्युत उत्पन्न करने के लिए इनका उपयोग किया जा सके।
• महासागरीय तापीय ऊर्जा समुद्रों अथवा महासागरों के पृष्ठ का जल सूर्य द्वारा तप्त हो जाता है जबकि इनके गहराई वाले भाग का जल अपेक्षाकृत ठण्डा होता है। ताप में इस अन्तर का उपयोग सागरीय तापीय ऊर्जा रूपान्तरण विद्युत संयन्त्र (Ocean Thermal Energy Conversion Plant या OTEC विद्युत संयन्त्र) में ऊर्जा प्राप्त करने के लिए किया जाता है। OTEC विद्युत संयन्त्र केवल तभी प्रचलित होते हैं जब महासागर के पृष्ठ पर जल का ताप तथा 2 किमी तक की गहराई पर जल के ताप में 20°C का अन्तर हो । पृष्ठ के तप्त जल का उपयोग अमोनिया जैसे वाष्पशील द्रवों को उबालने में किया जता है। इस प्रकार बनी द्रवों की वाष्प फिर जनित्र के टरबाइन को घुमाती है। महासागर की गहराईयों से ठण्डे जल को पम्पों से खींचकर वाष्प को ठण्डा करके फिर से द्रव में संघनित किया जाता है। महासागरों की ऊर्जा की क्षमता (ज्वारीय ऊर्जा, तरंग ऊर्जा तथा महासागरीय-तापीय ऊर्जा ) अति विशाल है परन्तु इसके दक्षतापूर्ण व्यापारिक दोहन में कठिनाइयाँ हैं।
• भूतापीय ऊर्जा भौमिकीय परिवर्तनों के कारण भूपर्पटी में गहराइयों पर तप्त क्षेत्रों में पिघली चट्टानें ऊपर धकेल दी जाती हैं जो कुछ क्षेत्रों में एकत्र हो जाती हैं। इन क्षेत्रों को तप्त स्थल कहते हैं। जब भूमिगत जल इन तप्त स्थलों के सम्पर्क में आता है तो भाप उत्पन्न होती है। कभी-कभी इस तप्त जल को पृथ्वी के पृष्ठ से बाहर निकलने के लिए निकास मार्ग मिल जाता है। इन निकास मार्गों को गरम चश्मा अथवा ऊष्ण स्त्रोत कहते हैं। कभी-कभी यह भाप चट्टानों के बीच में फँस जाती है जहाँ इसका दाब अत्यधिक हो जाता है। तप्त स्थलों तक पाइप डालकर इस भाप को
बाहर निकाल लिया जाता है। उच्च दाब पर निकली यह भाप विद्युत जनित्र की टरबाइन को घुमाती है जिससे विद्युत उत्पादन करते हैं। इसके द्वारा विद्युत उत्पादन की लागत अधिक नहीं हैं परन्तु ऐसे बहुत कम क्षेत्र हैं जहाँ व्यापारिक दृष्टिकोण से इस ऊर्जा का दोहन करना व्यावहारिक है। न्यूजीलैण्ड तथा संयुक्त राज्य अमेरिका में भूतापीय ऊर्जा पर आधारित कई विद्युत शक्ति संयन्त्र कार्य कर रहे हैं।
• नाभिकीय ऊर्जा नाभिकीय विखण्डन अभिक्रिया एक ऐसी प्रकिया है जिसमें किसी भारी परमाणु (जैसे यूरेनियम, प्लूटोनियम अथवा थोरियम) के नाभिक को निम्न ऊर्जा न्यूट्रॉन से बमबारी कराकर हल्के नाभिकों में तोड़ा जा सकता है। जब ऐसा किया जाता है तो विशाल मात्रा में ऊर्जा मुक्त होती है। यह तब होता है जब मूल नाभिक का द्रव्यमान व्यष्टिगत उत्पादों के द्रव्यमानों के योग से कुछ ही अधिक होता है। उदाहण के लिए यूरेनियम, के एक परमाणु के विखण्डन में जो ऊर्जा मुक्त होती है वह कोयले के किसी कार्बन परमाणु के दहन से उत्पन्न ऊर्जा की तुलना में 1 करोड़ गुनी अधिक होती है। विद्युत उत्पादन के लिए डिजाइन किए जने वाले नाभिकीय संयन्त्रों में इस प्रकार के नाभिकीय ईंधन स्वपोषी विखण्डन शृंखला अभिक्रिया का एक भाग होते हैं। जिनमें नियन्त्रित दर पर उर्जा मुक्त होती है। इस मुक्त ऊर्जा का उपयोग भाप बनाकर विद्युत उत्पन्न करने में किया जा सकता है।
कोई ऊर्जा स्रोत हमारे लिए कब तक बना रह सकता है?
• हम अधिक समय तक जीवाश्मी ईंधन पर निर्भर नहीं रह सकते। इस प्रकर के स्रोतों को जो किसी न किसी दिन समाप्त हो जाएँगे, उन्हें ऊर्जा के समाप्य स्त्रोत अथवा अनवीकरणीय स्त्रोत कहते हैं। इसके विपरित, यदि हम लकड़ी जलाने में उपयोग होने वाले वृक्षों को प्रतिस्थापित करके जैव मात्रा का प्रबन्धन उचित प्रकार से करें, तो हम किसी निश्चित दर पर ऊर्जा की नियत आपूर्ति सुनिश्चित कर सकते हैं। इस प्रकार के ऊर्जा स्रोत जिनका पुनर्जनन हो सकता है, उन्हें ऊर्जा के नवीकरणीय स्त्रोत कहते हैं।
• हमारे प्राकृतिक पर्यावरण में नवीकरणीय ऊर्जा उपलब्ध है। यह ऊर्जा, ऊर्जा की सतत् अथवा आवर्ती धाराओं के रूप में, अथवा भूमिगत भण्डारों में इतनी विशाल मात्रा में संचित है कि इन भण्डारों के खाली होने की दर व्यावहारिक दृष्टि से नगण्य है।
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