उपन्यास, समाज और इतिहास Novel, Society and History

उपन्यास, समाज और इतिहास   Novel, Society and History

 

उपन्यास का उदय
♦ उपन्यास साहित्य की एक आधुनिक विधा है।
♦ उपन्यास ने सर्वप्रथम जड़ें इंग्लैण्ड और फ्रांस में जमाई ।
♦ हालाँकि उपन्यास सत्रहवीं सदी में ही लिखे जाने लगे थे, लेकिन उनका असली विकास अठारहवीं सदी में ही हुआ। इनके पाठकों में इंग्लैण्ड और फ्रांस के पारम्परिक भद्र समाज के अलावा दुकानदार व मुंशी वर्ग के लोग भी शामिल हो गए।
प्रकाशन बाजार
♦ समाज के गरीब तबके काफी अरसे तक प्रकाशन के बाजार से बाहर रहे।
♦ सन् 1740 में किराये पर चलने वाले पुस्तकालयों की स्थापना के बाद लोगों के लिए किताबें सुलभ हो गई। तकनीकी सुधार से भी छपाई के खर्चे में कमी आई और मार्केटिंग के नये तरीकों से किताबों की बिक्री बढ़ी।
♦ चार्ल्स डिकेन्स ने उपन्यास पिक्विक पेपर्स का सन् 1836 में एक पत्रिका में धारावाहिक रूप में छपना एक महत्त्वपूर्ण घटना थी ।
उपन्यासों की दुनिया
♦ उन्नीसवीं सदी में यूरोप ने औद्योगिक युग में प्रवेश किया। उद्योगों की प्रगति के साथ-साथ मुनाफाखोरों को सही व मजदूरों को कमतर इन्सान मानने की प्रवृति चल पड़ी। इस घटनाक्रम की कड़ी निन्दा करते हुए चार्ल्स डिकेन्स जैसे उपन्यासकारों ने लोगों के जीवन व चरित्र पर औद्योगीकरण के दुष्प्रभावों के बारे में लिखा। व उनके उपन्यास हार्डटाइम्स (1854) में वर्णित कोकटाउन एक उदास काल्पनिक औद्योगिक शहर है, जहाँ मशीनों की भरमार है, धुएँ उगलती चिमनियाँ हैं, प्रदूषण से स्याह पड़ी नदियाँ हैं।
♦ अपने दूसरे उपन्यास में भी डिकेन्स ने औद्योगीकरण के दौर में शहरी जीवन की दुर्दशा का चित्रण किया। उनका ओलिवर ट्विस्ट (1838 ) एक ऐसे अनाथ की कहानी कहता है, जिसे छोटे-मोटे अपराधियों और भिखारियों की दुनिया में रहना पड़ा। एक निर्मम वर्क- हाउस या कामघर में पलने-बढ़ने के बाद ओलिवर को अन्तत: एक अमीर ने गोद ले लिया और वह सुख से रहने लगा।
समुदाय व समाज
♦ उपन्यासों ने उनमें ग्रामीण समुदायों की नियति के साथ जुड़ने का भाव पैदा किया। मिसाल के तौर पर उन्नीसवीं सदी के उपन्यासकार टॉमस हार्डी ने इंग्लैण्ड के तेजी से गायब होते देहाती समुदायों के बारे में लिखा।
♦ उपन्यास से सम्बन्धित सबसे भली बात तो यह यह हुई कि महिलाएँ उससे जुड़ीं। अठारहवीं सदी में मध्यवर्ग और सम्पन्न हुए। नतीजे में महिलाओं को उपन्यास पढ़ने और लिखने का अवकाश मिल सका। अतः उपन्यासों में महिला जगत को, उसकी भावनाओं, उसके तजुर्बां, मसलों और उसकी पहचान से जुड़े मुद्दों को समझा-सराहा जाने लगा।
युवाओं के लिए उपन्यास
♦ किशोरों के लिए उपन्यासों में एक नये तरह का आदर्श पुरुष पेश किया गया जो ताकतवर, दृढ़, स्वतन्त्र और साहसी था। इस विधा की किताबों में आर एल स्टीवेंसन की ट्रेजर आइलैण्ड (1883) और रुडयार्ड किपलिंग की जंगल बुक (1894) बहुत मशहूर हुई । के बोल-बाले के जमाने में जी ए हेंटी के
♦ ब्रितानी साम्राज्य ऐतिहासिक साहसिक उपन्यास भी बेहद लोकप्रिय थे।
♦ किशोरियों के लिए लिखी प्रेम कहानियाँ भी इसी जमाने में, खासतौर पर अमेरिका में लोकप्रिय हुईं। हेलेन हण्ट जैक्सन कृत रमोना (1884) और सूजन कूलिज के छद्म नाम से लिखने वाली सारा चौंसी वूल्जी की सीरीज ह्वाट केटीडिड ( 1872 ) ने काफी नाम कमाया।
उपन्यास भारत आया
♦ भारत में गद्य कथाएँ पहले भी लिखी जा रही थीं। मिसाल के तौर पर बाणभट्ट ने सातवी सदी में संस्कृत में कादम्बरी लिखी थी । पंचतंत्र एक और मशहूर उदाहरण है इसके अलावा फारसी और उर्दू में भी साहस, वीरता और चतुराई के किस्सों की लम्बी परम्परा थी, जिसे दास्तान कहते थे। लेकिन ये कृतियाँ हम आज जिसे उपन्यास कहते हैं, उनसे भिन्न थीं।
♦ भारत में आधुनिक उपन्यास का विकास उन्नीसवीं सदी में पश्चिमी उपन्यास से भारतीयों के परिचय के बाद हुआ। भारतीय भाषाओं, छपाई और पाठक-वर्ग के विकास से इसमें काफी मदद मिली।
♦ यहाँ के आरम्भिक उपन्यास बंगाली और मराठी में लिखे गए।
♦ मराठी का पहला उपन्यास बाबा पद्मणजी का यमुनापर्यटन (1857) था, जिसमें विधवाओं की दुर्दशा को आधार बनाकर सीधी-सादी कहानी बुनी गई थी। इसके बाद लक्ष्मण मोरेश्वर हाल्बे कृत मुक्तमाला (1861) आया । वह कोई यथार्थवादी कृति नहीं थी, बल्कि इसके जरिए एक ‘रूमानी’ कहानी के कलेवर में नैतिक सीख देने की कोशिश की गई थी।
♦ उन्नीसवीं सदी के अग्रणी उपन्यासकारों ने किसी न किसी उद्देश्य को लेकर उपन्यास रचे । उपनिवेशवादी शासकों को उस समय की भारतीय संस्कृति कमतर नजर आती थी। वहीं भारतीय उपन्यासकारों ने देश में आधुनिक साहित्य का विकास करने के उद्देश्य से लिखा।
दक्षिण भारत में उपन्यास
♦ दक्षिण भारतीय भाषाओं में भी उपन्यास औपनिवेशिक काल के दौरान ही आने लगे थे। कई शुरुआती उपन्यास तो अंग्रेजी उपन्यासों के अनुवाद के रूप में छपे ।
♦ इन्दुलेखा (1889) नामक उपन्यास मलयालम का पहला आधुनिक उपन्यास माना जाता है।
♦ नारों सदाशिव रित्बूदने अपने मराठी उपन्यास मंजूघोष (1868) में बेहद सौन्दर्यात्मक शैली का इस्तेमाल किया था। इस उपन्यास में हैरतंगेज घटनाओं की भरमार थी ।
हिन्दी उपन्यास
♦ उत्तर में आधुनिक हिन्दी साहित्य के पुरोधा, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, ने अपनी मण्डली के कवियों व लेखकों को दूसरी भाषाओं में पुनर्रचना और अनुवाद करने को उत्साहित किया। उनकी प्रेरणा से कई सारे उपन्यास अंग्रेजी या बंगाली से हिन्दी में या तो अनुदित हुए या रूपान्तरित, लेकिन हिन्दी का पहला उपन्यास लिखने का श्रेय दिल्ली के श्रीनिवास दास को जाता है। परीक्षा – गुरु (1882) नामक इस उपन्यास में खुशहाल परिवारों के युवाओं को बुरी संग-सोहबत के नैतिक खतरों से आगाह किया गया।
♦ परीक्षा – गुरु से नव निर्मित मध्यमवर्ग की अन्दरूनी व बाहरी दुनिया का पता चलता है। उपन्यास के चरित्रों को औपनिवेशिक शासन से कदम मिलाने में कैसी मुश्किलें आती हैं और अपनी सांस्कृतिक अस्मिता को लेकर वे क्या सोचते हैं, यह इस उपन्यास का कथ्य है।
♦ हिन्दी उपन्यास का पाठक-वर्ग देवकी नन्दन खत्री के लेखन से पैदा हुआ। माना जाता है कि उनकी बेस्ट सेलर चन्द्रकान्ता सन्तति जो फंतासी के तत्त्वों से बुना हुआ रुमानी उपन्यास था ने उस समय के शिक्षित तबकों में हिन्दी भाषा और देवनागरी लिपि को लोकप्रिय बनाने में अहम भूमिका निभाई। हालाँकि इसे मात्र ‘पढ़ने के मजे’ के लिए लिखा गया था, फिर भी इससे इसके पाठक वर्ग की चाहत और उनके भय के बारे में भी दिलचस्प सुराग मिलता है।
♦ प्रेमचन्द के लेखन के साथ हिन्दी उपन्यास में उत्कृष्टता आई। उर्दू से लिखना शुरु कर वे बाद में हिन्दी में लिखने लगे और दोनों ही भाषाओं में उनका प्रभाव जबरदस्त रहा। उन्होंने पारम्परिक किस्सागोई से अपनी शैली के लिए प्रेरणा ली। कई आलोचक मानते है कि सन् 1916 में प्रकाशित उनके उपन्यास सेवा सदन ने हिन्दी उपन्यास को फंतासी, उपदेश और सरल मनोरंजन के दायरे से उठाकर आम लोगों की जिन्दगी और सामाजिक सरोकारों पर विचारने वाली विधा बना दिया।
बंगाल में उपन्यास
♦ उन्नीसवीं सदी के बंगाल का उपन्यास दो संसारों में जीता था, कुछ तो भूतकाल में रहते थे, उनके किरदार महिला, घटनाएँ और प्रेम कहानियाँ ऐतिहासिक होती थीं। जबकि एक और किस्म के उपन्यास समसामयिक महिला घरेलू परिस्थितियों पर केन्द्रित थे, महिला घरेलू उपन्यास आमतौर पर सामाजिक समस्याओं और स्त्री-पुरुष सम्बन्धों के इर्द-गिर्द घूमते थे।
♦ जब बंकिम ने सन् 1865 में अपने प्रथम उपन्यास दुर्गेशन्दिनी को प्रकाशित करवाया। इसमें बंगाली गद्य की उत्कृष्टता झलकती है। बंकिम की भाषा संस्कृतनिष्ठ थी पर उसमें बोलियों का भी पुट था।
♦ उपन्यास बहुत शीघ्र बंगाल में खूब लोकप्रिय हो गया।
♦ बीसवीं सदी तक आते-आते सरल भाषा में कहानी कहने की उनकी काबिलियत ने शरद चन्द्र चट्टोपाध्याय (सन् 1876-1938) को बंगाल या शायद पूरे भारत का सबसे लोकप्रिय उपन्यासकार बना दिया।
महिलाएँ और उपन्यास
♦ महिलाएँ पुरुषों द्वारा लिखी गई कहानियों की पाठिका – मात्र बन कर नहीं रहीं। कुछ भाषाओं में उनकी शुरुआती रचनाएँ कविताएँ, लेख या आत्म-कथा बयान थीं।
♦ बीसवीं सदी के आरम्भिक दशकों में दक्षिण भारत की लेखिकाओं ने उपन्यास और कहानियाँ भी लिखने शुरू कर दिए।
♦ महिलाओं के बीच उपन्यास की लोकप्रियता का एक कारण यह भी था कि इससे नारित्व की एक नई परिकल्पना उभरती थी।
♦ रोकैया हुसैन (सन् 1880-1932) समाज सुधारक थीं, जिन्होंने विधवा होने के बाद कलकत्ता में एक बालिका विद्यालय की स्थापना की। उन्होंने अंग्रेजी में सुल्ताना का स्वप्न (1905) नामक एक व्यंग्यात्मक फंतासी लिखी, जिसमें उस उलट-पुलट भरी दुनिया की बात की गई जहाँ महिलाओं ने पुरुषों की जगह ले ली है। उनके उपन्यास पद्मराग ने अपनी किस्मत का फैसला खुद करके महिलाओं की दशा सुधारने का आरम्भ किया।
जाति प्रथा, निम्न जातियाँ और अल्पसंख्यक
♦ इन्दुलेखा एक प्रेम कहानी थी। लेकिन यह ‘उच्च जाति’ की एक वैवाहिक समस्या से भी रूबरू थी जिस पर इसके लिखे जाने के वक्त वाद-विवाद चल रहा था ।
♦ इन्दिरा बाई और इन्दुलेखा जैसे उपन्यास उच्च जाति के उपन्यासकारों द्वारा, मूलरूप से वैसे ही चरित्रों को लेकर लिखे गए थे।
♦ उत्तरी केरल की ‘निम्न’ जाति के लेखक पौथेरी कुंजाम्बु ने सन् 1892 में सरस्वती विजयम नामक उपन्यास लिखा, जिसमें जाति दमन की कड़ी निन्दा की गई ।
♦ बंगाल में भी सन् 1920 के आस-पास एक नई किस्म के उपन्यास का आना हुआ जिनमें किसानों और निम्न जातियों से जुड़े मसले उठाए गए। अद्वैत मल्लाबर्मन (सन् 1914-51) ने तीताश एकटी नदीर नाम (1956) के रूप में तीताश नदी में मछली मारकर जीने वाले मल्लाहों के जीवन पर एक महाकाव्यात्मक उपन्यास लिखा।
राष्ट्र और उसका इतिहास
♦ बंगाल में कई सारे उपन्यास मराठों व राजपूतों को लेकर लिखे गए। इनसे अखिल भारतीयता का अहसास पैदा हुआ। उनमें कल्पित राष्ट्र रूमानी साहस, वीरता और त्याग से ओत-प्रोत था। ये ऐसे गुण थे जिन्हें उन्नीसवीं सदी के दफ्तरों और सड़कों पर पाना मुश्किल था। इस तरह उपन्यास में गुलाम जनता ने अपनो चाहत को साकार करने का जरिया ढूँढा ।
♦ भूदेब मुखोपाध्याय (सन् 1827-94) छत अँगुरिया बिनिमय ( 1857 ) बंगाल में लिखा जाने वाला पहला ऐतिहासिक उपन्यास था। इसके नायक शिवाजी, धूर्त और कुटेल औरंगजेब से कई बार लोहा लेते हैं।
♦ उपन्यास कल्पित राष्ट्र में इतनी ताकत थी कि इससे प्रेरित होकर असली राजनीतिक आन्दोलन उठ खड़े हुए। बंकिम का आनन्द मठ (1882) मुसलमानों से लड़कर हिन्दू साम्राज्य स्थापित करने वाले हिन्दू सैन्य – संगठन की कहानी कहता है । इस एक उपन्यास ने तरह-तरह के स्वतन्त्रता सेनानियों को प्रेरित किया।
उपन्यास और राष्ट्र निर्माण
♦ साहस और शौर्यशाली अतीत के आह्वान के जरिए उपन्यास को एक साझे राष्ट्र के अहसास को लोकप्रिन बनाने में मदद मिली । समाज के विभिन्न तबकों से आते प्रेमचन्द के पात्र जनवादी मूल्यों पर आधारित समाज बनाते दिखते हैं। भूमि का केन्द्रीय चरित्र, सूरदास तथा कथित अछूत जाति का ज्योतिहीन भिखारी है। इस तरह के ‘नायक’ का चयन अपने आप में खास बात है | सन्देश यह है कि सबसे दबे-कुचले सताए लोग भी साहित्यिक रचना के विषय हो सकते हैं।
♦ गोदान (1936) प्रेमचन्द की सबसे मशहूर कृति है। यह भारतीय किसानों पर लिखा गया महान उपन्यास है।
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