इण्डो-चाइना में राष्ट्रवादी आन्दोलन The Nationalist Movement in Indo-China
इण्डो-चाइना में राष्ट्रवादी आन्दोलन The Nationalist Movement in Indo-China
चीन के साये से आजादी
♦ इण्डो-चाइना तीन देशों से मिलकर बना है। ये तीन देश हैं वियतनाम, लाओस ओर कम्बोडिया। इण्डो-चाइना के पूरे इलाके पर पहले शक्तिशाली साम्राज्य का वर्चस्व था। वियतनाम उस रास्ते से जुड़ा रहा है, जिसे समुद्री सिल्क रूट कहा जाता था।
♦ वियतनाम पर फ्रांसीसियों के कब्जे के बाद वियतनामियों की जिन्दगी पूरी तरह बदल गई। जीवन के हर मोर्चे पर जनता का औपनिवेशिक शासकों के साथ टकराव होने लगा। फ्रांसीसियों का नियन्त्रण सबसे ज्यादा तो सैनिक और आर्थिक मामलों में ही दिखाई देता था लेकिन वियतनामी संस्कृति को तहस-नहस करने के लिए भी इन्होंने सुनियोजित प्रयास किए।
♦ फ्रांसीसियों और उनके वर्चस्व का अहसास कराने वाली हर चीज के खिलाफ वियतनामी समाज के हर तबके ने जमकर संघर्ष किया और यहीं से वियतनाम में राष्ट्रवाद के बीज पड़े ।
♦ वियतनाम की औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से चावल की खेती और रबड़ के बगानों पर आश्रित थी। इन पर फ्रांस और वियतनाम के मुट्ठी भर धनी तबके का स्वामित्व था। इस क्षेत्र की जरूरतों को पूरा करने के लिए ही रेल और बन्दगाह की सुविधाएँ विकसित की जा रही थीं। रबड़ के बागानों में वियतनामी मजदूरों से एकतरफा अनुबन्ध व्यवस्था के तहत काम करवाया जाता था।
♦ फ्रांसीसी उपनिवेशवाद सिर्फ आर्थिक शोषण पर केन्द्रित नहीं था। इसके पीछे ‘सभ्य’ बनाने का विचार भी काम कर रहा था जिस तरह भारत में अंग्रेज दावा करते थे उसी तरह फ्रांसीसियों का दावा था कि वे वियतनाम के लोगों को आधुनिक सभ्यता से परिचित करा रहे हैं। उनका विश्वास था कि यूरोप में सबसे विकसित सभ्यता कायम हो चुकी है। इसीलिए वे मानते थे कि उपनिवेशों में आधुनिक विचारों का प्रसार करना यूरोपियों का ही दायित्व है और इस दायित्व की पूर्ति करने के लिए अगर उन्हें स्थानीय संस्कृतियों, धर्मों व परम्पराओं को भी नष्ट करना पड़े तो इसमें कोई बुराई नहीं है।
♦ पश्चिमी ढंग की शिक्षा देने के लिए सन् 1907 में टोंकिन फ्री स्कूल खोला गया था। इस शिक्षा में विज्ञान, स्वच्छता और फ्रांसीसी भाषा की कक्षाएँ भी शामिल थीं (जो शाम को लगती थीं और उनके लिए अलग से फीस ली जाती थी ) । इस स्कूल की नजर में ‘आधुनिक’ के क्या मायने थे इससे उस समय की सोच को अच्छी तरह समझा जा सकता है। स्कूल की राय में, सिर्फ विज्ञान और पश्चिमी विचारों की शिक्षा प्राप्त कर लेना ही काफी नहीं था। आधुनिक बनने के लिए वियतनामियों को पश्चिम के लोगों जैसा ही दिखना भी पड़ेगा। इसीलिए यह स्कूल अपने छात्रों को पश्चिमी शैलियों को अपनाने के लिए उकसाता था।
♦ शिक्षकों और विद्यार्थियों ने फ्रांसीसी पुस्तकों और पाठ्यक्रमों का आँख मूँद कर अनुसरण नहीं किया। कहीं इनका खुलकर विरोध तो कहीं लोगों ने खामोशी से प्रतिरोध दर्ज कराया। हुआ
♦ सन् 1920 के दशक तक आते-आते छात्र-छात्राएँ राजनीतिक पार्टियाँ बनाने लगे थे। उन्होंने यंग अन्नान जैसी पार्टियाँ बना ली थीं और बे अन्नानीज स्टूडेण्ट (अन्नान के विद्यार्थी) जैसी पत्रिकाएँ निकालने लगे थे। पाठशालाएँ राजनीतिक-सांस्कृतिक संघर्ष के अखाड़ों में तब्दील होने लगीं।
♦ शिक्षा पर नियन्त्रण के माध्यम से फ्रांसीसी वियतनाम पर अपना कब्जा और मजबूत करने की फिराक में थे। वे जनता के मूल्य-मान्यताओं, तौर-तरीकों और रवैयों को बदलने का प्रयास करने लगे ताकि लोग फ्रांसीसी सभ्यता को श्रेष्ठ और वियतनामियों को कमतर मानने लगें।
♦ दूसरी तरफ, वियतनामी बुद्धिजीवियों को लगता था कि फ्रांसीसियों के शासन में वियतनाम न केवल अपने भू-भाग पर अपना नियन्त्रण खोता जा रहा है बल्कि अपनी पहचान भी गंवाता जा रहा है। उसकी संस्कृति और मूल्यों का अपमान किया जा रहा था और लोगों में राजा-प्रजा वाला भाव पैदा हो रहा था। फ्रांसीसी औपनिवेशिक शिक्षा के खिलाफ चल रहा संघर्ष उपनिवेशवाद के विरोध और स्वतन्त्रता के हक में चलने वाले व्यापक संघर्ष का हिस्सा बन गया था।
धर्म और उपनिवेशवाद-विरोध
♦ वियतनामियों के धार्मिक विश्वास बौद्धधर्म, कन्फ्यूशियसवाद और स्थानीय रीति-रिवाजों पर आधारित थे।
♦ फ्रांसीसी मिशनरी वियतनाम में ईसाई धर्म के बीज बोने का प्रयास कर रहे थे। उन्हें वियतनामियों के धार्मिक जीवन में इस तरह का घालमेल पसन्द नहीं था। उन्हें लगता था कि पराभौतिक शक्तियों को पूजने की वियतनामियों की आदत को सुधारा जाना चाहिए।
♦ अठारहवीं सदी से ही बहुत सारे धार्मिक आन्दोलन पश्चिमी शक्तियों के प्रभाव और उपस्थिति के खिलाफ जागृति फैलाने का प्रयास कर रहे थे।
♦ सन् 1868 कास्कॉलर्स रिवोल्ट (विद्वानों का विद्रोह) फ्रांसीसी कब्जे और ईसाई धर्म के प्रसार के खिलाफ शुरुआती आन्दोलनों में से था। इस आन्दोलन की बागडोर शाही दरबार के अफसरों के हाथों में थी। ये अफसर कैथोलिक धर्म और फ्रांसीसी सेना के प्रसार से नाराज थे। उन्होंने अन्गुआन और हातिएन प्रान्तों में बगावतों का नेतृत्व किया और एक हजार से ज्यादा ईसाईयों का कत्ल कर डाला।
♦ कैथोलिक मिशनरी सत्रहवीं सदी की शुरुआत से ही स्थानीय लोगों को ईसाई धर्म से जोड़ने में लगे हुए थे और अठारहवीं सदी के अन्त तक आते-आते उन्होंने लगभग 300000 लोगों को ईसाई बना लिया था।
♦ फ्रांसीसियों ने सन् 1868 के आन्दोलन को तो कुचल डाला लेकिन इस बगावत ने फ्रांसीसियों के खिलाफ अन्य देशभक्तों में उत्साह का संचार जरूर कर दिया।
♦ होआ हाओ आन्दोलन सन् 1939 में शुरू हुआ था । हरे-भरे मेकोंग डेल्टा इलाके में इसे भारी लोकप्रियता मिली। यह आन्दोलन उन्नीसवीं सदी के उपनिवेशवाद विरोधी आन्दोलनों में उपजे विचारों से प्रेरित था।
♦ होआ हाओ आन्दोलन के संस्थापक का नाम था हुइन्ह फू सो । वह जादू-टोना और गरीबों की मदद किया करते थे। व्यर्थ खर्चे के खिलाफ उनके उपदेशों का लोगों में काफी असर था। वह बालिका वधुओं की खरीद-फरोख्त, शराब व अफीम के प्रखर विरोधी थे।
♦ फ्रांसीसियों ने हुइन्ह फू सो के विचारों पर अधारित आन्दोलन को कुचलने का कई तरह से प्रयास किया। उन्होंने फू सो को पागल घोषित कर दिया। फ्रांसीसी उन्हें पागल बोन्जे कह कर बुलाते थे। सरकार ने उन्हें पागलखाने में डाल दिया था।
♦ जिस डॉक्टर को यह जिम्मेदारी सौंपी गई कि वह फू सो को पागल घोषित करेगा वही कुछ समय में उनका अनुयायी बन गया। आखिरकार सन् 1941 में फ्रांसीसी डॉक्टरों ने भी मान लिया कि वह पागल नहीं है। इसके बाद फ्रांसीसी सरकार ने उन्हें वियतनाम से निष्कासित करके लाओस भेज दिया। उनके बहुत सारे समर्थकों और अनुयायियों को यातना शिविर (Concentration Camp) में डाल दिया गया।
आधुनिकीकरण की संकल्पना
♦ फ्रांसीसी उपनिवेशवाद का विभिन्न स्तरों पर और नाना रूपों में विरोध हो रहा था।
♦ उन्नीसवीं सदी के आखिर में फ्रांसीसियों के विरोध का नेतृत्व प्राय: कन्फ्यूशियन विद्वानों कार्यकर्ताओं के हाथों में होता था जिन्हें अपनी दुनिया बिखरती दिखाई दे रही थी। कन्फ्यूशियन परम्परा में शिक्षित फान बोई चाऊ (सन् 1867-1940) ऐसे ही एक महत्त्वपूर्ण राष्ट्रवादी थे। सन् 1903 में उन्होंने रेवोल्यूशनरी सोसाइटी (दुइ तान होइ) नामक पार्टी का गठन किया और तभी से वह उपनिवेशवाद विरोधी आन्दोलन के एक अहम नेता बन गए थे। राजकुमार कुआंग दे इस पार्टी के मुखिया थे।
♦ बीसवीं सदी के पहले दशक में ‘पूरब की ओर चलो’ आन्दोलन काफी तेज था। सन् 1907-1908 में लगभग 300 वियतनामी विद्यार्थी आधुनिक शिक्षा प्राप्त करने के लिए जापान गए थे। उनमें से बहुतों का सबसे बड़ा लक्ष्य यही था कि फ्रांसीसियों को वियतनाम से निकाल बाहर किया जाए, कठपुतली सम्राट को गद्दी से हटा दिया जाए और फ्रांसीसियों द्वारा अपमानित करके गद्दी से हटा दिए गए न्यूयेन राजवंश को दोबारा गद्दी पर बिठाया जाए।
कम्युनिस्ट आन्दोलन और वियतनामी राष्ट्रवाद
♦ सन् 1930 के दशक में आई महामन्दी ने वियतनाम पर भी गहरा असर डाला।
♦ फरवरी, 1930 में हो ची मिन्ह ने राष्ट्रवादियों के अलग-थलग समूहों और गुटों को एकजुट करके वियतनामी कम्युनिस्ट (वियतनाम कांग सान देंग) पार्टी की स्थापना की जिसे बाद में इण्डो-चाइनीज कम्युनिस्ट पार्टी का नाम दिया गया।
♦ हो ची मिन्ह यूरोपीय कम्युनिस्ट पार्टियों के उग्र आन्दोलनों से काफी प्रभावित थे। सन् 1940 में जापान ने वियतनाम पर कब्जा कर लिया। जापान पूरे दक्षिण-पूर्व एशिया पर कब्जा करना चाहता था। ऐसे में अब राष्ट्रवादियों को फ्रांसीसियों के साथ-साथ जापानियों से भी लोहा लेना था। बाद में वियेतमिन्ह के नाम से जानी गई लीग फॉर द इण्डिपेंडेस ऑफ वियतनाम (वियतनाम स्वतन्त्रता लीग) ने जापानी कब्जे का मुँह तोड़ जवाब दिया और सितम्बर, 1945 में हनोई को आजाद करा लिया।
♦ इसके बाद वियतनाम लोकतान्त्रिक गणराज्य की स्थापना की गई और हो ची मिन्ह को उसका अध्यक्ष चुना गया।
♦ वियतनाम गणराज्य नये गणराज्य के सामने बहुत सारी चुनौतियाँ थीं। फ्रांसीसी शासक सम्राट बाओदाई को कठपुतली की तरह इस्तेमाल करते हुए देश पर कब्जा जमाए रखने की कोशिश कर रहे थे। फ्रांसीसी हमले को देखते हुए वियेतमिन्ह के सदस्यों को पहाड़ी इलाकों में शरण लेनी पड़ी। आठ साल तक चली लड़ाई में आखिरकार फ्रांसीसियों को दिएन बिएन फू के मोर्चे पर मुँह की खानी पड़ी।
♦ फ्रांसीसियों की पराजय के बाद जिनेवा में चली शान्ति वार्ताओं में वियतनामियों को देश विभाजन का प्रस्ताव मानने के लिए बाध्य कर दिया गया।
♦ इस बँटवारे से पूरा वियतनाम युद्ध के मोर्चे में तब्दील होकर रह गया। देश के अपने ही लोगों और पर्यावरण की तबाही होने लगी। कुछ समय बाद न्गो दिन्ह दिएम के नेतृत्व में हुए तख्तापलट में बाओ डाई को गद्दी से हटा दिया गया।
♦ उत्तरी वियतनाम में हो ची मिन्ह के नेतृत्व वाली सरकार की सहायता से एन एल एफ ने देश के एकीकरण के लिए आवाज उठाई। अमेरिका इस गठबन्धन की बढ़ती ताकत और उसके प्रस्तावों से भयभीत था कहीं पूरे वियतनाम पर कम्युनिस्टों का कब्जा न हो जाए, इस भय से अमेरिका ने अपनी फौजें और गोला-बारूद वियतनाम में तैनात करना शुरू कर दिया। अमेरिका इस खतरे से सख्ती से निपटना चाहता था।
युद्ध में अमेरिका का प्रवेश
♦ अमेरिका के भी युद्ध में कूद पड़ने से वियतनाम में एक नया दौर शुरू हुआ जो वियतनामियों के साथ-साथ अमेरिकियों के लिए भी बहुत मँहगा साबित हुआ।
♦ सन् 1965 से सन् 1972 के बीच अमेरिका के 3403100 सैनिकों ने वियतनाम में काम किया जिनमें से 7484 महिलाएँ थीं।
♦ हालाँकि अमेरिका के पास एक से बढ़कर एक आधुनिक सामान और बेहतरीन चिकित्सा सेवाएँ उपलब्ध थीं फिर भी उसके बहुत सारे सैनिक मारे गए। लगभग 47244 सैनिक मारे गए और 303704 घायल हुए।
♦ वियतनाम में अमेरिकी हमले के दौरान जितने बमों और रासायनिक हथियारों का इस्तेमाल किया गया उनकी मात्रा दूसरे विश्व युद्ध में इस्तेमाल किए गए हथियारों की मात्रा से भी ज्यादा थी। इन हथियारों को अधिकतर नागरिक आबादियों पर इस्तेमाल किया गया।
♦ अमेरिका के साथ संघर्ष का यह दौर काफी यातनापूर्ण और निर्मम रहा।
♦ युद्ध का असर अमेरिका में भी साफ महसूस किया जा सकता था। वहाँ के बहुत सारे लोग इस बात के लिए सरकार का विरोध कर रहे थे कि उसने देश की फौजों को एक ऐसे युद्ध में झोंक दिया है जिसे किसी भी हालत में जीता नहीं जा सकता।
♦ इस युद्ध के प्रति समर्थन और विरोध के स्वरों को बुलन्द करने में अमेरिकी मीडिया और फिल्मों ने भी एक अहम भूमिका अदा की थी।
♦ यह युद्ध इसलिए शुरू हुआ था क्यों के अमेरिकी नीति निर्माता इस बात को लेकर चिन्तित थे कि अगर हो ची मिन्ह की सरकार अपनी योजनाओं में कामयाब हो गई तो आस-पास के दूसरे देशों में भी कम्युनिस्ट सरकारें स्थापित हो जाएँगी।
♦ अमेरिका के खिलाफ युद्ध में वियतनाम के लोग एकजुट होकर लड़े। इस युद्ध में वहाँ की औरतों ने भी अहम भूमिका अदा की।
♦ युद्ध के लम्बा खिंचते जाने से अमेरिका में भी लोग सरकार के खिलाफ होने लगे थे। यह साफ दिखाई दे रहा था कि अमेरिका अपने लक्ष्य को हासिल करने में विफल रहा है।
♦ अमेरिका न तो वियतनामियों के प्रतिरोध को कुचल पाया था और न ही अमेरिकी कार्यवाही के लिए वियतनामी जनता का समर्थन प्राप्त कर पाया। इस दौरान हजारों नौजवान अमेरिकी सिपाही अपनी जान गंवा चुके थे और असंख्य वियतनामी नागरिक मारे जा चुके थे इस युद्ध को पहला टेलीवि जन युद्ध कहा जाता है।
♦ युद्ध के दृश्य हर रोज समाचार कार्यक्रमों में टेलीविजन के पढ़ें पर प्रसारित किए जाते थे। अमेरिकी कुकृत्यों को देखकर बहुत सारे लोगों का अमेरिका से मोह भंग हो चुका था ।
♦ मैरी मैक्कार्थी जैसे लेखक या जेन फोण्डा जैसे कलाकारों ने तो उत्तरी वियतनाम का दौरा भी किया और अपने देश की रक्षा के लिए वियतनामियों द्वारा दिए गए बलिदानों की भूरि-भूरि प्रशंसा की।
♦ राजनीतिक सिद्धान्तकार नोम चॉम्स्की ने इस युद्ध को ‘शान्ति के लिए, राष्ट्रीय आत्मनिर्णय के अधिकार के लिए और अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग के लिए भारी खतरा’ बताया ।
♦ सरकारी नीति के खिलाफ व्यापक प्रतिक्रियाओं ने युद्ध खत्म करने के प्रयासों को और बल प्रदान किया।
♦ जनवरी, 1974 में पेरिस में एक शान्ति समझौते पर हस्ताक्षर किए गए। इस समझौते से अमेरिका के साथ चला आ रहा टकराव तो खत्म हो गया लेकिन साइगॉन शासन और एनएलएफ के बीच टकराव जारी रहा। आखिर कार 30 अप्रैल, 1975 को एनएलएफ ने राष्ट्रपति के महल पर कब्जा कर लिया और वियतनाम के दोनों हिस्सों को मिला कर एक राष्ट्र की स्थापना कर दी गई ।
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