आनुवंशिकता एवं जैव विकास Heredity and Organic Evolution
आनुवंशिकता एवं जैव विकास Heredity and Organic Evolution
♦ पूर्ववर्ती पीढ़ी से वंशागति सन्तति को एक आधारिक शारीरिक अभिकल्प (डिजाइन) एवं कुछ विभिन्नताएँ प्राप्त होती हैं।
♦ आनुवंशिकता जनन प्रक्रम का सबसे महत्त्वपूर्ण परिणाम सन्तति के जीवों के समान डिजाइन (अभिकल्पना) का होना है। आनुवंशिकता नियम इस बात का निर्धारण करते हैं जिनके द्वारा विभिन्न लक्षण पूर्ण विश्वसनीयता के साथ वंशागत होते हैं।
♦ वंशागत लक्षण सन्तति में जनक के अधिकतर आधारभूत लक्षण होते हैं। जिन्हें वंशागत लक्षण कहते हैं। ऐसे लक्षण पीढ़ी-दर-पीढ़ी संचरित होते रहते हैं।
♦ आनुवंशिक लक्षणों के पीढ़ी-दर-पीढ़ी संचरण की विधियों और कारणों के अध्ययन को आनुवंशिकी कहा जाता है।
♦ लक्षणों की वंशागति के नियम मानव में लक्षणों की वंशागति के नियम इस बात पर आधारित हैं कि माता एवं पिता दोनों ही समान मात्रा में आनुवंशिक पदार्थ को सन्तति (शिशु) में स्थानान्तरित करते हैं। इसका अर्थ यह है कि प्रत्येक लक्षण पिता और माता के DNA से प्रभावित हो सकते हैं। अतः प्रत्येक लक्षण के लिए प्रत्येक सन्तति में दो विकल्प होंगे। फिर सन्तान में कौन-सा लक्षण परिलक्षित होगा? मेण्डल ने मटर के पौधों पर प्रयोग कर इस प्रकार की वंशागति के कुछ मुख्य नियम प्रस्तुत किए।
♦ मेण्डल ने आनुवंशिकता सम्बन्धी तीन नियमों का प्रतिपादन किया था, जो इस प्रकार हैं
♦ प्रभाविकता का नियम एक जोडा विपरीत गुणों वाले शुद्ध पिता या माता में संकरण करने से प्रथम पीढ़ी में प्रभावी गुण प्रकट होते हैं, जबकि अप्रभावी गुण छिप जाते हैं। प्रथम पीढ़ी में केवल प्रभावी गुण ही दिखाई देता है। लेकिन अप्रभावी गुण उपस्थित अवश्य रहता है। यह गुण दूसरी पीढ़ी मे प्रकट होता है।
♦ पृथक्करण का नियम लक्षण कारकों अर्थात् जीनों के जोडों के दोनों कारक युग्म बनाते समय पृथक् हो जाते हैं और इनमें से केवल एक कारक ही किसी एक युग्मक में पहुँचता है। इन नियम को शुद्धता का नियम कहते हैं।
♦ स्वतन्त्र अपव्यूहन का नियम जब दो जोड़ी विपरीत लक्षणों वाले पौधों के बीच संकरण कराया जाता है, तो दोनों लक्षणों का पृथक्करण स्वतन्त्र रूप से होता है- एक लक्षण की वंशानुगति दूसरे को प्रभावित नहीं करती।
♦ लिंग निर्धारण कुछ प्राणियों में लिंग निर्धारण निषेचित अण्डे (युग्मक) के ऊष्मायन ताप पर निर्भर करता है कि सन्तति नर होगी या मादा। घोंघे जैसे कुछ प्राणी अपना लिंग बदल सकते हैं, जो इस बात का संकेत है कि इनमें लिंग निर्धारण आनुवंशिक नहीं है। लेकिन, मानव में लिंग निर्धारण आनुवंशिक आधार पर होता है। दूसरे शब्दों में, जनक जीवों से वंशानुगत जीन ही इस बात का निर्णय करते हैं कि सन्तति लड़का होगा अथवा लड़की।
♦ मानव के सभी गुणसूत्र पूर्णरूपेण युग्म नहीं होते। मानव में अधिकतर गुणसूत्र माता और पिता के गुणसूत्रों के प्रतिरूप होते हैं। इनकी संख्या 22 जोड़े हैं परन्तु एक युग्म जिसे लिंग सूत्र कहते हैं, जो सदा पूर्ण जोड़े मे नहीं होते। स्त्री में गुणसूत्र का पूर्ण युग्म होता है तथा दोनों ‘X’ कहलाते हैं। लेकिन पुरुष में यह जोड़ा परिपूर्ण जोड़ा नहीं होता, जिसमें एक गुणसूत्र सामान्य आकार का X’ होता है तथा दूसरा गुणसूत्र छोटा होता है जिसे ‘Y’ गुणसूत्र कहते हैं। अत: स्त्रियों में ‘XX’ तथा पुरुष में ‘XY’ गुणसूत्र होते हैं।
♦ सभी बच्चे चाहे वह लड़का हो अथवा लड़की, अपनी माता से ‘X’ गुणसूत्र प्राप्त करते हैं। अत: बच्चों का लिंग निर्धारण इस बात पर निर्भर करता है कि उन्हें अपने पिता से किस प्रकार का गुणसूत्र प्राप्त हुआ है? जिस बच्चे को अपने पिता से ‘X’ गुणसूत्र वंशानुगत हुआ है वह लड़की एवं जिसे पिता से ‘Y’ गुणसूत्र वंशानुगत होता है, वह लड़का होता है।
विकास
♦ किसी समष्टि में कुछ जीन की आवृत्ति पीढ़ियों में बदल जाती है। यह जैव विकास की परिकल्पना का सार है।
♦ डार्विन के सिद्धान्त से हमें पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति के बारे में पता चलता है। डार्विन ने ‘प्राकृतिक वरण द्वारा जैव विकास’ के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया था। इस सिद्धान्त से यह पता चलता है कि पृथ्वी पर सरल जीवों से जटिल स्वरूप वाले जीवों का विकास किस प्रकार हुआ।
♦ डार्विन के अतिरिक्त लैमार्क ने भी जैव विकास से सम्बन्धित सिद्धान्त का प्रतिपादन किया था, जिसके अनुसार जीवों एवं इनके अंगों मे सतत् बड़े होते रहने की प्राकृतिक प्रवृत्ति होती है। इन जीवों पर वातावरणीय परिवर्तन का सीधा प्रभाव पड़ता है। इसके कारण जीवों में विभिन्न अंगों का उपयोग घटता-बढ़ता रहता है। अधिक उपयोग में आने वाले अंगों का विकास अधिक एवं कम उपयोग में आने वाले अंगों का विकास कम होने लगाता है। इसे ‘अंगो के कम या अधिक उपयोग का सिद्धान्त’ कहते हैं।
♦ अभी तक हमने जो कुछ भी समझा वह सूक्ष्म-विकास था। इसका अर्थ है कि प्रजातियों में विभिन्नताएँ उसे उत्तरजीविता के योग्य बना सकती हैं अथवा केवल आनुवंशिक विचलन में योगदान देती है।
♦ कायिक ऊतकों में पर्यावरणीय कारकों द्वारा उत्पन्न परिवर्तन वंशानुगत नहीं होते।
♦ विभिन्नताओं के भौगोलिक पार्थक्य के कारण प्रजातियकरण हो सकता है।
♦ विकासीय सम्बन्धों को जीवों के वर्गीकरण में ढूंढा जा सकता है।
♦ काल में पीछे जाकर समान पूर्वजों की खोज से हमें अन्दाजा होता है कि समय के किसी बिन्दु पर अजैव पदार्थों ने जीवन की उत्पत्ति की।
विकास एवं वर्गीकरण
♦ विभिन्न जीवों के मध्य समानताएँ हमें उन जीवों को एक समूह में रखने और फिर उनके अध्ययन का अवसर प्रदान करती हैं।
♦ बाह्य आकृति अथवा व्यवहार का विवरण अभिलक्षण कहलाता है। दूसरे शब्दों में, विशेष स्वरूप अथवा विशेष प्रकार्य अभिलक्षण कहलाता है। हमारे चार पाद होते हैं, यह एक अभिलक्षण है। पौधे में प्रकाश-संश्लेषण होता है, यह भी एक अभिलक्षण है।
♦ कुछ आधारभूत अभिलक्षण अधिकतर जीवों में समान होते हैं। कोशिका सभी जीवों की आधारभूत इकाई है। वर्गीकरण के अगले स्तर पर कोई अभिलक्षण अधिकतर जीवों में समान हो सकता है परन्तु सभी जीवों में नहीं।
♦ कोशिका के अभिकल्प का आधारभूत अभिलक्षण का एक उदाहरण कोशिका में केन्द्रक का होना या न होना है, जो विभिन्न जीवों में भिन्न हो सकता है। जीवाणु कोशिका में केन्द्रक नहीं होता, जबकि अधिकतर दूसरे जीवों की कोशिकाओं में केन्द्रक पाया जाता है। केन्द्रक युक्त कोशिका वाले जीवों के एककोशिकीय अथवा बहुकोशिकीय होने का गुण शारीरिक अभिकल्प में एक आधारभूत अन्तर दर्शाता है जो कोशिकाओं एवं ऊतकों के विशिष्टीकरण के कारण है।
♦ बहुकोशिकीय जीवों में प्रकाश-संश्लेषण का होना या न होना वर्गीकरण का अगला स्तर है। उन बहुकोशिकीय जीवों जिनमें प्रकाश-संश्लेषण नहीं होता, में कुछ जीव ऐसे हैं जिनमें अन्तः कंकाल होता है तथा कुछ में बाह्य कंकाल का अभिलक्षण एक अन्य प्रकार का आधारभूत अभिकल्प अन्तर है।
♦ दो प्रजातियों के मध्य जितने अधिक अभिलक्षण समान होंगे। उनका सम्बन्ध भी उतना ही निकट का होगा जितनी अधिक समानताएँ उनमें होंगी उनका उद्भव भी निकट अतीत में समान पूर्वजों से हुआ होगा।
जीवाश्म
♦ जैव-विकास को समझने के लिए केवल वर्तमान प्रजातियों का अध्ययन पर्याप्त नहीं है, वरन् जीवाश्म अध्ययन भी आवश्यक है।
♦ सामान्यतया जीव की मृत्यु के बाद उसके शरीर का अपघटन हो जाता है तथा वह समाप्त हो जाता है। परन्तु कभी-कभी जीव अथवा उसके कुछ भाग ऐसे वातावरण में चले जाते हैं जिसके कारण इनका अपघटन पूरी तरह से नहीं हो पाता। उदाहरण के लिए, यदि कोई मृत कीट गर्म मिट्टी में सूख कर कठोर हो जाए तथा उसमें कीट के शरीर की छाप सुरक्षित रह जाए। जीव के इस प्रकार के परिरक्षित अवशेष जीवाश्म कहलाते हैं।
♦ जीवाश्म कितने पुराने हैं? इस बात के आकलन के दो घटक एक है सापेक्ष। यदि हम किसी स्थान की खुदाई करते हैं और एक गहराई तक खोदने के बाद हमें जीवाश्म मिलने प्रारम्भ हो जाते हैं ॐ तब ऐसी स्थिति में यह सोचना तर्कसंगत है कि पृथ्वी की सतह के निकट वाले जीवाश्म गहरे स्तर पर पाए गए जीवाश्मों की अपेक्षा अधिक नये हैं। दूसरी विधि है ‘फॉसिल डेटिंग, जिसमें जीवाश्म में पाए जाने वाले किसी एक तत्त्व के विभिन्न समस्थानिकों का अनुपात के आधार पर जीवाश्म का समय निर्धारण किया जाता है। –
विकास के चरण एवं मानव विकास
♦ अस्तित्व लाभ हेतु मध्यवर्ती चरणों द्वारा जटिल अंगों का विकास हुआ।
♦ जैव-विकास के समय अंग अथवा आकृति नये प्रकार्यों के लिए अनुकूलित होते हैं। उदाहरण के लिए, पक्षियों के पर जो प्रारम्भ में उष्णता प्रदान करने के लिए विकसित हुए थे, कालान्तर में उड़ने के लिए अनुकूलित हो गए।
♦ ऐसे अंग जो समान कार्य के लिए उपयोजित हो जाने के कारण समान दिखाई देते हैं, परन्तु मूल रचना एवं भ्रूणीय परिवर्धन में भिन्न होते हैं, समरूप अंग कहलाते हैं। उदाहरण – तितली, पक्षियों तथा चमगादड़ के पंख उड़ने का कार्य करते हैं और दिखने में एक समान लगते हैं, परन्तु इन सभी की उत्पत्ति अलग-अलग ढंग से होती है।
♦ विकास को ‘निम्न’ अभिरूप’ से ‘उच्चरत’ अभिरूप की ‘प्रगति’ नहीं कहा जा सकता। वरन यह प्रतीत होता है कि विकास ने अधिक जटिल शारीरिक अभिकल्प उत्पन्न किए हैं जबकि सरलतम शारीरिक अभिकल्प भलीभाँति अपना अस्तित्व बनाए हुए हैं।
♦ जैव-विकास के सिद्धान्त का अर्थ कोई वास्तविक प्रगति नहीं है । विविधताओं की उत्पत्ति एवं प्राकृतिक चयन द्वारा उसे स्वरूप देना मात्र ही विकास है।
♦ मानव जैव-विकास के शिखर पर नहीं है, वरन् विकास श्रृंखला में उत्पन्न एक और प्रजाति है।
♦ मानव के विकास के अध्ययन से हमें पता चलता है कि हम सभी एक ही प्रजाति के सदस्य हैं जिसका उदय अफ्रीका में हुआ और विभिन्न चरणों में विश्व के विभिन्न भागों में फैला।
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